शनिवार, 30 मई 2020

लॉक-डाउन


कैसी ये मजबूरियाँ , कैसा यह अवरोध !
घर में कारावास का ही होता है बोध . 

'लॉक-डाउन' में 'लॉक' हैं , गली ,सड़क ,बाजार .
आभासी जग ही बना रिश्तों का आधार .

गली गली सहमी हुई ,मौन पड़े घर द्वार
केवल एक विषाणु से ,आतंकित संसार .

दबे पाँव वह कर रहा ,साँसों पर अधिकार
'अगम' 'अगोचर' हो रहा , कैसे हो प्रतिकार !

नहीं बुलाते अब हमें, सड़क, पार्क ,बाजार
सुबक रहे सन्दूक में ,नए सूट सलवार .

आँगन में ही रोज अब ,उगता है दिनमान .
आँगन में ही दिवस का होजाता अवसान .

दिल-दिमाग की खिड़कियाँ भी होगईं हैं 'लॉक'
दरवाजे पर ना सुनी कबसे कोई 'नॉक' .

बना रखी हैं दूरियाँ ,अपने हों या गैर .
बस मन ही मन कर रहे उनके 'घर' तक सैर .

गुरुवार, 28 मई 2020

सजा


यह कहानी उस समय लिखी गई थी जब दिल्ली से पहली बात सैकड़ों मजदूरों ने अपने घरों की ओर पैदल ही पलायन किया था . उसमें एक लड़का अकेला ही अपने गाँव जा रहा था , घर नहीं पहुँच पाया और रास्ते में ही उसकी मृत्यु होगई . बाद में तो हजारों मजदूर पलायन करते लगातार देखे सुने जा रहे हैं और मजदूरों की मौतों की दुखद घटनाएं लगातार हो रही हैं . पर यह कोरोना और लॉकडाउन के कारण शहर से पलायन करने वाले मजदूर की मृत्यु पहला मामला था . समाचार सुनकर यह सोचने विवश हुई कि शहर जाना केवल मजबूरी ही नहीं हैं ,शिक्षा और शहर की चमकदमक के आकर्षण से हुई गाँवों के प्रति विरक्ति भी लोगों को खास तौर पर नए लड़कों को पलायन के लिये प्रेरित कर रही है .  यह लघुकथा उन्हीं युवाओं पर केन्द्रित है .
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सजा
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बिसना की आँखों में अचानक अँधेरा छागया . दो दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं गया था . पैर काँप रहे थे ,आँतें सिकुड़ गईँ थीं . पग पग चलना दूभर हो रहा था . दिल्ली से देवगढ़ लगभग तीन सौ किलो मीटर की यात्रा ..संगी साथियों की बातों में आकर करन भी पैदल ही चल पड़ा था .
यह तो सबको पहले ही पता चल गया था कि देश दुनिया में करोना नाम की एक बहुत खतरनाक बीमारी फैल गई है ,जिसका कोई इलाज नहीं है .हजारों लोग मर रहे हैं ..लेकिन जब यह सुना कि बीमारी की रोकथाम के लिये लॉकडाउन कर दिया है तो मजदूरों में ,जो दूर दूर के गाँवों से शहर में जीविका के लिये आए थे ,हड़कम्प मच गया . लॉकडाउन माने सब कुछ बन्द बाजार , दुकानें बसें रेल सब कुछ . केवल घरों में रहें .
