गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

ज्योतिर्मय यह पर्व है

ज्योतिर्मय यह पर्व है ,
जगर-मगर उजियार।
ऐसे ही शाश्वत रहे ,
अन्तर्मन उजियार ।


नेह और विश्वास का , हो प्रवाह अविराम ।
इन्तज़ार तब तक रहे , जब तक लौटें राम ।

घर लौटे विश्वास यों पूरा कर वनवास,

निर्वासित ना हो कभी वैदेही सी आस ।

घर-आँगन ही क्यों रहें , बाहर भी हो स्वच्छ ।

राम-राज्य साकेत-मन ,हर निर्णय निष्पक्ष ।

दीपावलियों में कहाँ ,टिके अमावस रात 

उजियारे की चाह में , कोई तो है बात ।

मन दीपक जलता रहे ,करे तिमिर का नाश।
यों घर में दीपावली ,रहे बारहों मास ।

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं 






( चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

जोड़ते हम रहे....

उम्रभर शूल पथ के हटाते रहे ।
खाइयाँ पूरते  और पटाते रहे ।

जीत लेंगे भरोसा कभी ना कभी
इस भरोसे में खुद को मिटाते रहे ।.

था ये मालूम ,तूफां उजाड़ेगा घर ,
फिर भी जीने का सामां जुटाते रहे ।

आज देंगे वही कल मिलेगा हमें ,
बस यही मान सब कुछ लुटाते रहे   ।

उनको लहरों का अन्दाज़ होगा नही ।
नाम तट पर  तभी तो लिखाते रहे ।

एक उत्तर भी आता तो कैसे भला ,
जोड़ते हम रहे , वो घटाते रहे ।

चाँद सा जगमगाने की चाहत तो थी,
पर अँधेरों से ही मात खाते रहे ।

(सन् 2002में रचित )
    

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

"राम राम !...खोलो रानी चन्दन किवाड़ ..."



