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ईको लॉज पहुँचकर लगा कि
हम एक बिल्कुल अलग दुनिया में आ गए हैं . एकान्त शान्त जहाँ हरियाली के नाम पर सेव के सिर्फ दो किशोरवय पौधे थे, एक अमरूद और दो आड़ू के पेड़ थे ,गुलाब की
झाड़ियों और हवा के अलावा थे तो पुरानी शैली के तीन चार कमरे , पवन चक्की दो तीन
बिल्लियाँ और तीन चार सुन्दर लड़कियाँ . इसके अलावा किचिन ,डाइनिंग हाल भी था . शायद उस कथित लॉज को शुरु हुए एक या दो
साल से अधिक नहीं हुआ था .
"मैम अभी खाना तो नहीं
मिलेगा .आप लेट होगए ...खाने के लिये एक घंटा पहले ऑर्डर करना पड़ता है . आपको वेट
करना पड़ेगा ." दो सुन्दर लड़कियों ने कहा . मैंने पहले भी लिखा है कि भूटान में हमने हर जगह लड़कियों को ही काम करते देखा . वहाँ एक दो लड़के थे पर सहायक के रूप में ही थे .
उनकी बात सुनकर बड़ी हताशा हुई क्योंकि उस समय सभी भूखे थे .उन्होंने वहाँ की किन्ही वनस्पतियों से बना बिना दूध की चाय जैसा पेय दिया . कुछ आराम के बाद हम लोग नहा कर ताजा हुए तो खाने के नाम पर सिर्फ नूडल्स से ही सन्तोष करना पड़ा . उसी समय एक और कार आई तो नेहा हँसकर बोली –"लो मम्मी केवल हमी बेवकूफ
नहीं बने हैं...
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पुनाखा जोंग के लिये इस पुल से जाते हैं |
"जो भी हो ,नाम कितना अच्छा है, 'ईको-लॉज' , नाम को वहाँ की आबोहवा सार्थक कर रही है ."
वास्तव में वहाँ का परिदृश्य भी बड़ा ही मोहक और लुभावना था . नीचे फिर दो नदियों का संगम दिख रहा था .सामने पहाड़
में खिलौने जैसी कारें परिक्रमा सी करती हुई उतर रहीं थीं .
पुनाखा में हमारी योजना जोंग और सस्पेंशन ब्रिज देखने की थी .
नेहा ने ईको लॉज पहुँचते पहुँचते कहा था-
"मम्मी अब तो यहाँ से कल ही उतरेंगे
. जोंग वोंग कुछ नही देखना ." मैं भी नेहा से सहमत थी .उस
रास्ते से उतरना फिर लौटना और फिर अगली सुबह उतरकर आगे जाना उस समय हमें काफी असुविधा भरा और खतरनाक लग रहा था . हमारी बात सुनकर विकास हँस पड़ा .बोला –"आपको चिन्ता करने की
जरूरत नहीं मैडम . मैं हूँ ना .."
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पुनाखा जेोंग |
वह बेशक बड़ा नेक
खुशमिजाज और काफी कुशल ड्राइवर था .
पुनाखा जोंग ---यह जोंग
पुनाखा का ही नही ,भूटान भर का सबसे बड़ा और प्रमुख बौद्ध मन्दिर है जो 'पो छू' और 'मो छू' के संगम पर बना है .इसका निर्माण सन् 1637 में शबदरूंग नगवांग नामग्याल
द्वारा प्रशासकीय कार्यों के सम्पादन हेतु कराया था ( यह जानकारी गूगल से साभार ) जोंग तक पर्यटक बहुत ही सुन्दर पुल से होकर जाते हैं जो पो छू पर खूबसूरत पारम्परिक शैली में बना है
.पुनाखा जोंग देखना भूटान भ्रमण का एक बहुत प्यारा और खूबसूरत अनुभव रहा . यहाँ
हमने बहुत सारे फोटोग्राफ लिये .
