लाचेन से लाचुंग
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'गुरुडोंगमार' से लौटते हुए हम सब बहुत थके हुए थे । सिर भारी हो रहा था ,लेकिन आराम करने का अवकाश नही था । 'ईकोनेस्ट' में दोपहर का भोजन मात्र सब्जी और पनीर के साथ चावल के रूप में मिला । रोटियाँ नही थीं । कारण पूछने पर खाना परोसने वाली छोटी सी लड़की ने संकोच के साथ कहा--"आंटी (गृहस्वामिनी) बाहर गईं हैं सो रोटियाँ बनाने वाला कोई नही है ।"
"कोई बात नही गुड़िया । खाना बहुत अच्छा है ।"--प्रशान्त ने कहा । यह सुनकर लड़की काफी सहज लगने लगी ।
मुझे चावल कम पसन्द हैं । सो मैंने कम ही खाया । सफर की दृष्टि से मेरे लिये यह अच्छा ही है । घंटों गाड़ी में बैठे-बैठे विधिवत् पाचन नही होपाता ।
हालांकि उस समय तन-मन दोनों को ही कुछ देर आराम की जरूरत महसूस हो रही थी लेकिन विश्राम की चाह लक्ष्य प्राप्ति में हमेशा ही बाधा बनती है फिर जब रवि ने लेट होजाने पर रास्ते में अँधेरा होजाने की बात भी कही तो फिर रुकने का प्रश्न ही नही था । पहाड़ी जंगलों के अँधेरे ,सँकरे और सुनसान रास्तों पर चलने से अच्छा था कि बिना रुके चल पड़ते ।
लाचेन और गंग्टोक के बीच में 'चुंगथांग' कस्बा है जो लाचेन और लाचुंग नदियों के संगम पर बसा है ।
ये दोनों नदियाँ भी असंख्य झरनों की तरह ही तीस्ता में मिलकर तीस्ता होजातीं हैं । एकता और समन्वय का यह बहुत ही अनुकरणीय उदाहरण है ,जिसका परिणाम है सिक्किम की वादियों को जीवन ,सौन्दर्य व संगीत देने वाली सदानीरा तीस्ता । हल्दी की एक गाँठ रखकर पंसारी बनने का अहं या अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग आलापने की प्रवृत्ति कभी उदार विस्तृत और सुन्दर परिणाम नही दे सकती ।
यहीं से एक रास्ता लाचुंग के लिये जाता है। सिक्किम का यह भाग अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर और विकसित है । पहाड़ ,नदी और झरनों का वैभव तो पूरे सिक्किम में कदम-कदम पर बिखरा है पर इधर सड़कें अधिकांशतः पक्की हैं । जहाँ नही हैं वहाँ बनाई जा रही हैं ।
लगभग 9600 फीट की ऊँचाई पर बसा खूबसूरत पहाड़ी कस्बा लाचुंग उत्तरी सिक्किम का आखिरी जिला है । लम्बाई में बसा यह कस्बा अपनी पूरी सुन्दरता व जीवन्तता के साथ अपने मेहमानों का स्वागत करता है । कस्बा के अन्तिम हिस्से में बने होटल 'फॉर्चूना' में हमारा रात्रि विश्राम था । यहाँ आरामदायक कमरों के साथ खाना भी काफी अच्छा मिला ।
सुबह सात बजे हम लोग युमथांग घाटी की ओर निकल पड़े । रात में बारिश होगई थी इसलिये युमथांग घाटी में प्रभूत मात्रा में बर्फ बिखरी मिलने की पूरी संभावना थी । और वही हुआ । युमथांग के लिये सड़क अच्छी है सो रवि गाड़ी को और भी उन्मुक्त होकर चला रहा था और साथ ही हमें बताता भी जा रहा था कि वो जो पत्थरों का ढेर है भूकम्प से हुई तबाही की निशानी है । ..ये बुरांश के पेड़ हैं । अगर आप फरवरी मार्च में आते तो पूरी घाटी बुराँश के फूलों से लदी मिलती ..।
बुरांश की बात चली तो मुझे उत्तराखण्ड के भाई हेमराज बालसखा की याद आई ( जो अब नही है ) भाई हेमराज मुझे बाल-साहित्य की एक कार्यशाला में मिले थे । बहुत ही सरल सहज संवेदनशील रचनाकार होने के साथ अच्छे शिक्षक भी थे । अपने पत्रों में वे अक्सर बर्फ और बुराँश के फूलों की चर्चा करते थे । बुराँश शायद उत्तराखण्ड का राज्य-पुष्प भी है । वहाँ के राज्य शिक्षा-केन्द्र की पाठ्य-पुस्तकों में कक्षा 7 की हिन्दी की पुस्तक का नाम भी बुरांश है । उसी में मेरी एक कहानी भी है । खैर...
