(1)
पचहत्तर पार करती माँ
अब महसूस करती है ,
अब महसूस करती है ,
बेचैनी के साथ
कि वक्त , जो कभी
सुनहरा भविष्य हुआ करता था,
कि वक्त , जो कभी
सुनहरा भविष्य हुआ करता था,
गुजर गया है कभी का
वर्त्तमान होकर .
बिना बताए ,बिना पूछे
अपने साथ लेगया सारे अनुमान ,
वर्त्तमान होकर .
बिना बताए ,बिना पूछे
अपने साथ लेगया सारे अनुमान ,
उम्मीदों का सामान जाने कहाँ ! ..
उम्मीदें कि बच्चे बड़े होंगे ,
उम्मीदें कि बच्चे बड़े होंगे ,
पढ़ लिखकर काबिल बनेंगे,
नहीं सालेगा कभी किसी को
किसी तनाव का भाव
भाव का अभाव
जी सकेंगी कुछ दिन अपनी तरह से .
इसी तरह के स्वप्न देखती हुई माँ
नकार देती थी, आँगन -गली में
किसी तनाव का भाव
भाव का अभाव
जी सकेंगी कुछ दिन अपनी तरह से .
इसी तरह के स्वप्न देखती हुई माँ
नकार देती थी, आँगन -गली में
पसरा हुआ अँधेरा .
अँधेरा भी छँटगया धीरे धीरे
अँधेरा भी छँटगया धीरे धीरे
बच्चे बड़े हुए ,काबिल बने
पर शायद कहीं दबा छुपा रह गया है
पर शायद कहीं दबा छुपा रह गया है
अभाव का भाव ,
जो फैल रहा है रेगिस्तान सा .
कगार की ओर बढ़ती जा रही माँ के मन में
जो फैल रहा है रेगिस्तान सा .
कगार की ओर बढ़ती जा रही माँ के मन में
वह वर्त्तमान को
अनचाहे समाचार की तरह पढकर
सरका देतीं हैं किसी कोने में .
और जा बैठती हैं अतीत के आँगन में
बतियाने सुख-दुख अपने आप से
सरका देतीं हैं किसी कोने में .
और जा बैठती हैं अतीत के आँगन में
बतियाने सुख-दुख अपने आप से
हैरानी यह नही है कि नही है अब उसके पास कोई सपना अपना
हैरानी ..और उससे ज्यादा खेद है कि
सन्तानें नहीं दे पाती ,
शायद देना नहीं चाहती ,
माँ को कुछ नए सपने और ..
शायद देना नहीं चाहती ,
माँ को कुछ नए सपने और ..
उनके पूरा होने का विश्वास भी
या कि माँ को
या कि माँ को
आश्वस्त कर सकने लायक कोई सपना
उनके पास है ही नहीं .
(२)
माँ अब छोटो-छोटी बातों पर
बड़ी चिंताएं करती हैं
जैसे सुबह कोहरा देख आशंकित हो जाती है
पता नहीं आज सूरज निकलेगा भी या नहीं .
रजाई में दुबकी आतंकित सी
इंतजार करती हैं धूप का .
हर आधा घंटे में पूछती हैं--
हर आधा घंटे में पूछती हैं--
"अब कितने बजे होंगे ?
अरे ,अभी नौ ही ..?
दिन बहुत ही धीरे रत्ती-रत्ती सरक रहा है ?"
अरे ,अभी नौ ही ..?
दिन बहुत ही धीरे रत्ती-रत्ती सरक रहा है ?"
उन्हें याद नहीं रहता कि
आज नाश्ते में क्या खाया था ?
या कि कुछ खाया भी है या नहीं .
कि चाय ले चुकी हैं दो बार
और ,कि दवा की खुराक अभी ली नहीं है
एक बार भी .
या कि कुछ खाया भी है या नहीं .
कि चाय ले चुकी हैं दो बार
और ,कि दवा की खुराक अभी ली नहीं है
एक बार भी .
पूछतीं रहतीं हैं अक्सर
नाती-पोते की पढ़ाई और नौकरी के बारे में
कई बार सुनकर भी ध्यान नही रहता
कि बेटी तो कब की बन चुकी है
दो बच्चों की दादी भी .
नाती-पोते की पढ़ाई और नौकरी के बारे में
कई बार सुनकर भी ध्यान नही रहता
कि बेटी तो कब की बन चुकी है
दो बच्चों की दादी भी .
माँ ऐसे ही जी रही है .
अतीत को पी रही हैं चाय की तरह
पचहत्तर पार करती माँ ,
पचहत्तर पार करती माँ ,
यादों में बसाए हुए हैं गुजरे समय को
एक पश्चाताप के साथ ,
जो चला गया उनसे मिले बिना ही .
माँ ,
जो ,मुश्किलों को अनजाना अतिथि मानकर
वे उसे जल्दी ही चलता करने तैयार रहती थी ,
जो कभी नही डरती थीं
घर में निकले ,सांप, बिच्छू या
घाट पर रहते कथित मसान से भी,
अब डरती हैं गैस-चूल्हा जलाने या
टेलीविजन चालू करने में भी .
उससे भी ज्यादा डरतीं हैं माँ ,
किसी के नाराज होने से
अपने बीमार होने से ..
