गुरुवार, 16 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --अन्तिम भाग


7 मई को श्रीमद्भागवत् का विधिविधान से पारायण हुआ . नव मुकुलित सुमन जैसे सुदर्शन कथावाचक शास्त्री श्री आकाश उनियाल जी जितने पौराणिक ग्रन्थों के ज्ञाता हैं उतने ही सरल और विनम्र भी हैं .शाम को वे हमारे साथ सहज बैठकर पुत्रवत् बात करते थे . उर्मिला के विशेष स्नेहभाजन आकाश इन आठ दिनों में मेरे भी उतने ही प्रिय बन गए . उनसे भागवत् कथा विषयक कुछ जिज्ञासाओं का समाधान हुआ . देखा जाय तो आकाश अभी अध्ययन रत हैं लेकिन जिस प्रगल्भता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कथावाचन किया वह उनके उज्ज्वल और यशस्वी भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित करता दिखाई देता है .



सुस्वादु प्रसादी के पश्चात् हम सब एक बार फिर उर्मिला के साथ भगवान् बद्रीविशाल के दर्शन के लिये गए . उर्मिला ने तय किया था कि आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के बाद ही दर्शन करने जाएंगीं . उर्मिला घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास हर मुश्किल में राह बना देता है . यह भी सच है कि किसन जैसा भाई होना भी एक बड़ी नियामत है जीवन की . मैंने बहिन के लिये इस तरह का समर्पण कहीं किसी भाई में नहीं देखा .बद्रीनाथ धाम में यह आयोजन भाई किसन के बिना सम्भव नहीं था . उनकी पत्नी ऊषा भाभी भी बराबर सहयोग करती रही . सबसे बड़ी बात कि उन्होंने मेरा भी बराबर ध्यान रखा . किसन भाई कुछ वर्ष मेरे छोटे भाई सन्तोष के सहपाठी रहे थे . वे भी किसी विभाग में इंजीनियर हैं . किसन के अलावा पूरे आयोजन में रवि का भी बड़ा सहयोग रहा .वह कुशल ड्राइवर तो है ही इन्सान भी अच्छा है .विनम्रता और अपनेपन के साथ काम करता रहा .इसके पीछे उर्मिला और किसन की आत्मीयता भी है . इनके बीच रेखा को कैसे भूल सकती हूँ .छोटा कद ,दुबली पतली , विचारों से चालीस की उम्र में ही सत्तर साल जैसी गंभीरता और बड़प्पन . बहुत कम बोलने वाली ,समझ में हमसे भी आगे लेकिन बहिन उर्मिला के लिये पूर्ण समर्पित ..

देवप्रयाग

8 मई को जब हमने उस पावन धाम से विदा ली तब मन में घर लौटने का उल्लास तो था लेकिन एक कसक भी थी कि आठ दिन बीत गए . क्या सचमुच हम ,..खास तौर पर मैं पूरी तरह इन्हें आत्मसात् कर पाई ? हम जाने क्यों वर्त्तमान को छोड़ अतीत या भविष्य की अँधेरी गलियों में कुछ खोजने का उपक्रम करते रहते हैं और खुद से ही जूझते रहते हैं .वर्त्तमान अनजिया सा ही गुज़र जाता है फिर अतीत बनकर सालता या आनन्दित करता रहता है . शायद ये आठ दिन भी कहीं भटकते हुए गुज़र गए प्रतीत हो रहे थे .पर आज उन्हीं को याद करते हुए एक प्यारा अनुभव सहेजे हूँ . ये पल हमारी पूँजी जैसे होते हैं .


लौटते हुए हमारे पास समय था इसलिये आराम से ठहरकर पंचप्रयाग (विष्णुप्रयाग नन्दप्रयाग रुद्रप्रयाग , कर्ण प्रयाग और देवप्रयाग) के दर्शन किये . प्रयाग यानी दो या अधिक नदियों का संगम . इस बार अनन्त सलिला अलकनन्दा हमारे साथ थी .या कि हम उसकी उँगली थामे चल रहे थे .बीच में गंगा की कोई धारा अलकनन्दा से मिलने आजाती है और वात्सल्यमयी अलकनन्दा दोनों बाहें पसारकर उसे अपने आँचल में समा लेती है .इस प्रकार विष्णुप्रयाग में धौली गंगा , नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी नदी,, कर्णप्रयाग में पिंडर नदी रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी अलकनन्औदा को और समृद्ध बनाती हैं . देवप्रयाग में अपनी चारों बहिनों के साथ अलकनन्दा भागीरथी से मिल जाती है . भागीरथी गंगोत्री से निकलकर आती हैइसे गंगा की प्रमुख धारा माना जाता है लेकिन ये छह बहिनें मिलकर गंगा बन जाती हैं व्यक्तिवाद के दायरे से बाहर स्थापित समाजवाद का अनुपम उदाहरण .

पौराणिक कथाओं में गंगा अवतरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है . गंगा जब स्वर्ग से उतरकर धरती पर आने लगी तो प्रवाह बहुत तेज था शिवजी की जटाओं से बहती गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि उसे कम करने के लिये शिवजी ने अपनी जटाओं में समा लिया और कई धाराओं में बाँटते हुए उतारा . सभी धाराएं गंगा की ही हैं केवल नाम अलग हैं . पंचप्रयागों में विभिन्न धाराएं मिलते हुए देवप्रयाग तक सब मिलकर गंगा बना जाती ,हैं .

हरिद्वार तक आते आते शाम होगई . सुबह किसन भाई ग्वालियर के लिये निकल गए और हम लोग निकल पड़े गोवर्धन के लिये .

मार्ग के आकर्षण 

गिरिराज गोवर्धन ,..जिसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा हेतु उँगली पर उठा लिया था, उस पर्वत को देखना ,उसकी पैदल परिक्रमा करना मेरा सपना था .जब हम पहुँचे शाम होने लगी थी . पैदल चलने का समय नहीं था . वैसे भी उर्मिला के लिये पैदल चलना बहुत कष्टकर होता .अँधेरा भी होने लगा था लेकिन परिक्रमा तो लगानी ही थी क्योंकि सुबह मुझे अनिवार्यतः ग्वालियर पहुँचना था . (हालाँकि उर्मिला साधु सन्तों व ब्राह्मणों को भोजन कराने हेतु एक दिन और वहाँ रुकने वाली थी) .अस्तु हमने परिक्रमा के लिये टमटम को चुना . 

