दुर्गा नवमी पर विशेष
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आज जब
कन्या-पूजन का अवसर था मैंने एक बच्ची से ऐसे ही पूछा –"कैसी हो बेटा ?"
यह सामान्य औपचारिक वाक्य है जिसका उपयोग हम लोग परिचय संवाद के लिये करते हैं .अधिकांश लोग अब लड़कियों के लिये बेटा शब्द ही काम में लाते हैं . मैं स्वयं अपनी बहुओं को बेटा कहकर पुकारती हूँ . उसी आदत के चलते मैंने उस बच्ची से कहा पर वह बच्ची मानो मेरी गलती को सुधारते हुए बोली-- "मैं बेटा नहीं बेटी हूँ ." यह उत्तर मेरे लिये अप्रत्याशित था .दिल दिमाग के बन्द खिड़की दरवाजों को खोलने वाला . यह वाक्य शायद मानसिकता पर प्रहार भी था जिसके चलते हम अनजाने ही बेटा कहकर बेटी को बेटे से पीछे या नीचे कर देते हैं .अक्सर माता पिता को कहते हुए सुना जाता है –हमने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है . क्यों ? बेटी को बेटी की तरह क्यों नहीं ? बेटी का सृष्टि में जो स्थान है वह बेटे का कभी नहीं होसकता ,इसे हम क्यों भूल जाते हैं और उसे बेटे की तरह या बेटे की जगह स्थापित कर उसे न्यून बना देते हैं . इस प्रवृत्ति के बहुत सारे दैहिक और मानसिक विघटन आने वाले हैं , आ भी रहे हैं. गहराई और विस्तार से देखें तो बेटी को बेटा कहने की प्रवृत्ति एक तरह से स्त्रीत्त्व को चुनौती ही है .
बेटी तुम आँगन की फुलवारी हो . धरती की हरियाली
हो . जीवन का उत्सव हो . वैभव हो . तन मन की ऊर्जा हो , सृष्टि की निर्मात्री हो ,तुम्हारी
हँसी का स्वर कभी मन्द न हो . तुम्हारी आँखों की चमक कभी फीकी न हो . तुम गौरव हो
, सम्मान हो . प्रकृति का वरदान हो .
सार्थक लेखन
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