1---एक नदी
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एक नदी
अनन्त जलराशि
ह्रदय में समेटे ।
धरती को , सुदूर तक
अनवरत सींचती रहती है
सम्पूर्णता के साथ
अविभाज्यता को
जीते हुए , अविराम
बहती है ।
चट्टानों, रोडों को
अनजाने मोडों को
निर्विकार सहती है ।
साँस लेते हैं आराम से
कितने ही जीवन
लहलहाता रहता है
किनारों का विश्वास
उसके ही नाम से
शान्त विस्तार में जब,
उभर आते हैं कई टापू
उसकी धारा में यहाँ--वहाँ
तब अविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है न जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
सूखने लगता है
किनारों का विश्वास
पर कहाँ होती है
क्षीण , मन्थर..
उसकी सींचने की प्रवृत्ति
धरती को नम बनाए रखने का लक्ष्य
नही भूलती नदी
अपने सूखने तक भी
माँ की ही तरह...।
--------------
2---अतुलनीय माँ
--------------
नफरत को अनदेखा करके
मन में रखना
केवल स्नेह को ,
प्रतिशोध व ईर्ष्या की जगह
रोपना--- वात्सल्य ..प्रेम , ममत्व
और ,
कटुता को भुलाकर
खोजना माधुर्य को,
यह तुम्हारी दृष्टि थी माँ ।
जब हम तुम्हारी तरह से सोचते थे
तब कितना आसान था सब कुछ ।
सब कुछ माने--
कुछ भी मुश्किल नही था ।
जब से हम अपनी तरह सोचने लगे हैं
सन्देह व अविश्वास लग गया है हमारे साथ ।
हमें दिखते हैं केवल दोष ,अभाव
अपनों में भी छल और दुराव
हर जगह ।
मन होगया है
गर्मियों वाले नाले की तरह ।
कद-काठी से छोटे दुशाले की तरह ।
अब समझ में आया है कि
हमारे आसपास क्यों है इतनी अशान्ति
श्रान्ति और क्लान्ति
और यह कि ,
क्यों तुम्हें
अतुलनीय कहा जाता है माँ ।
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एक नदी
अनन्त जलराशि
ह्रदय में समेटे ।
धरती को , सुदूर तक
अनवरत सींचती रहती है
सम्पूर्णता के साथ
अविभाज्यता को
जीते हुए , अविराम
बहती है ।
चट्टानों, रोडों को
अनजाने मोडों को
निर्विकार सहती है ।
साँस लेते हैं आराम से
कितने ही जीवन
लहलहाता रहता है
किनारों का विश्वास
उसके ही नाम से
शान्त विस्तार में जब,
उभर आते हैं कई टापू
उसकी धारा में यहाँ--वहाँ
तब अविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है न जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
सूखने लगता है
किनारों का विश्वास
पर कहाँ होती है
क्षीण , मन्थर..
उसकी सींचने की प्रवृत्ति
धरती को नम बनाए रखने का लक्ष्य
नही भूलती नदी
अपने सूखने तक भी
माँ की ही तरह...।
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2---अतुलनीय माँ
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नफरत को अनदेखा करके
मन में रखना
केवल स्नेह को ,
प्रतिशोध व ईर्ष्या की जगह
रोपना--- वात्सल्य ..प्रेम , ममत्व
और ,
कटुता को भुलाकर
खोजना माधुर्य को,
यह तुम्हारी दृष्टि थी माँ ।
जब हम तुम्हारी तरह से सोचते थे
तब कितना आसान था सब कुछ ।
सब कुछ माने--
कुछ भी मुश्किल नही था ।
जब से हम अपनी तरह सोचने लगे हैं
सन्देह व अविश्वास लग गया है हमारे साथ ।
हमें दिखते हैं केवल दोष ,अभाव
अपनों में भी छल और दुराव
हर जगह ।
मन होगया है
गर्मियों वाले नाले की तरह ।
कद-काठी से छोटे दुशाले की तरह ।
अब समझ में आया है कि
हमारे आसपास क्यों है इतनी अशान्ति
श्रान्ति और क्लान्ति
और यह कि ,
क्यों तुम्हें
अतुलनीय कहा जाता है माँ ।