गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

अबूझ मन

 बहुत विचित्र है मन भी  

जहाँ भी जाना होता है ,

चल देता है हुमक कर

मुझसे पहले ही ।

बावज़ूद इसके कि 

कोई नहीं जानता इसे ।

नहीं सुनता-समझता  

कोई इसकी भाषा ।

फिर भी कहना चाहता है

अपनी बात ,

चाहे कोई सुने न समझे ।

सुनकर औरों की बातें ,  

मतलब निकाल लेता है,

अपनी तरह का ।

गढ़ लेता है कहानियाँ प्रेम की ,

संवेदना और लगाव की ।

दिल से दिल के जुड़ाव की ।

चल पड़ता है कहीं भी 

नंगे पाँव ही ,

बिना सोचे समझे

सुनकर सिर्फ दो बोल अपने से ।

नंगे पाँव लहूलुहान होते हैं 

काँटे कंकड़ चुभते हैं

जलते हैं गरम रेत पर ..

लेकिन भूल जाता है

पाकर जरा सी नमी ।

पा लेता ज़मीं ।

खुश रहता है ठगा जाकर भी । 

इसका कुछ नहीं होने वाला अब

फिर ‘कुछ’ होकर भी ,

आखिर होना क्या है !

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

कोहरे में डूबी सुबह


 सुबह सुबह

जब मेरी पलकों में समाया था

कोई स्वप्न .

नीम के झुरमुट में चहचहा रही थीं चिड़ियाँ

चिंता-मग्न तलाश रही थीं कि

अरे ,कहाँ गया सामने वाला बड़ा सा पीपल ?

कौन ले गया बरगद ,इमली ,नीम ,गुडहल ?.

कहाँ गया नीला नारंगी आसमान ?

सुन सुनकर मैं भी हैरान ,

उठकर देखा

सचमुच नहीं है अपनी जगह  

दीनू की दुकान 

सरपंच की अटारी और मंगलू का मकान

फैलू की झोपडी पर सेम-लौकी का वितान

चिड़ियों की उड़ान

धुंध में डूबे हैं दिशाओं के छोर

चारों ओर

सारे दृश्य अदृश्य

सुनाई दे रही हैं सिर्फ आवाजें ,

चाकी के गीत ,चिड़ियों का कलरव

गाड़ीवाले की हांक ,

खखारता गला कोई

छिनककर साफ करता नाक

क्या है जो फैला है

धुंधला सा पारभाषी आवरण

कदाचित्

बहेलिया चाँद ने

पकड़ने तारक-विहग

फैलाया है जाल

या सर्दी से काँपती ,ठिठुरती धरती ने

सुलगाया है अलाव

उड़ रहा है धुआँ .

या आकाश के गली-कूचों में

हो रही है सफाई 

उड़ रही है धूल .

या मच्छरों से बचाव के लिये

उड़ाया जा रहा है फॉग

या शायद ‘गुजर’ गयी रजनी

उदास रजनीश कर रहा है ,

उसका अंतिम-संस्कार

या कि  

साजिश है किसी की

सूरज को रोकने की .

नहीं दिखा अभी तक .

बहुत अखरता है यों

किसी सुबह

सूरज का बंदी होजाना .

------------------------------

(1987 में रचित

शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

अपना आसमान


14 नवम्बर 2024



आज बाल-दिवस है । दुनियाभर के सभी बच्चों के लिये कामना कि उनका बालपन बना रहे । समय से पहले बड़े न हों । बड़े तो उन्हें आखिर होना ही है पहले बचपन को तो पूरी तरह जी लें ।

मेरे लिये बाल दिवस के साथ मान्या-दिवस भी है । दिनांक के साथ वर्ष लिखना सकारण है क्योंकि आज मान्या ने पूर्ण नागरिक का दर्जा पा लिया है ।  

उसका जन्म जैसे कल की बात है ।

14 नवम्बर 2006 सेंट फिलोमिना हॉस्पिटल .. किसी के आने की आहट सुनने के लिये साँसें जमी हुई सी थीं । एक उमंग और आतुरता से पाँव धरती पर टिक ही नहीं पा रहे थे । एक ओर सुलक्षणा की पीड़ा की कष्टकर अनुभूति थी ,दूसरी ओर प्रतीक्षा की आकुलता । पल पल भारी हो रहा था । तभी एक साँवली सलौनी नव वयस्का परिचारिका प्रकट हुई और मुस्कराते हुए बड़ी मिठास के साथ कहा –--"कॉँग्रेचुलेशन्स ,यू हैव अ हैल्दी बेबी गर्ल ।

