मंगलवार, 26 नवंबर 2013

एक दिन --दो गीत

आज प्रशान्त (गुल्लू) का जन्मदिन है । मेरे लिये एक अत्यन्त शुभ-दिन दिन । अनेक आशीषों और वरदानों का दिन । पहली रचना उसी के लिये । दूसरी कविता अपने वीर जवानों के लिये जो देश की रक्षा और संकट के समय प्राणों की बाजी लगा देते हैं ।
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(1)
क्या लिखूँ आज तेरे लिये
मेरे प्रथम कोमल गीत 
मेरे वत्स !
मेरे मीत !
अवाक् हूँ
फिसल जाते हैं शब्द
पारे की बूँदों की तरह
मेरी उँगलियों से ।
अव्यक्त है वह अहसास 
,जो होता है 
याद कर तेरी सस्मित आँखों को ।

तेरी आवाज  

धूप की तरह बिखर जाती है 
सुबह-सुबह 
भर देती है उजाला 
घर के कोने-कोने में 
अँधेरे बन्द कमरों में भी ।

साफ कर देती है धूल ।
जो जमी होती है अलमारियों में
सोफा ,शीशा किताबों और डायरियों पर 
रात के अँधेरों में लग गए जाले ,
जो लिपट जाते हैं चेहरे पर, बालों में 
उतार देती है ,
रोज की अभ्यस्त कामवाली की तरह

चाहती हूँ लौटाना तुझे वह सब 

जो दिया है तूने मुझे सबसे पहले  
मिले तुझे वह सब 
जो मेरे मन में है  हमेशा । 
और क्या दूँ तुझे 
मेरे वत्स , मेरे मीत
 मेरे प्रथम कोमल गीत ।


  जन्मदिन--26 नवम्बर 1978
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मुम्बई के आतंकी हमले में काम आए वीरों के सम्मान में----
(2)
मातृ-भूमि का ऋण उतार कर वीर जवान गए 
कर्म भूमि का पथ सँवार कर हो कुर्बान गए ।

दुश्मन ने आतंक मचाया
निर्दोषों का खून बहाया ।
धधक रहीं थीं जब दीवारें 
सहमे प्राण ,देश थर्राया ।
कूद पड़े वे तूफां बन कर 
अमर हुए वे जीवन देकर 
देकर राह गए ।

सिखा गए वे हमको ,चुप रहना ,डर जाना है 
समझौतों पर चलते ही रहना, मर जाना है ।
लगे समझने जब उदारता को कोई कमजोरी 
चोरी करके भी शैतान दिखाए सीनाजोरी 
ईँट लगे तो फेंको पत्थर ,
हम सबको इतना समझाकर 
हो कुर्बान गए ।

छोड़ो स्वार्थ और समझौते दो जैसे को तैसा । 
सबको समझादो ,यह देश नही है ऐसा वैसा 
स्वार्थ और सत्ता से ऊपर हों अपनी सीमाएं ।
अब गद्दार रहे ना हरगिज अपने दाँए-बाँए । 
बैंगलोर मुम्बई या जयपुर 
रहे न कोई भी यों डरकर  
गाए गीत नए ,वीर जवान गए ।

किसी शहादत पर भी ना हो कोरी नारेबाजी ।
आन बान का सौदा है यह नही है कोई भाजी ।
दिन में स्वप्न देखने वालों की निंदिया को तोड़ो ।
आस्तीन के साँपों को अब दूध पिलाना छोड़ो । 
जीवन का मकसद पूरा कर ,
यही सबक हम सबको देकर ,
वीर जवान गए ,हो कुर्बान गए ।

(15 दिस 2008 को रचित) 

