मंगलवार, 23 जनवरी 2024

पहली रचना (पुरानी डायरी से )

 अभी तक मुझे याद था कि पहली रचना मेरा पहला गीत –--"काँटों को अपनालूँ मैं या मृदु कलियों से प्यार करूँ ..है जो किसी तरह नष्ट होने से बच गया था लेकिन एक बहुत पुरानी डायरी पलटते हुए एक रचना मिली जिसके साथ लिखा है कि यह ग्यारहवीं कक्षा में (सत्र1974-75) अगस्त सितम्बर माह में लिखी थी .यह मुझे याद थी लेकिन कई कहानियों व एक उपन्यास की तरह नष्ट होगई जानकर शान्त थी लेकिन डायरी पलटते हुए अनगढ़ सपाट और बचकानी सी इस रचना को पाकर हृदय पुलक से भर गया .डायरी में शायद कभी उस कॉपी से उतार ली होगी, जो जर्जर हो चुकी थी .किशोरावस्था में लिखी गई यह पहली रचना संभवतः सेनापति के ऋतुवर्णन से प्रेरित होकर लिखी गई होगी जो उन दिनों पाठ्यक्रम में था .भाषा पर पंचवटी का प्रभाव रहा होगा ( ध्रुवगाथा पर भी ) क्योंकि पढ़ने के नाम पर केवल पाठ्यक्रम की पुस्तकें ही रही हैं मेरे पास .यहाँ तक कि स्नातकोत्तर परीक्षा पास करने तक भी मैंने केवल पाठ्यक्रम की पुस्तकें ही पढ़ी हैं .डायरी में कविता शरद् वर्णन तक ही है . संभव है कि और दो ऋतुओं पर भी हो और मैं उतार नहीं पाई होऊँ क्योंकि अ्न्त में शिशिर लिखकर छोड़ दिया गया है ..कुछ याद नहीं पर पैंतालीस वर्ष पूर्व लिखी यह रचना यह तो बताती है कि सही राह दिशा मिली होती तो मैं शायद कुछ और अच्छा कर पाती .यह भी कि मैंने अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं किया .कुछ परिस्थितियाँ , कुछ आलस्य और कुछ सही दिशा ,परिवेश व प्रेरणा का अभाव ..कारण जो भी हो पर मैंने निश्चित ही बहुत सारा महत्त्वपूर्ण समय व्यर्थ चिन्तन व विषमताओं से मानसिक पलायन करते गुजार दिया .खैर...

अपने गाँव से मुझे बहुत लगाव रहा है . नदी खेत आम के कुंज सब मेरी यादों में मिठास की तरह हैं . मेरी कॉपी किसी के हाथ लग गई थी . इसलिये इस कविता के लिये मुझे खूब सुनना पड़ा था कि “ यह बेचारी तो स्वर्ग छोड़कर नरक (ससुराल) में आई है .  

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मेरा गाँव,मेरा स्वर्ग

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चिड़ियों के मीठे कलरव में स्वर्ग सदृश यह मेरा गाँव

त्रिविध पवन से रँगी मनोहर अमराई की सीतल छाँव

धरती नाचे झूम झूमकर बनी मनोहर मधुर छटा

जैसे नाचे मोर दिवाना देख निराली श्याम घटा .

सुर भी सुनने उत्सुक रहते उसे सुनाऊँ तुमको आज

हर ऋतु प्रेम-विभोर मगन हो करती कैसे अनुपम राज .

(1)

वसन्त ऋतु

अलकापुरी लजाती मन में जब करता मधुमास विहार

देख निराली अमराई को माने नन्दन वन भी हार .

खुशियाँ मुस्काती प्रमुदित हो रूप वरुणकर सुमनों का

जैसे कोई मोहक और निराला दृश्य कोई हो सपनों का .

प्रेम प्रसून हुआ जाता है नवस्फूर्ति गन्ध भरती

प्रमुदित मन भंवरे की गुनगुन कानों में मधुरस भरती .

ऋतुरानी अँगड़ाई लेती वन—उपवन हँसकर आती

पुष्प लदे तरु और लताओं की छबि सबको अति भाती .

सरुवर सरसिज ने उसके मुख की ही छबि मानो पाई

ऋतुरानी की सुन्दरता को देख बहारें मुस्काईं .

रवि का स्वागत खिलकर करते मधुर मनोहर पु,प जहाँ

भ्रमर दीवाने उसे सुनाते रानी का गुणगान वहाँ .

धरती नया रूप लेती ऋतुराज का चुम्बन पाते ही

हर दिशा नवेली दुल्हन सी लगती वसन्त के आते ही .

