गुरुवार, 29 जून 2023

जिया तुम्हारे बिना

 

तुम्हारे बिना

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मन है वीरान ,

जैसे तुम्हारे बिना

यह मकान .

मकान जो घर हुआ करता था ,

दो कमरों वाला

वह बहुत छोटा सा घर 

तुम्हारे ममत्त्व की सुगबुगाहट से  गुंजित . 

घर , जिसकी देहरी-दीवारें भले ही

नहीं थीं बड़ीं ,

पर छत को सम्हाले खड़ीं

मजबूती से .

छोटा सा आँगन, 

बड़ा था जैसे आसमान .

चहकती चिड़ियों और पतंगों वाला आसमान .

सूरज चाँद या सितारों वाला आसमान .

जिसकी खिड़कियों से देखा जा सकता था

सुदूर क्षितिज तक फैली लाली ,

किरणों की  रुपहली जाली 

अटका हुआ सूरज। 

बादलों की गडगड़ाहट सुन नाचता मोर

या अनीति का शोर 

खड़खड़ा उठती थीं खिड़कियाँ ,

विरोध में अनीति के ..

चली आती थीं खुशियाँ , बेझिझक

दस्तक बिना ही

दरवाजा हमेशा खुला रहता था

तुम हँसती थीं खुलकर  

दीवारें भी मुस्कराती थी .

गैलरी दोहराती थी तुम्हारे गीत .

आँगन में खाट पर लेटे

तारों भरे आसमान के नीचे

तुम्हारी कहानियों में घुल जाती थी चाँदनी

'जिया 'एक और ..बस वह हंस वाली कहानी

चाय के कप में मलाई के साथ

घोल देती थीं तुम धीरे से

ढेर सारी आश्वस्ति,

और बातों में विश्वास

 

तुम बिन

दीवारें झड़ रही हैं  अफसोस करती 

जाले पुरे हैं हर कोने में .

आँगन में उग आए हैं झाड़ झंखाड़ .

दरवाजा बन्द है .

एक पूरी दुनिया ,

जो तुम्हारे कारण थी ,

चली गई हैं तुम्हारे साथ ही .

साथ-साथ स्नेह और अपनत्त्व भी .हर राह सुनसान , जैसे यह मकान

तुम्हारे बिना . 

 

शनिवार, 3 जून 2023

मेरे काकाजी की साइकिल

 संस्मरण का शीर्षक भले ही एक फिल्म ( 'मेरे डैड की मारुति')  के नाम से प्रेरित है लेकिन काकाजी और उनकी साइकिल की कहानी एकदम सच्ची और अनूठी है. काकाजी यानी मेरे पिताजी शिक्षक थे . स्कूल और छात्र छात्राओं के लिये पूरी तरह समर्पित शिक्षक कंकड़-पत्थरों से भरी और रेतीली ज़मीन में फूल खिलाने वाले शिक्षक . कुर्सी की बजाय टाटपट्टी पर बैठकर छोटे बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षक ...नागा न हो इसलिये उफनती नदी तैरकर भी विद्यार्थियों के बीच पहुँचने वाले शिक्षक ... अरे नहीं यहाँ काकाजी