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

'हेडा-होडा' और बच्चे ।

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बाल-फिल्म महोत्सव के अन्तर्गत विभाग द्वारा स्कूल के बच्चों को कुछ बाल-फिल्में दिखाई गईं । प्राचार्य जी का आदेश हुआ कि हम लोग टाकीज पर ही जाकर केन्द्र के शिक्षकों को टिकिट उपलब्ध कराएं । आदेश कुछ अजीब तो लगा पर आदेश का पालन तो करना ही था । चूँकि उन फिल्मों में मकडी ,या ब्लू-अम्ब्रेला जैसी फिल्में नही थीं बल्कि एकदम अपरिचित से नाम थे इसलिये जहाँ दूसरे शिक्षकों ने फिल्म के प्रति उपेक्षा-भाव रखा वहीं मैंने जिज्ञासावश कि आखिर 'बाल-फिल्म महोत्सव' में बच्चों को कैसी फिल्में दिखाई जातीं हैं, फिल्म देखने का मन बना लिया ।
मुझे जिस टाकीज पर भेजा गया था वहाँ दिखाई जाने वाली फिल्म थी--'हेडा-होडा' ।
स्टाफ के कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि फिल्म शायद किसी होड पर आधारित होगी । होड यानी प्रतिस्पर्धा । मुझे बच्चों की फिल्म (उनकी नजर में स्तरहीन) देखने उत्सुक पाकर कुछ साथी मुस्कराए -- "लीजिये ,मैडम कुछ नही तो बच्चों की फिल्म ही देख रहीं हैं । चलो मुफ्त में दिख जाएगी । क्या बुरा है ।" 
सिनेमा-हाल में छोटे-बडे बच्चों का बेहद शोर था । उनके शिक्षक--शिक्षिका उन्हें हाल में बिठा कर या तो बाहर खडे थे या घर चले गए थे कि फिल्म खत्म होने से पहले आजाएंगे । खैर कुछ देर बाद जैसे ही फिल्म शुरु हुई हाल में शान्ति छागई लेकिन कुछ पलों के लिये ही । इसके बाद जो कुछ फिल्म के अन्त तक होता रहा उसे बताने से पहले हम फिल्म की बात करते हैं । 
यह राजस्थान के एक सीमान्त गाँव 'हेडा' के मासूम और बहादुर बच्चे सोनू पर केन्द्रित कहानी है जो जिज्ञासु और खोजी प्रवृत्ति का है । उसको ऊँट चराने का काम मिला हुआ है । इसलिये नाश्ता करके सुबह ही ऊँटों को लेकर निकल जाता है । उसे अपने ऊँटों से उसे बेहद लगाव है । और ऊँटों को भी उससे । एक दिन उसके तीन ऊँट चोरी होजाते हैं । काफी कोशिशों के बाद सुराग मिलता है कि ऊँट सीमा पार पाकिस्तान ले जाये गए हैं । इससे मामला काफी उलझ जाता है । सोनू बहुत परेशान होता है । उसे पिता की डाँट का नही अपने ऊँटों के खोजाने का गम है । वह चुपचाप उन्हें तलाशता हुआ पाकिस्तान के एक गाँव 'होडा' ( फिल्म का नाम इसलिये हेडा--होडा है ) पहुँच जाता है । हालाँकि होडा गाँव के एक सज्जन (परीक्षित साहनी ) सोनू को स्नेह के साथ सान्त्वना देते हैं और ऊँटों की तलाश में उसकी मदद भी करते हैं । तभी उन्हें पता चलता है कि उनके साले ने ही सोनू के ऊँटों को चुरा कर अपने घर बाँध लिया है । तब वे जैसे-तैसे अपने साले को समझा कर ऊँट लौटाने पर राजी भी कर लेते हैं पर बात जब अफसरों के हाथ में पहुँचती है तो राजनैतिक प्रश्न बन जाती है । कई नियम-कानून रुकावट पैदा करते हैं और लगता है कि अब सोनू को अपने ऊँट शायद ही मिल पाएंगे । वे निराश अपनी सीमा पर बैठे कोई उपाय सोचते हैं तभी उसकी बहन की नजर आसमान में उडते पंछियों पर पडती है । वह सोचती है कि अगर पंछियों के लिये कोई सरहद नहीं है तो ऊँटों के लिये कैसे हो सकती है । फिर क्या वे अपने ऊँटों को उनके नामों से पुकारना शुरु करते हैं। वह दृश्य वाकई बेहद खूबसूरत है जब सोनू के तीनों ऊँट अपने मालिक दोस्त की पुकार सुनकर बापस आते हैं तब कैसी सरहदें और कैसे बँटवारे । सारे अफसर हैरान से ऊँटों को जाते हुए देखते रह जाते हैं । फिल्म रोचक है । सोनू व उसकी बहन का अभिनय जानदार है ।     
          अब बात करें हमारे बाल-दर्शकों की ,तो उन्हें यह बाल फिल्म कोई खास रुचिकर नहीं लगी । सबसे बडा कारण तो यह था कि कलाकार अधिकतर अपरिचित थे । न तो उसमें शाहरुख-आमिर थे न ही कैट-करीना । न गीत न डांस । केन्द्रीय विद्यालय की एक छात्रा कह रही थी --यार बोर होरहे हैं इससे तो अच्छा था कि कहीं पार्टी कर लेते । हाँ शिवाजी साटम को देख कर ,जो सोनू के पिता की भूमिका में हैं, जरूर चिल्लाये --सी आई डी --सीआईडी----।
     इससे पता चलता है कि टीवी चैनलों के कारण बच्चे इतने बडे होगये हैं कि वे बच्चों की चीजें देखना पसन्द नहीं करते । मजेदार बात तो तब हुई जब एक बच्ची ने मेरे मुँह से फिल्म की प्रसंशा सुन कर मुझे पलट कर ऐसे देखा मानो उसे मेरी अक्ल पर सन्देह हो । हाँ गरीब तबके के बच्चों ने जिन्हें टीवी पर सिर्फ राष्ट्रीय चैनल देखना नसीब है फिल्म अवश्य रुचि से देखी । शायद विभाग ने मध्याह्न-भोजन की तरह यह बाल-फिल्मोत्सव का कार्यक्रम भी उन्ही बच्चों के लिये रखा था ।  
  बेशक इसमें बच्चों का नहीं हमारा दोष है। हम एक बार भी नहीं सोच रहे कि बच्चों को क्या देना चाहिये पर क्या दिया जारहा है । बाल-फिल्में दिखाने का यह आयोजन अच्छा है पर साथ ही उन उपायों की भी आवश्यकता है जो किसी तरह बच्चों के बचपन को सुरक्षित रख सकें। 