सुनकर रोम रोम झंकृत होगया । पहली बार नए रिश्ते बने चाचा चाची पापा मम्मी दादा और मेरे लिये सबसे प्यारी पदवी मिली--दादी । यों तो माँ बनना सबसे प्यारा अनुभव होता है लेकिन जब मैं माँ बनी थी तब (18 भी पूरे नहीं हुए थे ) माँ होने की उतनी समझ और अनुभूति नहीं थी लेकिन दादी बनने के लिये मैं पूरी तरह तैयार थी ।एक नवागन्तुक की प्रतीक्षा थी, उल्लास था । जब मान्या आई तो जीवन में एक कमी पूरी होगई बेटी की ।


बहुत सालों बाद फिर से नन्ही जान को गोद में लेने , उसमें आए हर परिवर्तन को देखने का आनन्द अनौखा था । मान्या को लेकर मैंने अनेक कविताएं लिखी हैं । एक कविता यहाँ है ,जब वह पहली बार स्कूल गई थी --  

स्कूल का पहल  दिन

-------------------------

मान्या स्कूल चली
गुंजा सी खिली--खिली ।

सजधज दरवाजे पर
ज्यों भोर खड़ी उजली।

बस ढाई साल की है यह
नटखट कमाल की है यह
चंचल है मनमौजी है
अपने खयाल की है यह ।

बस्ता में भर कर सपने
मन में ले जिज्ञासाएं ।
चलती है उँगली पकडे
कल खुद खोजेगी राहें ।

जो पाठ आज सीखेगी
कल हमको सिखलाएगी
खुद अपना गीत रचेगी
अपनी लय में गाएगी । 

मान्या आज अठारह वर्ष की होगई है । अपना गीत खुद रचने और गाने की उम्र , अपना आसमान खोजने की उम्र । अब वह अपना गीत खुद लिख रही है , गा रही है ,  हमें सिखा रही है । उसने अपना आसमान खोज लिया है . अब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में बी ई की प्रथम वर्ष की छात्रा है ।

 

बुधवार, 11 सितंबर 2024

एक गीत 11 सितम्बर 1987 का

 (सुश्री महादेवी वर्मा का प्रयाण-दिवस)

देवि  तुम्हारे लिये 

हृदय के सारे गीत

समर्पित हैं । 

भारत की भारती

काव्य-पथ युग-युग

तुमसे तुमसे सुरभित है ।

तुमने करुणा--जल पूरित

जो काव्य--तरंगिनि लहराई

विगलित भावों से जैसे

मरु में हरीतिमा मुस्काई

छू लेता है मर्म

व्यथा से अक्षर-अक्षर गुम्फित है

आज तुम्हारे लिये...।

 

ममता की प्रतिमा

पीयूष बरसातीं रहीं सदा अविरल

'घीसा', 'रामा' 'गिल्लू' 'सोना'

अमर बनाए प्रिय निश्छल

मानव ही क्यों ,

पशु-पक्षी भी कहाँ नेह से वंचित हैं

आज तुम्हारे लिये...।

 

व्यथा--वेदना विष पीकर भी

सदा सुधा बरसाया

नारी की गरिमा--ममता को

शुचि, ,साकार बनाया ।

राह बनाई जो तुमने

शुभ-संकल्पों से सज्जित है

आज तुम्हारे लिये...।

 

चली गई हो देवि

अलौकिक राहों को तुम महकाने

जीवनभर पीडा में जिसको ढूँढा

उस प्रिय को पाने ।

नीर-भरी दुःख की बदली का

जल कण-कण से अर्जित है

आज तुम्हारे लिये..।

 

करुणा जब तक होगी

और हदय में संवेदन होगा

शोभित सम्मानित तुमसे

हिन्दी-साहित्य गगन होगा

श्रद्धा के ये सुमन सजल

हे विमले ,तुमको अर्पित हैं

आज तुम्हारे लिये हदय के

सारे गीत समर्पित हैं ।

 

 

 

 

शनिवार, 24 अगस्त 2024

मैं खुश हूँ



 प्यारे नीम के पेड़

मैं खुश हूँ कि

देख पा रही हूँ तुम्हें

फिर से हरा भरा .

