मंगलवार, 25 नवंबर 2014

हिमालय की गोद में --४

26 नवम्बर --
यह वृतांत आप सबके प्रिय प्रशान्त के लिए .
आज पैंतीस वर्ष पूरे कर चुका प्रशान्त ,जो मेरा केवल बेटा ही नहीं है , बल्कि वह माँ , पिता ,मित्र  सब कुछ बनकर  रहना चाहता है .रहता है .उसकी भावनाओं का प्रतिफल मैं दे पाई हूँ या दे पाऊंगी ऐसा मुझे नही लगता . बस दिल से यही आवाज आती है  की उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी आकांक्षाओं में है . अनंत स्नेह व शुभकामनाएँ .
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५ नवम्बर
लाचुंग से वापस गंग्टोक
मैम , ‘सेवन-सिस्टर्स’ से ही चलें ?—लाचेन से लौटते हुए जब हम चुंगथांग पहुंचे तो रवि ने परिहास करते हुए सुलक्षणा से पूछा . वहां से गंग्टोक के लिए कोई रास्ता चुनना था .

Spend some time at one of the most picturesque and unique waterfalls in Sikkim
सेवन-सिस्टर्स फाल 
बात यह थी कि आते समय हम ‘सेवेन-सिस्टर्स’ (सिक्किम का एक प्रसिद्ध झरना) वाले रस्ते से आए थे .सुलक्षणा ने इन्टरनेट पर ‘सेवन-सिस्टर्स’ के बारे में काफी अच्छी राय पढ़ रखी थी इसलिए उसी ने रवि को खासतौर पर उसे देखने की इच्छा जताई थी लेकिन ‘सेवन-सिस्टर्स’ वाला रास्ता न केवल कच्चा था बल्कि काफी ऊबड़-खाबड़ भी था . साथ ही शारीरिक व मानसिक थकान देने वाला भी ,लेकिन उससे भी अधिक निराशा-जनक था ‘सेवन-सिस्टर्स’ फाल . वैसे और उससे कई गुना अच्छे बेशुमार झरने हमें आगे रास्ते में मिले थे .
ना भैया , अब कोई दूसरा ही रास्ता देखना . –सुलक्षणा ने कहा तो रवि ने एक हंसी बुलंद की और गाड़ी एक अलग रस्ते पर स्वतन्त्र छोडदी .यह रवि का घर लौटने का उत्साह था या उसके फोन पर बीच-बीच में आरहे संदेशों का प्रबल आग्रह था ,जो दिल कहे रुक जा रे रुक जा, की मनुहार करने वाला ,सघन वृक्षावलियों से सज्जित मनोरम रास्ता भी कार की गति को मंथर बनाने में असमर्थ हो रहा था और  कार अबाध गति से दौड़ी चली जा रही थी . सर्पिल सा रास्ता कभी तीस्ता से बतियाने के लिए नीचे झुकता तो कभी शिखरों को छूने की मंशा से ऊपर की ओर छलांग लगा देता .लगभग छः घंटे की उस फिल्म में लगभग एक से ही दृश्यों—हरीतिमाच्छादित पर्वत-शिखर , शिखरों को तकिया बनाकर जब चाहे आ पसरने वाले मनमौजी बादल , कल-कल करते उछालते-मचलते झरने , भ्रमित कर देने वाले मोड़, पत्थरों व शिलाओं को वाद-विवाद में हराकर जीत की उमंग में इतराती हुई सी निर्बाध बहती तीस्ता-- की पुनरावृत्ति होती रही फिर भी ऊब का कही कोई नाम नहीं .

