गुरुवार, 30 मई 2024

अपने हिस्से की धूप

 कल फेसबुक पर अनायास ही एक समाचार सामने आया –

राहुलराज विश्वकर्मा संगीत के क्षेत्र में 2024 के शिखर-सम्मान से सम्मानित .”हृदय पुलक और विस्मय से भर गया. लगन ,अविराम परिश्रम और अभ्यास कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है किसी को . एक सीधे सादे ,अपने वज़ूद के लिये संघर्षरत राहुल को आत्मविश्वास के साथ सम्मान लिये देखना कितना सुखद है . 

राहुल विश्वकर्मा ! शासकीय जीवाजीराव उ.मा.वि. में केवल दो वर्ष रहा मेरी कक्षा का छात्र . छात्र सभी प्रिय होते हैं लेकिन कुछ छात्र अपनी जिज्ञासा ,उत्कण्ठा और विनम्रता के कारण सदा के लिये हृदय पर की अमिट छाप छोड़ जाते हैं . राहुल उन्ही में से एक था (है) 

2013 के जुलाई में एक सौम्य और सीधा-सादा छात्र मेरी कक्षा में इस परिचय के साथ प्रविष्ट हुआ कि वह विदिशा के एक गाँव मथुरापुर से यहाँ पढ़ाई के साथ संगीत की शिक्षा लेने के उद्देश्य से आया है एक गीत पर मुख्यमंत्री जी से पुरस्कृत भी हो चुका है. वहाँ के जिलाधिकारी और एक पत्रकार के सहयोग से यहाँ पहुँचा है .मेरे लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात थी उसका संगीत से जुड़ा होना . उन दिनों विद्यालय में मुझे सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों का प्रभार मिला हुआ था जिसमें वर्षभर आयोजित होने वाले साहित्य व संगीत विषयक प्रतियोगिताएं, बालरंग, राष्ट्रीय पर्वों पर छात्रों की प्रस्तुतियाँ आदि की तैयारियाँ करवानी रहती थी . लगभग 12 कक्षाओं में गाने वाले छात्रों को चुनना बड़ा श्रमसाध्य था .कई छात्रों को सुर की समझ थी . गा भी लेते थे पर वे सामने नहीं आना चाहते थे .और कई उत्साह के साथ तैयार रहते लेकिन वे सुर नहीं पकड़ पाते थे . गीत आदि तैयार करवाने में बहुत मेहनत और समय लगता था . राहुल के आने से चीजें काफी आसान होगई . वह बड़ा उत्साही और विनम्र था (है) .वह हर कार्यक्रम में भाग लेने उत्साहित रहता था लेकिन मुझे वह कहीँ ठहर गया सा लगता था . जहाँ आगे सीखने की राह या तो बन्द हो जाती है या बहुत छोटी और सीमित होजाती है . शायद पहले ही मंच पर मिली प्रशंसा और मुख्यमंत्री जी द्वारा मिले पुरस्कार का प्रभाव था जिसने उसे एक जगह रोक रखा है .उसकी जिज्ञासा और उत्साह को देखते हुए यह ठहराव ठीक नहीं था . 

हालाँकि मैने संगीत की की कोई शिक्षा नहीं ली है . विद्यालय में मेरी स्थिति , निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते। जैसी थी अर्थात् रेगिस्तान में जहाँ वृक्ष नहीं होते एरण्ड को ही वृक्ष मान लिया जाता है .लेकिन मुझे सुर की बारीकियों की समझ तो थी . गाकर बता भी सकती थी . यह बात तो सभी में जन्मजात होती ही है .

स्वतंत्रता दिवस पर गाने के लिये उसने एक काफी सूक्ष्म उतार चढ़ाव वाला देशभक्ति गीत चुना . मैंने पाया कि सुर तो सही हैं लेकिन उसमें उतार चढ़ाव और मोड़़ की बारीकियाँ नहीं हैं ,जो किसी भी गीत को खूबसूरत और कर्णप्रिय बनाती हैं .काफी कोशिश के बाद भी, जैसा मैं चाहती थी, वह नहीं गा पा रहा था . मैंने कुछ खींज के साथ कहा –राहुल सबसे पहले तुम इस गलतफहमी से बाहर आओ कि तुम अच्छा गाते हो .अभी तुम्हें सुधार की बहुत ज़रूरत है .अगर आगे जाना है तो खुद को लगातार अभ्यास के लिये तैयार करो .