गिरिराज के आसपास का वातावरण देख मुझे बड़ी निराशा हुई . मेरी कल्पना थी कि बस्ती से कुछ हटकर पर्वत होगा . चारों ओर हरियाली होगी . पैदल चलने के लिये सुन्दर सुरम्य रास्ता होगा .इतने महत्त्वपूर्ण पौराणिक स्थल के बारे में यह अपेक्षा गलत भी नहीं थी लेकिन मकानों की भीड़ में पर्वत का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता था. मेरा पैदल चलने का इरादा रास्ता देखकर वैसे ही खत्म होगया ,क्योंकि पैदल चलने के लिये समुचित रास्ता है ही नहीं . परिक्रमा के रास्ते में ही सड़क , मिठाइयों और दूसरी तमाम चीजों की दुकानें , और पूरा बाजार भी शामिल है .कहीं कहीं कीचड़ और गन्दगी थी थी .परिक्रमा करते श्रद्धालुओं के साथ ही बाजार की भीड़ ,मोटरसाइकिल ,कार ,और टमटम का सफर भी जारी था .सोचनीय स्थिति तो उन आस्थावान यात्रियों की थी जो उस भीड़ और यातायात के बीच दण्ड लगाते हुए परिक्रमा कर रहे थे ..दुकानों चबूतरों पर बैठे लोगों के लिये वह मामूली बात थी . महज तमाशा .

हमने टमटम से परिक्रमा की पर लेकिन मुझे कहीँ पर्वत नहीं दिखा .लोगों के अनुसार पर्वत दिखता तो है पर कुछ ही जगहों से दिखता है .संभव है कि मेरी कल्पना जितना ऊँचा न हो . हमारा परिक्रमा का समय भी उपयुक्त न था . 

लेकिन उस समय यही सोच रही थी कि केवल भगवान का नाम लेने से ,जयकारा लगाने से, उनके धाम पहुँचने मात्र से पुण्य मिल जाता है , इस जमी हुई धारणा ने हमारे धार्मिक स्थलों को किस तरह आडम्बर का केन्द्र बना दिया है . जहाँ भी देखो न कोई व्यवस्था न सफाई का ध्यान ..खास तौर पर गोवर्द्धन में पण्डों पुजारियों का प्रलोभन चरम पर दिखा .बद्रीनाथ धाम में यह बड़ी प्रेरक और सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ आडम्बर या प्रलोभन कहीं नहीं था .नगराज हिमालय के अंचल में अभी आचरण की शुद्धता बनी हुई प्रतीत होती है . यहाँ मन्दिर परिसर में छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ चन्दन लिये जिस तरह लोगों को रोक रोककर तिलक लगाने का चेतावनी मिश्रित आग्रह कर रही थीं , उन्हें शिक्षा के महत्त्व से हटकर धूर्त्त व्यावसायिकता और बिना कुछ किये धन कमाने के तरीके सिखाता है . बड़ी निराशा हुई कि इतने महत्त्वपूर्ण तीर्थ में मुझे भक्ति की बजाय आडम्बर और अराजकता ही दिखी . भक्ति का अर्थ केवल दीपक अगरबत्ती जलाकर आरती गाना नहीं होती . वह भक्ति का एक तरीका हो सकता है लेकिन भाव में जब तक कातरता और कृतज्ञता नहीं हैं , समाज के प्रति दायित्त्वबोध नहीं है , भक्ति नहीं आडम्बर है .मुझे परिक्रमा से सन्तुष्टि नहीं हुई . मेरे असन्तोष और दृष्टिकोण से उर्मिला सहमत नहीं थी . वह अपनी जगह सही थी पर मेरा दृष्टिकोण भी गलत नहीं था बस हमारी सोच दो दिशाओं में जा रही थी .

हैरानी यह कि अपनेआप में धार्मिक होने का दंभ पाले कुछ लोगों में न झूठ से परहेज होता है न प्रलोभन या बेईमानी से .उन्हें धार्मिक स्थलों में भी अतिक्रमण करते संकोच नहीं होता ..गिरिराज के आँगन में फैली बस्ती ,उस पावन धाम में व्याप्त अव्यवस्था मुझे यही बता रही थी , जहाँ तक मैंने अनुभव किया . हो सकता है वह सब तात्कालिक हो . यह तो पुनः वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा .फिर भी अतिक्रमण तो स्थायी सत्य है . मेरा विचार है कि प्रशासन को इस पावन गिरिराज परिसर को अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिये . और श्रद्धालुओं के लिये एक अलग यातायात से पृथक सुरक्षित मार्ग बनाना चाहिये .

मुझे अगले दिन सुबह अनिवार्य रूप से ग्वालियर पहुँचना था इसलिये मैंने सुबह उर्मिला से विदा ली .रवि ने शताब्दी के लिये मुझे समय पर मथुरा स्टेशन पहुँचा दिया .वह इस अनूठी अनुपम यात्रा का अन्तिम सोपान था .  

मंगलवार, 14 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --3

भारत का प्रथम गाँव .

तीन दिन धूप के दर्शन नहीं हुए .कप़ड़े सुखाने तक के लाले पड़ गए .लेकिन चौथे दिन धूप आई किसी बहुप्रतीक्षित अपने की तरह . स्वागत के लिये लोग बाहर निकल पड़े .हिमाच्छादित शिखरों पर चाँदी बिखर गई .निष्पन्द मौन पड़ी गलियाँ , बाजार सब जाग गए . चेहरे खिल गए .अलगनी मुँडेरों , दीवारों पर कपड़े फैल गए . सूर्यदेव स्वामी हैं ग्रहों के ,धरती के , सबके जीवन के , प्रकृति के सारे कार्यकलाप सूर्य से चलते हैं . तीन दिन बाद आई धूप हमें यही समझा रही थी . यह भी कि बिना दुख के सुख , बिना खलनायक के नायक , बिना गर्मी के वर्षा या सर्दी के और बिना धूप के छाँव महत्त्व का पता नहीं चलता .

आसमान साफ हुआ तो आसमान में पीले लाल सफेद नीले हैलीकॉप्टर मँडराने लगे . रास्ते खुले तो पाँव चल पड़े . असल में बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थ भगवान बदरीविशाल का मन्दिर तो प्रमुख है ही ,साथ में और भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जिनमें माना गाँव , व्यास गुफा , भीम पुल , सरस्वती नदी ,वसुधारा जलप्रपात आदि स्थान पहले से आते रहे लोगों ने बताए .हमने माना गाँव देखना तय किया .वहीं भीम पुल ,सरस्वती नदी और व्यास गुफा भी हैं यानी एक पन्थ चार काज .