पुनाखा जोंग के बाद
सस्पेंशन ब्रिज भी देखा . लोहे की बड़ी मोटी जंजीरों से बँधा यह काफी लम्बा पुल मो
छू पर बना है .एक और मठ चिमी लखांग भ्रमण भी योजना में था पर समय कम था , वैसे भी वहां
अधिकतर सन्तान के इच्छुक दम्पत्ति ही जाते हैं .फिर इतने सुन्दर स्थान ( जोंग) को देखने के बाद अब कुछ देखने का मन भी नहीं था
.
अँधेरा होने से पहले हम वापस ईको लॉज आ
गए . शाम के खाने में चावल ,चीज के साथ बना पत्ता गोभी , चीज आलू ,तीखी ,चटनी
,मोमोज और के अलावा कॉर्न सूप था .
ईकोलॉज की सुहानी सुबह ने
विगत कल की सारी परेशानियों को भुला दिया .नया नया शुरु होने के कारण अभी वहां कुछ
असुविधाएं हैं पर जगह शानदार है .
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पारो नदी |
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संगम |
पारो –
20 मई को पुनाखा से
पारो जाने के लिये हम थिम्पू लौटे और शहर के बाहर से ही पारो के लिये निकल पड़े . फुनशुलिंग
–थिम्पू मार्ग में बीच में भारत की सहायता से बना जो पुल है ,और जहाँ पारो छू और
थिम्पू छू का सुन्दर संगम है .और वहीं से पारो शहर के लिये हम फिर एक बहुत खूबसूरत
यात्रा पर निकल पड़े .पहाड़ों के बीच चौरस घाटी में बसा पारो भूटान का सबसे सुन्दर
शहर है और भूटान का एक मात्र हवाई-अड्डा भी . कहा जाता है कि यह दुनिया की उन खतरनाक
हवाई पट्टियों में से एक है जहाँ प्लेन की लैंडिंग हर पायलट नहीं कर सकता . पर्वत
शिखरों के बीच घाटी में लैंडिंग के लिये विशेष ट्रेनिंग दी जाती है . यहाँ दो ही
ऐरोप्लेन है एक सरकारी और एक निजी . खैर ...
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सस्पेंशन ब्रिज |
पारो के रास्ते में 'पारो
छू' सबसे खूबसूरत प्रसंग रहा . पूरे रास्ते इसकी उछलती मचलती धवल धारा हमें उत्साह
और सौन्दर्य के गीत सुनाती सिखाती रही . एक जगह चौरस किनारे पर हम लोग इसकी धारा में
उतर गए . शीतल जल में आचमन किया . आँखों को धोया . रोम रोम में इसकी ठण्डक को भर
लिया . नदी सचमुच धरती की ही नहीं हम
प्राणियों की भी जीवन रेखा है . एक समय था जब नदी हमारा घर-आँगन थी . अब उससे
मिलने के लिये समय निकालना पड़ता है . योजना बनानी होती है . बरसों बाद हुए इस मिलन से आत्मा तृप्त
होगईं . रेत में पड़े सुन्दर सुडौल व सुनहरी रुपहली चमक वाले कंकड़ किसी अमूल्य धन
से लग रहे थे . मैंने और विवेक ने कुछ कंकड़ तो बटोरे भी . यह हमारे भ्रमण का सचमुच
बेहद प्यारा और याद रखने लायक अनुभव रहा .
पारो शहर पहुँचकर पहला काम
था भोजन की तलाश . क्योंकि उस समय होटल में खाना मिलने वाला नही था .वैसे भी हमारा
होटल 'उदुम्बरा' शहर से कुछ दूर था जहाँ विकास के अनुसार कोई रेस्टोरेंट नहीं था .वैसे तो भूटान भर में किन्तु पारो में शाकाहारी होटल मिलना काफी मुश्किल था . काफी तलाशने पर
एक शाकाहारी होटल मिला --'ऑल सीजन.' वहीं हम सबने खाना खाया . जैसा कि मैंने पहले भी
कहा है कि भूटान में मिर्च मसाले और चीज़ का इस्तेमाल बहुत होता है .वहाँ भी था .शाही
पनीर रंग से नहीं , लाल मिर्च की भरमार से लाल था . यहाँ तक कि पनीर के साथ साबुत
लाल मिर्च भी पड़ी थीं . मिर्च की चटनी तो वहाँ हर खाने के साथ मिलती है
‘उदुम्बरा’ उत्कृष्ट कलात्मक शैली में बना बहुत खूबसूरत
होटल है . संयोग यह कि हर बार हमारे बाजू में नदी जरूर रही है . उदुम्बरा के पीछे
भी नदी का कलरव बराबर सुनाई दे रहा था .