बीत गया बुरे सपने जैसा

वह समय

जब निर्दयता से

चला दी गयी कुल्हाड़ी तुम्हारी हरी भरी शाखों पर .

सारी टहनियाँ ,सारे पत्ते उतार दिये गये

तुम्हारे तने से ,कपड़ों की तरह .

तुम खड़े रह गए निरीह निरुपाय कबन्ध मात्र

सिसक उठीं थीं चिड़ियाँ ,गिलहरियाँ

मेरे हृदय की तरह .

जैसे उजड़ गया मेरा भी

आश्रय पिता के साये जैसा .

 

लेकिन खुश हूँ ,

कि तुम पहले से अधिक

सघन हरीतिमा के साथ लिये फैल रहे हो,

मेरे रोम रोम में उल्लास बनकर .

जैसे हँस रहे हों

कुल्हाड़ी वाले हाथों की नीयत पर

खुश हूँ कि तुम्हारे कोमल

अरुणाभ पल्लव ऊर्जा की चमक लिये

मुस्करा रहे हैं ,

एक उम्मीद जैसे .

कि ठूँठ होजाने पर भी

ज़मीन से जुड़ा एक पेड़

नहीं छोड़ता पल्लवित होना ,

सीख रही हूँ तुमसे मैं भी ऐसा ही कुछ .

खुश हूँ कि ,

आत्मविश्वास से भरी हुई

तुम्हारी घनी टहनियाँ और पत्ते .

रोकने में समर्थ हैं ,

चिलचिलाती कण कण झुलसाती

धूप का आतंक ,

निश्शंक  हवाओं का ज़हर

और कहर साँसों पर .

बहुत खुश हूँ

मेरे नीम के पेड़

कि तुम हो मेरे आँगन में ,

मेरे पिता की तरह

एक गुरु की तरह

और एक माँ की तरह भी .

शनिवार, 13 जुलाई 2024

पलायन

 पलायन

------------------

मैं कभी कभी सोचती हूँ कि

मुझे मिलना चाहिये कभी खुद से भी .

आमतौर पर मैं नहीं मिलती .

रहती हूँ दूर दूर ही .

खुद से मिलकर मुझे

खुशी नही होती जरा भी .

खेद होता है देखकर कि

मैं असल में जी रही हूँ हवाओं में

जबरन हँसती रहती हूँ

सुनकर बेमतलब के चुटकुले .

पाले हूँ खूबसूरती का अहसास

दूसरों के दर्पण में .

इन्तज़ार करती हूँ

बेवज़ह उसका

जिसने आज तक

तारीख तय नहीं की

अपने आने की .

भूली-भटकी सी मैं

वक्त गुज़ारती रहती हूँ

दूर आसमान में

किसी तारे को देखते हुए .

सुना था कभी कि खुद से मिलना

मिलना है जगत-जीवन की सच्चाई से ,

पर मैं घबराती हूँ

एक गहरी अँधेरी सुरंग में जाने से .

मोती पाने की उत्कट लालसा होने के बाबज़ूद

डरती हूँ डूबने से

और मुँह मोड़कर लौट जाती हूँ

खुद के पास आकर

अपने लिये ही परायी मैं

आज तक नहीं मिल सकी हूँ

गले लगकर खुद से  .

--------------------

गुरुवार, 6 जून 2024

पुस्तक विमोचन --मनमर्जी का आनन्द भी और संकट भी

फुनगियों पर डेरा से अब आप अपरिचित नहीं होंगे ,ऐसा मैंने मान लिया है फिर भी पुनः बता देती हूँ यह श्वेतवर्णा से सद्यप्रकाशित पुस्तक है जो अर्चना चावजी के विचार और वन्दना अवस्थी की प्रेरणा से साकार हुए समूह गाओ गुनगुनाओ शौक से की सात वर्षीय गतिविधियों का लेखा है . समूह का नाम बेशक गीत गाने गुनगुनाने को ही प्रस्तुत करता है लेकिन उसमें तमाम अन्य गतिविधियाँ ( चित्र ,कविता , गीत ,संस्मरण , पत्र लेखन लघुकथाएं आदि )भी चलती रही है इसलिये यह पुस्तक साधारण नहीं बल्कि विविध कलाओं में विशिष्टता पाई साहित्यकार व ब्लागर सखियों की रचनात्मकता का विशिष्ट उदाहरण है .