तमाम उम्मीदें पालकर आए बच्चे के लिये यह बात काफी कठोर थी , इसे मैं आज भी महसूस करती हूँ लेकिन आगे जाने के लिये वह ज़रूरी था . प्रशंसा के व्यामोह में हम अक्सर उलझकर रह जाते हैं . उस समय मेरी बात सुनकर वह कुछ मायूस दिखा लेकिन बिना किसी हताशा के उसने सुधार व अभ्यास जारी रखा . 

उसकी इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुई .यह बात साधारण नहीं थी बल्कि यह उसके उज्ज्वल भविष्य का स्पष्ट संकेत था . वह गीत की रिकार्डिंग सुनता रहा और मुझे गाकर सुनाता रहा .और अन्ततः उसने वह गीत बड़े ही सधे हुए स्वर में गा ही लिया और सबने ,खासतौर पर मैंने बड़े सुकून से सुना . माधव संगीत विद्यालय में वह विधिवत् शिक्षा ले ही रहा था . धीरे धीरे उसकी आवाज में इतना आत्मविश्वास और निखार आ गया कि एक प्रतियोगिता में हमने परिणाम के अन्तिम निर्णय को चुनौती ही दे डाली .  


यह सत्र 2014-15 की बात है . बालरंग की जिलास्तर प्रतियोगिता थी . लेकिन सबसे अच्छा गाने के बाद भी उसे प्रथम स्थान नहीं मिला . संभाग स्तर पर केवल प्रथम को ही जाना था . वह निर्णय गले नहीं उतर रहा था . मैने प्राचार्य से कहा तो वे बोलीं "क्या तुम्हें यकीन है कि निर्णय़ पक्षपात पूर्ण था ?" मैंने कहा --" जी मैडम शत प्रतिशत ."मैडम ने जिलाशिक्षाधिकारी को पत्र लिखा . अच्छा यह हुआ कि उन्होंने हमारी शिकायत पर गौर किया . उन्होंने एक टीम बनाकर पुनः प्रतियोगिता करवाई .उसमें राहुल विजयी रहा और मेरा विश्वास भी . उसने संभाग स्तर पर प्रथम आकर राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में भोपाल में भी प्रस्तुति दी थी .  

राहुल के गुणों में मुझे विनम्रता लगन और परिश्रम सबसे अधिक मिले . इन्हीं गुणों ने उसे आज इस मुकाम तक पहुँचाया है .

कहते हैं शिक्षक छात्रों को एक सही दिशा देते हैं .लेकिन मैं कहना चाहती हूँ कि अच्छे छात्रों के कारण ही शिक्षक को अपनी पहचान ,सही सम्मान और सच्चा प्रतिफल मिलता है ..

राहुल ने ग्वालियर माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर से अपनी संगीत शिक्षा पूर्ण की. वहाँ उसके गायन में लगातार निखार आता रहा . मेरी कक्षा में ,और स्कूल में भी वह केवल दो वर्ष रहा इसलिये उसके निर्माण या उपलब्धियों में मेरा कोई खास सहयोग नहीं रहा लेकिन वह मानता है कि मेरी नसीहतों ने ही उसे सही राह दी है .मुझे यह एक उपलब्धि जैसा लगता है लेकिन वास्तव में राहुल अभावों से जूझकर , मुश्किलों को परास्त कर अपनी लगन ,परिश्रम और जिज्ञासा के कारण ही यहाँ तक पहुँचा है . इस बात पर मुझे अपनी बाल कहानी मुझे धूप चाहिये .’ याद आती है . जिसमें एक छोटा पौधा किस तरह धूप की चाह में सारे पौधों से ऊपर निकल जाता है . धूप आपको माँगने से नहीं मिलती . कोई देना भी नहीं चाहता अपने हिस्से की धूप खुद हासिल करनी होती है . राहुल ने अपने हिस्से की धूप खुद अर्जित की है. आज वह कितने ही छात्रों को संगीत की शिक्षा दे रहा है . उसे शिखर सम्मान का समाचार पढ़कर हृदय विस्मय ,गर्व और पुलक से भर गया है .