युमथांग वैली तक पहुँचते-पहुँचते हम सबका उल्लास उत्तेजना में बदल गया । हिमालय पूरे दल-बदल सहित पत्ते-पत्ते पर आ जमा था । हरे पेड़-पौधे पूरी तरह सफेद थे । सुलक्षणा बार बार 'ओ माइ गॉड' कहकर कहते छोटे बच्चों की तरह चहक रही थी और वही क्यों ,मेरा भी तो वही हाल था । बर्फ की बारिश ने हमें तन-मन सहित पूरी तरह भिगो दिया ।
बेमौसम की बारिश में फसल के लिये हानिकारक होते हुए भी ओलों के लिये मन में जबरदस्त आकर्षण होता है, जो बटोरते बटोरते पिघलकर उँगलियों से फिसल जाते हैं पर यहाँ तो बर्फ का अपार वैभव बिखरा था । जितनी चाहो उठालो । गेंद बनाकर उछालो । सचमुच वह एक अद्भुत अपूर्व अनुभव था । विशेष बात यह कि इसके बावज़ूद वहाँ चुभन वाली सर्दी नही थी ।
लगभग 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित युमथांग-वैली का भ्रमण इस यात्रा का सबसे प्यारा और अविस्मरणीय अनुभव है । इससे प्रशान्त इतना उत्साहित हुआ कि रवि को अतिरिक्त तीन हजार रुपए देकर जीरो-पॉइंट तक चलने तैयार होगया । जीरो-पॉइंट पहले हमारी भ्रमण-योजना में नही था ।
कम से कम 15000 फीट की ऊँचाई पर स्थित जीरो-पॉइंट अपने नाम के अनुरूप शून्य का ही अनुभव कराता है जैसे इसके आगे अब कुछ नही है । चारों ओर बर्फ ही बर्फ । बर्फ के शिखर, बर्फ की चट्टानें ,बर्फ की रेत और बर्फ से ही पिघलकर बहती नीली नदी ।
उस सीमातीत बर्फ के मैदान में अगर चाय-काफी, मैगी ,चाट आदि की दुकानें सजाए , साग्रह बुलाते , जीवन के रंग बिखेरते सस्मित चेहरे न होते तो मुझे वह पॉइंट सुन्दर कम वीरान और भयावह ज्यादा लगता । भले ही मेरी सोच संकीर्ण , भीरु या आध्यात्म तक पहुँचने में असमर्थ है पर वास्तव में मनुष्य-विहीन प्रकृति मुझे लुभाती नही है।
ऋषि-मुनि हिमालय ऐसे ही दुर्गम और वीरान स्थानों में , कन्दराओं में एकचित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते होंगे । हम साधारण लोगों के वश की बात कहाँ ?
प्रशान्त जब उत्साहित होता है तो अपने साथ सबको खींच लेता है चाहे कोई चाहे न चाहे और उसके साथ मुझे भी किसी परेशानी का अनुभव नही होता । यह मन की बात है । मैंने भी मान्या व सुलक्षणा के साथ बर्फ की रेत अंजुरी में भर कर देखी एक दूसरे पर फेंकी । फोटोग्राफी की । बर्फीले पानी को छूकर देखा । लेकिन शरीर मन का साथ कहाँ तक देता । साँस तो पहले से ही कमजोर बैलों के कन्धों पर बहुत ज्यादा भरी हुई गाड़ी की तरह या प्रतिकूल हवा में किसी तरह पैडल मार कर खींची जारही साइकिल की तरह मुश्किल से आ जा रही थी उस पर हड्डियों तक को जमा देने वाली ठण्डक । मुझ पर अचानक बेहोशी सी छाने लगी । मैं प्रशान्त को बिना बताए तेजी से गाड़ी की ओर आगई । वह मेरी दशा से अनभिज्ञ पुकारता ही रहा --"मम्मी आओ ! देखो कितना अच्छा लग रहा है !"