अर्चना की इच्छा व ऋता पूजा व सभी विदुषियों के सम्मिलित प्रयास से किताब प्रकाशित तो होगई . सबको भिजवा भी दी गई लेकिन अर्चना और हम सभी के मन में उसके विमोचन की प्रबल चाह अभी शेष थी . विचार तो यह था कि किसी ऐतिहासिक या ऐसी जगह जहाँ सभी जाना चाहें सब पहुँचकर इस कार्य को अंजाम दें पर वह संभव नहीं हो पाया . क्योंकि मैं , ऋता शेखर और अर्चना फिलहाल बैंगलोर में ही हैं इसलिये हमने तय किया कि तीनों ही सबको ऑनलाइन बुलाकर विमोचन सम्पन्न करें . उसके लिये जगह तय करने में एक सप्ताह लगा . तय हुआ कि क्यों न हम किसी पार्क के सुहाने वातावरण में इस कार्य को सम्पन्न करें . इसके लिये कब्बन पार्क को चुना . दिनांक 2 जून 2024 को हम पूरी तैयारी के साथ कब्बन पार्क में पहुँच गईं . रविवार होने के कारण पार्क  में बहुत भीड़ थी . एक बार तो लगा कि हमने जगह चुनने में गलती करदी . लेकिन एक जगह हमने अपना आसन लगा ही लिया . ऋता को ऐसी व्यवस्थाओं में बड़ी महारत हासिल है . विमोचन के लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सरस्वती जी की तस्वीर फूल रोली चन्दन आदि ऋता ही लेकर आईँ . तीन बजे समूह की सभी विदुषी सखियाँ ऑनलाइन उपस्थित हुईं . कुछ सखियाँ कारण वश नहीं आ सकीं , निश्चित ही उनकी कमी बहुत अखरी . साढ़े चार बजे तक हम सबने पुस्तक विमोचन के साथ आवश्यक और तय कार्यक्रम के अनुसार अपने अपने विचार व्यक्त किये .पुस्तक विमोचन का यह आयोजन निश्चित ही बड़ा अनौखा व विशिष्ट था . हमारी मनमर्जी का यह एक बेहद खास और आनन्दभरा अनुभव था .


मन में उसी आनन्द को सहेजे लगभग छह बजे ऋताशेखऱ मैट्रो से अपने घर चली गईं . वहाँ से अर्चना का घर बहुत दूर था . आधी दूर तक वह मेरे साथ ही सन सिटी तक आने वाली थी फिर वहां से सरजापुर रोड स्थित घर . मैं टैक्सी बुक करने का प्रयास कर रही थी लेकिन मेरे मोबाइल फोन पर 'डेस्टीनेशन' नहीं आ रहा था .प्रशान्त ने कहा कि मम्मी आप वहीं खड़ी रहें .मैं कैब बुक कर देता हूँ ,लेकिन इस समय थोड़ा समय लग सकता है .ट्रैफिक बहुत ज्यादा है . उसी समय एक सीधा सज्जन दिखने वाला ऑटो-ड्राइवर हमसे चलने का आग्रह करने लगा . हमने उसे टालने के लिये कुछ कम किराया कहा तो वह उसी पर चलने तैयार होगया मानो उसे इसकी बहुत ज़रूरत थी . मालूम नहीं जल्दी निकलने का विचार था या उस ऑटो ड्राइवर का आग्रह या फिर तेज बारिश का खतरा , हमने जल्दी से वह ऑटो ही किराए पर ले लिया . ऑटो कुछ मीटर चला ही था कि प्रशान्त ने टैक्सी बुक करवा दी . लेकिन अब ऑटो से उतरना हमें उस ड्राइवर के साथ नाइन्साफी लगा . अस्तु प्रशान्त को कैब कैंसल करने को कह दिया . आप सोच रहे होंगे कि इतनी सी बात का इतना हंगामा क्यों , तो असल में इसके आगे जो हुआ वह आसानी से भुला दिया जाने वाला प्रसंग नहीं है . यह हमारी मनमर्जी का यह दूसरा उदाहरण था .लेकिन पहले से उलट बड़ा ही खतरनाक . 