 कुछ पल ओझल रहकर अचानक सामने या आजू-बाजू में प्रकट हो जाने वाली तीस्ता को देख बरबस ही सावित्री की कहानी याद आती थी कि मनचाहा वरदान देने के बाद भी यमराज जब भी 
तीस्ता-सुकुमारी  

मुड कर देखते सावित्री को पीछे आती हुई देखते थे .हारकर  उसे और एक और वरदान दे देते थे ताकि वह पीछे आना छोड़ दे .
यहाँ पर्वत शिखर भी तीस्ता को अपने साथ अनवरत चलती पाते हैं तो पूछते हैं कि अरे तीस्ता सुकुमारी ! अभी तक साथ चली आ रही हो ? अब क्या चाहिए ? अच्छा ,लो एक और झरना ले लो ..और यह एक नन्ही नदी भी सम्हालो.. बस अब ठीक है ?
पर्वत एक सलोने चंचल झरने को सस्नेह तीस्ता की गोद में डाल देता है .एक उछलती-कूदती नदी हाथ उसके हाथ में दे देता है .तीस्ता फूली नहीं समाती , लेकिन क्या पीछा छोड़ती है ? जहाँ तक  पिता पर्वतराज का स्नेहिल सम्बल मिलेगा उसका बचपन विदा नही होगा . वह वैसे ही इठलाती-इतराती और उछलती–कूदती चलेगी चंचल बालिका सी और सारा स्नेह खुद समेट, पर्वतराज का ह्रदय अशेषकर मानो पूर्ण यौवनमयी होकर ही पिता के घर से विदा होगी . भला तीस्ता के अलावा कोई और उस वात्सल्य का अधिकारी कैसे हो सकता है ! 
रवि ने आज अँधेरा होने से पहले गंग्टोक पहुंचाकर पुरस्कार का ही काम किया .वह यों कि मेरी इच्छा गंग्टोक के बाज़ार को और ठीक से देखने की और वहां की कुछ खास चीजें खरीदने की थी . मान्या की आँखें तो अँधेरा होते ही गंवई रास्ते की तरह उनीदी हो चली थी . सुलक्षणा भी काफी थक गयी थी .उसकी गर्दन में हल्का दर्द भी था .उसे कुछ दवाइयों की जरूरत थी .सो मैं और प्रशांत बाज़ार के लिए निकले लेकिन हमारी पूरी योजना पर तुषारापात होगया जब हमने बाज़ार को एकदम सुनसान देखा .सारी दुकानें बंद थीं . पता चला कि आज सिक्किम के शाही घराने के किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का देहावसान होगया है .
सिक्किम सन १९७५ में भारत का बाईसवां राज्य बना था .सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना १६४२ में राजकुमार फुन्त्सोंग नामग्याल ने की थी .सिक्किम को शुरू से ही राजनैतिक संकटों का सामना करना पड़ा .कभी नेपाल और भूटान के आक्रमण कभी चीन की स्वार्थपूर्ण दया तो कभी ईस्ट-इण्डिया की दुरभिसंधियाँ . इन सारी मुसीबतों का अंत हुआ १६ मई १९७५ में जब सिक्किम की ओर से आए प्रस्ताव को स्वीकार कर उसे भारत में मिला लिया गया .इस तरह सिक्किम को एक सशक्त संरक्षण मिल गया और भारत को एक बहुत खूबसूरत राज्य . 
    
हाँ.. तो हमने बाजार को बन्द पाया .अच्छा यह था कि एक-दो मेडिकल–स्टोर खुले थे सो कुछ दवाइयाँ खरीदकर प्रशांत और मैं कुछ देर शांत सूनी सड़क पर टहलते रहे. बाजार की तरह ही मन भी नीरव था .जब बाहर सब शांत और नीरव होता है तब मन बोलता है .बीते पांच दिनों की अनुभूतियाँ मन को गुंजित व आलोकित कर रही थीं वहीँ दूसरी ओर आगामी कल के विचार से मन का हाल जल-संकोच विकल भई मीना.. जैसा हो रहा था ,जब हम बागडोगरा से अलग हो जाने वाले थे . प्रशांत व सुलक्षणा वहां से कोलकता ,फिर बेंगलुरु और मैं दिल्ली ,वहां से ग्वालियर .क्योंकि बच्चों से मिलना वर्ष में एक बार ग्रीष्मावकाश में ही हो पाता है इसलिए सान्निध्य के वे पल गुल्लक में सहेजे गए पैसों जैसे लगते हैं .  
६ नवम्बर       .  
जिस समय हमने ‘याबची’ छोड़ा, हिमाद्रि-शिखर कोहरे की चादर ओढ़े उन्निद्र थे लेकिन किरनों ने  सड़कें बुहारना शुरू कर दिया था , तमाम अँधेरा झाड—समेट जाने किस कूड़ेदान में फेंक दिया गया था .सारा शहर जाग गया था .
अब ‘जाइलो’ चक्कर काटती हुई किसी झूले की तरह नीचे उतर रही थी .हमारा मन बहुत सी खूबसूरत यादों को समेटे द्रवित और कृतज्ञ होकर गंग्टोक को अलविदा कह रहा था .

