एक संस्मरण
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“ दीदी ने आज सुबह चार बजे अन्तिम साँस ले
ली ।”
सुबह सुबह फोन पर आया शरद् खेर का यह सन्देश यों तो जरा भी चौंकाने या हैरान करने वाला नहीं था । लगभग सालभर से सुनती आ रही उनकी बातों से उनकी सोचनीय और गंभीर का स्थिति का अनुमान तो था ही , दो दिन पहले ही लगभग दो घंटे जर्जर स्थिति में भी वे मेरे साथ जिस तरह द्रावक शब्दों में साथ विगत को जी रही थीं , मुझे तभी अहसास हुआ कि शायद यह हमारी आखिरी मुलाकात है। ऐसी मुलाकात जो एक अनकही सी टीस छोड़ जाती है सदा के लिये ।
फिर भी वब समाचार बहुत दुखद था । आँसू बरबस निकल पड़े ।
रेखा दीदी लोगों के लिये मात्र एक परिचारिका थीं ,अति साधारण , अपरूप और कुछ हद तक बेवकूफ़ सी महिला थीं ,जो कभी किसी से ना नहीं कह पाती थीं । “कबिरा आप ठगाइये...” ,की राह पर आजीवन जीती रही और पूरी तरह ठगी जाकर मुक्त हो , दुनिया से चली गईं लेकिन मेरे लिये वे सरल ,सहज स्नेहमयी मेरी आत्मीया, एक दुर्लभ और सच्ची इन्सान थीं । मेरी स्मृति में लगभग बयालीस वर्ष का इतिहास सजीव हो उठा ।
मुझे अच्छी तरह याद है । सन् 1975 के अगस्त या सितम्बर की वह एक चमकीली दोपहर थी। आसमान साफ होने के कारण धूप ज्यादा उजली होने के साथ-साथ तेज चुभने वाली भी थी । बरसात के दिनों में लगातार वर्षा के बाद ऐसी खुली धूप में जैसे बहुत दिनों बाद कोई फेरी वाला सस्ते दामों में कपड़े बेचने आया हो , सब दौड़ पड़ते हैं उससे कुछ न कुछ लेने । गृहणियाँ मुड़ेरों पर सन्दूकों में बन्द गद्दे रजाइयाँ और कपड़े फैला देतीं हैं, बड़ियाँ ,दालें और मसाले सुखातीं हैं ,कुछ लोग कोठियों में भरे कीड़े लगे गेहूँ चना आदि को निकाल तेज धूप और हवा में कीड़ों से मुक्त कर लेते हैं ,किसान सूख चले खाली खेतों की जुताई में लग जाते हैं । और कोई काम नहीं तो नीम की छाँव या छप्पर तले ताश चौपड़ या आल्हा का आनन्द लेते हैं ।
उस समय हम लोग भी गैलरी में बैठे अन्त्याक्षरी खेल रहे थे और कोई भी हारने तैयार न था । तभी दरवाजे पर रोशनलाल हल्की सी मुस्कान के साथ उपस्थित हुआ। वह तीन साल पहले गाँव में वैक्सीनेटर के रूप में नियुक्त हुआ था ।
गेहुँआ रंग ,चेहरे पर ‘बड़ी माता’ की बड़ी और गहरी निशानियाँ , परिचय को उत्सुक छोटी-छोटी निर्दोष चमकदार आँखें, आँखों के बीच लगभग एक इंच गायब होकर कुछ आगे प्रकट हुई नाक, लम्बे कद और इकहरे शरीर वाले रोशनलाल को गाँव के लोग उसकी पीठ पीछे 'झर्रू' कहकर पुकारते थे। जब किसी के लिये अवमानना का या मनोविनोद के लिये परिहास का भाव हो , उसके लिये लोग अजीब अजीब उपमाएं व नाम ईज़ाद कर लेते हैं । ‘झर्रू’ नाम उसी मानसिकता की देन था । वास्तव में वह एक सरल और भला इन्सान था ।