'मुझे परेशान पाकर वह ज्यादा परेशान होजाएगा' --मैं उसके उल्लास को कम नही करना चाहती थी साथ ही यह भी कि जो भी परेशानी है कुछ क्षणों की है ,यही सोचकर मैं किसी तरह से गाड़ी तक आगई । पर वह सचमुच एक भयावह अनुभव था । एक असहनीय सी बेचैनी । हाथों व पैरों की उँगलियाँ गल नही जैसे जल रही थीं । साँस लेना मुश्किल हो रहा था ।
रवि ने तुरन्त गर्म कॉफी का कप मेरी उँगलियों में थमाया । प्रशान्त-सुलक्षणा भी शायद मेरे इस तरह चले आने के कारण ही गाड़ी पर लौट आए ।
"क्या हुआ मम्मी ?"
"बस थोड़ी सी सर्दी है ।"--मैंने उन्हें निश्चिन्त करने के लिये कहा पर मुझे काफी बेचैनी हो रही थी । सुलक्षणा ने मेरी हथेलियों को रगड़ा । कुछ धूप की गर्माहट भी मिली । कुछ देर बाद मैं सामान्य होगई।
'जीरो-पॉइंट' से लौटते समय एक परिपूर्ण अनुभव के साथ थकान भी थी । यमथांग वैली में सुलक्षणा फिर से कुछ देर और हिमाच्छादित पेड़-पौधों के साथ और बोल-बतियाना चाहती थी ।
"अब बर्फ शायद नही मिलेगी ।"--मैंने कहा पर सुलक्षणा को यह कतई स्वीकार्य न था । बच्चों की तरह मचलकर बोली---"मम्मी ऐसा न कहो । बर्फ तो मिलनी चाहिये । "लेकिन बर्फ सचमुच नही मिली । बारिश के कारण जमी बर्फ को धूप ने धो डाला था । पेड़ धुले-निखरे खड़े थे ।
कुछ ही दूर पर गर्म पानी का स्रोत है । बर्फ के बीच गरम पानी ..है न चमत्कार । अभी तक हमने गौरी कुण्ड के बारे में सुना था कि वहाँ एक कुण्ड में इतना गर्म पानी रहता है कि उसमें चावल पक जाते हैं पर यहाँ तो साक्षात् पानी छूकर देखा । चावल पकने जितना गर्म न सही पर गर्म था ,यही क्या कम विस्मय की बात है ।
युमथांग-वैली और जीरो-पॉइंट हमारे इस सफर के अन्तिम भ्रमण-स्थल थे । अब हमें लाचुंग लौटकर शाम होने तक गंग्तोक पहुँचना था और अगली सुबह बागडोगरा ।
अगली कड़ी में समापन ।
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'गुरुडोंगमार' से लौटते हुए हम सब बहुत थके हुए थे । सिर भारी हो रहा था ,लेकिन आराम करने का अवकाश नही था । 'ईकोनेस्ट' में दोपहर का भोजन मात्र सब्जी और पनीर के साथ चावल के रूप में मिला । रोटियाँ नही थीं । कारण पूछने पर खाना परोसने वाली छोटी सी लड़की ने संकोच के साथ कहा--"आंटी (गृहस्वामिनी) बाहर गईं हैं सो रोटियाँ बनाने वाला कोई नही है ।"
"कोई बात नही गुड़िया । खाना बहुत अच्छा है ।"--प्रशान्त ने कहा । यह सुनकर लड़की काफी सहज लगने लगी ।
मुझे चावल कम पसन्द हैं । सो मैंने कम ही खाया । सफर की दृष्टि से मेरे लिये यह अच्छा ही है । घंटों गाड़ी में बैठे-बैठे विधिवत् पाचन नही होपाता ।
हालांकि उस समय तन-मन दोनों को ही कुछ देर आराम की जरूरत महसूस हो रही थी लेकिन विश्राम की चाह लक्ष्य प्राप्ति में हमेशा ही बाधा बनती है फिर जब रवि ने लेट होजाने पर रास्ते में अँधेरा होजाने की बात भी कही तो फिर रुकने का प्रश्न ही नही था । पहाड़ी जंगलों के अँधेरे ,सँकरे और सुनसान रास्तों पर चलने से अच्छा था कि बिना रुके चल पड़ते ।
लाचेन और गंग्टोक के बीच में 'चुंगथांग' कस्बा है जो लाचेन और लाचुंग नदियों के संगम पर बसा है ।
ये दोनों नदियाँ भी असंख्य झरनों की तरह ही तीस्ता में मिलकर तीस्ता होजातीं हैं । एकता और समन्वय का यह बहुत ही अनुकरणीय उदाहरण है ,जिसका परिणाम है सिक्किम की वादियों को जीवन ,सौन्दर्य व संगीत देने वाली सदानीरा तीस्ता । हल्दी की एक गाँठ रखकर पंसारी बनने का अहं या अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग आलापने की प्रवृत्ति कभी उदार विस्तृत और सुन्दर परिणाम नही दे सकती ।
