14 सितम्बर ( हिन्दी-दिवस)
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भाषा और शिक्षा
भाषा अभिव्यक्ति का सबसे उपयुक्त और सशक्त माध्यम है । किसी भी व्यक्ति का बौद्धिक विकास, सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना की समझ ,विचार ,दृष्टिकोण एवं जीवन--दर्शन उसकी भाषा से ही निर्धारित होता है । भाषा कोई भी हो वह आन्तरिक विकास के द्वार खोलती है । ज्ञान दृष्टिकोण , और अनुभव के विस्तार को व्यापक बनाती है ।
भाषा महज एक विषय नही ठोस आधार है जिस पर शिक्षा का भवन खड़ा होता है । धरती है जिस पर ज्ञान की फसलें लहलहातीं हैं । इसलिये जहाँ तक शिक्षा व ज्ञानार्जन का प्रश्न है ,माध्यम के रूप में ऐसी भाषा होनी चाहिये जो सहज ही आत्मसात् होसके ।
मातृभाषा ही शिक्षा का सही माध्यम
एक सात साल की बच्ची याद कर रही थी --"द सन राइजेज इन द ईस्ट । द सन् राइजेज....।" चार-पाँच बार रटने के बाद वह अचानक माँ से पूछ बैठी --"इसका मतलब क्या होता है मम्मी ?"
मैंने कहा---"इसे अब तुम ऐेसे याद करो--'सूरज पूर्व में उगता है' ।"
"इसमें याद क्या करना । वो तो मुझे पता ही है ।"-- बच्ची तपाक् से बोली ।
इसी तरह एक दिन एक प्रसिद्ध कान्वेन्ट के सातवीं कक्षा के एक छात्र से प्रसंगवश ,जैसी कि आमतौर पर शिक्षक की आदत ( अच्छी या बुरी ) प्रश्न करने की होती है, मैंने पूछा ---
"पृथ्वी पर कितने महासागर हैं ?" वह मेरी ओर देखने लगा फिर बोला--"क्या ,कितने हैं ?"
" बच्चे की उलझन सही है "--मुझे याद आया । अच्छे माने जाने वाले अंग्रेजी स्कूलों में हिन्दी में समझाना तो दूर हिन्दी बोलना तक वर्जित है । जब बच्चा प्रश्न ही न समझेगा तो उत्तर कैसे देगा । "हाउ मैनी ओसन्स ऑन द अर्थ ?" जब मैंने पूछा तो उसने तुरन्त कहा--
"ओ ,ऐसे पूछिये न ! देअर आर फाइव ओशन्स ऑन द अर्थ ।"
"शाबास । तो बताओ ओशन के बारे में क्या जानते हो ?"
"यह ओसन होता क्या है ?" --मेरे इस सवाल पर वह बगलें झाँकने लगा । जाहिर है कि उसे समुद्र के बारे में कुछ मालूम ही नही था ।
इन दोनों उदाहरणों में से पहले में दूसरी भाषा के माध्यम से पढा़ई करने की कठिनाई का सच है । और दूसरे में छात्र में पढने व रटने की क्षमता तो है पर समझ का अभाव है । इसमें शिक्षक की सही भूमिका की कमी तो है ही लेकिन जहाँ रटा कर कोर्स पूरा कराने की विवशता हो वहाँ समझाने की गुंजाइश ही कहाँ होती है ?
विषय को पढ़ना और विषय को समझते हुए पढ़ना बिल्कुल अलग बातें हैं । लिपि याद करने पर किसी भी भाषा या विषय को पढा़ तो जासकता है लेकिन समझते हुए पढ़ना मातृभाषा में जितना सहज व सरल होता है अन्य भाषा में नही । अन्य भाषा के माध्यम में वही ज्ञान काफी श्रमसाध्य होजाता है जो अपनी भाषा में सहज ही आत्मसात् होता है ।
यही कारण है कि विश्व के लगभग सभी देशों में अपनी भाषा को प्राथमिकता दी जाती है । रूस में तो एक कहावत भी बद्दुआ के रूप में प्रचलित है जो मातृभाषा के महत्त्व को बड़ी गंभीरता से व्यक्त करती है----"अल्लाह तेरे बच्चों को उस भाषा से वंचित करे जिसमें तू बोलती है ।"
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी ने भी कहा है कि व्यक्ति मातृभाषा में ही अच्छी तरह सीख समझ सकता है । क्योंकि वही हमारे हदय के सर्वाधिक निकट होती है । मातृभाषा में ही व्यक्ति पूर्णता व सच्चाई के साथ स्वयं को व्यक्त भी कर सकता है । 'गीतांजली '(गुरुदेव) 'रामचरितमानस ','गोदान' जैसी विश्व-प्रसिद्ध कृतियाँ मातृभाषा में ही लिखी गईं हैं ।
वास्तव में मातृभाषा कब अनायास ही हमारे व्यक्तित्त्व का हिस्सा बन जाती है पता नही चलता । उसमें पारंगत होने के लिये अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता नही होती । इसलिये आवश्यकतानुसार भाषा कोई भी सीखें ,लेकिन शिक्षा के लिये मातृभाषा ही सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम है ।
अंग्रेजी माध्यम का सच--
ज्ञान व सारे तथ्य तो एक ही होते हैं चाहे उसे अंग्रेजी माध्यम से सीखें या हिन्दी माध्यम से या किसी अन्य भाषा के सहारे । महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्हें किस माध्यम से आसानी से आत्मसात् किया जासकता है । जब गन्तव्य तक पहुँचने का सही ,आसान व छोटा रास्ता हमें मालूम हो तो लम्बे और कठिन मार्ग से जाने की जरूरत क्या है । डा. प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा है कि,---"अँग्रेजी माध्यम में छात्रों का अधिकांश समय तो अधकचरी रटन्त में ही नष्ट होजाता है । यही समय व शक्ति ज्ञानार्जन व योग्यता विस्तार में लगाई जाए तो उनका कितना गुणात्मक विकास होगा ।" सही तो है । पेट भरने की चिन्ता में लगे लोगों के लिये चिन्तन व सृजन की बातें बेमानी ही हैं ।