कुछ देर आराम करके हम नेशनल म्यूजियम और रिनपुंग
जोंग देखने निकल गए . भूटान का राष्ट्रीय संग्रहालय एक सांस्कृतिक संग्रहालय है .
यहाँ भूटान की सम्पूर्ण संस्कृति ,वन सम्पदा ,पशु पक्षी ,नृत्य, वेशभूषा सबके
दर्शन होते हैं . हर प्रतीक और भाव को प्रदर्शित करते मुखौटे यहाँ का बड़ा आकर्षण
है .हालाँकि सीमित समय में वह सब विस्तार से नहीं देखा जा सका .
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उदुम्बरा होटल का शिल्प दर्शनीय है . |
इसके नीचे रिनपुंग जोंग (
बौद्ध मठ ) है. यहाँ आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले भिक्षु व भिक्षुणियाँ नियुक्त हैं
.चाहे बौद्धमठ हों ,मन्दिर हों या कोई भवन भूटानी वास्तुकला का सौन्दर्य हर जगह
बिखरा हुआ है .
जोंग से नीचे फिर वहीं
चंचल प्रवाहिनी पारो नदी थी . जिसकी नयनाभिराम धारा पर बहुत सुन्दर प्राचीन पुल है
..विकास ने तीर चलाने वाली खास जगह भी बताई .इसके बाद हम बाजार देखने निकले .
पारो का बाजार भी काफी
सुन्दर और शान्त है . यहाँ भी हमने कुछ चीजें खरीदीं . कई दुकानों पर पुरुषांग की व नर नारी के संसर्ग की प्रतिमूर्त्तियाँ खुलेआम रखी देख बड़ी हैरानी हुई . बड़ा अजीब लगा . मन में सवाल उठे पर उनके हल का कोई उपाय नहीं था.
टाइगर्स नेस्ट (मॉनेस्ट्री)
21 मई
भूटान भ्रमण का सबसे कठिन
किन्तु रोचक व महत्त्वपूर्ण स्थान है पारो तकसांग यानी टाइगर्स नेस्ट दूर से
पहाड़ में टँगा हुआ सा एक नेस्ट ही प्रतीत होता है . यह हमारे राष्ट्रीय-चिह्न अशोक-चक्र की तरह भूटान का
राष्ट्रीय प्रतीक भी है .लगभग सवा तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर स्थित टाइगर्स नेस्ट
पर लगभग ग्यारह कि.मी. की चढ़ाई द्वारा पहुँचा जाता है .
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चढाई के लिये तैयार |
"सुबह जल्दी तैयार होजाना
सर ...ताकि लौटते हुए शाम न हो .कम से कम आठ घंटे लगेंगे लौटने तक ."--शाम को विकास ने जाते जाते कहा था . सुबह मन में उत्साह
लेकर हम आठ बजे निकल पड़े . विकास ने हमें उस जगह छोड़ दिया जहाँ से टाइगर्स नेस्ट
की चढ़ाई शुरु होती है . वहाँ पचास रुपए प्रति एक के हिसाब से स्टिकें मिल रही थी
. हमने चार खरीदीं .और टेकते हुए चल दिये . लाठी टेककर चलते हुए मुझे याद आया कि
जब मैं बहुत छोटी थी ,गाँव में एक बूढ़ी नानी थी लाठी टेकते हुए चलती और कहती जाती
थी –“राम
राम कहे जा , जा ही गैल गहे जा ..”