यहीं से एक रास्ता लाचुंग के लिये जाता है। सिक्किम का यह भाग अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर और विकसित है । पहाड़ ,नदी और झरनों का वैभव तो पूरे सिक्किम में कदम-कदम पर बिखरा है पर इधर सड़कें अधिकांशतः पक्की हैं । जहाँ नही हैं वहाँ बनाई जा रही हैं ।
लाचुंग का विहंगम दृश्य |
सुबह सात बजे हम लोग युमथांग घाटी की ओर निकल पड़े । रात में बारिश होगई थी इसलिये युमथांग घाटी में प्रभूत मात्रा में बर्फ बिखरी मिलने की पूरी संभावना थी । और वही हुआ । युमथांग के लिये सड़क अच्छी है सो रवि गाड़ी को और भी उन्मुक्त होकर चला रहा था और साथ ही हमें बताता भी जा रहा था कि वो जो पत्थरों का ढेर है भूकम्प से हुई तबाही की निशानी है । ..ये बुरांश के पेड़ हैं । अगर आप फरवरी मार्च में आते तो पूरी घाटी बुराँश के फूलों से लदी मिलती ..।
बुरांश की बात चली तो मुझे उत्तराखण्ड के भाई हेमराज बालसखा की याद आई ( जो अब नही है ) भाई हेमराज मुझे बाल-साहित्य की एक कार्यशाला में मिले थे । बहुत ही सरल सहज संवेदनशील रचनाकार होने के साथ अच्छे शिक्षक भी थे । अपने पत्रों में वे अक्सर बर्फ और बुराँश के फूलों की चर्चा करते थे । बुराँश शायद उत्तराखण्ड का राज्य-पुष्प भी है । वहाँ के राज्य शिक्षा-केन्द्र की पाठ्य-पुस्तकों में कक्षा 7 की हिन्दी की पुस्तक का नाम भी बुरांश है । उसी में मेरी एक कहानी भी है । खैर...
युमथांग वैली तक पहुँचते-पहुँचते हम सबका उल्लास उत्तेजना में बदल गया । हिमालय पूरे दल-बदल सहित पत्ते-पत्ते पर आ जमा था । हरे पेड़-पौधे पूरी तरह सफेद थे । सुलक्षणा बार बार 'ओ माइ गॉड' कहकर कहते छोटे बच्चों की तरह चहक रही थी और वही क्यों ,मेरा भी तो वही हाल था । बर्फ की बारिश ने हमें तन-मन सहित पूरी तरह भिगो दिया ।
बेमौसम की बारिश में फसल के लिये हानिकारक होते हुए भी ओलों के लिये मन में जबरदस्त आकर्षण होता है, जो बटोरते बटोरते पिघलकर उँगलियों से फिसल जाते हैं पर यहाँ तो बर्फ का अपार वैभव बिखरा था । जितनी चाहो उठालो । गेंद बनाकर उछालो । सचमुच वह एक अद्भुत अपूर्व अनुभव था । विशेष बात यह कि इसके बावज़ूद वहाँ चुभन वाली सर्दी नही थी ।
लगभग 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित युमथांग-वैली का भ्रमण इस यात्रा का सबसे प्यारा और अविस्मरणीय अनुभव है । इससे प्रशान्त इतना उत्साहित हुआ कि रवि को अतिरिक्त तीन हजार रुपए देकर जीरो-पॉइंट तक चलने तैयार होगया । जीरो-पॉइंट पहले हमारी भ्रमण-योजना में नही था ।
शून्यता ही महसूस होती है यहाँ |
उस सीमातीत बर्फ के मैदान में अगर चाय-काफी, मैगी ,चाट आदि की दुकानें सजाए , साग्रह बुलाते , जीवन के रंग बिखेरते सस्मित चेहरे न होते तो मुझे वह पॉइंट सुन्दर कम वीरान और भयावह ज्यादा लगता । भले ही मेरी सोच संकीर्ण , भीरु या आध्यात्म तक पहुँचने में असमर्थ है पर वास्तव में मनुष्य-विहीन प्रकृति मुझे लुभाती नही है।
ऋषि-मुनि हिमालय ऐसे ही दुर्गम और वीरान स्थानों में , कन्दराओं में एकचित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते होंगे । हम साधारण लोगों के वश की बात कहाँ ?
