घर आँगन छत देहरी सूनी,
सूना है मन तुम बिन माँ !
तुम्ही नहीं तो
कैसी वर्षा , कैसा सावन !
बादल भर भर बरस रहे हैं ,
फिर भी धूल उड़ी है आँगन .
कौन पुकारे साँझ सकारे
उजियारे को ,
तुम बिन माँ !
तुम नदिया सी बहते बहते
छोड़ गईं सब कूल किनारे .
हर पल जेठ दुपहरी सा है ,
पाखी उड़ गई पाँख पसारे .
पात लुटा बैठा है बरगद ,
छाँव कहाँ है तुम बिन माँ .
था अपार विस्तार तुम्हारा ,
छोटी सी मेरी बाँहें .
समा सकीं ना ,
सिर्फ बचीं
हैं ,
मेरे अंचल में आहें .
मेरे अंचल में आहें .
आज खड़ी हूँ पार उतरने ,
टूट गया पुल तुम बिन माँ !( स्वर्गारोहण 4 अप्रैल 2016)