लगभग 17000 फीट की ऊँचाई पर बसे माणा गाँव को कई पौराणिक रहस्यों वाला गाँव माना जाता है . यहाँ से पांडवों ने स्वर्गारोहण किया तथा यहीं व्यास जी ने महाभारत की रचना की . गाँव का माणा नाम मणिभद्र देव के नाम पर पड़ा है . यहाँ रडंपा जाति के मेहनती और खुशमिजाज लोग रहते हैं . उत्तर दिशा के इस कोण में यह भारत का आखिरी गाँव है . इसलिये इसे पहले अन्तिम गाँव ही कहा जाता था .  2022 में मोदी जी ने इसे प्रथम गाँव कहा . तबसे इसे प्रथम गाँव के नाम से जाना जाता है .


हम जैसे ही कार से उतरे कई दुबले पतले बच्चे बूढ़े ( जो उम्र से जवान थे वे भी तन से बूढ़े ही लगते थे) डोली (पिट्ठू)पीठ पर बाँधे आगे बहुत ऊँचे और कठिन रास्ते

का वास्ता देते हुए डोली लेने मनुहार कर रहे थे .मुझे तो पैदल ही जाना था लेकिन जो बैठना चाहते थे ,वे उनसे घिस घिसकर मोलभाव कर रहे थे . ग्राहक छूट न जाए इस बेवशी में वे कम से कम दाम पर भी तैयार होजाते थे .यही उनकी जीविका है . वे यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं . एक भारी भरकम सवारी ,जिसने मोलभाव करके किराया काफी कम करा लिया ,को पीठ पर लादे एक दुबले से युवक को देख हृदय में बड़ी हलचल मच रही थी . 
असहाय बीमार लोगों को तो विवश होकर पिट्ठू लेना ही पड़ता है .स्वस्थ लोगों को भी ले लेना चाहिये लेकिन उस पर मोल भाव करना मुझे बहुत निकृष्ट लगता है . होटलों पार्लरों में बिना हील हुज्ज़त किये हजारों रुपए शान से देने वाले लोगों को ऐसी जगह बचत सूझती है . नही सोचते कि आखिर वे आपका वजन उठा रहे हैं .कीमत से कहीं बढ़कर बात है यह . ये लोग किसी अभाव के लिये ईश्वर से शिकायत नहीं करते . जो मिला है उसे स्वीकार करते हैं इसलिये मुक्त रहते हैं .
अलकनन्दा


भीमपुल

माना गाँव में घूमना एक अद्भुत अनुभव हैं .साफ सुथरे ऊपर चढ़ते हुए चट्टानी रास्ते जिन्हें चढ़ते हुए साँस फूलती है लेकिन दोनों तरफ रंगबिरंगे परिधानों में वृद्धा हों , युवती हों या किशोरी स्वेटर मौजे टोप मफलर बुनते हुए देख हृदय गद्गद होता है .पहाड़ों में विपन्नता (भौतिक रूप मे) के बीच भी उनके चेहरों में धैर्य और सन्तोष देखकर विस्मय भी .हिमालय की गोद में पल बढ़ रहे ये लोग सृजन और परिश्रम से अपने समय को सार्थक बनाते हैं .इनके अलावा दूसरी दुकानें अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों रस्सी की कलाकृतियों और बुरांश के गहरे गुलाबी शरबत की बोतलों से सजी थी . गाँव के शिखर पर व्यास पोथी , गणेश मन्दिर , माता मन्दिर और व्यास गुफा है . व्यास पोथी देख आश्चर्य होता है .चट्टान की परतें किसी पुस्तक जैसी ही ही लगती है . कहा जाता है कि यहीँ वेदव्यास जी ने महाभारत जैसा महान ग्रन्थ लिखा था .ऐसा सृजन पर्वत की शान्त नीरव गोद में गहन मनन चिन्तन के बाद ही हो सकता है व्यास गुफा में उस समय कृष्ण भजन गाए जा रहे थे .बड़ा ही पवित्र वातावरण था .

वहीं पास एक चाय की दुकान है . बोर्ड पर लिखा है –'भारत की अन्तिम चाय की दुकान. एक बार सेवा का मौका अवश्य दें .’  यह  न भी लिखा होता तब भी मैं ज़रूर वहाँ चाय लेना चाहती . ऐसी दुर्गम जगहों में लोग यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं .बिक्री से ही उनकी रोजी रोटी चलती है . यात्रियों को कुछ न कुछ अवश्य लेना चाहिये . हम सबने वहाँ चाय पी . मैगी बिस्किट व समोसा आदि नाश्ता भी ड्राइवर संजय और रवि ने नाश्ता भी लिया ...फिर नीचे उतरकर भीम पुल देखा .कहा जाता है कि द्रौपदी को नदी पार कराने के लिये भीम ने यह पुल बनाया था .पाण्डव स्वर्ग जाने के लिये इसी पुल से निकलकर गए थे ..वहाँ चट्टानों के बीच से बहती धारा को सरस्वती नदी का उद्गम बताया जाता है . कुछ ही दूर आगे चलकर सरस्वती की धारा अलकनन्दा में समा जाती है . दोनों नदियों का संगम स्थल केशवप्रयाग कहा जाता है .

लौटते हुए मैंने बुराँश के शरबत की दो बोतलें खरीदी . साथियों ने भी कुछ न कुछ सामान खरीदा .सचमुच माना गाँव को देखे बिना बद्रीनाथ धाम यात्रा पूरी नहीं होती . 

आगे भी जारी....    

रविवार, 28 अप्रैल 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा -2




बद्रीनाथ धाम यात्रा -1


 30 अप्रैल 2023

विशाल बदरीनारायण मन्दिर और अलकनन्दा 

नर और नारायण पर्वत श्रंखलाओं के बीच रंगों और फूलों से सज्जित बदरी विशाल का भव्य मन्दिर , नील-हरिताभ ( फिरोजी रंग ) धारा वाली निर्मल अलकनन्दा, और घाटी में सीपियों के ढेर जैसा बद्रीनाथ कस्बा जैसे देवताओं की नगरी . मैं विश्वास करना चाहती थी कि मेरी ऐसी कल्पनाएं सच हो चुकी है . सुबह नींद जल्दी खुल गई . बल्कि कहना चाहिये कि सुबह जल्दी होगई .सूर्य रश्मियाँ सबसे पहले शिखरों पर उतरती हैं .फिर क्या वे हमें सोने देतीं ! दूर दूर तक हिमाच्छादित धवल शिखर सुनहरी किरणों के साथ रंग मिला रहे थे . पहाड़ों के प्रति मेरा आकर्षण अनायास ही है .उच्चता के प्रतीक इन उत्तुंग शिखरों को देखकर नत सिर होजाती हूँ. चढ़ना कठिन होता है चाहे पहाड़ हो या चरित्र पहाड़ों को दम साधे मजबूत इरादों के साथ चढ़ा जाता है .चारित्रिक दृढ़ता के लिये अपने मन को नियंत्रित रखना पड़ता है . पाँव पाँव चढ़ने और साधन द्वारा ऊपर पहुँचने में वहीं अन्तर है जो नकल करके अच्छे नम्बर लाने और गहन अध्ययन करके परिणाम पाने में होता है .