सिक्किम के अंचल में पांच दिन बिताने के बाद पर्वतराज के लिए मन में जो भाव जागा है ,मुझे अपना नाम सार्थक लग रहा है . एक पिता की कठोरता व पौरुष के प्रतिरूप उत्तुंग प्रस्तर-शिखर ,और ह्रदय में अनवरत प्रवाहित स्नेह व करुणा सी अनंत-सलिला नदियाँ ,सतत कर्मशील और ऊर्जा के उपमान झरने .. धैर्य व अनुशासन का अनिवार्य अभ्यास कराते संकरे मार्ग.. एक पिता का ही तो स्वरूप है यह महानगाधिराज हिमालय .
इतने उच्च व महान न सही लेकिन कठोरता व अनुशासन के लिये मुझे काकाजी( मेरे पिता ) अक्सर याद आते हैं . साथ ही वह ‘नदी’ भी, जो कभी मेरे ‘गाँव’ से नहीं गुजरी . वह नदी आज भी मेरे लिए कही दूर टिमटिमाते हुए तारे जैसी है ...खैर..

तीस्ता पर बना एक  खूबसूरत पुल .दांई और भूटान के लिए रास्ता है 
बागडोगरा तक पहुंचाकर रवि ने हम लोगों से विदा ली .इन छह दिनों में वह इतना अपना सा लगने लगा कि उसका लौटना अप्रिय लग रहा था . हालाँकि उसे तो बागडोगरा से एक परिवार को सिक्किम ले जाने का दायित्त्व दो दिन पहले ही मिल चुका था और वह उस परिवार से मिलने में व्यस्त भी हो गया . एक नवम्बर को जब वह हमें लेने आया था तब भी किसी को छोड़ने आया था .हमारे जैसे लोग उसे रोज मिलते हैं .सबसे वह बेशक इसी तरह घुलमिल जाता होगा . लेकिन क्या सबको वह इतनी आत्मीयता से अपनी कहानी भी सुनाता होगा ?
अट्ठाईस-तीस वर्ष का रवि अपनी मां को खो चुका है .रिश्ते के नाम पर अपने पिता को भी .पिता ने उसकी मां के रहते ही दूसरा घर बसा लिया था .माँ ने पिता की इच्छा का विरोध नहीं किया लेकिन विमाता ने उससे व उसकी माँ से एक पिता व पति को हमेशा के लिए दूर कर दिया . कुछ समय बाद माँ चल बसी . एक गहरा ज़ख्म खाकर भी रवि ने खुद ही अपने-आप को सम्हाला . अब वह एक सुशील संगिनी के साथ अपना घर बसा चुका है. हर हफ्ता न जाने कितने दिलों में भी.... हमेशा उन्मुक्त हँसी बिखेरने वाला जिंदादिल रवि हमारी स्मृतियों में भी सदा के लिए बस गया है .
जैसे मिसरिहू में मिली ,निरस बांस की फाँस