फैक्ट्रियाँ बन्द होगईं . बिल्डिंगों का काम भी रुक गया है . सारे कामकाज बन्द . मुश्किलें और परेशानियाँ सभी को हैं पर बिसना जैसे सैकड़ों हजारों मजदूरों पर तो जैसे मुसीबत टूट पड़ी है .काम नहीं, तो पैसा नही . पैसा नही तो खाएंगे क्या . न रहने का सही ठौर-ठिकाना न खाने पीने का .... अपने गाँव से काम की तलाश में शहर आए हैं , सरकार कह रही है कि जो जहाँ है वहीं रहे . पर कैसे रहें कहाँ रहें . एक कमरे में आठ आठ लड़के रहते हैं , उसमें भी मकान मालिक रहने देगा कि नहीं क्या पता . तमाम शकाएं मुँह खोले सामने थीं ..मालिक ने काम बन्द करते समय ,तनखा जितनी बनती ,उतनी भी तो नहीं दी . कैसे गुजारा होगा .?
धूल फाँकेंगे और क्या...--–सुरेन्द्र ने कहा .
धूल ही फाँकनी है तो अपने घर फाँकेंगे . मैं तो आज रात में निकलता हूँ .—रामदीन बोला .
बात तो ठीक है पर घर जाएंगे कैसे ?” –बिसना ने पूछा . जबाब सुरेन्द्र ने दिया .
अपने पैरों से और क्या ?..यहाँ अकेले भूखों मरने से अच्छा है अपनों के बीच मरें गिरें ,जैसे भी रहें ....
इतनी दूर !...बिसना को कुछ हैरानी हुई जिसे रामदीन दूर किया —अरे यार किसान का बेटा होकर डर रहा है !”
और सैकड़ों मजदूरों की तरह बिसना और उसके साथी भी अदृश्य भाग्य के भरोसे पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़े थे . सोचा कि हाई वे पर ट्रक टेम्पो कुछ न कुछ साधन तो मिल ही जाएगा .कई लोगों को मिला भी , नहीं मिला वे भी पैदल ही अपने अपने रास्ते चल पड़े थे . कौन कैसे घर पहुँचा ..पहुँचा भी या नही , बिसना को कुछ मालूम नहीं . उसके साथ केवल रामदीन रह गया था .पानी एक पैकेट बिस्कुट के सहारे और कभी न कभी कोई साधन मिल जाएगा इसी उम्मीद में चलते रहे . दिर रात चलते लगभग आधी से ज्यादा दूरी तो तय करली थी . जहाँ रात हो जाती या थक जाते वहाँ चादर बिछाकर सोजाते थे . कुछ मील बाद रामदीन भी अपने गाँव के रास्ते चला गया . बिसना का गाँव अभी भी बहुत दूर था . वह कल्पना में अपने घर माँ ..बापू ,घरवाली ..सबको देखता हुआ खुद को हिम्मत देता हुआ चलता रहा . आखिर एक जगह जाकर उसकी हिम्मत जबाब दे गई .वह निढाल होकर सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे जमीन पर ही पसर गया . दूर दूर तक चिड़िया भी नहीं दिखती थी . मौत को इतने करीब उसने कभी नहीं देखा था . प्यास के मारे गला सूख गया था .
जरूर यह उसकी सजा है . अपना गाँव अपने खेतों से दूर भागने की सजा –-निश्चेष्ट पड़े बिसना के दिमाग में विचार घूम रहे थे  .हम लोग आखिर शहर क्यों भागते हैं .