30 अप्रैल का दिन खाली था . कथा एक मई से शुरु होनी थी . तय हुआ कि आज भगवान के दर्शन किये जाएं . रवि ऐसे कामों में बड़ा सहायक था .उसने बताया कि दर्शनों के लिये सुबह तीन तीन किमी लम्बी लाइन लगती है अभी बहुत छोटी सी है .मैं तो तैयार ही थी ,साथ में सुनीता ,ऊषा भाभी ,रेखा दर्शनों के लिये चल पड़े . काफी नीचे ढलान के बाद अलकनन्दा का पुल है फिर लगभग पचास मीटर ऊँचाई पर शीश ताने भगवान बदरीनारायण का भव्य मन्दिर है जिसे लाल पीले फूलों से सजाया हुआ था .

मुझे यह देख कर आश्चर्य से अधिक हैरानी हुई कि इतना दिव्य भव्य और सनातन का सर्व प्रमुख मन्दिर आसपास की इमारतों में छुप गया है . वह अलकनन्दा के तट पर जाकर दिखाई दिता है . पुराने चित्रों में मन्दिर के आसपास कोई मकान नहीं है पर अब मन्दिर से अधिक बाजार है . दर्शनार्थियों के लिये व्यवस्थित लाइन नहीं थी


.कितनी ही भीड़ हो अगर सही व्यवस्था हो तो दर्शन आसान होजाएं ..रवि जिसे कम कह रहा था उतनी भीड़ भी बहुत ज्यादा थी . अच्छे भले आदमी को कुचल सकने लायक . मैं कुचली तो नहीं गई पर बेहाल ज़रूर हुई . हाँ अन्दर भगवान के समक्ष जो अनुभुति हुई वह अनिर्वचनीय है . सब कुछ पा लेने

जैसा अहसास .केवल एक यही सत्य है और कुछ नहीं . निःशेष होजाना ही शायद मुक्ति है . सारी लालसाएं ,आशाएं शून्य . पर यह क्षणिक था . अगले ही पल धक्कों ने बाहर कर दिया .मुझे लगता है इतनी भीड़ में ऐसे स्थानों पर जाना केवल मन को समझाना है कि हमने दर्शन कर लिये .साथ चलते लोगों को पीछे धकेलकर ,आगे निकलने की प्रवृत्ति ने आस्था को पीछे छोड़ दिया है .एक ही भाव रहता है कि किसी तरह आगे निकलो भगवाने के सामने जाकर कुछ माँगलो और मिल गया दर्शनों का लाभ .पूरी आत्मीयता और कृतज्ञता के साथ ईश्वर के सामने खुद को रखना तो हो ही नहीं पाता . जब तक हृदय द्रवित न हो डोर वहाँ तक नहीं पहुँचती . भीड़ में धक्का खाते कुचलते आस्था कहीं बिखर जाती है . मेरे विचार से हर रजिस्ट्रेशन करने वाले यात्री को दर्शनों की तारीखें और समय दे दिया जाय तो धक्का मुक्की और दूसरी मुश्किल से बचा जा सकता है . यह सोचनीय है कि हमारे तीर्थस्थलों को भी लोगों ने पिकनिक स्पॉट बना लिया है .यातायात की सुविधा ने जहाँ जीवन को आसान बनाया है वहीं प्रदूषण गन्दगी के साथ जीवन को कृत्रिमता की ओर धकेला है.


मन्दिर के नीचे अलकनन्दा को देखना तकलीफदेह था . नदी के आस पास भी निर्माण कार्य जारी हैं. आसपास कंकरीट और मलबे के ढेर कारण धारा सँकरी होगई .पर्याप्त जगह न पाकर सौम्य जीवनदायिनी अलकनन्दा की गर्जना भय उत्पन्न करती है मानो कह रही हो कि तुम मेरी सीमाएं दबा रहे हो ,कल मेरे कारण तुम्हारे प्राणों पर आ बने तो मुझे दोष मत देना .भूल गए उस प्रलय को .

विकास के लिये पहाड़ों का सीना चीरते देखकर क्या कम कष्ट हुआ . अच्छी सड़कों के कारण अधिक से अधिक वाहन आ रहे हैं .नई पार्किंग के लिये जगह चाहिये . लोगों को ठहरने के लिये गेस्टहाउस , धर्मशाला चाहिये .ज्यादा लोगों के लिये बाजार भी विस्तार ले रहा है .बाजार प्रकृति को निगल रहा है .धरती की छाती पर बुडोजर चलाए जा रहे हैं .पहाड़ों के हाथ काटे जा रहे हैं . सच कहूँ तो इस विचार के बाद मेरा मन थोड़ा अशान्त होगया . मानव को सुविधाएं भी चाहिये , एक दिन वह बिगड़े पर्यावरण , अति वृष्टि अनावृष्टि की शिकायत भी करेगा ..कर रहा है . कहावत है कि ,हँसलो या गाल फुलालो . अगर जाने की क्षमता नहीं है तो क्यों जाना तीर्थों में . क्यों चाहिये हैलीकॉप्टर ..