हमेशा खुश रहो राहुल . ऐसी उपलब्धियाँ तुम्हें मिलती रहें . बस याद रखना –

इस पथ का उद्देश्य नहीं है

श्रान्त भवन में टिक रहना

किन्तु पहुँचना उस मंजिल तक

जिसके आगे राह नहीं .  

सस्नेह तुम्हारी दीदी 

 


गुरुवार, 16 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --अन्तिम भाग


7 मई को श्रीमद्भागवत् का विधिविधान से पारायण हुआ . नव मुकुलित सुमन जैसे प्रियदर्शी कथावाचक शास्त्री श्री आकाश उनियाल जी जितने पौराणिक ग्रन्थों के ज्ञाता हैं उतने ही सरल और विनम्र भी हैं .शाम को वे हमारे साथ सहज बैठकर पुत्रवत् बात करते थे . उर्मिला के विशेष स्नेहभाजन आकाश इन आठ दिनों में मेरे भी उतने ही प्रिय बन गए . उनसे भागवत् कथा विषयक कुछ जिज्ञासाओं का समाधान हुआ . देखा जाय तो आकाश अभी अध्ययन रत हैं लेकिन जिस प्रगल्भता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कथावाचन किया वह उनके उज्ज्वल और यशस्वी भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित करता दिखाई देता है .



सुस्वादु प्रसादी के पश्चात् हम सब एक बार फिर उर्मिला के साथ भगवान् बद्रीविशाल के दर्शन के लिये गए . उर्मिला ने तय किया था कि आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के बाद ही दर्शन करने जाएंगीं . उर्मिला घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास हर मुश्किल में राह बना देता है . यह भी सच है कि किसन जैसा भाई होना भी एक बड़ी नियामत है जीवन की . मैंने बहिन के लिये इस तरह का समर्पण कहीं किसी भाई में नहीं देखा .बद्रीनाथ धाम में यह आयोजन भाई किसन के बिना सम्भव नहीं था . उनकी पत्नी ऊषा भाभी भी बराबर सहयोग करती रही . सबसे बड़ी बात कि उन्होंने मेरा भी बराबर ध्यान रखा .कड़कड़ाती  सर्द सुबह जबकि रजाई से बाहर निकलने के लिये सोचना पड़ रहा था ,जिस तरह  किसन हमारे लिये गरम पानी और चाय लाते थे मैं कभी नहीं भूल सकती .यह उल्लेख मैं इसलिये कर रही हूँ क्योंकि हम तीसरी मंजिल पर थे और चाय पानी खाना आदि की व्यवस्था नीचे थी .इस प्रवास में केवल यही बात अखर सकती थी अगर भाई किसन और रवि इतना ध्यान न रखते .
किसन भाई कुछ वर्ष मेरे छोटे भाई सन्तोष के सहपाठी रहे थे .वे भी किसी विभाग में इंजीनियर हैं .किसन के अलावा पूरे आयोजन में रवि का भी बड़ा सहयोग रहा .वह कुशल ड्राइवर तो है ही इन्सान भी अच्छा है .विनम्रता और अपनेपन के साथ काम करता रहा .इसके पीछे उर्मिला और किसन की आत्मीयता भी है . इनके बीच रेखा को कैसे भूल सकती हूँ .छोटा कद ,दुबली पतली , विचारों से चालीस की उम्र में ही सत्तर साल जैसी गंभीरता और बड़प्पन . बहुत कम बोलने वाली ,समझ में हमसे भी आगे लेकिन बहिन उर्मिला के लिये पूर्ण समर्पित ..