जो चढ़ने में असमर्थ या
कमजोर थे उनके लिये पाँच सौ रुपए में खच्चर भी उपलब्ध थे . हमने खच्चर नहीं लिये .
हम्प्टा वैली ( हिमाचल प्रदेश ) की ट्रैकिंग के बाद मुझे खुद पर बड़ा यकीन होगया
था कि मैं कहीं भी चढ़कर जा सकती हूँ .गत जनवरी में हम 2400 सीढ़ियाँ चढ़कर तिरुपति दर्शन के लिये भी गए थे . इसलिये मुझे खुद पर काफी भरोसा था पर एक-डेढ़ कि मी की चढ़ाई के बाद मेरी साँस
बेकाबू सी होने लगी . मन्नू ने मेरी कलाई पर हार्टबीट बताने वाली घड़ी पहना दी थी
. धड़कनों की गति देखकर मन्नू ने मेरे व विहान के लिये दो खच्चर बुलाए . एक पर विहान को बिठा दिया . पहले मैंने मना
कर दिया .लेकिन जब नेहा और मन्नू ने ज्यादा आग्रह किया तो किसी तरह खच्चर पर बैठ तो गई पर बड़ा अजीब लगा . पता नही
कैसे लोग आराम से हुमकते हुए बैठे जाते हैं .
"मेरे तो गिरने की पूरी संभावना है --मुझे यकीन होगया .और तुरन्त उतर पड़ी . अकेले विहान को लेकर खच्चर चल पड़ा . वह स्थिति सचमुच बहुत मुश्किल
हो गई थी .खच्चर तो चलते क्या भागते हैं .उनके साथ चलना तो केवल उनके मालिकों का ही काम है . पर विहान को अकेला तो नही जाने दिया जा
सकता था .
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कैपेट एरिया , जहाँ मैं विहान रुके थे , से टाइगर्स नेस्ट का दृश्य |
"मैं साथ जाती हूँ ." –कहकर नेहा बिना किसी विमर्श के खच्चर के साथ चलदी . किसी को भी सोचने का समय नहीं मिला कि जिस रास्ते पर दस बीस कदम एक साथ चलकर रुकना जरूरी लग रहा था
उस पर नेहा जिसने कभी धूप या धूल का सामना नहीं किया वह खच्चर की गति से कैसे जाएगी .वह जल्दी ही नजरों से ओझल हो गई . मेरा कलेजा रह रहकर मुँह तक
आ रहा था कि खच्चर के साथ लगभग दौड़ती नेहा पर क्या बीत रही होगी जबकि मेरी हालत दस कदम
एक साथ चलने की नही थी . मन्नू मेरे लिये हर दस पन्द्रह कदम पर रुक जाता था . पछता
भी रहे थे कि जो मेरे लिये जो खच्चर तय किया था उसी पर नेहा क्यों न बैठ गई . पर इतना सोचने का वक्त ही न मिला .
दरअसल थकान का कारण केवल
चढ़ाई नहीं थी .वास्तव में टाइगर्स नेस्ट का रास्ता कच्चा धूलभरा
सँकरा और ऊबड़खाबड़ है उस पर आते जाते धूल का गुबार छोड़ते जाते खच्चरों से बचना
भी किसी संघर्ष से कम नहीं था . इतने प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण स्थान का रास्ता
निश्चित ही काफी असुविधा भरा और निराशाजनक लगा .उस समय मैं तिरुपति के पैदल रास्ते को याद करने लगी थी जो बहुत सुन्दर व सुविधाजनक है .
नेहा विहान के साथ लगभग पौन घंटा पहले ही पहुँच गई थी .उसे ठीकठाक देखकर जान में जान आई .वास्तव में यह एक माँ के ममत्त्व का बल था वरना बहुत ही अल्पाहारी, सुकोमल नेहा में कहाँ थी ऐसी क्षमता ?