बापू ने बाबा की तेरहवीं बौहरे से कर्जा लेकर की थी . काहे कि बिरादरी के दूसरे लोगों ने पूरे गाँव को चूल्ह का नौता दिया था ..हम कैसे पीछे रहते ..फिर उसका और छोटी का ब्याह भी एक खेत गिरवी रखकर किया .पर कर्जा में गिरवी रखे खेत को छुड़ाने रुपए किस पेड़ से झरने वाले हैं, यह किसी ने सोचा ही नहीं . गाँव में दाल रोटी की कमी नहीं है पर उधार चुकाने के लिये तो सुनिश्चित आय का साधन देखना ही था . यों देखो तो गाँव में भी कामों की कमी नहीं है पर उतना दिमाग कौन लगाए . वह बिसना जैसे नए लड़कों को खेती का काम बहुत कठिन पिछड़ा और उबाऊ लगता है . धूप में कौन माटी गोड़े ...कितनी मेहनत और इन्तज़ार के बाद  फसल घर में आती है . दूसरों का काम करने मिले तो उसमें इज्जत घटती है . मास्टरनी अम्मा के लड़के ने बापू से कहा था कि बिसना की बाई (माँ) अगर माँ की देखभाल और घर के काम सम्हाल ले तो वह निश्चिन्त हो जाएगा ..महीने के पन्द्रह सौ रुपए देंगे .इसके अलावा भी सहायता कर देंगे .
गाँव में पन्द्रह सौ रुपए शहर के पाँच हजार के बराबर होते हैं पर बापू ने घर आकर खूब भड़ास निकाली --- हम इतने गए गुजरे नहीं कि दूसरों का चौका-बासन करें ?”
बापू मैं शहर चला जाऊँ  ?  वहाँ काम मिल जाता है .कुछ तो कमाकर लाऊँगा ही.”- बिसना से घर की हालत छुपी न थी .पर मन में शहर में रहने की ललक भी थी ., शहर में काम करो ,तुरन्त नगद रुपए लो और मौज करो ..
ठीक है –बापू ने कहा . सोचा कि गाँव के कितने ही लड़के बंगलोर ,जैपुर ,सूरत और ऐमदाबाद में काम करते हैं .और महीना के रुपए भेजते हैं . कुछ कर्जा तो उतरेगा . बाहर काम करने का एक लाभ यह भी है कि चाहे बेलदारी करो . झूठी प्लेट धोओ , गाड़ियाँ साफ करो , झाड़ू-पौंछा करो कपड़े धोओ ,कोई नहीं देखता . बापू ने अपनी हैसियत से कारज किये होते , कर्जा न लिया होता तो उसे ऐसे नहीं भटकना पड़ता . दाल रोटी की तो गाँव में भी कमी नही है . .उतना खर्चा भी नहीं होता . शहर में बाजार है , चमक-दमक है , पैसा है , पैसे से हर सुविधा खरीदी जा सकती है पर पेट भरने के लिये तो सभी गाँवों पर ही निर्भर है . गेहूँ दाल सब्जी ,तेल ...सब ...फिर भी हम शहर की ओर दौड़ पड़ते हैं और ज्यादा कंगाली झेलते हैं ..—सड़क के किनारे पड़ बिसना सोचते सोचते बड़बड़ाने सगा – ....बापू मैं अब कभी शहर नही जाऊँगा . हाँ ..चाहे खेतों में मजदूरी करूँगा.. ,बकरियाँ पालूँगा...दुकान खोल लूँगा.. ..बापू हम कम में गुजारा कर लेंगे ...पर चैन से तो रहेंगे .....और दीना ..मेरे यार .. तू सुन रहा है ना ...तू भी अब शहर मत जाना ...कोई मत जाना ...
बिसना अकेला धूल में पड़ा बड़बड़ा रहा था . उस पर गहरी तन्द्रा सी छा रही थी . आँखें नहीं खुल रही थीं .हाथ पाँव निश्चेष्ट हुए जा रहे थे .., सूरज डूबने के साथ साँसें भी जैसे डूबती जा रही थीं ...

