" दशहरा ..विजय-दशमी .
शौर्य ,युद्ध और विजय का प्रतीक-पर्व, जिसके पीछे कितनी कथाएं ,कितनी जनश्रुतियाँ छिपी हुई हैं .देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर पर विजय और उसका वध, राजा रघु की कुबेर पर विजय , राम की रावण पर विजय .पराजित कुबेर ने उपहार स्वरूप राजा रघु के लिये अपना खजाना खोल दिया और राजा रघु ने प्राप्त सारा धन
प्रजा में बाँट दिया . उसी याद में कहीं कहीं स्वर्ण-स्वरूप शमी के पत्ते लुटाए
जाते हैं . इसी दिन राम ने रावण का अन्त कर एक अनाचार का अन्त किया था .दशहरा न्याय और सत्य की जीत का त्यौहार है . बुराई पर अच्छाई की विजय
का त्यौहार है . वचन-पालन और दानशीलता का त्यौहार है......'
यह सब मैंने तीसरी-चौथी कक्षा में
ही पढ़ लिया था .गाँव में हर साल दशहरे की सुबह लोगों को उत्साह से अपने ट्रैक्टर, जीप ,मोटर
साइकिल ,साइकिल ,औजार ,मशीन और वाहनों को साफ करते देखती थी तो मन उल्लास से भर जाता था . हमारे घर भी काकाजी अपनी साइकिल की और माँ अपनी सिलाई मशीन की सफाई करती थी . जिनके पास बन्दूकें थीं
वे बड़े गर्व से अपनी 'दोनाली' ,'पँचफैरा' और 'मौजर' निकालकर साफ करते थे . और साफ करने के बाद एक दो
फायर भी कर देते थे . क्योंकि इसी दिन से बच्चों को पटाखे चलाने का लायसेन्स मिल
जाता था . सो सभी बच्चे बड़ी आतुरता से दशहरे की प्रतीक्षा करते थे .
दशहरे की प्रतीक्षा मुझे भी
रहती थी लेकिन प्रतीक्षा के कारण दूसरे थे . एक तो यही था कि बीस-पच्चीस दिन स्कूल जाने का
कोई झंझट नहीं था . उन दिनों स्कूलों में दशहरा से दीपावली तक अवकाश हुआ करता था . हम
लोग सुबह सुबह स्कूल जाने की बजाय खेतों की मेड़ पर ओस भीगी घास पर चल सकते थे
.पूरब के क्षितिज पर सूरज को उभरता हुआ देख सकते थे . नदी किनारे दूर दूर तक कास के झूमते फूलों को देख सकते थे जो हवा और लहरों की गति से ताल मिलाकर लहराते हुए लगते थे .उन्ही दिनों गन्ने के खेत से
आती हुई मीठी खुशबू भी ललचाती थी . तोरई और कद्दू की बेलों में चमकते बड़े बड़े पीले फूल बहुत लुभाते थे . मिट्टी में दबे शकरकन्द और मूँगफलियों को जमीन से बाहर निकाल लेने का भी वही मौसम होता है .और मोरों के पंख गिराने का भी . पाँख (मोरपंख) ढूँढ़ने लड़के मुँह अँधेरे ही निकल पड़ते थे . हमें भी जब कभी कभी 'चंदक' मिल जाता था तो वह एक उपलब्धि हुआ करती थी .
दशहरे की प्रतीक्षा का दूसरा और सबसे बड़ा कारण दशहरे की बहुत ही उल्लासमय शाम
थी जब दूधिया चाँदनी के रुपहले विस्तार में सारा गाँव एक परिवार जैसा लगता था .