यह वो जगह थी जहाँ
आपको खच्चर छोड़ देते हैं . कहते हैं कि यह टाइगर्स नेस्ट तक की दूरी का आधा हिस्सा है . यहाँ पास में ही कैपेट
एरिया है जहाँ जलपान व विश्राम की व्यवस्था है . तय हुआ कि सामान के साथ मैं और विहान वहीं रुकें
. मन्नू और नेहा अकेले मॉनेस्ट्री तक जाएं . मैं थकी तो थी ही उस पर एक व्यक्ति ने
कह दिया कि भाई आंटी को मत ले जाना . इनके लिये रास्ता बहुत कठिन है .
मन्नू नेहा का मुझे विहान के साथ छोड़ने का विचार और भी मजबूत हुआ और सामान के साथ हमें कैपेट एरिया छोड़कर चले गए . कुछ पल मुझे राहत तो मिली पर आराम की साँस लेने के तुरन्त बाद मुझे एहसास हुआ कि रुककर मैंने गलती
करदी . मुझे जाना चाहिये था .
उधर एक घंटे बाद ही विहान का राग शुरु होगया –मम्मी
पापा कब आएंगे ..दादी आप और मैं चलते हैं उन्हें ढूँढ़ने ..कहीं रास्ता तो नही भूल
गए ..कितनी देर और लगेगी ...
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सामने होकर भी अभी बहुत दूर है टाइगर्स नेस्ट .फोटो मन्नू |
दरअसल कुछ लोग आपको बरगला
देते हैं कि अरे बस यहाँ से आधा पौन घंटे का रास्ता है. पर उन्हें लौटने में पूरे चार घंटे लगे. इतनी देर विहान को सम्हालते
समझाते काफी मुश्किल हुई . साथ ही यह मलाल गहराता गया कि मेरा यह सफर अधूरा रह गया . कितना रोमांचक था वहाँ से सुदूर टाइगर्स नेस्ट को देखना . कैसे पहुँचते होंगे वहाँ . रास्ता कैसा होगा .वहाँ पहुँचकर कैसा लगता
होगा ..उफ्...जाती तो वहाँ के दृश्य व अनुभव भी लिख पाती .
"मम्मी आप नहीं गईं , बहुत अच्छा
हुआ . आप और विहान जाते तो हमें बीच से ही लौटना पड़ता ."–मन्नू व नेहा ने आते ही जो
जो मुश्किलें बताईं उससे मेरा मलाल कुछ कम तो हुआ पर लगा कि शायद ये मुझे तसल्ली
देने कह रहे हैं .
"मम्मी आपका स्वास्थ्य पहले
है बाकी सब पीछे ..मैंने देखा कि आपकी पल्स कहाँ पहुँच गई थी ." –मन्नू मुझे
समझाता रहा . शायद उसे मेरे खेद का अनुमान हो गया था .
कुछ देर आराम करने के बाद हम लोग उतर आए . पर टाइगर्स नेस्ट तक न जा पाने
का अफसोस मुझे हमेशा रहेगा .
लौटते हुए विकास ने टाइगर्स नेस्ट की
कथा सुनाई कि ,"हजार साल पहले यहाँ एक राक्षस रहता था . गुरु रिम्पोचे यानी भगवान
पद्मसंभव एक बाघ पर बैठकर आए थे .बाघ उड़कर आया क्योंकि तब बाघ के पंख हुआ करते थे
.यहाँ पद्मसंभव भगवान ने राक्षस को हराया और इसी जगह तीन साल, तीन महीने ,तीन
सप्ताह ,तीन दिन , और तीन घंटे तपस्या की थी . गुरु रिम्पोचे बाघ पर बैठकर आए थे
इसलिये इसे टाइगर्स नेस्ट कहा जाता है . जो भी भूटान आता है वह यहाँ जरूर जाता है सर
..."
मैं तो नही जा सकी --मैंने सोचा पर इसके बाद कुछ सोचने कहने का कोई अर्थ नहीं था .
सुबह उदुम्बरा से विदा
लेने से पहले विकास ने हमारे कुछ फोटो लिये .
