7 मई को श्रीमद्भागवत् का विधिविधान से
पारायण हुआ . नव मुकुलित सुमन
जैसे सुदर्शन कथावाचक शास्त्री श्री आकाश उनियाल जी जितने पौराणिक ग्रन्थों के ज्ञाता हैं उतने ही सरल और
विनम्र भी हैं .शाम को वे हमारे साथ सहज बैठकर पुत्रवत् बात करते थे . उर्मिला के विशेष
स्नेहभाजन आकाश इन आठ दिनों में मेरे भी उतने ही प्रिय बन गए . उनसे भागवत् कथा
विषयक कुछ जिज्ञासाओं का समाधान हुआ . देखा जाय तो आकाश अभी अध्ययन रत हैं लेकिन
जिस प्रगल्भता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कथावाचन किया वह उनके उज्ज्वल और
यशस्वी भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित करता दिखाई देता है .
सुस्वादु प्रसादी के पश्चात् हम सब एक बार फिर उर्मिला के साथ भगवान् बद्रीविशाल के दर्शन के लिये गए . उर्मिला ने तय किया था कि आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के बाद ही दर्शन करने जाएंगीं . उर्मिला घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास हर मुश्किल में राह बना देता है . यह भी सच है कि किसन जैसा भाई होना भी एक बड़ी नियामत है जीवन की . मैंने बहिन के लिये इस तरह का समर्पण कहीं किसी भाई में नहीं देखा .बद्रीनाथ धाम में यह आयोजन भाई किसन के बिना सम्भव नहीं था . उनकी पत्नी ऊषा भाभी भी बराबर सहयोग करती रही . सबसे बड़ी बात कि उन्होंने मेरा भी बराबर ध्यान रखा . किसन भाई कुछ वर्ष मेरे छोटे भाई सन्तोष के सहपाठी रहे थे . वे भी किसी विभाग में इंजीनियर हैं . किसन के अलावा पूरे आयोजन में रवि का भी बड़ा सहयोग रहा .वह कुशल ड्राइवर तो है ही इन्सान भी अच्छा है .विनम्रता और अपनेपन के साथ काम करता रहा .इसके पीछे उर्मिला और किसन की आत्मीयता भी है . इनके बीच रेखा को कैसे भूल सकती हूँ .छोटा कद ,दुबली पतली , विचारों से चालीस की उम्र में ही सत्तर साल जैसी गंभीरता और बड़प्पन . बहुत कम बोलने वाली ,समझ में हमसे भी आगे लेकिन बहिन उर्मिला के लिये पूर्ण समर्पित ..
देवप्रयाग |
8 मई को जब हमने उस पावन धाम से विदा ली तब मन में घर लौटने का उल्लास तो था लेकिन एक कसक भी थी कि आठ दिन बीत गए . क्या सचमुच हम ,..खास तौर पर मैं पूरी तरह इन्हें आत्मसात् कर पाई ? हम जाने क्यों वर्त्तमान को छोड़ अतीत या भविष्य की अँधेरी गलियों में कुछ खोजने का उपक्रम करते रहते हैं और खुद से ही जूझते रहते हैं .वर्त्तमान अनजिया सा ही गुज़र जाता है फिर अतीत बनकर सालता या आनन्दित करता रहता है . शायद ये आठ दिन भी कहीं भटकते हुए गुज़र गए प्रतीत हो रहे थे .पर आज उन्हीं को याद करते हुए एक प्यारा अनुभव सहेजे हूँ . ये पल हमारी पूँजी जैसे होते हैं .
लौटते हुए हमारे पास समय था इसलिये आराम से ठहरकर पंचप्रयाग (विष्णुप्रयाग नन्दप्रयाग रुद्रप्रयाग , कर्ण प्रयाग और देवप्रयाग) के दर्शन किये . प्रयाग यानी दो या अधिक नदियों का संगम . इस बार अनन्त सलिला अलकनन्दा हमारे साथ थी .या कि हम उसकी उँगली थामे चल रहे थे .बीच में गंगा की कोई धारा अलकनन्दा से मिलने आजाती है और वात्सल्यमयी अलकनन्दा दोनों बाहें पसारकर उसे अपने आँचल में समा लेती है .इस प्रकार विष्णुप्रयाग में धौली गंगा , नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी नदी,, कर्णप्रयाग में पिंडर नदी रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी अलकनन्औदा को और समृद्ध बनाती हैं . देवप्रयाग में अपनी चारों बहिनों के साथ अलकनन्दा भागीरथी से मिल जाती है . भागीरथी गंगोत्री से निकलकर आती हैइसे गंगा की प्रमुख धारा माना जाता है लेकिन ये छह बहिनें मिलकर गंगा बन जाती हैं व्यक्तिवाद के दायरे से बाहर स्थापित समाजवाद का अनुपम उदाहरण .
पौराणिक कथाओं में गंगा अवतरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है . गंगा जब स्वर्ग से उतरकर धरती पर आने लगी तो प्रवाह बहुत तेज था शिवजी की जटाओं से बहती गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि उसे कम करने के लिये शिवजी ने अपनी जटाओं में समा लिया और कई धाराओं में बाँटते हुए उतारा . सभी धाराएं गंगा की ही हैं केवल नाम अलग हैं . पंचप्रयागों में विभिन्न धाराएं मिलते हुए देवप्रयाग तक सब मिलकर गंगा बना जाती ,हैं .
हरिद्वार तक आते आते शाम होगई . सुबह किसन भाई ग्वालियर के लिये निकल गए और हम लोग निकल पड़े गोवर्धन के लिये .