" दशहरा ..विजय-दशमी . शौर्य ,युद्ध और विजय का प्रतीक-पर्व, जिसके पीछे कितनी कथाएं ,कितनी जनश्रुतियाँ छिपी हुई हैं .देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर पर विजय और उसका वध, राजा रघु की कुबेर पर विजय , राम की रावण पर विजय .पराजित कुबेर ने उपहार स्वरूप राजा रघु के लिये अपना खजाना खोल दिया और राजा रघु ने प्राप्त सारा धन प्रजा में बाँट दिया . उसी याद में कहीं कहीं स्वर्ण-स्वरूप शमी के पत्ते लुटाए जाते हैं . इसी दिन राम ने रावण का अन्त कर एक अनाचार का अन्त किया था .दशहरा न्याय और सत्य की जीत का त्यौहार है . बुराई पर अच्छाई की विजय का त्यौहार है . वचन-पालन और दानशीलता का त्यौहार है......'
यह सब मैंने तीसरी-चौथी कक्षा में ही पढ़ लिया था .गाँव में हर साल दशहरे की सुबह लोगों को उत्साह से अपने ट्रैक्टर, जीप ,मोटर साइकिल ,साइकिल ,औजार ,मशीन और वाहनों को साफ करते देखती थी तो मन उल्लास से भर जाता था . हमारे घर भी काकाजी अपनी साइकिल की और माँ अपनी सिलाई मशीन की सफाई करती थी . जिनके पास बन्दूकें थीं वे बड़े गर्व से अपनी 'दोनाली' ,'पँचफैरा' और 'मौजरनिकालकर साफ करते थे . और साफ करने के बाद एक दो फायर भी कर देते थे . क्योंकि इसी दिन से बच्चों को पटाखे चलाने का लायसेन्स मिल जाता था . सो सभी बच्चे बड़ी आतुरता से दशहरे की प्रतीक्षा करते थे .
दशहरे की प्रतीक्षा मुझे भी रहती थी लेकिन प्रतीक्षा के कारण दूसरे थे . एक तो यही था कि बीस-पच्चीस दिन स्कूल जाने का कोई झंझट नहीं था . उन दिनों स्कूलों में दशहरा से दीपावली तक अवकाश हुआ करता था . हम लोग सुबह सुबह स्कूल जाने की बजाय खेतों की मेड़ पर ओस भीगी घास पर चल सकते थे .पूरब के क्षितिज पर सूरज को उभरता हुआ देख सकते थे . नदी किनारे दूर दूर तक कास के झूमते फूलों को देख सकते थे जो हवा और लहरों की गति से ताल मिलाकर लहराते हुए लगते थे .उन्ही दिनों गन्ने के खेत से आती हुई मीठी खुशबू भी ललचाती थी . तोरई और कद्दू की बेलों में चमकते बड़े बड़े पीले फूल बहुत लुभाते थे . मिट्टी में दबे शकरकन्द और मूँगफलियों को जमीन से बाहर निकाल लेने का भी वही मौसम होता है .और मोरों के पंख गिराने का भी . पाँख (मोरपंख) ढूँढ़ने लड़के मुँह अँधेरे ही निकल पड़ते थे . हमें भी जब कभी कभी 'चंदक' मिल जाता था तो वह एक उपलब्धि हुआ करती थी .
दशहरे की प्रतीक्षा का दूसरा और सबसे बड़ा कारण दशहरे की बहुत ही उल्लासमय शाम थी जब दूधिया चाँदनी के रुपहले विस्तार में सारा गाँव एक परिवार जैसा लगता था . लोग द्वार द्वार पर जाते परस्पर मिलते .राम राम कहते और नारियल बताशे की भेंट ग्रहण करते . दसमीं का तिर्यक चाँद पन्त जी की 'घूँघट से मुँह छुपाए मुग्धा' की याद दिलाता था . उसे पूरा गोल होने में अभी भले ही चार-पाँच दिन बाकी होते पर गाँव की गलियाँ चाँदनी की झील में नहाकर निखर जातीं थीं । तब चाँदनी शायद ज्यादा चमकीली ,ठण्डी और मोहक हुआ करती थी ।
जब चाँदनी अपने पूरे सौन्दर्य के साथ झमकती हुई पेड़ों और मुँडेरों से उतरती हुई आहिस्ता से चबूतरों पर और फिर गलियों में बिखरने लगती तब लोग दरी बिछाकर ,थालियों में नारियल के टुकड़े , मिश्री ,बतासे ,लोंग इलायची सजाकर अपने अपने द्वार पर बैठ जाते थे और मिलने आने वाले लोगों को राम राम कहकर नारियल बतासे आदि देते थे । लगभग रात के एक बजे तक , जब तक कि नींद पलकों पर मनों वजन नही लाद देती और हर चौथे पल जम्हाँइयों (उबासियों) के कारण लोगों के चेहरे विकृत नही होने लगते ,तब तक गली में राम राम का सिलसिला चलता रहता और गलियों में मंगलवारी हाट जैसा माहौल बना रहता था लेकिन स्नेह और उल्लास भरा... हमारे चबूतरा पर काकाजी बैठते थे फिर जब वे 'राम राम' के लिये गाँव में निकलते तब माँ 'राम-राम ' के लिये चबूतरा पर बैठ जातीं थीं ।