रोशनलाल के पीछे एक साँवली ,मझोले कद की युवती भी थी जो स्थूल शरीर के बाबजूद उन्नीस बीस से ऊपर नहीं लगती थी। स्लेटी रंग की प्रिंटेड साड़ी और सफेद ब्लाउज , कन्धों से उतरकर आगे की ओर झूलती दो चोटियाँ , होठों में बन्द होने से इन्कार करते हुए से दाँत जो परस्पर संगठन से भी असहमत लगते थे और सुन्दर न होने के बाबजूद आकर्षित करती हुई बड़ी और लम्बी आँखें , यही स्वरूप था आगन्तुका का । तब मैंने ग्यारहवां पास किया था और स्वाध्याय से बी.ए. पार्ट वन की तैयारी में थी ।
“लो बहिन जी आपके घर एक और सदस्य बढ़ गया ।”--–कहते हुए रोशनलाल गौलरी में अन्दर आगया ।
“ये रेखा खेर है । यहाँ की ए. एन. एम. (नर्स) । ग्वालियर की हैं । पहलीबार घर से इतनी दूर गाँव में आई हैं । डर रही थी बेचारी । मैंने कहा कि तुम्हें ऐसे घर ले चलता हूँ जहाँ तुम्हें अपने घर जैसा ही स्नेह मिलेगा ।”—रोशनलाल बिना पूछे ही परिचय दिया ।
हमारे घर के बारे में यह धारणा रोशनलाल की ही नहीं ,पूरे गाँव की और जिया को जानने वाले हर व्यक्ति की थी । अचानक आए किसी अतिथि के लिये चाय की व्यवस्था हो या बाहर से आई किसी महिला (खासतौर पर कर्मचारी) को चाय ,पानी ,खाना या घड़ी दो घड़ी विश्राम की जरूरत हो ,एकमात्र ठिकाना हमारा ही घर था । गाँव में किसी महिला कर्मचारी का आना काफी कौतूहल भरा होता था। उसे लोग किसी नए खेल तमाशे की तरह देखने इकट्ठे होजाते थे। एक नई नर्स के आने का खबर पाकर बाहर गली में जिज्ञासावश आ खड़े हुए कुछ बच्चे और बड़े इसी बात का प्रमाण थे ।
वह युवती अभीतक संकोच में वहीं खड़ी थी । माँ के संकेत पर वह हमारे बीच आकर बैठ गई । रोशनलाल उसे छोड़कर चला गया । बातें शुरु हुईं और रेखा खेर जल्दी ही हमारी रेखा दीदी बन गईँ । वे एक साधारण लेकिन शुद्ध सात्विक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार से थीं । तीन भाइयों की इकलौती बहिन । उस समय अविवाहित थी । वह उनकी पहली पोस्टिंग थी .पहली बार शहर से इस छोटे से गाँव में आईं थीं । दो-तीन दिन हमारे घर रहने के बाद वे पड़ोस की हवेली में किराए पर लिये एक कमरे में रहने लगीं ।
रेखा दीदी इतनी सरल सहज उदार और मिलनसार थी कि जल्दी ही सबके साथ घुलमिल गईँ । गाँव की महिलाएं उनकी भाभी , काकी ,अम्मा या जिया थीं और पुरुष भैया ,चाचा ,बाबा । इसलिये सबकी समस्याओं में भी शामिल भी । यही नहीं वे सबके साथ अपनापन बढ़ाने गाँव की ही बोली बोलने की कोशिश करतीं । वैसे उनकी ड्यूटी महलाओं की तकलीफों खासतौर पर गर्भवती महिलाओं की समस्याओं के निदान ,टिटेनस, बच्चों को बीसीजी, डीपीटी आदि की खुराक और टीका देना आदि कार्यों के लिये थी लेकिन उन्हें चाहे जो घरेलू कामों में लगा लेता था । कोई भाभी अपने बच्चे को नदी में उनके साथ नहाने भेज देतीं। जाहिर है कि इसमें नहलाना, धुलाना, तेल, कंघा सब शामिल था । कभी कोई अम्मा उन्हें गेहूँ बीनने बिठा लेती तो कोई बहिन उन्हें अपने साथ चने या सरसों की भाजी तोड़ने खेतों पर ले जाती । कभी कभी बहुएं कस्बा के बाज़ार से श्रंगार का सामान व चूड़ियाँ लाने ,फ़ल लगवाने और ब्लाउज सिलवाने जैसे काम भी ‘रेखाबाई’ को सौंप