पर सबसे ज्यादा
बच्चों की परेशानी और असुविधा के ख्याल से
डरती है पचहत्तर पार करती माँ .
एक पश्चाताप के साथ ,
जो चला गया उनसे मिले बिना ही .
माँ ,
जो ,मुश्किलों को अनजाना अतिथि मानकर
वे उसे जल्दी ही चलता करने तैयार रहती थी ,
जो कभी नही डरती थीं
घर में निकले ,सांप, बिच्छू या
घाट पर रहते कथित मसान से भी,
अब डरती हैं गैस-चूल्हा जलाने या
टेलीविजन चालू करने में भी .
उससे भी ज्यादा डरतीं हैं माँ ,
किसी के नाराज होने से
अपने बीमार होने से ..
पर सबसे ज्यादा
बच्चों की परेशानी और असुविधा के ख्याल से
डरती है पचहत्तर पार करती माँ .
माँ तो माँ होती है ..भले ही सपने टूट जाए.. फिर भी वो सपने देखना नही छोड़्ती .. बहुत ही सुन्दर और सार्थक भाव बुना है गिरिजा जी...आभार ..
जवाब देंहटाएंविडंबना बड़े मार्मिक भावभरी है।
जवाब देंहटाएंयही विडंबना है जीवन की - विशेष रूप से नारी जीवन की. जिसे जीने के लिए कुछ निश्चित सीमाएँ मिली हैं जिनमें मातृत्व पाना और निभाते चले जाना है . आदत बनी रहता है, तब भी जब संततियाँ उस क्षेत्र से बाहर और वह बेबस उम्र के साथ अकेली उसी घेरे में घूमती बहकती.
जवाब देंहटाएंहर उम्र की अपनी सीमाएं होती हैं.. वृद्धावस्था भी एक भिन्न अहसास है..कुछ कुछ नन्हे बच्चे जैसा हो जाता है मन..
जवाब देंहटाएंसच कहूं तो हर शब्द कोरा सच है ... मैं माँ के बहुत करीब रहा हूँ और पल पल देखा है ... जब तक बच्चे थोते होते हैं उसपे निर्भर होते हैं वो तत्पर रहती है ... सपने पालती है पर उम्र के साथ उदासीन हो जाती है ... शायद बच्चों का ही कसूर है ये .. अपने मिएँ मस्त हो जाते हैं और अनजाने ही काँच तोड़ देते है ...
जवाब देंहटाएंदीदी!
जवाब देंहटाएंआज कविता के विषय में कुछ नहीं कहूँगा. बस कविता पढते हुये मन श्रद्धा से झुक गया - प्रकृति ने यह नेमत सिर्फ नारी को ही बख्शी है. जब भी नारियों को पुरुषों की बराबरी के लिये तत्पर देखता हूँ तो हमेशा यही बात मस्तिष्क में कौंधती है कि नारी को प्रकृति का सबसे अनुपम वरदान प्राप्त है फिर क्यों पुरुषों की बराबरी की बात करना. यही कारण है कि मैं हमेशा नारी के समक्ष शीष झुकाता हूँ, क्योंकि मुझे उसमें माँ नज़र आती है. बंगाल की विशेषता है कि वहाँ बेटी को माँ कहकर पुकारते हैं, इस नाते भी मैं ऋणी हूँ "माँ" का.
और हाँ, आपकी इस अभिव्यक्ति में (जैसा कि मैंने पहले भी आपकी कविताओं की 'समीक्षा' में लिखा है - आपकी व्यक्तिगत कविताएँ भी इतनी सार्वभौम होती हैं कि हर किसी को अपना व्यक्तित्व दिखाई देता है) जो माँ केन्द्र में हैं, मुझे उनसे बातकरने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तब जब आपको मैंने फ़ोन किया और आपका फ़ोन घरपर होने के कारण माँ ने फ़ोन उठाया. ठेठ बुन्देलखण्डी (?) बोली में उनकी बात तो समझ में आ ही गयी, लेकिन जो बात दिल में बैठ गयी वो थी मेरे लिये "लाला" का सम्बोधन. अचानक यह सम्बोधन मुझे मेरे बचपन में ले गया और आँखें भर आईं!
एक बार फिर माँ को प्रणाम करता हूँ और विलम्ब के लिये खेद व्यक्त करता हूँ!
माँ ने आपसे इस तरह बात की यह बहुत ही खास बात है . आप फोन पर इसका उल्लेख करना शायद भूल गए . माँ 'लाला' का प्रयोग बहुत आत्मीयता में ही करतीं हैं .
जवाब देंहटाएंBahut badhiya aur darawana chitran
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना .... गिरिजा जी
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त और भावप्रवण कविता है आपकी...| आपने तो न जाने कितनी उम्रदराज़ माओं की स्थिति का बिलकुल सटीक चित्रण कर डाला है...| कभी अपने समय में पूरी दबंगई से अपनी घर-गृहस्थी सम्हालती...बच्चों की देखभाल करती माओं को भी मैंने उम्र के एक ख़ास मोड़ पर पहुँच कर यूँ निरीह बनते, डरते देखा है...|
जवाब देंहटाएंएक खूबसूरत और मार्मिक रचना के लिए आपको बहुत बधाई...|
मानी
आभारी हूँ मानी जी ,ब्लॉग पर आने और मेरा उत्साह बढाने के लिए .
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