सुबह से ही उसकी हालत मुझे बेचैन कर रही थी । बार बार उसका उठना फिर पसर जाना ,मुँह से झाग गिरना ..सब कुछ व्यथित कर देने वाला । यशपाल जी की एक कहानी में आया शीर्षक साकार हो रहा था--सृजन की पीडा । तब तक उसके आसपास कोई नही था और मुझे स्कूल जाना था लेकिन उस समय मेरा सारा ध्यान सिर्फ उसकी पीडा पर था । किसी तरह उसके घरवालों को बुलवाया । यह बडे खेद की बात है कि एक तरफ लोग गाय को माता कहते हैं पूजा करते हैं पर उसका ध्यान नहीं रखते । यही हाल कन्या और नदी का भी है । खैर...
और तीन-चार घंटे की पीडा के बाद जो फल सामने आया उसने रोम-रोम पुलक से भर दिया । सफेद रेशमी रोओं वाला बछडा । वह निरुपमा माँ मुग्ध हुई अपने शिशु को प्यार कर रही थी और हमारी ग्यासो ( कामवाली) मुझे कहानी सुना रही थी कि --'"देखो दीदी गाय बिना सहायता के 'ब्या' गई जबकिन औरतों को कितनी मदद चइये होती है । कहते हैं कि एक बार एक गाय 'ब्या' रही थी उसने औरत से कहा कि मेरी पीठ सहला दे । औरत ने कहा कि तेरी पीठ सहलाऊँ कि अपना काम देखूँ । मुझे 'टैम' नही है । गाय ने कहा कि बहन , मेरा तो भगवान है पर तू जब बच्चा जनेगी तो तुझे जरूर मदद की जरूरत पडेगी । मेरा जाया तो 'छिन, भर में ही खडा हो जाएगा पर तेरे बच्चे को खडे होने में नौ महीने लग जाएंगे । भगवान ने गाय की सहायता की । और देखो दीदी औरत को 'जादा 'कस्ट' उठाना पडता है । गाय का ही तो 'सराप' लगा है । है कि नही ?"
जो भी हो ,चाहे मानवी हो या अन्य , माँ तो माँ होती है । कहानी की यह सच्चाई है कि कुछ ही देर बाद वह सद्यजात बछडा चलने को तैयार था । साफ-सुथरा मोहक । तब मुझे अपने गबरू की भी याद आई जो बेहद खूबसूरत और प्यारा था । मेरी पहली बाल कहानी 'इन्तज़ार' का नायक भी बना था लेकिन आठ दिन का ही जीवन जीकर चल बसा था । यह कहानी चकमक के नवम्बर 1988 के अंक में श्री राजेश उत्साही ने प्रकाशित की थी ।
सच है कि सिर्फ माँ ही होती है जो इतनी सघन पीडा सहती है तब कहीं इतना मीठा फल पाती है । क्योंकि वह एक जीवन को साकार रूप देती है ।