सोमवार, 11 नवंबर 2013

सुकुमार कल्पनाओं का सलोना संसार

Sushil Shukla's profile photoएक हैं सुशील शुक्ल । वर्त्तमान में  'चकमक 'के सम्पादक । पहले भी बता चुकी हूँ कि चकमक मेरे लिये कई अर्थों में बेहद खास पत्रिका है । पहला तो यही कि इसका रचनात्मक स्वरूप पहले अंक से ही स्तरीय रहा है । दूसरा चकमक से ही पहली बार मेरी किसी रचना का प्रकाशन हुआ । मेरी पहली प्रकाशित रचना थी --'मेरी शाला चिडियाघर है ।' तब चकमक के सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही ।  
कहने की आवश्यकता नही कि मेरी बाल-रचनाओं के पीछे चकमक की बडी भूमिका रही है । कुछ कहानियाँ 'अपनी खिडकी से' तथा 'मुझे धूप चाहिये' में आप देख ही चुके हैं । लगभग सत्तर कविताएं और कुछ और कहानियाँ संग्रहीत होने की प्रतीक्षा में है । अभी जून 2013 के अंक में मेरी एक झींगुर वाली कविता है--'मुझको तो गाना है ।
हाँ...तो आजकल चकमक के सम्पादक हैं सुशील शुक्ल । 
ये महाशय शुरुआत के दिनों में चकमक के नन्हे पाठक हुआ करते थे ।लेकिन आज चकमक का आसमान बने हुए हैं ।चाँद--सितारों वाला आसमान । रंगीन पतंगों व गुब्बारों वाला आसमान और चिडियों की चहकार वाला और बादलों की फुहार वाला आसमान । 
सुशील छोटे-बडे सभी पाठकों के लिये अनूठी और प्यारी रचनाएं भी लिखते रहते हैं । मुझे सम्पादक से कही ज्यादा उनके रचनाकार ने प्रभावित किया है । 
स्वाभाव से बहुत ही कोमल और सौम्य लगने वाले सुशील की रचनाएं भी उतनी ही कोमल ,अनूठी और सबसे अलग हैं । उनकी कोमल कल्पनाएं जाने किस स्वप्न-लोक से उतरतीं हैं मासूम अप्सराओं जैसी । पल्लवों से बूँद-बूँद झरती निर्मल-नाजुक ओस जैसी । रेशमी रश्मियों के जाल से छनकर आती चाँदनी की फुहारों जैसी । 
चकमक के अन्तिम (पिछला ) पृष्ठ पर आजकल नियमित रूप से आ रहे हर माह के विवरण को जिसे उन्होंने बचपन की बिल्कुल अछूती ,अनौखी और मासूम नजर से देखते हुए लिखा है ,पढकर मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता है । 
यहाँ जून ,जुलाई और अगस्त के कुछ अंश हैं । बाकी आप चाहें तो चकमक में पढ सकते हैं जो इन्टरनेट पर उपलब्ध है ।
जून--- 'जून दो फाँकों से बना होता ...एक हिस्से में धूप दिखती तो दूसरे में बादल ..। जल्दबाज बादल पहली बारिश से पहले ही छाने चले आते ।.......गर्मियों में सूरज का मछुआरा पानी को बादलों के जाल में फाँसता फिरता । जब बादलों में नदी तालाबों से खूब पानी इकट्ठा होजाता तो...कहीं का कही गिरता । किसी नदी का पानी किसी तालाब में गिरता तो किसी नदी का पानी किसी खेत में ....