पलायन
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मैं कभी कभी सोचती हूँ कि
मुझे मिलना चाहिये कभी खुद
से भी .
आमतौर पर मैं नहीं मिलती .
रहती हूँ दूर दूर ही .
खुद से मिलकर मुझे
खुशी नही होती जरा भी .
खेद होता है देखकर कि
मैं असल में जी रही हूँ
हवाओं में
जबरन हँसती रहती हूँ
सुनकर बेमतलब के चुटकुले .
पाले हूँ खूबसूरती का
अहसास
दूसरों के दर्पण में .
इन्तज़ार करती हूँ
बेवज़ह उसका
जिसने आज तक
तारीख तय नहीं की
अपने आने की .
भूली-भटकी सी मैं
वक्त गुज़ारती रहती हूँ
दूर आसमान में
किसी तारे को देखते हुए .
सुना था कभी कि खुद से
मिलना
मिलना है जगत-जीवन की
सच्चाई से ,
पर मैं घबराती हूँ
एक गहरी अँधेरी सुरंग में
जाने से .
मोती पाने की उत्कट लालसा
होने के बाबज़ूद
डरती हूँ डूबने से
और मुँह मोड़कर लौट जाती
हूँ
खुद के पास आकर
अपने लिये ही परायी मैं
आज तक नहीं मिल सकी हूँ
गले लगकर खुद से .
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