देतीं थी ( बाई सम्बोधन हमारे गाँव में सम्मानसूचक माना जाता है ) ड्यूटी के लिये ऐसा समर्पण कि आधीरात को भी कोई बुलाता, चाहे वे गहरी नींद में होतीं ,तुरन्त उठकर चल देतीं थीं। मुझे याद है ,'ना' शब्द उनके शब्दकोश में था ही नहीं । मान-अपमान का भी कोई विचार नहीं था । इतना तो ठीक है पर हैरानी की बात यह थी कि वे अपनी सीमाओं के अतिक्रमण का भी विरोध नहीं करती थीं। कोई मुँहफट औरत आत्मीयता में या अशिष्टतावश रेखा की बजाय उन्हें 'रेखटी' कहकर पुकारती तब भी वे कुछ नहीं कहती थीं । मोहल्ला की कोई भी लड़की या महिला उनके कमरे में बैठकर चाय पोहा की फरमाइश कर सकती थी ,तो कोई उनकी क्रीम निकाल कर लगा लेती थी ,उनकी आँखों में भी विरोध की झलक नही दिखती थी। जिया ने स्नेहवश उन्हें एक दो बार समझाया भी कि रेखा तुम बहुत अच्छी हो पर इतनी भी अच्छी मत बनो कि तुम्हें कोई कुछ समझे ही नहीं और मनचाहा बर्ताव करे। पर वे जल के शान्त प्रवाह जैसी बहती रहती थीं। कोई रोड़ा आ भी जाता तो बगल से राह बनाकर निकल जाती। कभी न किसी से कोई शिकायत न कोई नाराजी और न ही अपनी भावनाओं और इच्छाओं के लिये कोई संघर्ष । इसी बात पर एक ही प्रसंग का उल्लेख बहुत आवश्यक है। यह उनके हमारे गाँव में आने के तीन-चार साल बाद की बात है ।
उन दिनों दीदी में मैं एक खुशनुमा परिवर्तन देख रही थी । उनकी साड़ी बहुत सँवरी हुई और बाल खिले खिले होते। उस परिर्तन का स्रोत था उनके ही विभाग का एक युवक ,जिसने दीदी के साथ प्रेम और फिर विवाह का प्रस्ताव रखा था। ज़ाहिर है कि दीदी भी उसे पसन्द करती थीं और शायद विवाह भी करना चाहती थीं । चूँकि युवक विजातीय ही नहीं विधर्मी भी था इसलिये उनके परिजन सहमत न होंगे इसे दीदी जानती थीं । वैसे भी वहाँ वे अकेली ही थीं, इसलिये जिन्दगी का वह महत्त्वपूर्ण निर्णय वे जिया की सहमति से करना चाहती थीं। मुझे याद है उस दिन दीदी बहुत सुन्दर साड़ी पहने थीं । चेहरा भी खिला हुआ था । जिया ने सुना तो वे हैरान हुईँ । विवाह सम्बन्ध के मामले में जिया भी गाँव वालों की तरह परम्परावादी थीं । अपनी खुशी से ज्यादा ज़रूरी वे माता-पिता की खुशी और समाज की सहमति को मानती थी। उन दिनों समाज में पिता द्वारा किये रिश्ते को ही शिरोधार्य करना लड़की की शीलता व कुलीनता मानी जाती थी । अपने रिश्ते की बात भी जुबान पर लाना निर्लज्जता माना जाता था । प्रेम और प्रेमविवाह दोनों ही घोर वर्ज्य और निन्दनीय विषय थे । फिर विजातीय विवाह तो पूर्ण बहिष्कृत। फिर विधर्मी से विवाह की बात तो कल्पना से परे थी। जिया ने स्पष्ट अहसमति जताने की बजाय रेखा दीदी से ही कठोर से सवाल कर डाले---“बेटा तुम एक अच्छे संस्कारी परिवार की लड़की हो। माता पिता की मर्जी बिना विवाह करोगी तो परिवार और समाज क्या कहेगा ? माता-पिता पर क्या गुजरेगी ? क्या तुम्हारी अक्का –बाबा इस प्रस्ताव को स्वीकार करेंगे ? और क्या उनकी असहमति के साथ तुम खुश रह सकोगी ?”