शायद मछलियों को इसकी पहचान होती हो कि इस बार उनकी नदी में बाजू वाले तालाब का पानी आया है ...कोई पानी बहुत सालों बाद अपने ही ताल में लौटता होगा तब मछलियाँ सारे काम छोड कर उस पानी से किस्से-कहानियाँ सुनने बैठ जाती होंगी ..। पानी उन्हें खेत कुआ, नदियों भैंसों और तमाम परिन्दों की कहानियाँ सुनाता होगा । कोई छोटी मछली जिद करती होगी कि अगली बार वह भी घूमने जाएगी तो पानी उसे पीठ पर बिठा कर कहता होगा --हाँ जरूर चलना ..।'
जुलाई--....'जुलाई में पानी रास्तों से ऊपर बहता चला जाता । रास्ते दिखना बन्द होजाते । कभी लगता कि कहीं रास्ते पानी के साथ बह न गए हों । पानी पर पाँव रखते तो पाँव रास्ते पर ही पडता । हम यह सोचकर खुश होते कि रास्ता अपनी जगह पर ही ठहरा हुआ है ।...अगर रास्ते बह सकते तो सब के सब बह कर हमारी नदी में पहुँच जाते । मछुआरे के जाल में कोई रास्ता फँसा चला आता । मछुआरा उसे फिर वही बिछाने जाता । कभी वह जान बूझकर कहीं का रास्ता कहीं बिछा देता तब किसी के घर के लिये निकला कोई किसी और के घर पहुँच जाता ....स्कूल जाने वाला रास्ता खेल के मैदान वाले रास्ते से बदल जाता । बच्चे स्कूल की जगह खेल के मैदान में पहुँच जाते और मैदान में बच्चों को ढूँढने निकले बडे स्कूल पहुँच जाते ।.'......    
अगस्त---.....'अगस्त में झीलें तालाब भर जाते । ...उनके ऊपर तैरता आसमान होता । जगह--जगह पनप आए छोटे तालाबों में छोटे-छोटे आसमान तैरते मिलते । हम हथेलियों की कटोरी बनाकर उनसे पानी भरते । मेरा दोस्त पानी में तैर रहे आसमान को उठाकर मेरी जेब में डाल देता...जेबें आसमानों से भर जातीं...।
हम नदी में जाते और आसमान को छूकर देखते.....अगस्त में बारिश कुछ को भिगाती और कुछ को सुखाती क्योंकि उनके पास कोई काम न होता वे बेकार बैठे रहते ...।'    
कल्पनाओं की सुकुमारता में सुशील कहीं मुझे पन्त का प्रतिरूप प्रतीत होते हैं तो ऩएपन और अनूठेपन में गुलजार जी का । नीचे सुशील की कुछ बाल कविताएं भी हैं जो इस बात को और भी विश्वसनीय बनातीं हैं ----
(1) पतझड
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डाल-डाल से हाथ छुडाकर
पत्ते गदबद भागे ।
पीपल का सबसे पीछे था 
नीम का सबसे आगे ।
सुबह पेड ने देखा जो ,
कुछ पत्ते तो गायब हैं 
गिने चार सौ तेरह कम हैं 
और बाकी तो सब हैं ।
............
कई दिनों सूनी शाखों ने 
चप्पे-चप्पे छाने ।
पत्तों के फोटो चिपकाए 
जाकर थाने थाने 
किए बरामद नीम के पत्ते 
आम के घर पहुँचाए । 
आम की टहनी बोली 
ये साहब किसको ले आए ।