मार्ग के आकर्षण |
गिरिराज गोवर्धन ,..जिसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा हेतु उँगली पर उठा लिया था, उस पर्वत को देखना ,उसकी पैदल परिक्रमा करना मेरा सपना था .जब हम पहुँचे शाम होने लगी थी . पैदल चलने का समय नहीं था . वैसे भी उर्मिला के लिये पैदल चलना बहुत कष्टकर होता .अँधेरा भी होने लगा था लेकिन परिक्रमा तो लगानी ही थी क्योंकि सुबह मुझे अनिवार्यतः ग्वालियर पहुँचना था . (हालाँकि उर्मिला साधु सन्तों व ब्राह्मणों को भोजन कराने हेतु एक दिन और वहाँ रुकने वाली थी) .अस्तु हमने परिक्रमा के लिये टमटम को चुना .
गिरिराज
के आसपास का वातावरण देख मुझे बड़ी निराशा हुई . मेरी कल्पना थी कि बस्ती से कुछ
हटकर पर्वत होगा . चारों ओर हरियाली होगी . पैदल चलने के लिये सुन्दर सुरम्य रास्ता होगा
.इतने महत्त्वपूर्ण पौराणिक स्थल के बारे में यह अपेक्षा गलत भी नहीं थी लेकिन
मकानों की भीड़ में पर्वत का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता था. मेरा पैदल चलने का इरादा रास्ता देखकर वैसे ही खत्म होगया ,क्योंकि पैदल चलने के लिये समुचित
रास्ता है ही नहीं . परिक्रमा के रास्ते में ही सड़क , मिठाइयों और दूसरी तमाम
चीजों की दुकानें , और पूरा बाजार भी शामिल है .कहीं कहीं कीचड़ और गन्दगी थी थी .परिक्रमा करते श्रद्धालुओं के साथ
ही बाजार की भीड़ ,मोटरसाइकिल ,कार ,और टमटम का सफर भी जारी था .सोचनीय स्थिति तो उन
आस्थावान यात्रियों की थी जो उस भीड़ और यातायात के बीच दण्ड लगाते हुए परिक्रमा कर रहे थे
..दुकानों चबूतरों पर बैठे लोगों के लिये वह मामूली बात थी . महज तमाशा .
हमने टमटम से परिक्रमा की पर लेकिन मुझे कहीँ पर्वत नहीं दिखा .लोगों के अनुसार पर्वत दिखता तो है पर कुछ ही जगहों से दिखता है .संभव है कि मेरी कल्पना जितना ऊँचा न हो . हमारा परिक्रमा का समय भी उपयुक्त न था .
लेकिन उस समय यही सोच रही थी कि केवल भगवान का नाम लेने से ,जयकारा लगाने से, उनके धाम पहुँचने मात्र से पुण्य मिल जाता है , इस जमी हुई धारणा ने हमारे धार्मिक स्थलों को किस तरह आडम्बर का
केन्द्र बना दिया है . जहाँ भी देखो न कोई व्यवस्था न सफाई का ध्यान ..खास तौर पर गोवर्द्धन में पण्डों पुजारियों का
प्रलोभन चरम पर दिखा .बद्रीनाथ धाम में यह बड़ी प्रेरक और सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ आडम्बर या प्रलोभन कहीं नहीं था .नगराज हिमालय के अंचल में अभी आचरण की शुद्धता बनी हुई प्रतीत होती है . यहाँ मन्दिर परिसर में छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ चन्दन लिये जिस तरह लोगों को रोक रोककर
तिलक लगाने का चेतावनी मिश्रित आग्रह कर रही थीं , उन्हें शिक्षा के
महत्त्व से हटकर धूर्त्त व्यावसायिकता और बिना कुछ किये धन कमाने के तरीके सिखाता है . बड़ी निराशा हुई कि इतने महत्त्वपूर्ण तीर्थ
में मुझे भक्ति की बजाय आडम्बर और अराजकता ही दिखी . भक्ति का अर्थ केवल दीपक
अगरबत्ती जलाकर आरती गाना नहीं होती . वह भक्ति का एक तरीका हो सकता है लेकिन भाव में जब तक
कातरता और कृतज्ञता नहीं हैं , समाज के प्रति दायित्त्वबोध नहीं है , भक्ति नहीं आडम्बर
है .मुझे परिक्रमा से सन्तुष्टि नहीं हुई . मेरे असन्तोष और दृष्टिकोण से उर्मिला
सहमत नहीं थी . वह अपनी जगह सही थी पर मेरा दृष्टिकोण भी गलत नहीं था बस हमारी सोच
दो दिशाओं में जा रही थी .
हैरानी यह कि अपनेआप में धार्मिक होने का दंभ पाले कुछ लोगों में न झूठ से परहेज होता है न प्रलोभन या बेईमानी से .उन्हें धार्मिक स्थलों में भी अतिक्रमण करते संकोच नहीं होता ..गिरिराज के आँगन में फैली बस्ती ,उस पावन धाम में व्याप्त अव्यवस्था मुझे यही बता रही थी , जहाँ तक मैंने अनुभव किया . हो सकता है वह सब तात्कालिक हो . यह तो पुनः वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा .फिर भी अतिक्रमण तो स्थायी सत्य है . मेरा विचार है कि प्रशासन को इस पावन गिरिराज परिसर को अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिये . और श्रद्धालुओं के लिये एक अलग यातायात से पृथक सुरक्षित मार्ग बनाना चाहिये .
मुझे
अगले दिन सुबह अनिवार्य रूप से ग्वालियर पहुँचना था इसलिये मैंने सुबह उर्मिला से
विदा ली .रवि ने ‘शताब्दी’ के लिये मुझे समय पर मथुरा स्टेशन पहुँचा दिया .वह
इस अनूठी अनुपम यात्रा का अन्तिम सोपान था .