1मई को सुबह अलकनन्दा से विधिवत् पूजन के बाद कलश भरकर लाए गए और श्रीमद्भागवत् कथा प्रारम्भ हुई . कथावाचक श्री आकाश उनियाल थे . साथ ही उनके पिता और अन्य परिजन भी बैठे . मेरी योजना कथा के बीच ही वहीं से रवि या किसी अन्य विश्वासपात्र के साथ केदार नाथ गंगोत्री  यमुनोत्री जाने की थी लेकिन उसी दिन बारिश और उसके बाद हिमपात शुरु होगया था . केदारनाथ धाम की यात्रा स्थगित करदी गई ..हिमपात देखना अनूठा अनुभव था . इसे देखने लोग हफ्तों इन्तज़ार करते हैं . पर हमें वह सहज उपलब्ध हुआ . सर्दी काफी बढ़ गई थी . कहीं आना जाना संभव नहीं था . लेकिन उस कड़कती सर्दी मैं बच्चे बूढ़े एक एक वस्त्र में लिपटे दर्शनार्थ चले आरहे थे . यह उनकी आस्था का ही बल था .खराब मौसम के बावजूद ,सारी सुविधाएं ,गरम पानी ,चाय नाश्ता ,खाना सारी व्यवस्थाएं सुचारु थीं इसके लिये भाई किसन और भाभी ऊषा का विशेष सहयोग रहा .रवि भी बराबर सहयोग करता रहा . उर्मिला घुटनों के दर्द से परेशान थी लेकिन व्यवस्थाओं में कहीं कोई कमी नहीं आने दी .यह बात मुझे निश्चित ही प्रभावित कर रही थी . मैं यह देखकर भी चकित थी . 

आगे भी जारी.... 



शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

मेरी बद्रीनाथ धाम यात्रा .

 


27 अप्रैल 2023 की सुबह जब मैंने उर्मिला के साथ हरिद्वार के लिये प्रस्थान किया तो मन में उल्लास जिज्ञासा और इस संयोग पर कुछ विस्मय भी था .उल्लास व जिज्ञासा नए स्थान के प्रति तथा विस्मय इस बात का कि पूर्व नियोजित कार्यक्रम कई बार असफल होते देखे गए हैं ,जबकि यह अचानक बना कार्यक्रम था जो किस तरह पूरा होगया था .

उर्मिला मेरी स्कूल की मित्र है . सन् 1972-73 में उससे मेरा परिचय तब हुआ जब मैंने हायर सेकेण्डरी स्कूल पहाड़गढ़ में नौवीं कक्षा में प्रवेश लिया था .हमारा केवल दो साल साथ रहा लेकिन बचपन की मित्रता तो जीवनभर की होती है . वर्षों तक हम नहीं मिलीं पर जब मिली तो साथ संवाद का सिलसिला चल पड़ा और उसने अपने श्रीमद्भागवत साप्ताह कथा में शामिल होने का आग्रह किया जो वह बद्रीनाथ धाम में करवाने जा रही थी . उसका अधिकांश समय पूजा भजन और हरिद्वार, वृन्दावन में बीतता है . अब तक वह तीन बार श्री मद्भागवत् कथा पाठ करवा चुकी थी .चौथा आयोजन बद्रीनाथ धाम में था .

इस दृष्टि से हमारे मेल का प्रमुख आधार प्रेम है .वरना कई कारणों से मैं तो घर में अखण्ड-रामायण का सार्वजनिक पाठ तक नहीं करवा सकी हूँ . पूजा भी बस नियम पूर्त्ति जैसी होती है . मित्र मानती हूँ . इसी के आधार पर जिस भाव से उसने मुझे बद्रीनाथ धाम चलने का प्रस्ताव रखा , और मैं 27 अप्रैल 2023 को मैं उर्मिला के साथ उसकी वैगन आर में सवार हो चुकी थी .  

बद्रीनाथ केदारनाथ गंगोत्री यमुनोत्री ये उत्तराखण्ड के चार धाम हैं जिनके प्रति बचपन से ही बड़ा आकर्षण था .चाहा तो था कि चारों ही तीर्थ होजाते पर सोचा कि एक बद्रीनाथ धाम होजाना भी बड़ी उपलब्धि होगा . इस बार मैंने अलकनन्दा के तट पर बसे इस पावन धाम के बारे में कुछ जानकारियाँ भी हासिल कीं  .ऋषिकेश से लगभग 294 किमी दूर बद्रीनाथधाम चमोली जनपद में लगभग 3133 मीटर ऊँचाई पर स्थित है .अक्टूबर नवम्बर में मन्दिर के कपाट बन्द होजाते हैं .अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित होती रहे इसके लिये छह माह के घी की व्यवस्था की जाती है .उस दिन विशेष पूजा के साथ बदरीनारायण भगवान नीचे चालीस किमी दूर जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) के नरसिंहभगवान के मन्दिर में विराजमान होते हैं .जो अक्षय तृतीया तक वहीं निवास करते हैं .यह सब पढ़कर बड़ा आश्चर्य व रोमांच हुआ . एक और बड़ी प्रेरक और सुखद आश्चर्य की बात कि देश की उत्तरी सीमा पर स्थित इस मन्दिर में

 केरल के पुजारी होते हैं जिन्हें रावल कहा जाता है .गंगोत्री के जल से रामेश्वरम् का अभिषेक करने पर ही यात्रा का पुण्य मिलना , केदारनाथ में भी कर्नाटक का पुजारी होना .ऐसे प्रावधान देश की एकता और अखण्डता के लिये कितने आवश्यक हैं , महत्त्वपूर्ण हैं ,कहने की ज़रूरत नहीं . हमारी धार्मिक मान्यताओं को महज अन्धविश्वास कहना गलत है .उनके पीछे कोई न कोई सदुद्देश्य होता है .

विष्णु भगवान के तीर्थ का नाम बद्रीनाथ धाम क्यों पड़ा इसके पीछे कई कथाएं है यहाँ एक देना ठीक रहेगा कि किसी युग में वहाँ बदरिका (बेर) के पेड़ो की बहुतायत थी .