(2)
घर से सिकुडी रात उठाई 
धूल झडा छत पर बिछवाई 
बादल ने पाण्डाल सजाए 
उसमें कुछ तारे टँकवाए ।
हवा ने दो घोडे दौडाए 
ठण्डक पैदल कैसे आए ।
.....
मुझे जरा बडा एक तारा 
अपने सारे कंचे हारा ।
बिस्तर से जब सुबह गिरे थे 
आसपास कंचे बिखरे थे ।
(3)
मेरे घर की छत के काँधे 
सिर रखकर एक आम 
चिडियों से बातें करता है
रोज सुबह और शाम ।
आम के सिर पर एक शहर है 
उसमें एक चिडिया का घर है ।
उसमें  रहते बच्चे दो ।
बस सोए रहते हैं जो ।
कहाँ-कहाँ वे जाएंगे 
जब उनके पर आएंगे ।..।
(4)
नदी बादलों की गुल्लक है 
कि जिसमें बूँदों की चिल्लर पडी है ।
नदी है कि बादलों की लडी है ।
नदी एक बहता हुआ शहर है 
नदी जाने कितनों का घर है
नदी में हम सबकी प्यास रहती है 
नदी में मछलियों की साँस बहती है ।
नदी घडियालों की घडी है 
नदी है कि बादलों की लडी है ।...
(5)
उस दिन धूप बहुत थी 
बादल छाते ताने 
निकल पडे थे 
पहली-पहली बारिश लाने ।
दो झोले पानी के 
टाँगे-टाँगे निकल पडे 
आसमान की सडक थी चिकनी 
दोनों फिसल पडे ।
पानी गिरना था केरल में 
गर गया राजस्थान में 
बुद्धू हो तुम , बादल बोला 
एक ऊँट के कान में ।
(6) 
दोना पत्तल पत्ते की 
दो ना पत्तल पत्ते की 
पत्ती एक एक बित्ते की 
कोई न पूछे कित्ते की ।
बित्ता थोडा बडा है ।
बडा दही में पडा है । 
(7)
किट किट किट किट 
किट किट किट किट 
कीडा बोला घास में 
बोलो एक साँस में 