देवप्रयाग

8 मई को जब हमने उस पावन धाम से विदा ली तब मन में घर लौटने का उल्लास तो था लेकिन एक कसक भी थी कि आठ दिन बीत भी गए ! क्या सचमुच हम ,..खास तौर पर मैं पूरी तरह इन्हें आत्मसात् कर पाई ? हम जाने क्यों वर्त्तमान को छोड़ अतीत या भविष्य की अँधेरी गलियों में कुछ खोजने का उपक्रम करते रहते हैं और खुद से ही अकारण जूझते रहते हैं .वर्त्तमान अनजिया, अनछुआ सा ही गुज़र जाता है फिर अतीत बनकर सालता या आनन्दित करता रहता है . शायद ये आठ दिन भी कहीं भटकते हुए गुज़र गए प्रतीत हो रहे थे .पर आज उन्हीं को याद करते हुए एक प्यारा अनुभव सहेजे हूँ . ये पल हमारी पूँजी जैसे होते हैं .


लौटते हुए हमारे पास समय था इसलिये आराम से ठहरकर पंचप्रयाग (विष्णुप्रयाग नन्दप्रयाग रुद्रप्रयाग , कर्ण प्रयाग और देवप्रयाग) के दर्शन किये . प्रयाग यानी दो या अधिक नदियों का संगम . इस बार भी अनन्त सलिला अलकनन्दा हमारे साथ थी .हम उसकी उँगली थामे चल रहे थे .बीच में गंगा की कोई धारा अलकनन्दा से मिलने आजाती है और वात्सल्यमयी अलकनन्दा दोनों बाहें पसारकर उसे अपने आँचल में समा लेती है .इस प्रकार विष्णुप्रयाग में धौली गंगा , नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी नदी,, कर्णप्रयाग में पिंडर नदी रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी मिलकर अलकनन्दा को और समृद्ध बनाती हैं . देवप्रयाग में अपनी चारों बहिनों के साथ अलकनन्दा भागीरथी से मिल जाती है . भागीरथी गंगोत्री से निकलकर आती है इसे गंगा की प्रमुख धारा माना जाता है लेकिन ये छह बहिनें मिलकर गंगा कहलाती हैं व्यक्तिवाद के दायरे से बाहर स्थापित समाजवाद का अनुपम उदाहरण .

पौराणिक कथाओं में गंगा अवतरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है . गंगा जब स्वर्ग से उतरकर धरती पर आने लगी तो प्रवाह बहुत तेज था शिवजी की जटाओं से बहती गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि सारी सृष्टि के विनाश का भय था ,

उसे कम करने के लिये शिवजी ने गंगा के उद्दाम वेग को अपनी जटाओं में समा लिया और उसे कई धाराओं में बाँटते हुए उतारा .इस तरह सभी धाराएं गंगा की ही हैं केवल नाम अलग हैं . पंचप्रयागों में विभिन्न धाराएं मिलते हुए देवप्रयाग तक सब मिलकर गंगा हो जाती हैं .

हरिद्वार तक आते आते शाम होगई . सुबह किसन भाई ग्वालियर के लिये निकल गए और हम लोग निकल पड़े गोवर्धन के लिये .

मार्ग के आकर्षण 

गिरिराज गोवर्धन ,..जिसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा हेतु उँगली पर उठा लिया था, उस पर्वत को देखना ,उसकी पैदल परिक्रमा करना मेरा सपना था .जब हम पहुँचे शाम होने लगी थी . पैदल चलने का समय नहीं था . वैसे भी उर्मिला के लिये पैदल चलना बहुत कष्टकर होता .अँधेरा भी होने लगा था लेकिन परिक्रमा तो लगानी ही थी क्योंकि सुबह मुझे अनिवार्यतः ग्वालियर पहुँचना था . (हालाँकि उर्मिला साधु सन्तों व ब्राह्मणों को भोजन कराने हेतु एक दिन और वहाँ रुकने वाली थी) .अस्तु हमने परिक्रमा के लिये टमटम को चुना . 

गिरिराज के आसपास का वातावरण देख मुझे बड़ी निराशा हुई . मेरी कल्पना थी कि बस्ती से कुछ हटकर पर्वत होगा . चारों ओर हरियाली होगी . पैदल चलने के लिये सुन्दर सुरम्य रास्ता होगा .बचपन से ही हमारी चेतना में रचे बसे , और लीलाधारी कृष्ण की लीलाओं के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण-स्थल के बारे में यह कल्पना और अपेक्षा गलत भी नहीं थी लेकिन मकानों की भीड़ में कृष्ण की गरिमा का स्वर्णिम पृष्ठ कहीं गुम हुआ सा लगा .