शून्य में भी जीवन |
'मुझे परेशान पाकर वह ज्यादा परेशान होजाएगा' --मैं उसके उल्लास को कम नही करना चाहती थी साथ ही यह भी कि जो भी परेशानी है कुछ क्षणों की है ,यही सोचकर मैं किसी तरह से गाड़ी तक आगई । पर वह सचमुच एक भयावह अनुभव था । एक असहनीय सी बेचैनी । हाथों व पैरों की उँगलियाँ गल नही जैसे जल रही थीं । साँस लेना मुश्किल हो रहा था ।
रवि ने तुरन्त गर्म कॉफी का कप मेरी उँगलियों में थमाया । प्रशान्त-सुलक्षणा भी शायद मेरे इस तरह चले आने के कारण ही गाड़ी पर लौट आए ।
"क्या हुआ मम्मी ?"
"बस थोड़ी सी सर्दी है ।"--मैंने उन्हें निश्चिन्त करने के लिये कहा पर मुझे काफी बेचैनी हो रही थी । सुलक्षणा ने मेरी हथेलियों को रगड़ा । कुछ धूप की गर्माहट भी मिली । कुछ देर बाद मैं सामान्य होगई।
'जीरो-पॉइंट' से लौटते समय एक परिपूर्ण अनुभव के साथ थकान भी थी । यमथांग वैली में सुलक्षणा फिर से कुछ देर और हिमाच्छादित पेड़-पौधों के साथ और बोल-बतियाना चाहती थी ।
"अब बर्फ शायद नही मिलेगी ।"--मैंने कहा पर सुलक्षणा को यह कतई स्वीकार्य न था । बच्चों की तरह मचलकर बोली---"मम्मी ऐसा न कहो । बर्फ तो मिलनी चाहिये । "लेकिन बर्फ सचमुच नही मिली । बारिश के कारण जमी बर्फ को धूप ने धो डाला था । पेड़ धुले-निखरे खड़े थे ।
बर्फ की चादर उतर गई |
युमथांग-वैली और जीरो-पॉइंट हमारे इस सफर के अन्तिम भ्रमण-स्थल थे । अब हमें लाचुंग लौटकर शाम होने तक गंग्तोक पहुँचना था और अगली सुबह बागडोगरा ।
अगली कड़ी में समापन ।
वहाँ के राज्य शिक्षा-केन्द्र की पाठ्य-पुस्तकों में कक्षा 7 की हिन्दी की पुस्तक का नाम भी बुरांश है । उसी में मेरी एक कहानी भी है । खैर...............यह जानकार अच्छा लगा। बुरांश का जूस बहुत स्वास्थ्यवर्द्धक होता है। अध्यात्म की धरती पर कलिकाली मानवों की अपेक्षा ही आपकी बेचैनी और अस्वास्थ्य का कारण बनी।, अगर आप पूर्णरूपेण आध्यात्मिक हो जाते तो शायद अस्तित्व का नवीनीकरण जरूरत हो जाता।
जवाब देंहटाएंविकेश जी आपका मत हो सकता है सही हो लेकिन तथाकथित कलिकाली मानव ही वहाँ बड़े सहायक होते हैं । नाथुला जाते समय एक महिला की हालत खराब होगई ( मैं इतनी अस्वस्थ नही थी ) तब वहाँ सेना के जवानों ने हर संभव मदद की । आध्यात्म के विषय में मेरा कोई ज्ञान नही है पर मेरे विचार से मानव का मानव के प्रति विश्वास और सद्भाव सबसे पहले आवश्यक है । जो भी हो आपके विचार मुझे बड़े स्पष्ट व अच्छे लगे । आपने बड़ी आत्मीयता से अपनी बात कही है जो आपकी सच्चाई का प्रतीक है ।
हटाएंकलिकाली मानवों से मेरा आशय दुर्गम स्थलों पर तैनात सेना के जवानों और वहां असहाय, अस्वस्थ लोगों की सहायता करने वालों मानवों से नहीं था। मेरा आशय था कि शहरों में अव्यवस्था के सबसे बड़े कारक कलिकाली मानवों के दुष्प्रभाव से आप कुछ समय के लिए दूर आध्यात्मिकता में स्थिर रहते तो शायद एक नवीन जीवन अनुभव पाते। जो सुन्दर अनुभव आपने पाए शायद उससे भी बेहतर अनुभव।
हटाएंAapka yah kahna sahi hai vikesh ji.aage kabhi Himalaya me Jana huaa to us anubhav ko pane ka hi prayas hoga
हटाएंदीदी! सुन्दर यात्राएँ, मनोरम स्थल की सैर के उमंग के साथ जब स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या खड़ी कर देते हैं तो मन ख़राब हो जाता है... आपकी अस्वस्थता के बारे में सोचकर अजीब सा लगा. अनजान जगह, चिकित्सा सुविधा की अनिश्चितता आदि के विशय में सोचकर ही डर लगता है.