फर फर फर फर 
फर फर फर फर 
चिडिया उडी आकाश में 
बोलो एक साँस में 

छुक छुक छुक छुक 
छुक छुक छुक छुक
ट्रेन रुकी देवास में 
बोलो एक साँस में ।

बुधवार, 6 नवंबर 2013

भैया-दौज----भाई-बहन के अटूट स्नेह की कथा

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बचपन में भाई दौज की सुबह से ही हमें याद करा दिया जाता था कि दौज की कहानी सुने बिना और भाई को टीका किए बिना पानी भी नही पीना है । जब हम नहा-धोकर तैयार होजातीं तब दादी या नानी तुलसी के चौरा के पास आसन डाल कर ,घी का दिया जलाकर हमारे हाथ में घी-गुड़ देकर दौज की कहानी शुरु करतीं थीं । कहानी के दौरान कई बार उनका गला भर आता था और कहानी के अन्त में जब वे कहतीं कि जैसा प्रेम उनमें था वैसा भगवान सबमें हो, वे अक्सर पल्लू से आँखें पौंछती मिलतीं थी । बहुत छोटी उम्र में तो हमें नानी--दादी की वह करुणा पल्ले नही पड़ती थी पर उम्र के साथ कहानी में समाए भाई बहन के स्नेह की तरलता की अनुभूति अन्तर को भिगोती गई । आज भी कथा सुनाते दिल भर आता है |पता नही ये लोक-कथाएं किसने लिखीं । कैसे लिखीं ?  लेकिन हमारे जीवन  में गहराई से जुड़ी हैं । जड़ की ही तरह संवेदनाओं का पोषण करती हुई । तभी तो अलिखित होते हुए भी ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहीं हैं । इस कथा को यहाँ देने का मेरा उद्देश्य भी यही है ।
हर भाई को हृदय से शुभकामनाएं देते हुए उस कहानी को ,जिस रूप में मैंने अपनी दादी नानी और माँ से सुनी है ,यहाँ दे रही हूँ । हालाँकि हर  कथा की तरह स्थानीय प्रभाव से निश्चित ही थोड़ा--बहुत अन्तर तो होगा ही लेकिन कथ्य में कोई अन्तर नहीं है .
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    वह अपनी माँ की आँखों का तारा और बहन का इकलौता दुलारा भाई था 'निकोसी पूत' ( जिसे किसी ने कभी कोसा न हो अभिशाप न दिया हो कहते हैं ऐसे व्यक्ति को बुरी नजर जल्दी लगती है काल भी जैसे उसके लिये तैयार रहता है )  
'भाई दौज' आई तो वह माँ से बोला --"माँ मैं बहन से टीका कराने जाऊँगा ।" माँ कैसे भेजे !  बहुत ही प्यारा और बूढी माँ का इकलौता सहारा था । ऊपर से रास्ता बड़े खतरों से भरा । जाने कितनी 'अलहें' (अनिष्ट) .
"बेटा ना जा । बहन परदेश में है । तू अकेला है ,रस्ता बियाबान है । तेरे बिना मैं भी कैसे रहूँगी ? "
"जैसे भी हो ,रह लेना मैया! बहन मेरी बाट देखती होगी । "
बेटा आखिर चल ही दिया । पर जैसे ही दरवाजे से निकला दरवाजे की ईँटें सरकीं । यह पहली अलह (अनिष्ट) थी .
"तुम्हें मुझे दबाना है तो ठीक है | पर पहले मैं बहन से टीका तो कराके आजाऊँ, फिर मजे में दबा देना..।" निकोसी ने कहा तो दरवाजा मान गया । एक वन पार किया तो शेर मिला । निकोसी को देखते ही उस पर झपटा ।
"अरे भैया ठहरो ! मेरी बहन टीका की थाली सजाए भूखी बैठी होगी । पहले मैं बहन से टीका करा के लौट आऊँ तब मुझे ज़रूर खा लेना ।" 
शेर मान गया । आगे चला तो दूसरा बियाबान जंगल मिला | जंगल के बीच एक नदी मिली । निकोसी जैसे ही नदी पार करने लगा नदी उमड़ कर उसे डुबाने चली ।
"ओ नदी मैया , मुझे शौक से डुबा लेना पर पहले मैं बहन से टीका तो करवा आऊँ । वह मेरी बाट देखती होगी ।" --यह सुनकर नदी भी शान्त होगई ।