मेरा पैदल चलने का इरादा तो रास्ता देखकर वैसे ही खत्म होगया ,क्योंकि पैदल चलकर परिक्रमा के लिये समुचित रास्ता है ही नहीं . परिक्रमा के रास्ते में ही सड़क मुख्य सड़क है , मिठाइयों और दूसरी तमाम चीजों की दुकानें हैं , पूरा बाजार है ,बाजार में क्रेताओं की भीड़ है .कहीं कहीं कीचड़ और कचरे के ढेर और गन्दगी भी थी . दूर दूर से आस्था के साथ परिक्रमा करने आए श्रद्धालु वहाँ के लोगों के लिये रोज ही काम के लिये जाते कर्मचारियों की तरह मामूली हैं . उनके साथ ही बाजार की भीड़ ,मोटरसाइकिल ,कार ,और टमटम का सफर भी जारी है .मुझे सबसे सोचनीय स्थिति तो उन आस्थावान यात्रियों की लगी जो उस भीड़ और यातायात के बीच दण्ड लगाते हुए परिक्रमा कर रहे थे . कैसा लगेगा कि एक श्रद्धालु जय गिर्राज जी महाराज बोलता हुआ ब्रज की भूमि को साष्टांग प्रणाम कर रहा है और कोई बगल से कार में या बाइक पर फर्राटे से निकल जाता है . कम से कम मुझे बहुत अखरा . उन लोगों की श्रद्धा ( कोई इसे अन्धविश्वास भी कह सकता है ) को नमन करती हूँ पर साथ ही शासन की लापरवाही पर क्षोभ भी होता है .क्यों अभी तक इस स्थिति में सुधार नहीं किया गया . 

हमने टमटम से परिक्रमा की पर लेकिन मुझे कहीँ पर्वत नहीं दिखा .लोगों के अनुसार पर्वत दिखता तो है पर कुछ ही जगहों से दिखता है .संभव है कि मेरी कल्पना जितना ऊँचा न हो . हमारा परिक्रमा का समय भी उपयुक्त नही था . 

मानसी गंगा आदि स्थलों पर यही विचार बार बार आ रहा था कि केवल 'भगवान का नाम लेने से ,जयकारा लगाने से, उनके धाम पहुँचने मात्र से पुण्य मिल जाता है ', इस जमी हुई धारणा ने हमारे धार्मिक स्थलों को किस तरह आडम्बर का केन्द्र बना दिया है . जहाँ भी देखो न कोई व्यवस्था न सफाई का ध्यान ..खास तौर पर गोवर्द्धन में पण्डों पुजारियों का प्रलोभन चरम पर दिखा .बद्रीनाथ धाम में यह बड़ी प्रेरक और सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ आडम्बर या प्रलोभन कहीं नहीं था .नगराज हिमालय के अंचल में अभी आचरण की शुद्धता बनी हुई प्रतीत होती है . यहाँ मन्दिर परिसर में छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ चन्दन लिये जिस तरह लोगों को रोक रोककर तिलक लगाने का चेतावनी मिश्रित आग्रह कर रही थीं , उन्हें शिक्षा के महत्त्व से हटकर धूर्त्त व्यावसायिकता और बिना कुछ किये धन कमाने के तरीके सिखाता है . बड़ी निराशा हुई कि इतने महत्त्वपूर्ण तीर्थ में मुझे भक्ति की बजाय आडम्बर और अराजकता ही दिखी . भक्ति का अर्थ केवल दीपक अगरबत्ती जलाकर आरती गाना नहीं होती . वह भक्ति का एक तरीका हो सकता है लेकिन भाव में जब तक कातरता और कृतज्ञता नहीं हैं , समाज के प्रति दायित्त्वबोध नहीं है , भक्ति नहीं आडम्बर है .मुझे परिक्रमा से सन्तुष्टि नहीं हुई . मेरे असन्तोष और दृष्टिकोण से उर्मिला सहमत नहीं थी . वह अपनी जगह सही थी पर मेरा दृष्टिकोण भी गलत नहीं था बस हमारी सोच दो दिशाओं में जा रही थी .