सोमवार, 18 मई 2020

लोकेन्द्रसिंह राजपूत की कलम से

भाई लोकेन्द्र सिंह राजपूत , जो एक अच्छे पत्रकार व सहृदय लेखक हैं , ने 'मुझे धूप चाहिये' को पढ़कर अपने ब्लाग पर यह आलेख सन् 2013 में लिखा था . हालांकि उसके बाद पुस्तक पर कई विद्वज्जनों के विचार आए हैं पुस्तक काफी पसन्द की गई है लेकिन पुस्तक पर लिखी गई  यह सबसे पहली समीक्षा है . इसलिये महत्त्वपूर्ण भी . उसे आप यहाँ भी  पढ़ें .

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सुनहरे पन्नों का खजाना

सं वेदनाएं, सरलता और सहज भाव कहानी को हृदय में गहरे तक उतारने के लिए बेहद जरूरी हैं। कहानी सरस हो, उत्सुकता जगाती हो तो फिर वह आनंदित करेगी ही। फिर भले ही वे बाल कहानियां ही क्यों न हों। स्थापित कहानीकार गिरिजा कुलश्रेष्ठ का कहानी संग्रह 'मुझे धूप चाहिए' कुछ ऐसा ही है, बिल्कुल सरस और सुरुचिकर। मुझे धूप चाहिए में आठ कहानियां शामिल हैं। इसे प्रकाशित किया है एकलव्य प्रकाशन भोपाल ने। एकलव्य बच्चों की शिक्षा और उनके विकास को लेकर काम कर रही संस्थाओं में एक बड़ा नाम है। पुस्तक ११वीं की छात्रा सौम्या शुक्ला के बेहद खूबसूरत रेखाचित्रों से सजी हुई है। कहानी की विषय वस्तु और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सौम्या ने उम्दा चित्रांकन किया है। 'मुझे धूप चाहिए' ४२ पेज की पुस्तक है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सकता है। खास बात यह है कि दो वक्त की दाल-रोटी को तरसाने वाली महंगाई के दौर में इस बेहतरीन किताब के दाम बेहद कम हैं। महज २५ रुपए।
  दुनिया की खूबसूरती रिश्तों में है और रिश्ते जरूरी नहीं, इंसान-इंसान और जीव-जीव के बीच ही बने। रिश्ते तो किसी के बीच भी पनप सकते हैं। मनुष्य-जीव-जानवर-पेड़-पौधे-सूरज-धरती आदि-आदि किसी के बीच भी। जहां प्रेम और संवेदना रूपी खाद-पानी हो, वहां तो ये बांस की तरह तेजी से बढ़ते हैं। संसार के सूत्रधार की अद्भुत और अद्वितीय कृति है मां। उसके हृदय में जितना प्रेम और करुणा भरी है, उतनी तो दुनिया के सात महासागरों में पानी भी नहीं होगा। त्याग की प्रतिमूर्ति, बच्चों के लिए तमाम कष्ट सह जाना, बच्चों की परवरिश और परवाह में जिन्दगी गुजार देना मां अपना धर्म समझती है और भले से निभाती भी है। मनुष्य जाति हो या फिर जीव-जन्तु, पशु-पक्षी सबदूर मां की भूमिका समान है, उसका स्वभाव एकजैसा है, कोई भेद नहीं। गिरिजा कुलश्रेष्ठ की तीन कहानियां पूसी की वापसी, कुट्टू कहां गया और मां बड़ी खूबसूरती के साथ मां के धर्म और उसकी महानता को बयां करती हैं। इसी तरह इंतजार कहानी मां (गाय) के प्रति संतान (बछड़े) के प्रेम को बताती है। छुटपन में किसी भी बच्चे के लिए उसकी दुनिया मां ही होती है। सब उसके आसपास हों लेकिन मां दिखाई न दे तो उसका मन व्यथित रहता है। उसके लिए मां के आगे और सब गौण हैं। एक अन्य कहानी 'मीकू फंसा पिंजरे में' बाल मन की संवेदनाओं का शब्दचित्रण करती है। एक शैतान चूहे के पिंजरे में बंद होने के बाद कैसे एक छोटी-सी बच्ची का हृदय करुणा से भर जाता है। उसके हमउम्र भाई उस शैतान चूहे को कैदकर सताते हैं तो वह सुकोमल छोटी-सी बच्ची रो देती है। निरीह जीव को आजाद करने की गुहार लगाती है। 'मुझे धूप चाहिए' कहानी एक नन्हें पौधे के बड़े होने की कहानीभर नहीं है बल्कि यह एक बालक के किशोर और युवा होने की कहानी है। किसी भी क्षेत्र के स्थापित लोगों के बीच नए व्यक्ति को पैर जमाने में किस तरह की कठनाइयां आती हैं, 'मुझे धूप चाहिए' उसी बात को कहती है। सच ही तो है जैसे बड़े पेड़ों के झुरमुट में छोटे पौधे पनप नहीं पाते, कई पौधे तो अंगड़ाई लेते ही मर जाते हैं। बड़े पेड़ उन तक धूप ही नहीं पहुंचने देते। कहानी का मर्म यही है कि आपको स्थापित होना है तो जरा-से धूप के टुकड़े को पकड़ लीजिए और आगे बढ़ जाइए, बहुत से लोग विरोधकर तुम्हारा दमन करने को आतुर होंगे, बहुत से लोग निर्लज्जता से आपका उपहास उड़ाएंगे लेकिन आपको पूरे साहस और लगन से लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते जाना है। 
कथाकार गिरिजा कुलश्रेष्ठ का कहानी संग्रह 'मुझे धूप चाहिए' ऐसी पुस्तक है जो बच्चों को उनके जन्मदिन पर उपहार स्वरूप दी जानी चाहिए। पुस्तक क्या है यह बचपन की यादों के सुनहरे पन्नों का खजाना है। किशोरों, युवाओं और बड़ी उम्र के लोगों को भी ये कहानियां गुदगुदा कर, कुछ पलों में रुआंसा करके तो कई जगह रोमांचित कर बचपन की ओर खींच ले जाती हैं।

पुस्तक : मुझे धूप चाहिए
लेखिका : गिरिजा कुलश्रेष्ठ
मूल्य : २५ रुपए
प्रकाशक--एकलव्य फाउण्डेशन जाटखेड़ी
फॉर्चून कस्तूरी के पास भोपाल (मध्यप्रदेश)462026
फोन :0755-2977770