आखिर भाई बहन की देहरी पर पहुँच गया । बहन अपने भाई के आंवड़े-पाँवड़े ( कुशलता की प्रार्थना) बाँचती चरखा कात रही थी कि तभी तागा टूट गया । वह तागा जोड़ने लग गई । अब न तागा जुड़े न बहन भाई को देखे । भाई द्वार पर खड़ा  खिन्न मन सोचने लगा कि मैं तो इतनी मुसीबतें पार कर आया हूँ और बहन को देखने तक की फुरसत नही । वह लौटने को हुआ तभी तागा जुड़ गया | बहन उठ खड़ी हुई , बोली--"अरे भैया  ! मैं तो चरखा चलाती हुई तेरे नाम के ही आँवडे-पाँवडे बाँच रही थी |"
बहन ने भाई को बिठाया । दौड़ी-दौड़ी पड़ोसन के पास गई | पूछने लगी --
" जीजी सबसे प्यारा पाहुना आए तो क्या करना चाहिये ?"
"करना क्या है , गुड़ से लीपदे , घी में चावल डालदे |" 
बहिन ने वैसा ही किया पर न गुड़ में लिपे न घी में चावल सीजे ( पके)|  तब वह सास के पास गई ,पूछा--"अम्मा-अम्मा सबसे प्यारा पाहुना आया है  तो क्या करूँ ?" 
सास ने कहा कि " बहू गोबर माटी से आँगन लीपले और दूध में चावल डालदे ..।" बहन ने झट से आँगन लीपा ,दूध औटा कर खोआ--खीर बनाई । भाई की आरती, उतारी टीका किया । पंखा झलते हुए भाई को भोजन कराया ।
दसरे दिन तड़के ही 'ढिबरी'( चिमनी, लैम्प) जलाकर बहन ने गेहूँ पीसे । रोटियाँ बनाई और अचार के संग कपड़े में बाँधकर भाई को दे दीं । भाई को भूख कहाँ । आते समय सबसे कितने--कितने 'कौल वचन' हार कर आया था । बस मन में एक तसल्ली थी कि बहन से टीका करवा लिया । बहन से विदा लेकर लौट पड़ा .
उधर उजाला हुआ । बच्चे जागे । पूछने लगे---"माँ , मामा के लिये तुमने क्या बनाया ?"  बच्चों को देने के लिये बहन ने बची हुई रोटियाँ उजाले में देखीं तो रोटियों में साँप की केंचुली दिखी । कलेजा पकड़कर बैठ गई -- "हाय राम ! मैंने अपना भाई अपने हाथों ही मार दिया ।"
बस दूध चूल्हे पर और पूत पालने में छोड़ा और जी जान से भाई के पीछे दौड़ पड़ी । कोस दो कोस जाकर देखा ,भाई एक पेड़ के नीचे सो रहा है और 'छाक' ( कपडे में बँधी रोटियाँ) पेड़ से टँगी है । बहन ने चैन की साँस ली . भगवान को हाथ जोड़े . फिर भाई को जगाया । भाई ने अचम्भे से बहन को देखा | 'बहिन यहाँ कैसे ,क्यों !'
 बहन ने भरी आँखों से पूरी बात बताई । भाई बोला---"तू मुझे कहाँ-कहाँ बचाएगी बहन ? " 
बहन बोली--"मुझसे जो होगा ,मैं करूँगी  पर अब तुझे अकेला नही जाने दूँगी ।"
भाई ने लाख रोका, समझाया पर बहन न मानी ,चल पड़ी भाई के साथ । चलते-चलते रास्ते में वही नदी मिली । भाई को देख जैसे ही उमड़ने लगी । बहन ने नदी को 'नई-नकोर' चुनरी चढ़ाई । नदी शान्त होगई । आगे चले तो वन में शेर मिला | बहिन ने उसे बकरा दिया । शेर भी जंगल में चला गया । घने जंगल में चलते-चलते बहन को प्यास लगी ।
भाई ने कहा--"बहन मैंने पहले ही मना किया था । राह में कितने ही संकट हैं अब इस बियाबान जंगल में पानी कहाँ मिलेगा ? बहन बोली-- "मिलेगा कैसे नही ,देखो दूर चीलें मँडरा रहीं हैं वहाँ जरूर पानी होगा ।" 
"ठीक है ,मैं पानी लेकर आता हूँ ।"
बहन बोली--- " पानी पीने तो मैं ही जाऊँगी ? अभी पीकर आती हूँ । तब तक तू पेड़ के नीचे आराम करना ।"  
बहन जहाँ पानी पीने गई ,वहाँ कुछ लोग एक बड़ी भारी शिला गढ़ रहे है । 
"भैया ये क्या बना रहे हो ?"
"तुझे मतलब ? पानी पीने आई है तो पानी पी और अपना रस्ता देख ।"
एक आदमी ने झिड़ककर कहा तो बहन के कलेजे में सुगबुगाहट हुई । जरूर कोई अनहोनी है । बोली- "भैया बतादो ये शिला किसके लिये गढ़ रहे हो ? मैं पानी तभी पीऊँगी ।"
"बड़ी हठी औरत है । चल नही मानती तो सुन । एक निकोसी पूत है । उसी की छाती पर सरकाने के लिये ऊपर से हुकम हुआ है ।"
