बुधवार, 22 जनवरी 2014

अँजुरी भर धूप

मौसम कैसा होगया है संवेदन-हीन
कोहरे में डूबी सुबह और दोपहर दीन ।

यह है उसकी बेरुखी या निर्मम अभिमान
धूप छुपा कबसे कहाँ, ओझल है दिनमान ।

उम्मीदों पर जम गया रातों-रात तुषार
सुलगा यादों के अलाव, काट रहे अँधियार ।

सरसों लिखना चाहती थी वासन्ती फाग
लेकिन बादल गारहे ,बेमौसम का राग  ।

भीगे पंख पखेरुआ हुए नीड में मौन
राहों के हिमखण्ड को आकर तोडे कौन ।

थर-थर पल्लव स्वप्न सब तुहिन कणों के घात
धुँआ हुई साँसें सुबह दूर्वा अश्रु निपात ।

क्षीण मलिन नदिया हुई ताल हुआ अपरूप
काश पुलिन पर आ बसे बस अँजुरी भर धूप

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा चित्रण किया है , मानव की कठिनाई का प्रकृति के माध्यम से नायब वर्णन

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  2. निष्कर्ष अनुकूल होंगे, भविष्य निष्ठुर नहीं

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  3. एक बार पहले भी कहा था मैंने कि कालिदास की रचनाओ6 की विशेषता उनकी उपमाएँ हुआ करती थीं!! और यही विशेषता आपकी रचनाओ6 में भी दिखाई देती हैं, चाहे दग्य हो या पद्य.. इस दोहावलि में प्रकृति की उपमाओं से सँजोकर आपने इस भयंकर शीत से जूझ रहे लोगों की दशा चित्रित की है!!
    एक सुखद अनुभूतो है इस रचना को पढ़ना!!

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  4. उम्मीदों पर जम गया रातों-रात तुषार
    सुलगा यादों के अलाव, काट रहे अँधियार ।
    ...वाह...बहुत सुन्दर और भावपूर्ण...

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  5. बहुत गहरे भाव और प्रभावशाली बिम्ब..

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  6. मौसम का मिजाज़ पकड़ लिया ... उपमान बहुत ही सुंदर हैं
    वाह

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  7. सुंदर उपमाओं से भरे मनमोहक दोहे।...वाह! आनंद दायक।

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  8. सुन्दर भावमय ... मनमोहक दोहे ... प्राकृति के विभिन्न रंगों से सजे ...

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