यह कविता 15 अप्रैल सन् 1975 में लिखी गयी थी . बात है जब मैं ग्यारहवी कक्षा में थी .तब 10+2 योजना लागू नहीं थी इसलिए ग्यारहवी की परीक्षा बोर्ड द्वारा संचालित थी सो हम लोगों के लिए परीक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं था . लेकिन हुआ यह कि पढाई से अधिक मेरे लिए अचानक वह दुनिया महत्वपूर्ण होने लगी जिसके बारे में मैंने अभी तक जाना ही नहीं था . सोचने का तो प्रश्न ही कहाँ था . लेकिन सोचना ही पड़ गया .
वह हुआ यों कि उन दिनो गाँव में पन्द्रह पार कर सोलह तक पहुंचने वाली लडकी का कुंवारी रहना घोर कलियुग आजाने का संकेत माना जाता था .उस पर मैं तो गाँव से बाहर पढने भी जाती थी . पिताजी वैसे तो काफी प्रगतिशील विचारों के थे लेकिन पता नहीं कैसे लोगों के प्रभाव में आगए या फिर ‘वर’ महाशय को देख कर वे इतने विमुग्ध होगए कि मुझे स्नातकोत्तर व पी एच डी तक पहुँचाने का उनका संकल्प हाशिये पर चला गया और बिना मेरी इच्छा जाने ही रिश्ता भी तय कर दिया .हालांकि उस समय लड़की ही नहीं लड़कों भी अपने विवाह के बारे में राय देने का चलन नहीं था .परीक्षाओं के बीच यह एक ऐसा व्यवधान था जो मुझे बुरा नहीं लग रहा था लेकिन एकदम स्वीकार भी नहीं था .
यही वह दोराहा था जिसके एक तरफ एक अनजाना सा आकर्षण था .एक स्वप्निल सा ,अनजाना लेकिन ,मोहक संसार एक अभूतपूर्व मधुमय भावलोक जो अनायास और अनचाहे ही मुझे खीच रहा था . दूसरी तरफ मेरी अपनी दुनिया जिसे छोड़ने की अभी कल्पना भी नहीं की थी .साथ ही नई डगर पर पाँव रखते हुए एक हिचक और घबराहट भी थी . एक अव्यक्त सी बेचैनी .तभी मैंने यह कविता लिखी . इसकी प्रेरणा निस्संदेह महादेवी वर्मा जी की कविता –“कह दे माँ अब क्या देखूं...” है . हालांकि उनसे तुलना की बात तो ध्रष्टता ही है .
यह कविता जाने कैसे नष्ट होने से बच गयी है अन्यथा और भी बहुत सारी रचनाएँ थी जो मेरी लापरवाही में नष्ट होगईं .एकाध शब्द के हेर-फेर के बाद उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ .
"काँटों को मैं अपनालूं या
मृदु कलियों को प्यार करूँ
ये दोनों जीवन के पहलू
किसको मैं स्वीकार करूँ .
कितने कितने तूफानों में ,
डगमग यह जीवन नौका .
पहले आश्वासन देकर ,मांझी
फिर देता है धोखा .
कभी किनारा मिल जाता है ,
और कभी मंझधार परूँ .
काँटों को.....
अल्प ख़ुशी होती कलियों में
, चन्चरीक चंचल बनता
राह दिशाएं भूल-भूला व्यर्थ
उड़ानें ही भरता .
कहता है ,”मकरंदभरे फूलों का क्यों उपहास करूँ ?”
काँटों को .....
कंटकमय अवरोध सुप्त अंतर को
कोंच जगाते हैं .
पग पग मिले विरोध ,लक्ष्य
को भी मजबूत बनाते हैं .
पावक में जलकर निखरुं, या
किसी छाँव आराम करूँ
काँटों को ....
जीवन की राहों में दो
प्रतिमाएं रंग दिखाती हैं .
एक भरे आंचल में कंटक ,एक
सुमन महकाती है
कौन पता देगी प्रिय तेरा ,जिसकी
मैं मनुहार करूँ .
काँटों को ....
जीवन खिलती बगिया है , या
करुणा विवश कहानी की .
क्या संघर्षों की छाया में
ही रौनक मिले निशानी की .
उलझन में हूँ उत्तर दे
,कैसा जीवन श्रृंगार करूँ .
काँटों को में अपनालूं या
मृदु कलियों को प्यार करूँ ."
नष्ट हुई रचनाओं कुछ रचनाओं
के साथ शुरुआत के लेखन को मैं जरुर याद करना चाहती हूँ आप सबके साथ अगली किसी पोस्ट
में .