बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

जोड़ते हम रहे....

उम्रभर शूल पथ के हटाते रहे ।
खाइयाँ पूरते  और पटाते रहे ।

जीत लेंगे भरोसा कभी ना कभी
इस भरोसे में खुद को मिटाते रहे ।.

था ये मालूम ,तूफां उजाड़ेगा घर ,
फिर भी जीने का सामां जुटाते रहे ।

आज देंगे वही कल मिलेगा हमें ,
बस यही मान सब कुछ लुटाते रहे   ।

उनको लहरों का अन्दाज़ होगा नही ।
नाम तट पर  तभी तो लिखाते रहे ।

एक उत्तर भी आता तो कैसे भला ,
जोड़ते हम रहे , वो घटाते रहे ।

चाँद सा जगमगाने की चाहत तो थी,
पर अँधेरों से ही मात खाते रहे ।

(सन् 2002में रचित )
    

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक उत्तर भी आता तो कैसे भला ,
    जोड़ते हम रहे , वो घटाते रहे ।

    जीवन ऐसा ही अप्रत्याशित है..हर मोड़ पर कुछ ऐसा मिल जाता है जिसकी चाहत नहीं थी..बहुत भावपूर्ण और प्रभावशाली रचना...

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  2. दीदी,
    देख नहीं पाया था आपकी ये ग़ज़ल... और आज जब देखा तो बस "शायरी आ गई"..! माफ़ी पहले से ही माँग लेता हूँ कान पकड़कर, अपनी इस पैरोडी के लिये!! :)

    ज़िन्दगी के तजुर्बात दिल में लिये,
    सीखते भी रहे, हम सिखाते रहे!
    रास्ता जिसका देखा किये उम्र भर
    वो न आया मगर लोग आते रहे!
    हमने म हफ़ूज़ रखा था दिल में जिन्हें
    वो ही सीने में नश्तर चुभाते रहे.
    फूल रखकर गया कब्र पर वो मेरी
    बोझ ये भी तेरा हम उठाते रहे!

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  3. वाह , आपकी शायरी तो जैसे जेब में रखे सिक्के हैं , बस निकालने का बहाना चाहिये । यह बहाना ( मेरी रचना ) अब ज्यादा खूबसूरत लग रहा है ।

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  4. अनुपम प्रस्तुति....आपको और समस्त ब्लॉगर मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं

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