उस रुपहली रात में बच्चे खास तौर पर उत्साहित रहते थे । उन्हें उन्मुक्त होकर उजली गलियों में घूमते हुए ज्यादा से ज्यादा 'चटक' या 'खुरैरी' ( स्थानीय बोली में नारियल के टुकड़े )और बतासे पाने का सुनहरा मौका जो मिलता था ।
उसी समय हाथों में टेसू लिये लड़कों की टोली भी द्वार पर आ धमकती और गा उठती थी---
"टेसू आए घर के द्वार
खोलो रानी चन्दन किवार
चन्द चन्द के टके बनाए
एक टके की पन्नी मँगाई ....।"
या
"मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने माँगे दही बड़ा ।
दही बड़ा में पन्नी
धर दो एक अठन्नी ।"
दशहरा के दिन से प्रारंभ हुआ टेसू और झाँझी के जुलूस पूर्णिमा तक गलियों में धूम मचाए रहता . पूर्णिमा को दोनों का विवाह सम्पन्न कराया जाता . 
उन दिनों जब गाँव में बिजली नही थी ,चाँदनी रात किसी सौभाग्य से कम नही होती थी । एक तरफ कमरों में अँधेरे के साम्राज्य में प्राणपण से संघर्ष करती लालटेन या दिये की टिमटिमाती रोशनी थी तो बाहर अँधेरे को सुदूर कोने में खदेड़ने वाले ,रुपहले उजाले के अजस्र स्रोत---चन्द्रदेव । मनुष्य ही क्या पेड़-पौधे भी उनके साक्षात्कार का उत्सव मनाते थे ।
साधन-हीनता विषाद का मूल नही होती । विषाद के मूल में होता है साधनहीनता का अहसास जिससे तब किसी का परिचय था ही नही । उस साधनहीन सम्पन्नता का एक अलग आनन्द था । मेरा विचार है कि प्रकृति के हर उपादान में ईश्वर की स्थापना मनुष्य ने भौतिक साधनों के अभाव में ही की होगी .
दशहरे की वह रात अनौखी हुआ करती थी . कोई छोटा-बड़ा या अमीर-गरीब नही । सब सबके दरवाजे पर जाकर अभिवादन में राम राम कहते हाथ जोड़ते हैं . अंजुरी आगे बढ़ाते हैं और दूसरे ही पल अंजुरी नारियल बतासों से भरी होती है ।
आज किसी को रावण याद नहीं . याद होगा भी क्यों  वह तो वीर पुरुषोत्तम राम के हाथों मारा जा  चुका है . सब केवल राम को याद कर रहे हैं । राम की विजय का उत्सव मना रहे हैं . गलियाँ राम राम ध्वनि से गूँज रही हैं । साहस ,शौर्य और शील के पर्याय राम के स्मरण से  .ऐसे में रावण का क्या काम ? जहाँ 'राम' हैं वहाँ 'रावण' नहीं होसकता . होगा भी तो वह राम के हाथों मारा जाएगा जरूरी है राम का होना .                         
सचमुच मुझे याद नही कि तब दूर दूर तक भी धोखा ,बेईमानी, हत्या , बलात्कार जैसे अपराध का कोई किस्सा सुना गया हो ।
रावण-दहन केवल रामलीला के दौरान होता था . मैंने कहीं पढ़ा है कि अच्छाई के प्रचार से अच्छाई बढ़ती है और बुराई के प्रचार से बुराई । रावण ( बुराई का प्रतीक) को याद करना एक तरह से बुराई को जीवित रखना ही तो है । हम रावण बनाते हैं इसलिये उसे जलाने का नाटक करते हैं . गन्दगी फैलती है तभी तो सफाई-अभियान की जरूरत होती है । शायद इसीलिये हमारे गाँव में रावण को जलाने की परम्परा कभी नही रही ( अब पता नही ) पहली बार मैंने रावण जलाने का दृश्य एक फिल्म में देखा था ( शायद रेशम की डोरी) .वास्तव में  मेरे लिये दशहरा 'रावण 'के अन्त से अधिक 'राम' की विजय का पर्व है .राम का स्मरण करने और नारियल-बतासे लेने देने का पर्व है ।