बागडोगरा तक के निर्बाध अविरल आनंद में एक अवरोध उत्पन्न हुआ .वह यों कि बागडोगरा एयरपोर्ट पर बोर्डिंग कराते समय पता चला कि मेरी फ्लाईट (बागडोगरा से दिल्ली ) कैंसिल होगई है  अब दिल्ली के लिए जो फ्लाईट मिल रही थी वह न केवल कोलकाता से थी बल्कि लगभग छः घंटे अधिक लेने वाली थी . इसके लिए पहले बागडोगरा से कोलकाता जाना था वहां से लगभग छः घंटे बाद दिल्ली के लिए फ्लाईट थी . इस सूचना को हमने किसी हादसे की तरह सुना .खासतौर पर प्रशांत ने .वह बेहद परेशान हो गया . उसकी परेशानी के पीछे 'स्पाइसजेट' वालों की लापरवाही और खराब सेवा तो थी ही साथ ही कुछ और बातें भी थी जैसे , 
(1)     उस फ्लाईट के ( जो कैंसिल हो गयी थी) दिल्ली पहुँचने के समयानुसार प्रशांत ने ग्वालियर के लिए तीन-तीन ट्रेनों के टिकिट बुक करवा रखे थे ताकि मुझे ट्रेन छूट जाने की चिंता न सताए .लेकिन अब चिन्ताएं बढ़ ही गईं थी .
 नई फ्लाईट का दिल्ली पहुंचने का समय रात के साढ़े ग्यारह था जो मेरे लिए असुविधाजनक था .मुझे बाहर जाने आने का बहुत अनुभव नहीं है .हालांकि  मैं सम्हाल सकती हूँ लेकिन प्रशांत मेरी असुविधा और उससे ज्यादा सुरक्षा को लेकर बहुत ;चिन्तित व तनावग्रस्त होगया---मम्मी एकदम नई जगह पर अकेली इतनी देर कहाँ ,कैसे इंतजार करेगीं .दिल्ली में इतनी रात गए कहाँ जाएंगी ? लेने भी कौन आएगा ? यों तो दिल्ली में कुछ परिचत ,मित्र व रिश्तेदार हैं लेकिन ऐसे में गुडगाँव में बंटी चाचा के अलावा किसी को यह दयित्त्व नही दिया जा सकता .लेकिन क्या उन्हें आधीरात को परेशान करना ठीक होगा ?       
इन बातों का ध्यान कर बस वह स्पाइसजेट के अधिकारियों पर बरस पड़ा--- अगर फ्लाईट कैंसिल होगई थी तो उसकी सूचना देनी चाहिए थी न ?
सर , हमने फोन किया था पर आपका फोन बन्द था .
ऐसे कैसे बन्द था ? कल शाम से फोन बराबर आ रहे हैं .एयरइण्डिया के मैसेज भी तो मिले थे हमें.
आइ कान्ट डू एनिथिंग अबाउट इट सर ..?—वह कुछ लापरवाही से बोला तब प्रशान्त ने सामने वाले को उसी की भाषा में (अंग्रेजी में ) इतना खींचा कि उसने गलती मानते हुए क्षमा मांगी और कोलकता में हर सम्भव मेरी सहायता का आश्वासन दिया . इसके आलावा कोइ चारा भी नहीं था  प्रशान्त फिर भी निश्चिन्त नहीं था .
बेटा ,मैं कर लूँगी . चिंता की कोई बात ही नहीं है . मैं कोई बच्ची हूँ क्या ?—मैंने उसे समझाया—फिर लगभग आधा घंटा बाद तुम भी तो कोलकाता पहुंचने वाले हो . यह तो अच्छा ही है न कि हम कुछ पल और साथ गुजार सकेंगे .