के शिक्षकीय जीवन की नहीं उनकी साइकिल की कहानी सुनानी है , इसलिये आज यही ....मुझे याद है ,काकाजी के पास 'हिन्द साइकिल' थी . वस्तु का महत्त्व उसकी कीमत से नहीं उपयोगिता से होता है .जबसे मुझे याद है , वह पुरानी कहीं कहीं बदरंग होती डगमगाती ,खड़खड़ाती साइकिल ,हमारे लिये , खासतौर पर मेरे लिये किसी मारुति से कम नहीं थी .घर में वही तो एकमात्र वाहन थी जो धूलभरे , कंकरीले पथरीले ,हर तरह के रास्तों को नापती हुई दूरियों को जैसे चिढ़ाती थी और हर शनिवार को हमें बड़बारी से माहटौली पहुँचाती थी . यह सन् 1966 से 1970 के बीच की बात है जब मैं काकाजी के स्कूल में पढ़ने के लिये बड़बारी गई थी जबकि जिया (माँ) माहटौली ( बानमोर मुरैना ) के पास एक छोटे से गाँव खासाराम का पुरा में बालबाड़ी स्कूल की शिक्षिका थीं . मुझे दोनों जगहों की दूरी का अनुमान नहीं है पर उन दिनों वह एक लम्बी दूरी थी जिसे साइकिल से तय करते काकाजी किसी योद्धा से कम नहीं लगते थे . मुझे आगे साइकिल के डण्डा पर बिठाते और शनीचरा के जंगल से होते हुए , मुझे जंगल में कुलाँचें भरते हिरण , मोर ,तीतर और वसन्त ऋतु में पलाश के बेशुमार हल्के लाला नारंगी फूल दिखाते हुए , पहाड़े गिनती और हिन्दी मायने रटवाते पूछते हुए काकाजी खासाराम का पुरा पहुँचते थे . कंकड़ पत्थरों से जूझती , ऊबड़ खाबड़ रास्ते में डगमगाती वह साइकिल मुझे कभी हार स्वीकार करती नहीं दिखी . टायरों में कम हवा की शिकायत करती तो काकाजी साथ ही एक पम्प रखते थे जिसे पैरों में दबाकर हवा भरी जाती थी . पंचर होने पर काकाजी खुद ही ठीक कर लेते थे . उनके पास सारा सामान रहता था . साइकिल को आँगन में लिटाकर रिंच से टायर के अन्दर का ट्यूब निकालकर पम्प से हवा भरते और तसला में पानी भरकर हवा भरे ट्यूब को पानी में घुमाकर पंचर वाली जगह देखते . जिस जगह बुलबुले निकलते उस जगह को सुखाकर कपड़े से पौंछकर  सुलोचन ( सोल्यूशन ट्यूब) लगाते , किसी पुराने ट्यूब से काटा हुआ टुकड़ा चिपका देते ..बस होगया इलाज .हम लोग कौतूहल से देखते रहते . मेरी याद में वह साइकिल मरम्मत के लिये किसी दुकान पर नहीं गई . काकाजी खुद ही सब कर लेते थे .  मैं जब छठवीं-सातवीं मैं थी , लगभग अपने ही कद की उस साइकिल से ही मैंने साइकिल चलाना सीख लिया था . पहले आधी कैची सीखी यानी पैडल आधी गोलाई में ही घूमकर वापस होना पूरी कैंची यानी पैडल पूरी गोलाई में चलाना . सीट पर बैठना कुछ कठिन था क्योंकि उस समय सीट मेरे कन्धों से भी ऊपर थी . एक बार गिरी भी , कोहनी छिल गई थी पर जिस दिन मैं कैंची चलाकर बगीचे से घर आई मुझे जिया काकाजी की शाबासी मिली . मेरे लिये बड़ी उपलब्धि थी ,काकाजी से मिली शाबासी भी और साइकिल चला सकने की काबलियत भी . उन दिनों गाँव में एक लड़की का साइकिल चला लेना अभूतपूर्व घटना थी . यही क्यों , मेरा ग्यारहवीं पास कर लेना और दो साल बाद ही शिक्षिका बन जाना भी उन दिनों पूरे ग्रामीण क्षेत्र में अभूतपूर्व ही था खैर...

साइकिल सीखना नवमी दसवीं कक्षाओं में काम आया जब मैं गाँव से दूर पढ़ने जाने लगी थी तब काकाजी की साइकिल मेरे काम आई . मेरे हिसाब से साइकिल तब भी बहुत ऊँची थी . सीट पर बैठने पर पैडल तक पाँव पहुँचाने दोनों तरफ बारी बारी से झुकना पड़ता था तब भी चक्का का पूरा चक्कर पैडलों को ठेलते हुए ही लगपाता था .तीन साल काकाजी की साइकिल ने मेरा बड़ा साथ दिया .स्कूल में चर्चाएं होती . शिक्षक और प्राचार्य मुझे प्रशंसा की दृष्टि से देखते ,मेरा उत्साह बढ़ाते . लड़के लड़कियाँ हँसते –"–देखो यह लड़की मर्दानी साइकिल चलाती है . यह तो नहीं कि लेडीज साइकिल खरीदवा ले .मैं चकित होती –-- अच्छा ,साइकिलें भी जनानी मर्दानी होती हैं ..?”

जब मैं घर आजाती तब काकाजी घर के ज़रूरी सामान लेने बाजार जाते .

आज भी वह साइकिल गुड्डे गुड़ियों की तरह , स्कूल के प्रिय लगने लगे रास्ते की तरह और बचपन की सच्ची मित्र जैसी ही दिल दिमाग में है . स्कूटी चलाने का सपना ,सपना ही रह गया पर काकाजी की साइकिल के कारण ही मैं कह सकती हूँ कि हाँ मैंने टू व्हीलर भी चलाया है ..