हैरानी यह कि अपनेआप में धार्मिक होने का दंभ पाले कुछ लोगों में न झूठ से परहेज होता है न प्रलोभन या बेईमानी से .उन्हें धार्मिक स्थलों में भी अतिक्रमण करते संकोच नहीं होता ..गिरिराज के आँगन में फैली बस्ती ,उस पावन धाम में व्याप्त अव्यवस्था मुझे यही बता रही थी , जहाँ तक मैंने अनुभव किया . हो सकता है वह सब तात्कालिक हो . यह तो पुनः वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा .फिर भी अतिक्रमण तो स्थायी सत्य है . मेरा विचार है कि प्रशासन को इस पावन गिरिराज परिसर को अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिये . और श्रद्धालुओं के लिये एक अलग यातायात से पृथक सुरक्षित मार्ग बनाना चाहिये .

मुझे अगले दिन सुबह अनिवार्य रूप से ग्वालियर पहुँचना था इसलिये मैंने सुबह उर्मिला से विदा ली .रवि ने शताब्दी के लिये मुझे समय पर मथुरा स्टेशन पहुँचा दिया .वह इस अनूठी अनुपम यात्रा का अन्तिम सोपान था .  

मंगलवार, 14 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --3

भारत का प्रथम गाँव .

तीन दिन धूप के दर्शन नहीं हुए .कप़ड़े सुखाने तक के लाले पड़ गए .लेकिन चौथे दिन धूप आई किसी बहुप्रतीक्षित अपने की तरह . स्वागत के लिये लोग बाहर निकल पड़े .हिमाच्छादित शिखरों पर चाँदी बिखर गई .निष्पन्द मौन पड़ी गलियाँ , बाजार सब जाग गए . चेहरे खिल गए .अलगनी मुँडेरों , दीवारों पर कपड़े फैल गए . सूर्यदेव स्वामी हैं ग्रहों के ,धरती के , सबके जीवन के , प्रकृति के सारे कार्यकलाप सूर्य से चलते हैं . तीन दिन बाद आई धूप हमें यही समझा रही थी . यह भी कि बिना दुख के सुख , बिना खलनायक के नायक , बिना गर्मी के वर्षा या सर्दी के और बिना धूप के छाँव महत्त्व का पता नहीं चलता .

आसमान साफ हुआ तो आसमान में पीले लाल सफेद नीले हैलीकॉप्टर मँडराने लगे . रास्ते खुले तो पाँव चल पड़े . असल में बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थ भगवान बदरीविशाल का मन्दिर तो प्रमुख है ही ,साथ में और भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जिनमें माना गाँव , व्यास गुफा , भीम पुल , सरस्वती नदी ,वसुधारा जलप्रपात आदि स्थान पहले से आते रहे लोगों ने बताए .हमने माना गाँव देखना तय किया .वहीं भीम पुल ,सरस्वती नदी और व्यास गुफा भी हैं यानी एक पन्थ चार काज .

लगभग 17000 फीट की ऊँचाई पर बसे माणा गाँव को कई पौराणिक रहस्यों वाला गाँव माना जाता है . यहाँ से पांडवों ने स्वर्गारोहण किया तथा यहीं व्यास जी ने महाभारत की रचना की . गाँव का माणा नाम मणिभद्र देव के नाम पर पड़ा है . यहाँ रडंपा जाति के मेहनती और खुशमिजाज लोग रहते हैं . उत्तर दिशा के इस कोण में यह भारत का आखिरी गाँव है . इसलिये इसे पहले अन्तिम गाँव ही कहा जाता था .  2022 में मोदी जी ने इसे प्रथम गाँव कहा . तबसे इसे प्रथम गाँव के नाम से जाना जाता है .


