मंगलवार, 31 मार्च 2015

कुछ तो कहो

सन्नाटा बढ़ जाए , 
इससे पहले बात करो  .
सन्देहों को तोड़ो  .
मतभेदों की रात करो .
तुम मेरी सुनो
मैं तुम्हारी सुनूँ
अवरोधों पर घात करो .

आओ मन को पखारें
सोचें विचारें
कि क्या है ,
जो आजाता है हमारे बीच
जूते में फंसे कंकड की तरह
उसे निकाल फेकें तुरंत .
मुश्किल हो जाता है सफर ,
दिल से दिल तक का .

तुम यह न देखो कि
एक कुहासा कभी--कभी
कर देता है अदृश्य
हमें एक दूसरे के लिये ।
देखो और समझो यह कि
बाद में किस तरह साफ चमचमाती है  
बरसाती धूप की तरह ,
हमारी परस्पर निर्भरता 
           
तुम इसे और भी अच्छी तरह समझ सकोगे    
अगर देख सको कि 
तुम्हारी थोडी सी आत्मीयता ही
किस तरह लगा देती है
मेरे पैरों में पंख ।

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सोमवार, 9 मार्च 2015

जैसा भी है...

महिला-दिवस पर एक लघुकथा
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"बात कुछ समझ में नही आती यार कि सिर पर डलिया का बोझ उठाए ,तो औरत .गली-गली में चक्कर लगाती हुई आवाज लगाए ,तो औरत . तेंदू तौलने का काम करे तो भी यही औरत तो फिर यह बुड्ढा क्यों पीछे लगा रहता है ? कहाँ तो वह नाजुक कबूतरी और कहाँ यह बूढ़ा खूसट गिद्ध !"
" यार गिद्ध भी डरता होगा कि कोई इस सुन्दर कबूतरी को उड़ा-फुसला न ले जाए ।"
"यह बात तो हैबेचारी भाग्य के नाम पर रोती होगी ।"
"बेकार रोती है । छोड़ दे इस गले पड़ी हड्डी को ।  हाथों हाथ लेने कितने ही जवान तैयार हो जाएंगे एक से बढ़कर एक ।"
इस तरह की बातें करते तीन युवक तेंदू बेचने वाले दम्पत्ति के आसपास मँडराने लगे । कपड़ों से सम्पन्न घरानों के लगते थे । शायद धन-बल का मान था । समाज में एकाएक उनसे कोई कुछ कहने का साहस नही कर सकता था । उनमें से एक आगे आया और मुस्करा कर बोला---"ला भौजी ! आज पके-पके तेंदू खिलादे ।"
खा लो भैया । औरत ने भी किंचित मुस्करा कर कहा--"कितने के तौलदूँ ?"
"कितने के क्या !"---दूसरा युवक आगे आकर बोला---"आज तो तेरे हाथ से उधार ही खाएंगे तेरे देवर । दाम कभी ब्याज सहित लौटा देंगे ।"
उधार-बुधार नही है भैया..---औरत इसके आगे कुछ कहती इससे पहले ही उसका आदमी बोल पडा--"गरीब हैं भैया । रोजी रोटी इसी से चलती है । उधार देंगे तो खाएंगे क्या ?"
"ए बुड्ढे !!" तीसरा युवक अकड़कर बोला---"तू क्यों आधी रोटी पर दाल ले रहा है ? और तुझसे माँग कौन रहा है ?" फिर वह औरत की तरफ मुस्करा कर बोला----
"हम तो अपनी भौजी से माँग रहे हैं ।"
"बडे आए भौजी वाले ।"---औरत के पति के अन्दर का पुरुष जागा---"अपना रास्ता देखो बाबूजी । गरीबों को क्यों सताते हो ?"
इस बीच आसपास के लोग भी तमाशा देखने आगए ।
"अच्छा ?? हम गरीबों को सताते हैं ?" तीनों युवक अकड़ उठे---"अभी सताया तो नही पर अब देख..." यह कहकर बूढ़े की बाँह मरोड़ी।
मुँह में दाँत नही हैं और पाँव कब्र में लटके हैं पर मर्दानगी तो देखो इसकी ...
"ए सहाबजादो !"---सहसा औरत बिफर कर खड़ी होगई । आसपास खड़े लोगों के साथ-साथ वे तीनों मनचले स्तब्ध रह गए ।
"बड़े होगे तो अपने घर के लिये होगे । हम गरीब हैं पर तुम्हारा दिया नही खाते । तुम्हारा गाँव है इसीलिये धौंस जमा रहे हो ? कल से नही आएंगे पर खबरदार जो तुमने इसे हाथ भी लगाया । खून से रँग दूँगी । यह बीमार है ,बूढ़ा है जैसा भी है मेरा 'आदमी' है .."

औरत लोहे का बाँट हाथ में लिये चीख रही थी । लोग विस्मित थे और वे लडके लापता .
(१९९२ में लिखित व प्रकाशित)