कोलकाता में जब मैं विमान से उतरी ,स्पाइसजेट के दो कर्मचारियों ने मुझे ससम्मान उचित स्थान पर पहुंचा दिया . हालांकि उस सहायता की मुझे जरूरत नहीं थी पर यह प्रशान्त का निर्देश था .मेरे कुछ ‘अपनों’ की तरह मेरा बेटा भी मुझे ‘बच्ची’ ही मानता है न !
मुझे कभी कभी अफ़सोस होता है कि मैं उसे अभी तक अपनी ओर से निश्चिन्त नही कर सकी हूँ . यह मेरी कमजोरी है या उसका गहरा लगाव .या कि शायद दोनों ही .
४.१५ पर उनकी फ्लाईट भी कोलकाता पहुंच गई. मान्या मुझसे दोबारा मिलकर खूब चहक रही थी .उसका मन उस कहानी को पूरी सुनाने का था जो बागडोगरा तक पूरी नहीं हो पाई थी लेकिन उतना समय नहीं था .
बेंगलुरु के लिए फ्लाईट छह-दस की थी और पांच–पचास पर प्रशान्त मुझे तमाम चीजें समझा रहा था—मम्मी ,देखो वहां मोबाईल चार्ज कर लेना..उधर पानी है ..उस तरफ टायलेट है और सुनो ना...वहां खाने–पीने का सामान है ..
जूस बिस्किट ..सब कुछ तो रख दिया है तूने ..अब जा बेटा फ्लाईट का टाइम हो रहा है . सुलक्षणा चिन्तित हो रही होगी .
मम्मी मेरी बात नहीं सुनती हो .—मेरी बात पर वह कुछ खीज उठा फिर समय की कमी देख मानो खुद को समझाते हुए बोला---"ठीक है मम्मी मैं निकलता हूँ . अपना ध्यान रखना ".
 उसकी आवाज की बेवशी मैंने स्पष्ट महसूस की .मेरा दिल भर आया . मेरा पैंतीस वर्षीय बेटा ,'इसरो 'में सीनिअर साइंटिस्ट , एक पिता की तरह मेरा ध्यान रखता है एक माँ की तरह चिंता करता है .उसे यों जाते हुए देख अंदर जमी सारी बर्फ एक साथ पिघल उठी .आँखों से भरभराकर एक धारा उमड़ पड़ी .ऐसे में मुझे सचमुच ही अपने अंदर एक नासमझ सी बच्ची महसूस होती है जिसे संबल और सांत्वना की बहुत जरूरत होती है ,लेकिन तभी मुझे स्थान और परिवेश का ध्यान आया , अपनी उम्र ,पद और समझ की  समझ आई और तुरंत सभ्य लोगों की तरह टायलेट में जाकर आँखें धो आई . 
प्रशान्त-सुलक्षणा बेंगलुरु में घर भी पहुंच गए तब भी मैं कोलकाता एयरपोर्ट पर बोर्डिंग का इंतजार कर रही थी .
साढ़े ग्यारह पर विमान दिल्ली पहुंचा . बंटी भैया ,सोनिया ( उनकी पत्नी ) और पांच साल का बेटा मेरे इंतजार में खड़े थे .बंटी भैया का असली नाम बड़ा क्लासिक है (जो मुझे याद भी नहीं है ) पर उन्हें सभी इसी नाम से जानते हैं . उन्हें भी इसी नाम से पुकारना अच्छा लगता है. वे हमारी छोटी बुआ सास की सात बेटियों के इकलौते भाई हैं . देखने में जितने शांत सौम्य उतने ही विचारों व व्यवहार में आत्मीय और शालीन.