हरिद्वार पहुँचते पहुँचते अँधेरा होगया था . हमारा रात्रि विश्राम वेदान्त आश्रम में था .गंगा जी के परमार्थ घाट के निकट स्थित वेदान्त आश्रम सुन्दर स्वच्छ और सर्वसुविधायुक्त और धार्मिक वातावरण वाला आश्रम है .हरिद्वार में प्रवास के इच्छुक लोगों के लिये तो व्यवस्था है ही ,निराश्रित गरीब बच्चों के पालन व शिक्षा की व्यवस्था भी है उर्मिला यहाँ आती रहती है . वहाँ श्रीमद्भागवत् का साप्ताहिक पाठ तो करवा ही चुकी है ..इसलिये वातावरण परिवार जैसा ही है . शाम को उर्मिला के भाई किसन (कृष्णकुमार) भाभी ऊषा, नोइडा से चचेरी बहिन सुनीता  ,उसके पति प्रशान्त और बेटी भी हरिद्वार पहुँच गए .क्योंकि धाम के लिये 29 अप्रैल का प्रस्थान था इसलिये 28 को ऋषिकेश दर्शन का लाभ लिया . रवि त्यागी कहने को कार चालक की भूमिका में था लेकिन वह परिवार का सदस्य ही माना जाता है उसी तरह हर कार्य में हाथ बँटाता है . मैं , भाभी ऊषा और उर्मिला की छोटी बहिन रेखा तीनों रवि के साथ ऋषिकेश चले गए .वहाँ मैं पहले जा चुकी हूँ लेकिन इस बार हमारे पास काफी समय था . गंगा जी का विशाल अतुलित प्रवाह, सौन्दर्य और वैभव देखकर मन आनन्दमय और कृतकृत्य होगया . लक्ष्मण झूला अब बन्द कर दिया गया है .उसकी जगह सुन्दर अपेक्षाकृत चौड़ा जानकी झूला बन गया है .राम झूला अधिक व्यस्त था .बाइक साइकिल पैदल ..सब मिलकर काफी भीड़ थी . मेरे विचार से रामझूला का उपयोग गाड़ियों के लिये नहीं होना चाहिये .

29 अप्रैल की सुबह हम लोग तीन गाड़ियों में ढेर सारे सामान घी ,आटा तेल मसाले सब्जियाँ आदि के साथ बद्रीधाम की ओर चल पड़े . वहाँ लगभग पन्द्रह लोग आठ दिन रुकने वाले थे .  

बद्रीनाथ धाम का रास्ता बहुत सुन्दर और आसान बना दिया गया है . छोटी सी वैगनआर दुर्गम पहाड़ों के बीच मानो सर्राटे भरती जा रही थी .मुझे याद है जब मेरी नानी चार धाम के लिये गईँ थीं , उन्हें भजन कीर्त्तन के साथ भरी आँखों  विदा किया था .मां तो लिपटकर रोने लगीं थीं . सीधा मतलब था कि उस महीनों की दुर्गम यात्रा के बाद लौटने की उम्मीद बहुत कम रहती थी .

बीच में देवप्रयाग जैसे मनोरम स्थानों पर मेरा मन फोटो लेने के लिये कसमसाता रहा लेकिन उस दिन तो समय से धाम पहुँचने की जल्दी थी . केवल एक जगह चाय नाश्ते के लिये रुके . धाम से कुछ ही दूर पहले बारिश शुरु होगई इसलिये गन्तव्य तक पहुँचने में कुछ देर लगी . रुकावट भी आई . यातायात सुलभ होजाने के कारण हर तीर्थस्थल की तरह बद्रीनाथ धाम में भी कारों और बसों का कफिला कई बार महानगर जैसा ट्रैफिक जाम कर देता है . उस समय भी ऐसा ही था . लेकिन सद्गुरु आश्रम पहुँचकर सबने राहत की साँस ली . अनुभवी और अच्छा साथ हो ,कुशल ड्राइवर हो तो बाधाएं चिन्तित नहीं करतीं सद्गुरु आश्रम में पाँच--छह कमरे और कथा वाचन के लिये हॉल ,रसोई सब पहले ह ही  ही बुक कर लिये गए थे . मुझे सुबह की प्रतीक्षा थी जब मैं उजाले में सब देख सकूँगी .

आगे जारी.....

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

पुरस्कार--महात्म्य (व्यंग्य)

आप अगर मुझसे पुरस्कार की परिभाषा लिखने को कहें तो वह कुछ इस तरह होगी--–"पुरस्कार लोहे को सोना बना देने वाला पारस है .किसी गुमनाम बस्ती में किसी मंत्री या सांसद का आगमन है .अँधेरी गली में लगा दिया गया बल्व है .अनावृष्टि में जूझती उम्मीदों के लिये एक बाल्टी पानी है. लेखन रूपी फसल के लिये खाद पानी है . पुरस्कार-विहीन लेखन बिना विज्ञापन के बेचा जा रहा प्रॉडक्ट है , बिना लाउडस्पीकर के किसी कोने में गुनगुनाया गया गीत है ,बिना बैंडबाजे की बरात है , अरण्य रोदन है . जंगल में नाचता हुआ मोर है .कारों के बीच रेंगता साइकिल सवार है . भरे वसन्त में फूल पत्र विहीन खड़ा पेड़ है .मंच पर बिना हाव ,भाव और सुर ताल के सुनाई गई कविता है ...वगैरा वगैरा