शनिवार, 9 मई 2020

प्रतीक्षा --कुछ क्षणिकाएं डायरी से


1)
आसमान में सु--दूर
झिलमिलाता
रुपहला तारा
कितना पास-
कितना दूर
(2)
दाँतों में फँसा हुआ
अदृश्य सूक्ष्म तन्तु
और कुछ तो सोचना भी
असंभव है
जिसके रहते
(3)
प्रतीक्षा
एक चिंगारी छोटी सी
सुलग -सुलग कर
धीरे-धीरे
बदल लेती है
राख में सब कुछ
(4)
प्रतीक्षा
रेगिस्तान में
लहराती हुई टहनी
बचाए है अपनी नमी
किसी तरह
लेकिन कब तक
(5)
फिजूलखर्च जिन्दगी के साथ
किसी तरह गुजारते
बचे हुए आखिरी गहने जैसी
प्रतीक्षा
किस सन्दूक में रखूँ
बचाकर
कहो तो-----
(6)
एक अन्तहीन
रुपहली रेशमी डोर सी
प्रतीक्षा
बँधी है क्षितिज के पार
टाँग दिया जिस पर
मैंने अपना ह्रदय
पडा था कोने में
रद्दी कपडे की तरह
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सोमवार, 4 मई 2020

हीरो किसके लिये गा रहा था ?


 राजकपूर मेरे प्रिय अभिनेता रहे हैं . 2 जून को उनकी पुण्यतिथि पर मुझे कई साल पहले लिखा यह संस्मरण याद आया . जिसे यहाँ दिया है . उम्मीद है कि आपको अच्छा लगेगा .
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यह बात सन् 1970 के अप्रैल की है .मैंने छठवीं कक्षा पास की थी . परीक्षा के बाद पढ़ाई का बोझ सिर से उतर चुका था . दरअसल ये वो दिन थे जब हम लोग गाँव के बाहर की दुनिया से लगभग अपरिचित ही थे . जो कुछ ज्ञान हासिल था वह हमारे मँझले भैया किशोर से मिला था .वे हम सबमें खासे बुद्धिमान और ज्ञानवान् माने जाते थे .किसी भी फिल्मी गीत पर पैरोडी बना सकते थे .वे जब चाहे बिना रुके कोई भी मनगढ़न्त कहानी सुना सकते थे. उन्होंने ही हमें बताया था कि रेडियो के अन्दर बहुत छोटे अँगूठे जितने आदमी औरत रहते हैं जो गाना गाते हैं .