इसलिये आप सभी अपनों को दशहरा की राम राम और नारियल-बतासे की सादर , सस्नेह भेंट ।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

दोराहे ऐसे भी होते हैं ।

आजकल दुर्गाजी की झाँकियों से हर सडक ,चौराहा व गली जगमगा रही है । मधुर ,कर्णकटु ,भक्तिमय और फूहड सभी तरह के भजनों से हर दिशा संगीतमय (कोलाहलमय) है ।


बात कुछ यों हुई कि अंजना (छोटी बहन) ने शाम को अपने घर बुलाया । भजनों का कार्यक्रम था । जैसा कि नवरात्रि में अधिकतर होता है । उसके घर में प्रति वर्ष नवरात्रि में देवी की स्थापना होती है । 
मैंने उल्लासपूर्वक हाँ कहदी । हालांकि स्कूल के बाद ऐसे किसी कार्यक्रम में जाने का हौसला नही रह जाता ,पर जाने कबसे गीत-भजन गाए ,सुने नही थे । उसने रमा और सुधा ( मौसेरी बहनें) को भी फोन कर दिया था । रमा मेरे पडोस में ही है । सुधा कुछ दूर सेवा नगर में । अंजना हम तीनों से अलग न्यू- कालोनी में । 
सुधा के बिना हमारी मण्डली अधूरी है । वह जब ढोलक पर थाप देती है सुनने वाले वाह कहने विवश होजाते हैं । खराब गीत भी उसकी ताल के साथ समा बाँध देता है । इसीलिये वह भजन-मण्डली में विशेष सम्मान और स्थान पाकर हम सबसे आगे है । 
मैं उसके बिना भजन गाने का मन नही बना पाती । मेरी आवाज वैसे ही बहुत मन्द और दुर्बल सी है पर एक-दो गीत तो मुझे गाने ही पडते हैं । इसलिये जहाँ भी भजन कार्यक्रम होता है मैं सुधा को आगे रखती हूँ । अंजना नए-पुराने बहुत सारे भजनों को कंठस्थ रखने के लिये याद की जाती है । जबकि मैं जहाँ देखो डायरी लिये फिरती हूँ । अपने लिखे भजन या कविताएं ही मुझे याद नही ।  
मैंने तय किया कि मैं किलागेट (घर) आने की बजाय शाम को स्कूल से सीधी न्यूकालोनी पहुँच जाऊंगी और रमा-सुधा वहीं जाकर मिल जाएंगी । चारों बहनें मिलकर खूब आनन्दित होंगी ।
लेकिन स्कूल से निकलते समय तेज वर्षा हो रही थी । मुझे तय किया कार्यक्रम रद्द होता हुआ लगा । फोन करने पर पता चला कि रमा की तबियत भी कुछ खराब होगई है । वह न जा सकेगी । रमा नही तो सुधा भी नही । गजब का तालमेल है दोनों में । रह गई मैं अकेली  जैसा कि अक्सर होता है । ऐसे मैं जैसे एक दोराहे पर खड़ी रह जाती हूँ । इधर जाऊँ या उधर जाऊं के दो छोर जैसे किन्ही अनजान हाथों में होते हैं । मैं कुण्ठित सी उस भँवर से चाहकर भी बाहर नही आ पाती । 
अंजना के घर जाऊँ या न जाऊँ --  मैं इसी ऊहापोह में डूबी खड़ी थी कि बगल में किलागेट वाला टेम्पो आ खड़ा हुआ । जबकि न्यू कॉलोनी के लिये मुझे हजीरा वाला टेम्पो लेना था । 
"चलो ,छोड़ो , घर चलते हैं ।"--मैंने स्वयं को मुक्त करते हुए सोचा---"हल्की बारिश तो अब भी हो रही है । साथ में पानी की बोतल, छतरी, किताबें और दिनभर की ड्यूटी के बाद थकान भी । यहाँ गाँव या अपना घर तो है नही कि जैसी भी हालत में हो पहुँच जाओ । बहन की ससुराल है । हुलिया का कुछ ध्यान तो रखना चाहिये और फिर ऐसा कौनसा अनिवार्य है पहुँचना । नवरात्रि के भजनों का ही तो कार्यक्रम है । अंजना से फिर किसी दिन ऐसे ही मिल आऊँगी ।"
उधर टेम्पो ड्राइवर ,जो रोज आने जाने के कारण जानता है ,बोला---"मैडम चलना हो तो जल्दी बैठो । अभी जाम लगजाएगा ।"
सोचने का इतना टाइम नही था । मैं लपककर टेम्पो में चढ़ गई । वैसे भी मुझे स्कूल से सीधे घर आने की ऐसी भयंकर आदत पडी हुई है कि अक्सर घर में घुसने पर याद आता है कि अरे चाय बनाने के लिये शक्कर नही है या कि और कई जरूरी चीजें, लेकिन घर आने के बाद जो कपड़े बदल लिये तो फिर जरूरतें पड़ी रहें एक तरफ । कौन फिर से दूसरे कपड़े पहने !कौन बाजार जाए ! 
सुनीता (कामवाली) जब कई दिनों तक झाडू टूटने या बर्तन का साबुन खत्म होने की शिकायत करते करते और मेरी ," आज भूल गई कल ले आऊँगी", सुनते-सुनते थक जाती है ,तो वह खुद ही खरीद लाती है और पैसे माँग लेती है । खैर...