लोग द्वार द्वार पर जाते परस्पर मिलते .राम राम कहते और नारियल बताशे की भेंट
ग्रहण करते . दसमीं का तिर्यक चाँद पन्त जी की 'घूँघट से मुँह छुपाए मुग्धा' की याद दिलाता था . उसे पूरा गोल होने में अभी भले ही चार-पाँच दिन बाकी होते पर
गाँव की गलियाँ चाँदनी की झील में नहाकर निखर जातीं थीं । तब चाँदनी शायद ज्यादा
चमकीली ,ठण्डी और मोहक हुआ करती थी ।
जब चाँदनी अपने पूरे सौन्दर्य
के साथ झमकती हुई पेड़ों और मुँडेरों से उतरती हुई आहिस्ता से चबूतरों पर और फिर
गलियों में बिखरने लगती तब लोग दरी बिछाकर ,थालियों में नारियल के टुकड़े , मिश्री ,बतासे ,लोंग
इलायची सजाकर अपने अपने द्वार पर बैठ जाते थे और मिलने आने वाले लोगों को राम राम
कहकर नारियल बतासे आदि देते थे । लगभग रात के एक बजे तक , जब तक कि
नींद पलकों पर मनों वजन नही लाद देती और हर चौथे पल जम्हाँइयों (उबासियों) के कारण
लोगों के चेहरे विकृत नही होने लगते ,तब तक गली में राम राम का सिलसिला चलता रहता और गलियों
में मंगलवारी हाट जैसा माहौल बना रहता था लेकिन स्नेह और उल्लास भरा... हमारे
चबूतरा पर काकाजी बैठते थे फिर जब वे 'राम राम' के लिये गाँव में निकलते तब माँ 'राम-राम ' के लिये
चबूतरा पर बैठ जातीं थीं ।
उस रुपहली रात में बच्चे खास
तौर पर उत्साहित रहते थे । उन्हें उन्मुक्त होकर उजली गलियों में घूमते हुए ज्यादा से
ज्यादा 'चटक' या 'खुरैरी' ( स्थानीय बोली में नारियल के टुकड़े )और बतासे
पाने का सुनहरा मौका जो मिलता था ।
उसी समय हाथों में टेसू लिये
लड़कों की टोली भी द्वार पर आ धमकती और गा उठती थी---
"टेसू आए घर के द्वार
खोलो रानी चन्दन किवार
चन्द चन्द के टके बनाए
एक टके की पन्नी मँगाई
....।"
या
"मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने माँगे दही बड़ा ।
दही बड़ा में पन्नी
धर दो एक अठन्नी ।"
दशहरा के दिन से प्रारंभ हुआ टेसू और
झाँझी के जुलूस पूर्णिमा तक गलियों में धूम मचाए रहता . पूर्णिमा को दोनों का विवाह सम्पन्न कराया जाता .
उन दिनों जब गाँव में बिजली नही
थी ,चाँदनी रात किसी सौभाग्य से कम नही होती थी । एक तरफ कमरों में अँधेरे के साम्राज्य में
प्राणपण से संघर्ष करती लालटेन या दिये की टिमटिमाती रोशनी थी तो बाहर अँधेरे को
सुदूर कोने में खदेड़ने वाले ,रुपहले उजाले के अजस्र स्रोत---चन्द्रदेव । मनुष्य ही
क्या पेड़-पौधे भी उनके साक्षात्कार का उत्सव मनाते थे ।
साधन-हीनता विषाद का मूल नही
होती । विषाद के मूल में होता है साधनहीनता का अहसास जिससे तब किसी का परिचय था ही नही
। उस साधनहीन सम्पन्नता का एक अलग आनन्द था । मेरा विचार है कि प्रकृति के हर
उपादान में ईश्वर की स्थापना मनुष्य ने भौतिक साधनों के अभाव में ही की होगी .
दशहरे की वह रात अनौखी हुआ
करती थी . कोई छोटा-बड़ा या अमीर-गरीब नही । सब सबके दरवाजे पर जाकर अभिवादन में राम
राम कहते हाथ जोड़ते हैं . अंजुरी आगे बढ़ाते हैं और दूसरे ही पल अंजुरी नारियल
बतासों से भरी होती है ।
आज किसी को रावण याद नहीं . याद होगा भी क्यों वह तो वीर पुरुषोत्तम राम के हाथों मारा जा चुका
है . सब केवल राम को याद कर रहे हैं । राम की विजय का उत्सव मना रहे हैं . गलियाँ राम राम ध्वनि से गूँज रही हैं । साहस
,शौर्य और शील के पर्याय राम के स्मरण से .ऐसे में रावण का क्या काम ? जहाँ 'राम' हैं वहाँ 'रावण' नहीं होसकता . होगा भी तो वह राम के हाथों मारा जाएगा जरूरी है राम का होना .
सचमुच मुझे याद नही कि तब
दूर दूर तक भी धोखा ,बेईमानी, हत्या , बलात्कार जैसे अपराध का कोई किस्सा सुना गया
हो ।
रावण-दहन केवल रामलीला के
दौरान होता था . मैंने कहीं पढ़ा है कि अच्छाई के प्रचार से अच्छाई बढ़ती है और
बुराई के प्रचार से बुराई । रावण ( बुराई का प्रतीक) को याद करना एक तरह से बुराई
को जीवित रखना ही तो है । हम रावण बनाते हैं इसलिये उसे जलाने का नाटक करते हैं . गन्दगी
फैलती है तभी तो सफाई-अभियान की जरूरत होती है । शायद इसीलिये हमारे गाँव में रावण
को जलाने की परम्परा कभी नही रही ( अब पता नही ) पहली बार मैंने रावण जलाने का
दृश्य एक फिल्म में देखा था ( शायद रेशम की डोरी) .वास्तव में मेरे लिये दशहरा 'रावण 'के अन्त से अधिक 'राम' की विजय का पर्व है .राम का स्मरण करने और नारियल-बतासे लेने देने का पर्व है ।
इसलिये आप सभी अपनों को
दशहरा की राम राम और नारियल-बतासे की सादर , सस्नेह भेंट ।