खैर ,उन्ही दिनों की बात है .हम सब लोग एक शादी में शामिल होने सबलगढ़ गए .
सबलगढ़ मुरैना जिले की एक तहसील है जो आज भले ही एक  बेतरतीब भीड़ और धूल से भरा बहुत ही धूमिल सा कस्बा है लेकिन हमारी नजर में उन दिनों सबलगढ़ बहुत ही सुन्दर और कौतूहलभरा एक बड़ा शहर था . मैं पहली बार गाँव से बाहर किसी ऐसी जगह जा रही थी जहाँ सड़कें थीं , बड़ी बड़ी बसें थीं . बाजार था ,तमाम तरह की रंगबिरंगी दुकानें थीं , पक्के मकान थे ...एक तो शादी समारोह ही उल्लास की अच्छी खासी वज़ह होते हैं .उसपर किशोर भैया ने मुझे चुपचाप पहले ही बता दिया था कि सबलगढ़ जाकर बड़े भैया के साथ वे फिल्म देखने जाने वाले हैं . फिल्म शब्द हमारे लिये बड़ा स्वप्निल सा था क्योंकि रेडियो में जितने भी गीत बजते थे ,उनके प्रसारण से पहले बताया जाता था कि यह गीत अमुक फिल्म से लिया है . असल में फिल्म क्या होती है यह हमें ,कम से कम मुझे नहीं मालूम था .
"बड़े भैया मैं भी फिलिम देखने चलूँगी ."
"लड़कियाँ फिल्म नहीं देखतीं .और तू अभी छोटी भी है ."बड़े भैया ने कुछ कठोर लहजे में कहा .
"उसका मन है तो ले जाओ .हल्की-फुल्की साफ-सुथरी फिल्म है ." --ताऊजी ने कहा तो भैया मन नहीं कर सके .
इस तरह वहाँ की आज भी एकमात्र 'लक्ष्मी' टॉकीज में हम फिल्म देखने पहुँचे . फिल्म थी 'दीवाना' ,जिसका बड़ा सा पोस्टर टाकीज बाहर लगा था .टिकिट लेकर अन्दर हाल में गए तो मुझे बड़ी हैरानी हुई . हाल में बड़ा अँधेरा था. न सीट दिखे न रास्ता . अँधेरे में फिल्म भला क्या दिखेगी .एक आदमी ने हमें टार्च के सहारे सीट पर बिठाया .कुछ ही देर बाद सामने दीवार पर लगा सफेद पर्दा जाग उठा . कुछ नाम दिख रहे थे साथ ही एक धुन बज रही थी जिसके शुरु होते ही हमारा ज्ञान बलात् ही फूट पड़ा जो रेडियो पर रोज सुने गीतों से पाया था --" अरे यह तो 'दीवाना मुझको लोग कहें ..' की ट्यून है ." मैंऔर देवेन्द्र अचानक उछल पड़े
"चुपचाप देखो ..अपने ज्ञान को अभी अपने पास ही रखो ."-बड़े भैया ने टोका . थोड़ी ही देर में वह सफेद पर्दा जादुई तरीके से एक सुन्दर गाँव में बदल गया . हम हैरान थे . हमारे सामने ऐसी दुनिया थी जो हमने कभी कहीं नहीं देखी थी . चलते फिरते गोरे चिट्टे लोग..सुने सुनाए गीत ..
 एक औरत जो दीवाना की माँ थी , एक बहुत गोरी सुन्दर राजकुमारी और हाँ दीवाना ,बहुत सुन्दर  सिर पर कलगी वाली टोपी और खाकी वर्दी पहने था . भैया ने उसे देखते ही कहा था --.
"यह फिल्म का हीरो है ."--किशोर भैया ने बताया था .
"तुम्हें कैसे पता ?"
"अबे, जो फिल्म में सबसे सुन्दर होता है वहीं हीरो होता है . इसकी हीरोइन होगी वह भी बहुत सुन्दर होगी देखना ."
हीरोइन कौन ?”
"एक सुन्दर लड़की होती है जो अन्त में हीरो से मिल जाती है ."--किसोर भैया ने कहा --"अब कोई सवाल मत करना . लोग हमें गँवार समझेंगे ." 
हम चुप होकर फिल्म देखने लगे . हीरोइन यानी राजकुमारी आई .फिल्म में एक बैलगाड़ी भी थी . यह भी याद रहा कि राजकुमारी ने हरी मिर्च के साथ रोटी खाई और वह पानी में कूद गई .उस समय सूरज डूब रहा था कि उग रहा था पता नहीं . दीवाना ने जो बहुत सारे गीत गाए वे सब हमने रेडियों में सुन रखे थे सो देखने में बड़ा आनन्द आया . पर मन में तमाम सवाल  उथल-पुथल मचाए हुए थे , जो आज भी मन को गुदगुदा जाते हैं . जैसे कि हमारी पीछे वाली सीट पर बैठे लड़के को कैसे पता चला कि फिल्म में एक बूढ़ी औरत क्या कहने वाली है .क्योंकि लड़के ने जैसे ही कहा --हाय अल्ला , बूढ़ी माँ ने भी कहा –"हाय अल्ला ." 
उस लड़के को कैसे पता चला कि अब दीवाना पकड़ा जाएगा और जेल होगी .राजकुमारी ने जब मिर्च खाई और मुँह जलने पर पानी पानी चिल्लाने लगी तो पास बैठे लड़के ने कहा --"अरे जल्दी पानी में कूद जा." और आश्चर्य कि वह पानी में कूद भी गई .
उसने कैसे जान लिया कि वह चश्मे वाला आदमी ही हीरो का पिता है ? 
ये लोग कहाँ रहते हैं , क्या खाते हैं जो इतने गोरे और सुन्दर  हैं ?...और सबसे बड़ा अचरज यह कि दीवाना मुझे कैसे जानता है ? पहले तो मैंने उसे कभी नहीं देखा पर वह मुझे देखकर ही गा रहा था . "हमारी भी जय जय तुम्हारी भी जय जय...." मुस्करा भी रहा था कितनी प्यारी थी उसकी मुस्कान  ..