जवाब देंहटाएंहम सब लोग मैहर दर्शन करने गये थे. माँ और बहन महिलाओं की लाइन में थीं और हम भाई और पिताजी पुरुषों की लाइन में. अचानक पिता जी बेहोश होकर गिर पड़े और उनकी साम्सें बन्द होने लगीं. हम सब भाई रोने लगे. मैं छोटे भाइयों को सम्भालता हुआ, देवी के प्रसाद के बताशे (जो माता को अर्पित करने थे) पानी में घोलकर पिताजी के मुँह में डाला और वो तब जाकर होश में आए. जब तक माँ और बहन लौट कर आईं, तब तक सारा संकट टल चुका था.
ख़ैर मैं भी कहाँ की बात ले बैठा. आपकी यात्रा का आनन्द आपके साथ-साथ हम भी उठा रहे हैं, और अगर कभी जाना हुआ तो इन सारी जगहों को अवश्य याद रखेंगे.
सलिल भैया , निश्चित ही सफर में थोड़ी बहुत परेशानियाँ तो आ ही जातीं हैं । बस कोई अनिष्ट नही होना चाहिये सो ईश्वर की कृपा से बचा रहा । वैसे इस यात्रा में मैंने देखा कि दुर्गम पड़ावों पर हर जगह सेना के शिविर थे । जवान हर तरह की सहायता के लिये तैयार थे । यह मैंने नाथुला में भी देखा और गुरुडोंगमार लेक के रास्ते में भी । एक दो जवानों ने पूछा भी कि सब ठीक है । बच्चे को कोई परेशानी तो नही । मैं संस्मरण में इसका उल्लेख करना भूल गई हूँ । दरअसल बहुत कुछ एक साथ समेटते हैं तब काफी कुछ छूट भी जाता है । अगली कड़ी में उस छूटे हुए को भी शामिल करने की कोशिश करूँगी । आप पढ़ते हुए अपने अनुभव भी लिखते हैं यह 'कहाँ की बात 'नही अपनों की अपनी बातें होतीं हैं ।
हटाएंसफ़र में कठिनाइयां तो आती हैं .. ऐसे में उनका दूर हो जाना भी किसी रोचक अनुभव से कम नहीं होता ... लाचेन से लुचांग तक का अनुभव .. सिक्किम की प्रकृति का साक्षात अनुभव ... १५००० की ऊँचाई, जीरो पॉइंट का रोमांच हमेशा हमेशा के लिए यादों में बस जाता है ... आपका संस्मरण पढ़ते पढ़ते लग रहा है जैसे हम भी वहां पहुँच गए ...
जवाब देंहटाएंaapka tahedil se shukriya
हटाएंइतनी ऊँचाइयों को छू कर ,उनकी रमणीयता का साक्षात्कार कर लिया तो उस दुरूहता और भयावहता का थोड़ा अनुभव भी उसी का एक हिस्सा बन कर आ गया .भला हुआ जो शीघ्र ही सब-कुछ ठीक हो गया . ये सेना के जवान युद्ध-वीर ही नहीं ,कर्म-वीर भी है ,विषम कालों में इनकी सेवा-सहायता अविस्मरणीय होती है और उनके धैर्य का तो कुछ कहना ही नहीं यात्रा अभी शेष है -उत्सुकता भी.
जवाब देंहटाएंऐसे शानदार स्थलों पर मन बच्चा हो ही जाता है, हम अपने स्वस्थ को लेकर भी थोड़े लापरवाह हो जाते हैं. तभी स्वास्थ्य हमारे आनंद में बाधा बन जाता है... खैर अपने तमाम परेशानी सहते हुए भी सबको आनंद लेने दिए, हमे भी. हालाँकि आपको तत्काल प्रशांत भैया को बताना चाहिए था... बहरहाल अगली यानी समापन क़िस्त का इंतजार
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