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एयरपोर्ट पारो |
22 मई को दस बजे हम फुन्शुलिंग
की ओर चल पड़े . लौटते हुए प्रकृति के रंग बदले हुए थे . आसमान में तैरते बादल सघन होकर घने काले वितान में बदल
गए थे . पहाड़ों का रंग एकदम गहरा गया था . चूखा से निकलने के बाद भारी वर्षा शुरु
होगई . बारिश होते ही नटखट बच्चों की तरह झरने भी पहाड़ की गोद से उतरने के लिये
उछलकूद मचाने लगे . उनके देखा देखी बादल भी नीचे उतर आए . और फैल गए आजू बाजू पेड़ों
पर , रास्ते में ,सड़क पर.... परवाह किसे है कि ड्राइवर बेचारा कार के स्क्रीन से
पानी हटाते हटाते हलकान हो रहा है . रास्ता सूझ नही रहा . आगे जा रही बस की धुँधली
सी लाइट रास्ते का अनुमान करा रही है .सब कुछ एक धुन्ध में विलीन सा होगया था . कुछ मील इसी तरह चलते रहे और फिर अचानक जैसे दर्पण पर जमी धूल को किसी ने साफ कर दिया हो . पेड़ पहाड़ सड़क सब नहा निखरकर बाहर निकल आए . पन्त जी ने ऐसा ही कुछ देखकर
कहा होगा –
"पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश
,पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश..."
फुन्शुलिंग में फिर पार्क
होटल में ही रुके . संयोग से पहले वाले कमरे ही मिले तब लगा जैसे घर वापस आगए . इस
तरह सुन्दर स्वप्निल सात दिन हमने भूटान में बिताए .
23 मई की सुबह विकास ने हमसे विदा ली . हमारी
इच्छा थी ,विकास की भी , कि वही हमें सिलीगुड़ी तक छोड़े . इन आठ दिनों में वह
बिल्कुल अपना सा लगने लगा था . पर यह तय करने वाला न
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कोरोनेशन ब्रिज |
वह था न हम . विकास हमें यहीं
से मिला था और यहीं से विदा हुआ . सिलीगुड़ी तक के लिये अब हमें दूसरा ड्राइवर और दूसरी
गाड़ी लेनी थी .
लौटते हुए मन अपने घर की ओर लौटते उल्लसित था लेकिन लौट लौटकर भूटान की वादियों में जा रमता था .आँखों में पहाड़ झरने हरियाली और बादल भरे हुए थे . कोरोनेशन ब्रिज से होते
हुए हम सिलीगुड़ी आए . कोरोनेशन ब्रिज की नींव 1937 ई में किंग जार्ज षष्ठम ने रखी
थी .इसे सेवोक पुल या बाघ पुल भी कहा जाता है .वास्तुकला और इतिहास की दृष्टि से
महत्त्वपूर्ण यह सुन्दर पुल तीस्ता नदी पर बना है .
23 मई को हमें सिलीगुड़ी में रुकना था . चुनाव
परिणाम पर झगड़े फसाद की आशंका विकास ने भी जताई थी और नए ड्राइवर ने भी . सो हम
लोग सुबह दस बजे ही सिलीगुड़ी के 'उड़ान क्लोवर होटल' पहुँच गए .वहाँ दिनभर चुनाव परिणाम देखते रहे .
सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल का सुन्दर शान्त
शहर है .
यहां मेरी भतीजी पल्लवी गायनोकॉलोजी से पोस्ट ग्रेजुएशन कर मेडिकल कॉलेज में
ही नियुक्त होगई है . उससे मिलना भी सुखद रहा . 24 मई को सुबह हम लोग बागडोगरा
पहुँच गए . 8 45 की फ्लाइट थी . दोपहर एक बजे घर भी पहुँच गए .पूरे सप्ताह भागमभाग
भरा लेकिन बहुत ही प्यारा और अविस्मरणीय सफर रहा . भूटान हमारे दिल दिमाग में आज भी बसा है और बसा
ही रहेगा .