ससुराल में जिन छोटे बड़ों की आत्मीयता मुझे प्राप्त है उनमें ये बुआजी सबसे आगे हैं . कम सुनती हैं . बिना मशीन के बिलकुल नहीं .पर संवादों में कभी कोई कमी नहीं होती . मुझे देख वे खिल उठीं . क्योंकि छह बजे शताब्दी प्रस्थान कर देती है इसलिए गुडगाँव से सुबह पांच बजे निकलना ही था पर यह सुनकर पहले तो वे मानने ही तैयार न थीं पर मैंने अपनी मजबूरी बताई ,तब वे मान गईं. सो हममें से रात भर कोई नहीं सोया . इन छोटी बुआ जी के बारे में कभी अलग से लिखना ही होगा . फिलहाल यही कि ऐसे लोग दुर्लभ  हैं आज के दौर में ..     

6 टिप्‍पणियां:

  1. प्राकृतिक सुन्दरता का जितना सुंदर अविरल प्रवाह उतना ही मधुर है वात्सल्य और स्नेह की धारा का मौन प्रवाह..बहुत बहुत बधाई इस यात्रा की पूर्णता पर और अपनों के सान्निध्य से उपजी इस मधुरिम गरिमा पर...

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  2. दीदी! भागिनेय प्रशांत को मेरा अशेष आशीष.
    आपकी इस यात्रा की पूरी कडियों को पढते हुये एक और बात का इत्मिनान मुझे हो ही गया कि आप मूल रूप से एक कवियत्री ही हैं. दर्शनीय स्थलों का वर्णन करते हुये आपकी शब्दावलि कहीं भी रिपोर्ताज या ट्रैवेलॉग की शब्दावलि नहीं लगती. जहाँ मूल रूप से ट्रैवेलॉग लिखने वाले उन दृश्यों के वर्णन में वहाँ का इतिहास, सामाजिक पृष्ठभूमि, परम्पराएँ और रीति रिवाज़ में उलझे रहते हैं, वहीं आपने इतिहास के सिर्फ गाल सहलाए और प्राकृतिक सौन्दर्य को गोद में बिठाकर ख़ूब प्यार-दुलार किया है. पोस्ट के आरम्भ में और अंत में (परेशानियों के मध्य) आपने चि. प्रशांत की चर्चा की है, साथ ही रवि की पारिवारिक कालिमा को भी आपने दिल से महसूस किया है.
    आज आपने अपने नाम की सार्थकता तो महसूस की, लेकिन मैंने तो हम दोनों के रिश्तों की सार्थकता को भी महसूस किया. सलिल भी तो उसी गिरिराज से जन्मता है.
    पोस्ट में कुछ बातें आपने ऐसी भी लिखीं जिनसे आप सदा कतराती हैं, जानकर या अनजाने भी. लेकिन इस बार जब आपने उन बातों को छुआ तो मुझे भी लगा कि कहीं न कहीं कुछ बर्फ़ पिघली होगी.
    और हाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हवाई अड्डे से आपने मुझे भी फ़ोन किया था और मुझसे अपनी परेशानी साझा की थी.
    अच्छा हुआ कि इस यात्रा से हमें एक ख़ूबसूरत यात्रा-वृत्तांत मिला और आपको कई सुन्दर कविताओं की सामग्री!

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  3. रोचक विवरण! इस तरह के यात्रा-वृत्तांत कम ही मिलते हैं - पढ़ने को।

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  4. यह मनोरम वृत्तांत कल पढ़ कर विस्तृत टिप्पणी लिखी पर किसी अचानक आये किसी व्यवधान के कारण ज़रा हटी और वह ग़ायब हो गई .प्रकृति और मानव-मन का ताल-मेल साथ में स्नेह संबंधों का सुन्दर निर्वहन हो जहाँ वहाँ का सरस चित्रण कर मन को विभोर कर देता है !

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  5. हिमालय की गोद सच में आपकी कलम से ऐसे लग रही है जैसे निर्झर झरने से शब्द अपने आप ही बह रहे हों ... प्राकृति को शब्दों में उतारना बड़ा ही दुर्गम कार्य है ... पर आपने इसे सुगम कर दिया है ... नदी, पर्वत, झरने, मौसम, पवन, बादल और इनके साथ साथ मानवीय पल, संवेदनाएं और मन के भाव एक रस हो कर बह रहे हैं इस यात्रा वृत्तांत में ... बहु-आयामी पोस्ट ... प्रशांत और उसकी भावनाओं को समझना मुश्किल नहीं है ... मन को छूता हुआ संस्मरण रहा है ये ...

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  6. मन को छूता हुआ संस्मरण

    Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर मेरी नजर से चला बिहारी ब्लॉगर बनने: )

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