मंच से याद आया कि मंच पर श्रोताओं का ध्यान ,सम्मान मिलना भी किसी पुरस्कार से कम नहीं है . श्रोताओं को बाँधे रखना और उनसे तालियाँ बजवा लेना कोई हंसी खेल नहीं है .उसके लिये बड़ा अभ्यास और लगन चाहिये . कविता (कहीं से चुराई भी चलेगी) किसी मंत्र की तरह सिद्ध हो ,आवाज में सुर और बुलन्दी हो .श्रोताओं की आँखों में झाँककर अपनी बात इस विश्वास के साथ सकने का कौशल हो कि श्रोता वाह वाह कहने , तालियाँ बजाने विवश होजाय ..भाई साहब वह है मंच पर काव्यपाठ . .डायरी या मोबाइल लेकर पढ़ने वाले तो जैसे आते हैं , चले जाते हैं . इसके लिये माइक से गहरा मोह और अभिनय , सुर लय का ध्यान भी बहुत काम आता है . मंच पर कविता पढ़कर लोकप्रियता की चाह रखने वाले बन्धु ,भगिनी इन सूत्रों को अवश्य अपनाएं . उल्लेखनीय है कि मंच पर जमने वाले कवि साथी कवियों के समय की चिन्ता जूतों /चप्पलों के साथ ही छोड़ आते हैं . फिर चाहे वे कुढ़ते हुए उसकी तुलना अपने चिपकू पड़ोसी से करते रहें .
ध्यान रहे कि जो लोग मंचीय कविता को कमतर नज़रों से देखते हैं वे हीनता के यानी एहसासे कमतरी के शिकार होते हैं . सच्ची .
मंच हो या साहित्यिक पुरस्कार , दोनों का ही पहला लाभ तो यह कि जो लोग सोशल मीडिया पर आपके नाम को देख नाक सिकोड़कर निकल जाते थे वे अचानक आपके घनिष्ठ बन जाते हैं . नाकुछ शब्दों में बहुत कुछ खोजकर निकाल लेते हैं .निरर्थक से वाक्य या ,एक सादा सी सेल्फी पर ही बलिहारी जाते हैं .कमेंट्स की बौछार कर देते हैं .रचनाओं पर भली सी समीक्षाएं लिखकर निकटता जताते हैं मन न हो तब भी आपकी मामूली सी बात को लाइक करते हैं . 
सबसे बड़ी बात यह कि पुरस्कार में दाम के साथ नाम भी मिलता है . नाम की बड़ी महिमा है. कवियों ने ,“राम से बड़ा राम का नाम…” कहा है . दुनिया नाम के लिये ही मरती है . दुनियाभर में सत्ता और धन के अलावा जिस चीज के लिये भागदौड़, आपाधापी ,खींचतान , नोंच-खसोट और मारकाट मची है , वह  नाम ही है . आज नाम में क्या रखा है ..” ,कहने वाला शख्स ज़िन्दा होता तो खुद के लिखे पर ही बहुत पछता रहा होता . सभी प्रबुद्धजन से माफी माँग रहा होता खैर..
अरे नाम से याद आया, नामी लोगों का सम्पादक के साथ भी एक आत्मीय रिश्ता बन जाता है . सम्पादक उनकी मामूली रचनाओं को भी सिर माथे लेकर छापते हैं .जानते हैं .पूरी पत्रिका में एक दो रचनाएं ऐसे ही पड़ी रहें पत्रिका की सेहत पर भला क्या असर होने वाला है .वैसे भी छोटी बड़ी हर पत्रिका में कुछ रचनाएं फालतू होती ही हैं ,ज़ाहिर है कि वे उनके कुछ पालतू रचनाकारों की होती हैं .
असल में सम्पादक वर्ग ऐसी प्रजाति है जो विधाता की तरह रचनाकार के पालक और संहारक दोनों का दायित्त्व निभाता है. राई को पर्वत और पर्वत धूल कर देने वाली क्षमता . न छापनी हो तो ठीक ठाक रचना को भी खेद सहित लौटादे .भले ही रचना बूमरेंग की तरह लौटकर रचनाकार को घायल करदे उन्हें क्या . जानते हैं कि प्रकाशन के बिना लेखन दो कौड़ी का भी नहीं . छपने और लिखने में परस्पर जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध है .सभी छपने के लिये ही लिखते हैं ..
अब भैये , इसमें तो कोई शक सुबहा नहीं हैं कि हमारे यहाँ नाम और पद पूजा जाता है ,काम नहीं . सरकारी कार्यालयों में एक गुणी अनुभवी कर्मचारी ,पिछवाड़े लगी सीढ़ी से ऊपर चढ़ आए अपने नौसिखिया अधिकारी की लानत मलामत सहकर भी हाथ जोड़े रहता है और उसके सामने खुद को अनुभवहीन स्वीकारता रहता है . इससे अच्छा हो कि हाथ जोड़ने की बजाय वह उससे भी ऊपरवाली सीढ़ी तलाश ले .बुद्धिमान लोग लेखन शुरु करने से पहले सीढ़ी तलाश लेते हैं . उन्ही को देखकर द्विवेदी जी के कंठ से फूट पड़ा होगा , “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती …”
तो भाई साहब पुरस्कार की महिमा अनन्त है अशेष है .नित्य है ,सत्य है . जैसे आयोजकों ने उनको पुरस्कार दिये , वैसे ही आपको भी मिलते रहों .

 

गुरुवार, 21 मार्च 2024

जब कविता बन जाती है

 कुछ ही पल ऐसे होते हैं सखि

जब कविता बन जाती है ।

 

अन्तर-वीणा पर पीडा ,

जब कोई राग बजाती है

विद्रूपों की ज्वाला जब-जब भी ,

मन विदग्ध कर जाती है

जब साँस-साँस से आहों की

बारात निकलती जाती है

अलि तब कविता बन जाती है ।

 

अन्तर आलोडन हो होकर

जब एक उबाल उमडता है

अधरों का पथ अवरुद्ध जान

भीषण भूकम्प मचलता है

घातों-प्रतिघातों से छिल-छिल कर

गलती कोमल छाती है

सखि तब कविता बन जाती है ।

 

जब हृदय प्रतीक्षाकुल व्याकुल

नैराश्य जलधि में बुझता है ।

देहरी पर जलते दीपक का

स्नेह भी चुकता है ।

स्मृतियाँ तीखे दंश चुभा

उर को उन्मत्त बनाती हैं

सखि तब कविता बन जाती है ।

 

खायी हो चोट कभी गहरी

अपने हो ,कहने वालों से .

मिलते पीछे से वार दुसह ,

अन्तर में रहने वालों से .

जब चूर चूर होकर आशाएं

पग पग ठोकर खाती हैं .

सखि तब कविता बन जाती है .

 

जब हृदय प्रतीक्षाकुल पल पल

नैराश्य जलधि में बुझता है .

जब अन्धकार से लड़ते दीपक का

स्नेह भी चुकता है .

जब यादें तीखे शूल चुभा

उर को उन्मत्त बनाती हैं ,

सखि तब कविता बन जाती है .

 

आतप से तप्त तृषित धरती

कण कण विदग्ध होजाता है .

जब श्याम सघन मेघों का मेला

अम्बर में लग जाता है .

शीतल बौछारों से गद्गद्

जब सृष्टि हरी होजाती है

सखि तब कविता बन जाती है .

 

नूतन किसलय के सम्पुट में

कोमलता कम्पन करती है

शाखाओं की खाली झोली

पल्लव पुष्पों से भरती है .

मधुऋतु रसाल को मंजरियों के

हार स्वयं पहनाती है .

सखि तब कविता बन जाती है .

 

निस्सीम गगन के अगम पन्थ में

अणु सा हृदय भटकता है .

अद्भुत कौशल कण कण का

जब मन में विस्मय भरता है .

जिज्ञासाएं जब उस असीम की

जब जब थाह लगाती है

सखि तब कविता बन जाती है 

बुधवार, 20 मार्च 2024

दो पाटों के बीच


ओ माँ ..आज तो बहुत थक गई .

अंकिता ने आते ही बैग एक तरफ रखा और सोफा पर ही पसर गई .

