क्या हुआ कि
टहनियों के झुरमुट रोक लेते है राह
वर्जनाएं
लगाए खड़ी हैं
दीवारें
और मुँडेरें ‘
पर रुकता नहीं कभी ,
उतरना 'चाँदनी' का
आँगन में
।
किसी न
किसी झरोखे से
झाँक ही
जाती है वह
दबे
पाँव
भर देती है उजाला
कोने-कोने में।
कोने-कोने में।
आँखों
में , मन में . .
एक
नियामत ही तो है
यों उतर
आना 'चाँदनी' का
आँगन में .
आँगन में .
वर्जनाओं, बाधाओं के रोके कब रुका है प्रकाश... कब थमी है चाँदनी!! कारण बस इतना सा है की वो (चाँदनी) है, एक सत्य, एक यथार्थ! लेकिन वो जो उसे रोक सके अर्थात तम, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं। केवल उस चाँदनी की अनुपस्थिति ही अंधियारे का जीवन है। एक मिथ्या।
जवाब देंहटाएंफिर भला सत्य की चाँदनी का मार्ग बाधित कर सके इतना साहस किस दाल, छत, मुंडेर या अँधेरे में है। सत्य की उजास का कोई बाधक नहीं।
छोटी सी इस कविता में मुझे ओशो की वाणी और गीता का सन्देश दिख रहा है! प्रेरक कविता, दीदी!
बहुत सुंदर भाव.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : दिल का मलाल क्या कहा जाए
चांद की छाया समस्याओं के बीच कानों तक पहुंच ही जाती है। और समस्या भी चांद रात में सिमट जाती है। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंवर्जनाएं और रोकें एक अतिरिक्त आकर्षण का कारण बन जाती है ,मानस को सजग-सचेत कर आस्वाद गहरा देती है .
जवाब देंहटाएंरौशनी किसके रोके रुकी है ... घना अँधेरा भी नहीं कर सका ये काम ...
जवाब देंहटाएंऔर वर्जनाएं तो सदा उनको तोड़ने को प्रेरित करती रही हैं ...