हम जैसे ही कार से उतरे कई दुबले पतले बच्चे बूढ़े ( जो उम्र से जवान थे वे भी तन से बूढ़े ही लगते थे) डोली (पिट्ठू)पीठ पर बाँधे आगे बहुत ऊँचे और कठिन रास्ते

का वास्ता देते हुए डोली लेने मनुहार कर रहे थे .मुझे तो पैदल ही जाना था लेकिन जो बैठना चाहते थे ,वे उनसे घिस घिसकर मोलभाव कर रहे थे . ग्राहक छूट न जाए इस बेवशी में वे कम से कम दाम पर भी तैयार होजाते थे .यही उनकी जीविका है . वे यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं . एक भारी भरकम सवारी ,जिसने मोलभाव करके किराया काफी कम करा लिया ,को पीठ पर लादे एक दुबले से युवक को देख हृदय में बड़ी हलचल मच रही थी . 
असहाय बीमार लोगों को तो विवश होकर पिट्ठू लेना ही पड़ता है .स्वस्थ लोगों को भी ले लेना चाहिये लेकिन उस पर मोल भाव करना मुझे बहुत निकृष्ट लगता है . होटलों पार्लरों में बिना हील हुज्ज़त किये हजारों रुपए शान से देने वाले लोगों को ऐसी जगह बचत सूझती है . नही सोचते कि आखिर वे आपका वजन उठा रहे हैं .कीमत से कहीं बढ़कर बात है यह . ये लोग किसी अभाव के लिये ईश्वर से शिकायत नहीं करते . जो मिला है उसे स्वीकार करते हैं इसलिये मुक्त रहते हैं .
अलकनन्दा


भीमपुल

माना गाँव में घूमना एक अद्भुत अनुभव हैं .साफ सुथरे ऊपर चढ़ते हुए चट्टानी रास्ते जिन्हें चढ़ते हुए साँस फूलती है लेकिन दोनों तरफ रंगबिरंगे परिधानों में वृद्धा हों , युवती हों या किशोरी स्वेटर मौजे टोप मफलर बुनते हुए देख हृदय गद्गद होता है .पहाड़ों में विपन्नता (भौतिक रूप मे) के बीच भी उनके चेहरों में धैर्य और सन्तोष देखकर विस्मय भी .हिमालय की गोद में पल बढ़ रहे ये लोग सृजन और परिश्रम से अपने समय को सार्थक बनाते हैं .इनके अलावा दूसरी दुकानें अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों रस्सी की कलाकृतियों और बुरांश के गहरे गुलाबी शरबत की बोतलों से सजी थी . गाँव के शिखर पर व्यास पोथी , गणेश मन्दिर , माता मन्दिर और व्यास गुफा है . व्यास पोथी देख आश्चर्य होता है .चट्टान की परतें किसी पुस्तक जैसी ही ही लगती है . कहा जाता है कि यहीँ वेदव्यास जी ने महाभारत जैसा महान ग्रन्थ लिखा था .ऐसा सृजन पर्वत की शान्त नीरव गोद में गहन मनन चिन्तन के बाद ही हो सकता है व्यास गुफा में उस समय कृष्ण भजन गाए जा रहे थे .बड़ा ही पवित्र वातावरण था .

वहीं पास एक चाय की दुकान है . बोर्ड पर लिखा है –'भारत की अन्तिम चाय की दुकान. एक बार सेवा का मौका अवश्य दें .’  यह  न भी लिखा होता तब भी मैं ज़रूर वहाँ चाय लेना चाहती . ऐसी दुर्गम जगहों में लोग यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं .बिक्री से ही उनकी रोजी रोटी चलती है . यात्रियों को कुछ न कुछ अवश्य लेना चाहिये . हम सबने वहाँ चाय पी . मैगी बिस्किट व समोसा आदि नाश्ता भी ड्राइवर संजय और रवि ने नाश्ता भी लिया ...फिर नीचे उतरकर भीम पुल देखा .कहा जाता है कि द्रौपदी को नदी पार कराने के लिये भीम ने यह पुल बनाया था .पाण्डव स्वर्ग जाने के लिये इसी पुल से निकलकर गए थे ..वहाँ चट्टानों के बीच से बहती धारा को सरस्वती नदी का उद्गम बताया जाता है . कुछ ही दूर आगे चलकर सरस्वती की धारा अलकनन्दा में समा जाती है . दोनों नदियों का संगम स्थल केशवप्रयाग कहा जाता है .

लौटते हुए मैंने बुराँश के शरबत की दो बोतलें खरीदी . साथियों ने भी कुछ न कुछ सामान खरीदा .सचमुच माना गाँव को देखे बिना बद्रीनाथ धाम यात्रा पूरी नहीं होती . 

आगे भी जारी....