विमला ने एक ममत्त्व भरी निगाह से बहू को देखा ,पानी का गिलास ले आई और चाय चढ़ाने लगी . यह रोज की बात है अंकिता ऑफिस से आकर यही कहती है . विमला हैरान होती है .वातानुकूलित टैक्सी में आना-जाना . वातानुकूलित कक्ष में ही शानदार कुर्सी पर बैठकर काम करना . ( एक बार अंकिता अपने ऑफिस के वार्षिकोत्सव में विमला को भी लेगई थी ) घर में भी कोई तनाव नही .न व्यवहार का न विचारों का .कामों में पीयूष बराबर हाथ बँटाता है . जब से वह आई है अंकिता को न किचन की चिन्ता करनी पड़ती है न पीहू की .

अभी इस उम्र में इतनी थकान तो नहीं होनी चाहिये. एक बार डाक्टर को दिखालो .”---.विमला ने अपने आशय को कुछ बदलकर प्रकट किया .

थकान काम और भागदौड़ से है माँजी ! आपने अभी यहाँ का ट्रैफिक नहीं देखा ..फिर ऑफिस में क्या कम काम है ..डाक्टर के पास जाओ तो कहता है आराम करो ..अब आराम से तो काम नहीं चलता ना !.

विमला को याद आता है कि किस तरह दिनभर साँस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी . घर में सास जी सहित छह लोग थे . सबका नाश्ता खाना बनाकर नौ बजे स्कूल के लिये निकल जाती थी बस से आधा घंटा लगता था और मुख्य सड़क से स्कूल तक पैदल पन्द्रह मिनट ..शाम को पाँच बजे तक लौटती थी तब चाय के बहाने पल दो पल बैठने मिल जाते थे और फिर वहीं रोज के काम . रात नौ-दस बजे जाकर फुरसत मिलती थी . उसका नौकरी करना एक आवश्यकता थी . पीयूष के पिता का कोई निश्चित रोजगार नहीं था .उसकी सर्विस ही परिवार के लिये नियमित आय का एमात्र जरिया थी . आराम करने का न तो समय था, न ही छूट . पर ऐसा व्यक्त करना भी जैसे गुनाह था .

"ज्यादा परेशानी है तो छोड़दो नौकरी ...घर बैठो ."पीयूष के पिता कह देते .

अंकिता के लिये नौकरी आवश्यक नहीं ,आत्मनिर्भर होने के एहसास के लिये है .(चाहें तो पीयूष के शानदार पैकेज में बहुत आराम के साथ जीवन निर्वाह हो सकता है) . वह भी कितने आराम से ...बिस्तर छोड़ने से लेकर ऑफिस जाने तक ,चाय के साथ न्यूज देखने और खुद की तैयारी के अलावा कोई काम नहीं होता अंकिता के लिये . सफाई और खाना बनाने वाली सहायिकाओं को जरूरी निर्देश देना ..चीजों को व्यवस्थित करना ,वाशिंग मशीन से कपड़े निकालकर फैलाना ..नीटू को तैयारकर खिला पिला ..प्लेग्रुप में छोड़कर आना और वहाँ से लेकर आना ..बिग बास्केट से आए सामान को यथास्थान रखना आदि सारे काम खुद विमला ने सम्हाल लिये हैं . फिर भी जाते समय हमेशा बहुत हड़बड़ाहट रहती है . कभी मैच की चुन्नी नहीं मिलती तो कभी सलवार .. कभी कंघा गायब तो कभी एक चप्पल . इन सबकी तलाश में पूरा कमरा अस्तव्यस्त हो जाता है . अलमारी को सारे कपड़े उल्टे पुल्टे . ऐन वक्त पर वह घड़ी देखती है –अरे बाप रे ..और फिर तूफान आ जाता है जैसे उसके लेट होने में उसका नहीं टीवी , अखबार , और घड़ी का दोष है .

चाय पीकर अंकिता ने कप वहीं छोड़ा और कमरे में जाकर पीहू के साथ लेट गई . विमला फ्रिज़ में से सब्जियाँ निकालने लगी . रजनी आती होगी . आते ही पूछेगी क्या बनाना है अम्मा . विमला खड़ी होकर सब्जी या अन्य चीजें बनवाती है .वह कम से कम जब तक यहाँ है बेटा को उसकी मनपसन्द चीजें बनवाती रहे .

"मम्मी ,अंकू कहाँ है ?"-–पीयूष ने दरवाजे के अन्दर पाँव रखते ही पूछा .

"आगया बेटा ! अंकू अपने कमरे में है . शायद आराम कर रही है ."

पीयूष ने देखा अंकिता सिर पर पट्टी लपेटे है . घबराए स्वर में पूछा –"क्या हुआ ?

"थोड़ा सिर भारी है ..पीहू अलग परेशान कर रही है ."

"पीहू को मम्मी के पास छोड़ दो ना ! मम्मी !"--–कुछ उत्तेजना के लहजे में पीयूष ने माँ को पुकारा—

"मम्मी कौनसे काम लेकर बैठी हो ?"

"थोड़े से लड्डू बना लूँ तुम लोगों के लिये ..उसी की तैयारी कर रही हूँ .दिन में तो पीहू मेरे पास..."

"अरे वह सब छोड़ो ...जरा पीहू को देखलो .."

विमला पोती को खिलाते हुए सोच रही थी कि उसके काम का महत्त्व न तब था न अब ..

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

उसकी बात


 खाली पड़े गमले में

अनायास ही उग आए थे

घासपूस जैसे छोटे छोटे पौधे  

अनजाने , अनचाहे .

उखाड़ फेंकना था

हटानी थी खरपतवार

गेंदा ,डहेलिया जैसे फूलों के लिये..

तैयार करना था गमला

एक पौधे के पत्ते लहलहाए ,

मुझे मत निकालो अभी रहने दो .

जो बात है , उसे कहने दो .

मैंने उसे रहने दिया

मुझे सुननी थी उसकी बात .  

आज आँखें खिल उठीं  

देखकर कि वह पौधा मुस्करा रहा है

एक सुन्दर गुलाबी फूल की सूरत में .

जिजीविषा और आत्मविश्वास से भरपूर

मानो कह रहा है ,

मैं खरपतवार नहीं हूँ .

कोई नहीं होता खरपतवार

नितान्त निजी है वह विचार

मापदण्ड हैं उसकी

उपयोगिता ,अनुपयोगिता .

स्थान ,भाव-बोध और सौन्दर्यप्रियता के .

मुझे देखकर भी तो कोई खुश होसकता है

जैसे तुम खुश होते , होना चाहते थे

डहेलिया या गेंदा के फूल देखकर .

अहा ,मैं तो अब भी खुश ..., बहुत खुश हूँ

तुम्हें देखकर यकीनन .”

अनायास ही कह उठा मेरा मन .