(2)

जब जब दिवा रुष्ट होकर पावक सी किरण बिछाता है

हर पंथी पंछी वृक्षों से शीतल छाया पाता है .

घनी मनोहर अमराई को देख अंशु रुक जाती हैं .

मोहित गर्मी कामचोर बन छाया में रम जाती है .

देख थकी सी उन किरणों को हवा और चंचल होती .

विजय भाव से शीतल बनकर हर प्राणी को सुख देती

सर सरिता और निर्झर भी कब ग्रीष्मकाल से डरते हैं

बाग-बगीचे कूल-किनारे तनमन शीतल करते हैं.

अल्प प्रभाव छोड़ पाती ऋतु , प्रकृति बनी ऐसी अनुकूल

लू के झौंके भी कुंजों में प्रकृति छोड़ देते प्रतिकूल .

(3)

वर्षा

केश बिखेरे वर्षा रमणी बड़ी करुण होजाती है

विरहाग्नि में जल जलकर ही नयना नीर बहाती है

विगलित अन्तर लेकर ही सर्वत्र देखती फिरती है .

प्रिय की यादों में रो रोकर गंगा जमुना भरती है .

केशराशि फैलाती है तो जग तममय होजाता है

सुन्दर हार सुनहरा उसका कभी दीप्ति कर जाता है

विरहजनित उसका क्रन्दन हर अन्तर को दहलाता है.

कहाँ गया है इसका प्रियतम क्यों न लौटकर आता है

दुख भी होता है अनुभव कर विरह-प्रकोप गहन इसका

अश्रु वृष्टि भी बन जाता मोहक खेल रात दिन का .

दादुर मोर पपीहा उसकी विरह व्यथा ही गाते है

फिर भी मोहक से लगते यवे वर्षा के दिन आते हैं .

(4)

शरद्

शशि का निर्मल रूप देखकर मधुर बहारें आतीं हैं

निखरे नीलाम्बर में परियाँ मंगल गान सुनाती हैं

नीलगगन में चाँद रुपहला शीतल अमिय पिलाता है .

नीले ही सरुवर झीलों में सरसिज श्वेत रिझाता है

कल कल छल छल बहते नदियाँ—नाले सब निर्मल होजाते है .

तट पर बगुले जमे झील में हंस श्वेत  मुस्काते हैं .

धरती धानी चूनर ओढ़े बड़ी सुहानी लगती है

मत्त गयंद मृगों की टोली सबका स्वागत करती है .

शरद् ऋतु पर आई जवानी जलथल में रँग लाई है

किसकी ढलती उम्र कास के फूलों में लहराई है .

बादल नभ में नैया जल में सुन्दर महल बनाती है

शरद् ऋतु की रानी इनमें सपने नए सजाती है .

(5)

शिशिर .

गुरुवार, 4 जनवरी 2024

परदा

 आवरण या परदा अच्छा नहीं होता

पड़ा हो अगर आँखों पर .

या किसी भी तथ्य पर .

 

परदा नही होता अच्छा बेशक

जब दीवार बनता है 

दृष्टि और दृश्य के बीच

असत्य और सत्य के बीच

बहुत अखरता है आवरण 

जब मधुर वाणी और सभ्य आचरण में

छुपे रहते हैं

हृदय में जमे कुविचार

देते हैं धोखा .

तुलसी देखि सुवेष

भूलहि मूढ़ न चतुर नर.

कहा है महाकवि ने भी तो .

 

लेकिन परदा होता है अच्छा भी ,

अगर छुपाता है किसी के घर की

झरती दीवारें ,उखड़ा हुआ फर्श

अर्श टूटा या चटका हुआ .

 

परदा अच्छा है

अगर काम आता हो छुपाने के 

किसी अपने की बेवशी और कमजोरी .

गुन प्रकटहि अवगुनहि दुरावा

कहा है महाकवि तुलसी ने भी

सच्चे मित्र के लिये .

 

परदा अच्छा ही है

पड़ा हुआ ऐसे अतीत पर

जिसका सामने आना

नहीं हो कतई जरूरी .

कई बार जरूरी हो जाता है

परदा डालना सच पर .

सबके हित .

देह भी एक सच है

पर कितना जरूरी है

उसका होना आवरण में .

 

परदा होता है जब

प्रतीक मर्यादा व लज्जा का ,

अच्छा होता है .

परदा चाहे साड़ी या चुन्नी का हो

या हो फिर परदा आँखों का .

न कि आंखों पर .

 

परदा आवश्यक भी है

अनावश्यक भी

बाधा भी है और सहायक भी   

यह निर्भर है 

उसके उपयोग और उद्देश्य पर .