अंग्रेजी माध्यम के विस्तार का कारण कुछ लोगों ,बल्कि अधिकांश लोगों का यह विचार है कि इससे अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार होजाता है जो आज की सर्वाधिक आवश्यकता है । आज शिक्षा पर भी बाजारवाद बुरी तरह से हावी है । वैश्विक उदारवाद की अवधारणा के बीच विदेशी प्रभाव और नियंत्रण के कारण लोगों का यह विश्वास दृढ होगया है कि अंग्रेजी ही अच्छी नौकरी मिलने व उज्ज्वल भविष्य की गारंटी है । विकास का पर्याय है ।
यह बात सच है भी तो कुछ ही हद तक सच है । पूरा सच नही । पहली बात तो यह कि शिक्षा का पहला उद्देश्य ज्ञानार्जन है जिसके लिये अंग्रेजी माध्यम ( न कि अँग्रेजी भाषा-ज्ञान ) अनावश्यक है । दूसरे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और तकनीकी क्षेत्रों को छोड़ दें तो अँग्रेजी के बिना भी योग्य व शिक्षित व्यक्ति नौकरी भी कर रहे हैं और सन्तुष्टि व आत्मसन्तोष के साथ । आखिर कम्पनियाँ ही तो देश को नही चला रहीं । चीन, जापान ,रूस और फ्रांस जैसे अनेक विकसित देश हैं जहाँ अपनी भाषा ( अँग्रेजी नही ) के बल पर उन्नति हुई है ।
चलिये , मान भी लें कि अंग्रेजी आवश्यक है ही ,तो कौन कहता है कि मातृभाषा में पढ़ कर शिक्षित हुआ व्यक्ति अंग्रेजी में पारंगत नही हो सकता । बल्कि अधिक सरलता से हो सकता है । और हुआ भी है । डा. अब्दुल कलाम, डा. कृष्ण कुमार जैसे असंख्य उदाहरण हमारे देश में मौजूद हैं । तथ्य यह है कि जो छात्र पहले हिन्दी में ( अपनी मातृभाषा में ) संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण ,वाक्य आदि समझ चुके होते हैं वे नाउन ,प्रोनाउन ,वर्ब, एडजेक्टिव आदि बड़ी आसानी से समझ लेते हैं और याद कर लेते हैं । हम लोग विद्यालय में हिन्दी निबन्ध-लेखन ,शुद्ध व सुलेख-लेखन जैसी प्रतियोगिताएं कराते रहते हैं । मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि विजयी प्रतिभागी अधिकतर अँग्रेजी माध्यम वाले भी वे ही छात्र होते हैं जो अपनी कक्षा में हर विषय में शीर्ष पर हैं । यानी जिनकी हिन्दी अच्छी है वे ही अँग्रेजी में भी आगे हैं ।
हाँ अँग्रेजी माध्यम से संवाद-शैली और तौर-तरीके में अवश्य परिवर्तन आता है (वह भी केवल अच्छे स्कूलों में ) जो छात्र को 'कॅान्फिडेंस' और 'एडवांस' होने का अहसास अवश्य देता है लेकिन उसका ज्ञान से क्या सम्बन्ध ? ज्ञान तो स्वतः आत्मविश्वास का पर्याय है क्योंकि ज्ञान व्यक्तित्त्व को विस्तार देता है . अतः बार-बार यह कहने की आवश्यकता नही कि ज्ञान का विस्तार अपनी भाषा के माध्यम से ही ज्यादा सहज सुलभ होता है ।
वास्तव में जब हमारा परिवेश हिन्दी का है तो शिक्षा अंग्रेजी में क्यों ?
इससे भी एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भाषा और संस्कृति का साथ अभिन्न होता है हम जिस भाषा को अपनाएंगे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हमारी जीवन शैली और विचार भी वैसे ही बनेंगे . इसीलिये भारतेन्दु जी बहुत पहले ही कह गए कि -"निज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति कौ मूल .."
अँग्रेजी माध्यम के प्रसार के पीछे यह तथ्य भी सर्वमान्य बन गया है कि हिन्दी माध्यम वाले स्कूलों में अच्छी पढ़ाई नही होती । अगर यह सच भी है तो इसमें शिक्षकों व दूसरी व्यवस्थाओं का दोष है हिन्दी माध्यम का नही । अँग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में माध्यम की कठिनाई के कारण अधिक श्रम करना पड़ता है ज्ञान के विस्तार के लिये नही ।
जितना श्रम शिक्षक व छात्र अँग्रेजी माध्यम में करते हैं उससे आधा भी जहाँ हिन्दी माध्यम में करते हैं वहाँ शिक्षा व ज्ञान निश्चित ही शिखर पर देखा जासकता है ।
उल्लेखनीय है कि यहाँ अँग्रेजी भाषा का विरोध नही है । भाषा कोई भी हो वह हृदय और मस्तिष्क के कपाट खोलती है . व्यक्तित्त्व का विकास करती है . भाषा का महत्त्व तो स्वयंसिद्ध है . लेकिन यह भी निर्विवाद है कि शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम मातृभाषा ही है ।