31 दिसम्बर साल का सबसे हलचल और उत्तेजना भरा दिन होता है , साथ ही एक हल्का सा मलाल भी कि कितना कुछ मुट्ठी से फिसल गया .सूखे रेत की तरह . समय के पाँव पीछे की ओर नहीं होते . वह निसंस्गता के साथ निकल जाता है . उसे रोका नहीं जा सकता पर हाथ पकड़कर कुछ पल उसके साथ बिता सकते हैं पर वह भी नहीं कर पाते और उसके गुजर जाने पर आहें भरते हैं
इस दिन को मैं बहुत सारी बातों के लिये याद करती हूँ पर उनमें जो सबसे अनमोल और अविस्मरणीय उपलब्धि का दिन है . 31 दिसम्बर 1985 का दिन .मयंक का जन्मदिन .
1985 रात्रि के 10 बजे . कमलाराजा हॉस्पिटल ग्वालियर . कोशिशें न होती तो ये महाशय एक वर्ष बाद यानी 1986 में जन्मे होते . हुआ यह कि निर्धारित तिथि के बाद सुबह शाम , और शाम सुबह गिनते पन्द्रह दिन से भी ज्यादा होगए तो मैं डाक्टर अरोरा ,जिनकी देखरेख में शिशु का जन्म होना था, से मिली . डाक्टर बोली –“आप डेट भूल गयी हैं .” मैंने सोचा महिला अपनी चाबी ,चश्मा ,पर्स ,रुपए...या और कुछ भी भूल सकती है पर अपनी डेट कभी नहीं भूलती . डाक्टर को भी मैंने यही विश्वास दिलाया तो वे तुरन्त बोली –"तब फिर देर करना ठीक नहीं .आप एडमिट हो जाइये ."
31 दिसम्बर की सुबह मैंने हॉस्पिटल की शरण ली . दो तीन ड्रिप चढ़ाने के बाद असर हुआ . कुछ पीड़ा भरे घंटों के बाद कल-निनाद के साथ ही शिशु का अवतरण हुआ. पास खड़ी नर्स ने तालियाँ बजाकर कहा –--"सिर बड़ा सरदार का ..". गर्भ में ही अतिरिक्त समय बिताने के कारण महाशय इतने परिपक्व होकर आए थे कि एकदम नवजात लगे ही नहीं . नहा धोकर आराम से अंगूठा चूसकर सबको विस्मित कर रहे थे .अगूठा चूसने की आवाज सुनकर मैंने सिर घुमाकर पालने की ओर होकर देखा .हदय पुलक से भर गया . स्वस्थ सुन्दर जैसे कोई देवशिशु . इतने प्यारे और सुखद परिणाम के आगे सृजन की पीड़ा कुछ नहीं होती . ज़रूरत है एक माँ की उस पीड़ा को समझने और महत्त्व देने की . उस समय नहीं दिया जाता था पर आज दिया जा रहा है ,यह सचमुच सुखद है .
मयंक का जन्म मेरे लिये एक अनमोल उपहार से कम नहीं . मुझे याद नहीं कि उसके कारण मुझे कभी कोई व्यवधान , असुविधा या तनाव हुआ हो .मार्च 86 में जब मैं एम ए पूर्वार्द्ध की परीक्षा दे रही थी वह तीन माह का था .उसे लेकर गाँव से पैंतालीस कि मी दूर बस से मुरैना परीक्षा देने आती थी . उसे गाँव की ही एक बहिन के घर छोड़ती थीं . तीन घंटे की परीक्षावधि सहित लगभग साढ़े चार घंटे बाद आकर उसे लेती और उन जीजी के प्रति कृतज्ञता जताती पर वे उल्टे कहतीं –-अरे इससे हमारा समय बहुत खुशी में बीतता है खेलता रहता है . ज़रा भी परेशान नहीं करता .
एम ए उत्तरार्द्ध का आवेदन भरने के समय तक महाशय हाथ पाँव चलाना सीख गए थे .वहीं हाथ में पेन पड़ गया और गोल गोल घुमा दिया मेरी प्रीवियस की अंकसूची पर . इस तरह लिखाई का अभ्यास शुरु हुआ . उसे कभी कुछ सिखाना नहीं पड़ा . चार्ट में देख देखकर भाइयों से सुन सुनकर कब पढ़ना सीख गया पता ही न चला . तीन साल की उम्र में ही वह चॉक से फर्श पर हैण्डपम्प से पानी भरता आदमी इतनी जल्दी बनाता था कि लोग हैरत में पड़ जाते थे . प्रशान्त व विवेक की तरह ही शिक्षा के उचित अवसर और सुविधा न मिलने के बाबजूद वह भी आज जिस स्थित में हैं ,आश्वस्ति के लिये बहुत है . उसकी सोच मुझे एक ठोस ज़मीन देती है . एक माँ के लिये यह छोटी बात नहीं है .