प्रशान्त ने घर से चलते समय भी और बीच में भी फोन पर कहा कि जल्दी निकल आना मम्मी  शाम को बहुत तेज बारिश हो सकती है ..हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया  लेकिन हुआ वही कि एक किमी भी न चले कि बारिश शुरु होगई . बारिश अच्छी लगती है लेकिन घर में ही . बाहर मुझे बहुत डर लगता है . भीगने का नहीं ,बादलों के कर्णविदारक तुमुल घोष और रोष दिखाती बिजली का .ऑटो में बौछारों से बचाव की कोई तैयारी नही थी . यानी हमें एक घंटे का रास्ता बूँदों के प्रहार सहते हुए ही तय करना था . हम इसी चिन्ता में थीं कि ऑटो वाले ने एक एक जगह सी एन जी के लिये ऑटो खड़ा किया और हमारे अधिक से अधिक तीस सेकण्ड बाद ही पीछे बड़ी जोर की आवाज व चीख पुकार सुनाई दी . ऑटो वाले ने घबराकर कहा—"हे वैंकटेश्वरा रक्षा करो। दो तीन तो गए .

भैया आप किसकी बात कर रहे हैं ?”--अर्चना ने पूछा . उसकी बातों से पता चला कि हमारे पीछे लगभग पचास साठ कदम पर खड़ा पेड़ एक ऑटो पर गिर पड़ा था . ऑटो पूरी तरह पिचक गया था . यह सचमुच भयानक था . अगर हम बीस-तीस सेकण्ड लेट होते तो वही हश्र हमारा होता यह सोचकर हृदय जोर से धड़क उठा . उस दर्घटना में लोग जान से नहीं गए होंगे तो गंभीर रूप से घायल ज़रूर हुए होंगे . उन लोगों के बारे में सोचना भी कम दुखद नहीं था .

इसके बाद बारिश बहुत ज्यादा तेज होगई . हमारे कपड़े पूरी तरह भीग गए . तेज हवा पसलियों तक चोट कर रही थी .लेकिन हमें घर पहुँचने की चिन्ता थी . बारिश मूसलाधार थी . सड़क पर पानी बढ़ता जा रहा था .पास से गुजरती कारें हमें सिर तक भिगोने का उपक्रम कर रही थीं . ड्राइवर सचमुच सज्जन था . फोन पर उसका बेटा मना करता रहा –- पापा गाड़ी मत चलाओ .” लेकिन वह गाड़ी को लगातार भगाता रहा . इधर प्रशान्त काफी परेशान था . लेकिन हम गीत गा गाकर जैसे जान बच जाने का जश्न मान रही थीं और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रही थीं .साथ ही अपनी तमाम आशंकाओं को परे झाड़ रहीं थीं .

जिस समय हमें सरजापुर क्रॉस वाला ब्रिज दिखा , हमने चैन की साँस ली . अर्चना का घर अभी बहुत दूर था . इसलिये वह मेरे साथ ही कुछ देर के लिये आगई . हमारे कपड़े तरबतर थे ., तुरन्त बदले . सुलक्षणा ने बढ़िया चाय बनाकर दी .

हम निश्चित ही एक बड़े संकट को पार कर आई थीं . तेज बारिश में ऑटो बन्द भी हो सकता था ,तेज हवा में पलट भी सकता था . और ड्राइवर हमें कहीं भी उतारकर भाग  सकता था या चलने से मना कर सकता था .

लेकिन जब कोई काम हम अपनी मर्जी व जिम्मेदारी के साथ करते हैं तब कोई और दोषी नहीं होता . इसलिये कठिनाई सहने और पार पाने की शक्ति भी स्वतः ही आती है . हमने ड्राइवर को धन्यवाद कहा . उसे पूरा उचित किराया दिया . तब तक बारिश का आवेश भी कम होगया .

खैर यह सब छोड़ तस्वीरों से आप भी हमारे आनन्द का अनुभव कर सकते हैं .