फिल्म का आदि अन्त कुछ समझ नही आया .न कहानी का सिर पैर समझ आया . पर कुछ सीन अभी तक दिमाग में बसे हैं ,पीतमपुर स्टेशन , नोटों भरा सूटकेस ,गुलाब का फूल , जेल ,कुछ गीत ,कुछ सूरतें और कुछ बातें याद रह गईं . वे सब हमारे साथ ही घर आगई और आंगन रसोई बैठक सब जगह फैल गई हवा की तरह . और हफ्तों महीनों तक हमारे इर्द-गिर्द घूमती रहीं . हमारा ज्यादा समय फिल्म की बातें करने में गुजरता था . किशोर भैया फिल्म के दृश्य और गीत-संगीत पर मुग्ध थे .वे अक्सर उस फिल्म के गीत गाते रहते . देवेन्द्र भैया उसके डायलॉग तोड़ मोड़कर बोलते रहते—जय जय... वायरलेस....ढाई लाख,..सूटकेस..लाल गुलाब ..कुतबमीनार ....
पर मैं मुग्ध थी दीवाना पर . मेरे मन को हर वक्त यही सवाल कुरेदे जा रहा था कि हीरो ने गाते गाते मुझे इतने अपनेपन से क्यों देखा .देखा ही नही मुस्कराया भी . क्या वह मुझे जानता था ? क्यों मुझे ही देखकर गा रहा था -– "आना ही होगा तुझे आना ही होगा... कोई किसी को इस तरह क्यों बुलाएगा ..मैं तो राजकुमारी जैसी नहीं हूँ पर तभी मुझे याद आया .मैंने कहीं सुन रखा था कि पसन्द आने के लिये सुन्दर होना जरूरी नहीं . इसलिये यकीन भी होगया कि जरूर दीवाना मेरे लिये गा रहा था . जब कोई किसी को बहुत अच्छा लगता है तभी तो उसके लिये इस तरह गाता है ...ऐसा यकीन कितना मोहक और रोमांचक होता है .”-मैं अबोध सी लड़की अपनी नजर में अचानक बड़ी और खूबसूरत होगई .
और हाल यह हुआ कि एक दस साल चार महीने की लड़की के दिल दिमाग में हर पल बस एक ही नाम था दीवाना .एक ही सूरत थी दीवाना  . एक ही गीत --आना ही होगा तुझे ...
बहुत ही खास और रोमांचक बात को अकेले पचाना बड़ा कठिन होता है . मुझसे भी नहीं पचाई जा रही थी . सो मैंने सारे सवाल देवेन्द्र भैया के सामने रखे . वह मेरा हमउम्र है . 
"हें !! .. सरासर झूठ.दीवाना तुझे देखकर गा रहा था यह हो ही नही सकता ."
"क्यों नहीं हो सकता ?"
"क्योंकि वह मुझे देख गा रहा था . एक दिन पिताजी ने नहीं बताया था एक आदमी एक बार में एक ही तरफ देख सकता है ? तू मुझे देख और साथ ही उस इमली के पेड़ को देख ...देख सकती है ? .तो पक्का दीवाना तुझे नहीं मुझे देख रहा था  ."
इस बात पर हम उलझ पड़े .
हमारा झगड़ा जब ताऊजी तक पहुँचा तो सुनकर पहले तो वे खूब हँसे .फिर उन्होंने  बताया कि जब कोई कैमरे की ओर देखकर बोलता या गाता है तब हममें से सभी को वह अपनी ओर ही देखता नजर आता है . दीवाना असल में कैमरे को देख रहा था .. फिर फिल्मों में लोग नहीं ,उनके चित्र होते हैं .यह तकनीक का कमाल है कि चित्र भी जीते जागते इन्सान की तरह हर तरह का कार्य करते दिखते हैं ..
इस और भी नई जानकारी ने पुरानी जानकारी साफ करदी .तब कहीं मैं उस स्वप्नलोक से बाहर निकली . बाद में जब 'गुड्डी' देखी तब मुझे खूब हंसी आई 'दीवाना' की याद करके .
लेकिन राजकपूर ( राज )आज भी मेरे प्रिय अभिनेता हैं . 'दीवाना' का तो अब ध्यान नहीं पर 'आवारा', 'अनाड़ी' , 'छलिया', 'श्री चार सौ बीस' , 'तीसरी कसम' ,'जागते रहो' , 'चोरी चोरी' ,'जिस देश में गंगा बहती है' मेरा नाम जोकर खानदोस्त आदि फिल्में जब भी देखने मिलतीं हैं मैं जरूर देखती हूँ .