लेकिन अब मुश्किल यह हुई कि इधर तो मेरा टेम्पो में बैठना हुआ और उधर दिल--दिमाग में यह खयाल बुरी तरह उछल-कूद करने लगा कि अंजना मेरा इन्तजार कर रही होगी । ससुराल के माहौल में मुझे साथ पाकर उसे कितनी खुशी होगी । फिर यह बारिश कौनसी मुसीबत है ! सर्दियाँ होतीं तो फिर भी मुश्किल होती । अभी तो सितम्बर हैं । ये मन की बहानेबाजियाँ ही तो है जो मुझे अक्सर अवसरों से वंचित कर देतीं है । मुझे अंजना के पास जाना चाहिये । वहाँ भी सब कुछ घर जैसा ही तो है । उसकी सास ननदें मुझे कितना मान देतीं हैं ! देखते ही खुश होजातीं हैं । रोज-रोज तो ऐसे बुलावे आते नही है । घर भी अभी ऐसा कौनसा अर्जेन्ट काम पडा है ! 
बस अब मुझे टेम्पो में बैठे रहना मुश्किल लगने लगा । लगने लगा क्या मुश्किल हो ही गया ।
"भैया जरा रोकना ।"-- मैंने ड्राइवर को कहा । वह परिचित था सो कुछ हैरान सा बोला ---"क्यों मैडम चलना नही है ?" मैंने बात बनाई--
"नही भाई कुछ काम याद आगया है । देर से जाऊँगी ।" टेम्पो तीन-चार सौ मीटर दूर ही चला कि मैं उतर पडी ।  
हजीरा और किलागेट की सडक का अलगाव आगे जाकर फूलबाग चौराहे पर होता है जहाँ से एक सडक किलागेट बाईं ओर मुड जाती है । हजीरा के लिये सड़क सीधी जाकर पड़ाव चौराहे से बाई ओर मुड़ती हैं । मैं फूलबाग भी उतर सकती थी लेकिन इतना सब्र कहाँ ! 
अब मैं शिन्दे की छावनी पर खड़ी हजीरा के टेम्पो का इन्तजार कर रही थी ।पाँच बजे सभी टेम्पो इस तरह भरे चलते हैं मानो लोग किसी मेला के लिये जारहे हों । ठसाठस भरे वाहन चिढ़ाते हुए से सर्राटे से निकल रहे थे । जो ड्राइवर सवारियों को पुकार-पुकार कर बुलाते हैं वे अब देख भी नही रहे थे । मुझे अपने आप पर गुस्सा आया । गाड़ी चलाना जानती तो इस तरह आश्रित नही रहती । पेजर पर एक-दोबार कोशिश की थी । चला भी ली थी। साइकिल तो बचपन में चलाती ही थी । पर अब सबको यह डर रहता है कि मैं गाड़ी चलाऊंगी तो हाथ-पाँव तोड़ लूँगी । मुझे गाड़ी चलाने की अनुमति नही है । अब तो मेरा भी विश्वास कमजोर होचुका है । ऑटो की अपनी मुश्किलें हैं । कभी बहुत देर से आए तो कभी समय से पहले ही आ खड़ा हो । पूरी तरह उसी के आश्रित । रोज अलग से तय करो तो एक ही दिन में सौ रुपए तो समझ ही लो । बात कंजूसी की कम नजरिये की अधिक है । जब आठ या दस रुपए में काम चलता हो तो पचास रुपए क्यों खर्च किये जाएं ?
इससे तो अच्छा है कि वे रुपए सुनीता के बच्चों को दे दिये जाएं । इसलिये  अभीतक टेम्पो ही अपना आने जाने का साधन बना हुआ है । 
तकरीबन पन्द्रह मिनट इसी तरह खड़ी रही । कोई भी समझ सकता है कि वे पन्द्गह मिनट किस तरह पन्द्रह दिनों जितने बड़े और बोझिल होगए थे । पछता रही थी कि आखिर अच्छा भला टेम्पो छोड़ दिया । ऐसी बड़ी भजनों की पड़ी थी कि अब बीच में खड़ी हूँ फालतू ही । 
हाल यह था कि जहाँ के लिये भी साधन पहले मिलता मैं जाने तैयार थी । तभी संयोग से किलागेट वाला ही एक खाली टेम्पो सामने आकर रुका । वह भी रोज का परिचित ड्राइवर । आग्रह पूर्वक बोला --"आइये मैडम ।"
मुझे लगा जैसे संकट की घड़ी में कोई अपना आगया ।
वैसे भी किसी टेम्पो में इस तरह खाली सीट अभी आधे घण्टे तक मिलने वाली नही थी । मैं हजीरा जाने का विचार छोड़ फिर किलागेट के लिये बैठ गई । लगा कि एक झंझट से बच गई हूँ । क्या पता गुड्डी के यहाँ कितनी देर लगती । घर लौटने तक खूब अँधेरा होजाता । फिर दूसरे तमाम काम भी उतने ही लेट होते । आज कोई छूटा हुआ काम पूरा कर लूँगी । वगैरा...वगैरा..।
लेकिन रास्ते भर मैं फिर यही सोचती रही कि गुड्डी मेरा कितना इन्तजार कर रही होगी । कितना बुरा लगेगा उसे । काश मैं मन पक्का करके चली जाती । चली ही जाती न ?