सुनकर बहन को काटो तो खून नही । माँ-जाए के लिये हर जगह काल बैरी बन कर खड़ा है । 
"उसने ऐसी क्या गलती करी है जो....?"
"तुझे आम खाने कि पेड़ गिनने ? तू पानी पी और अपना रास्ता देख ।" दूसरा आदमी चिल्लाकर बोला पर वह नही गई । वही खड़ी गिड़गिड़ाने लगी --"सुनो भैया ! वह भी किसी दुखियारी माँ का लाल होगा । किसी बहन का भाई होगा । तुम्हें दौज मैया की सौगन्ध । बताओ ,क्या उसे बचाने का कोई उपाय नही है ?"
"है क्यों नहीं ? उपाय तो है ।"
आदमी हार मानकर बोला--"उसे किसी ने कभी कोसा नही है । अगर कोई कोसना शुरु करदे तो 'अलह' टल सकती ।" 
बस बहन को कैसी प्यास ! कहाँ का पानी ! उसी समय से उसने भाई को कोसना चालू कर दिया और कोसती-कोसती भाई के पास आई---"अरे , नासमिटे , तू मर जा । 'धुँआ सुलगे' ...'मरघट जले'...।"
" हे भगवान ! मेरी अच्छी--भली बहन बावली भी होगई ! मैंने कितना मना किया था कि मत चल मेरे संग । नही मानी ।"---भाई ने दुखी होकर सोचा । जैसे-तैसे दोनों घर पहुँचे | बेटी को इस हाल में देखा तो माँ हैरान । अच्छी भली बेटी को कौनसा प्रेत लग गया है ? कौनसे भूत-चुडैल सवार होगए हैं, जो भाई को कोसे जा रही है ? लड़की तो बावरी होगई ? 
"माँ कोई बात नही । बावरी है ,भूतरी है, जैसी भी है तो मेरी बहन । तू नाराज मत हो ।"
माँ चुप होगई | बहन रोज उठते ही भाई को कोसती और दिन भर कोसती रहती । ऐसे ही 'कोसते-कासते' कुछ दिन गुजर गए । एक दिन भाई की सगाई आई । बहन आगे आ गई---"इस 'जनमजले' की सगाई कैसे होगी ? पहले तिलक मेरा होगा |"
"हें... ??" सबको  बड़ी हैरानी हुई , बुरा भी लगा पर भाई ने कहा --"मेरी बहन की किसी बात का कोई बुरा मत मानो । वह जैसी भी है, मेरी बहन है वह जो चाहती है वही करो ।" 
पहले बहिन का टीका किया | लगुन भी पहले उसी के हाथ रखी गई | 
फिर तो हर रस्म पर बहन इसी तरह आगे आकर भाई को रोकती रही टोकती रही और कोसती रही । 
भाई का ब्याह होगया ।
अब आई सुहागरात । बहन पहले ही पलंग पर जाकर लेट गई ।
"यह अभागा सुहागरात कैसे मनाएगा ? मैं भी वही सोऊँगी ।"
"हे भगवान ! और सब तो ठीक,  पर सुहागरात में कैसे ,क्या होगा ? ऐसी अनहोनी तो न कभी देखी न सुनी |"  पर भाई ने कहा --"कोई बात नही । मेरी बावरी बहन है । मैं उसका जी नही दुखाऊँगा ।हम जैसे भी रात काट लेंगे ।" फिर कोई क्या कहता ।
बहन रात में भाई और भौजाई के बीच लेट गई । पर पलकों में नींद कहाँ से आती । सोने का बहाना करती रही । आधीरात को भगवान का नागदेवता को हुकम हुआ कि फलां घर में एक नया-नवेला जोड़ा है , उसमें से दूल्हा को डसना है । नागदेवता आए । पलंग के तीन चक्कर लगाए पर जोड़ा  कहीं न दिखे | ऊपर देखे तो तीन सिर दिखें और नीचे की ओर छह पाँव । जोड़ा होता तो डसता । बहन सब देख-समझ रही थी । चुपचाप उठी । तलवार से साँप को मारा और ढाल के नीचे दबा कर रख दिया । और भगवान का नाम लेकर दूसरे कमरे में चली गई । 
सुबह उसने सबको मरा साँप दिखाया और बोली--"मैं बावरी आवरी कुछ नही हूँ । बस अपने भाई की जान , मैया की गोद और भौजाई का एहवात ( सुहाग) बचाने के लिये यह सब किया । जो भूल चूक हुई उसे माफ करना ।"
भाई-भौजाई ने बहन का खूब मान-पान रखा । बहन खुशी-खुशी अपने घर चली गई । 
जैसे इस बहन ने भाई की रक्षा की और भाई ने बहन का मान रखा वैसे ही सब रखें । जै दौज मैया की ।