रेखा दीदी जिया के सवालों को सिर झुकाए निरुत्तर होकर सुनती रहीं। बिना किसी प्रतिक्रिया के । बाद में पता चला कि उन्होंने युवक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । मैं चकित थी । इसके बाद भी उनके व्यवहार में कोई नकारात्मक भाव नहीं था। आखिर किस मिट्टी की बनी हैं ये रेखा दीदी ! दूसरों का ध्यान रखने अपनी खुशी को ही दरकिनार कर दिया !
कुछ साल बाद उनका विवाह पोस्ट ऑफिस में कार्यरत एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार के इकलौते पुत्र से होगया। मैंने देखा दीदी पति के साथ सहज और सन्तुष्ट थीं ।1984 में दीदी ने अशोकनगर के लिये ,जहाँ उनकी ससुराल थी ,ट्रांसफर करा लिया तो मेरा आत्मीय सम्बल छूट गया । “अब तक स्नेह पीयूष दिया ,अब जाती हो , मन रोता है ,...”---लिखते हुए मेरी आँखें भर आईँ । आठ साल का हमारा अभिन्न सा साथ जैसे बिखर गया ।
उनके गाँव में आने के पाँच माह बाद जनवरी में मेरा विवाह होगया था । लेकिन विवाह हमारे विछोह का कारण नहीं बना क्योंकि विवाह के छह माह बाद जून 1976 में शिक्षक चयन फइर एक साल के संस्थागत बुनियादी प्रशिक्षण के बाद जुलाई 1977 में हमारे ही गाँव के माध्यमिक विद्यालय में मेरी नियुक्ति होगई थी । उन आठ सालों में मेरे जीवन के हर उतार चढ़ाव में ,बच्चों के लालन-पालन में वे मेरे साथ रहीं । उनका तब तक कोई बच्चा नहीं था पर वे जन्मजात माँ ही थीं । मेरे ही नहीं दुनियाभर के बच्चों पर स्नेह लुटाती रहती थीं ।दुनियादारी की समझ में वे मेरी ही बड़ी बहिन थीं । निन्दा, अफवाह, अपवाद, झूठ, आडम्बर और असंगत बातों से निपटने की सूझबूझ मेरी तरह उनमें भी नहीं थी। हम दोनों ही जिस राह पर थीं उसपर पर बिना किसी शंका के हम साथ साथ चल रही थीं । हमारा रिश्ता भावनाओं का था ,दर्द का था । उनका जाना मुझे महीनों तक अखरता रहा ।
बाद में कभी किसी की शादी में या अन्य कार्यवश बीच बीच में वे मिलती भी रहीं । पाँच-छह साल बाद मालूम हुआ कि वे एक बच्चे की माँ बन गईँ हैं । यह बेहद खुशी की बात थी। पराए बच्चों पर ममता व स्नेह लुटाने वाली दीदी को प्रतिफल कैसे न मिलता?
इसके बाद अपने ग्वालियर ट्रांसफर , बच्चों की शिक्षा व दूसरी कई उलझनों के बीच कई सालों तक उनसे सम्पर्क नहीं होपाया । हाँ कभी कभार हवा के साथ उड़ आए सूखे पत्तों की तरह समाचार मिलते रहे ,कि चार पाँच साल के रवि को दीदी साथ ही छोड़कर उनके पति चल बसे,...कि दीदी अब शिवपुरी आगयी हैं , कि रवि को बारहवीं कक्षा पास कराने के लिये वे ग्रामीण क्षेत्र के हायर सेकेण्डरी स्कूलों के चक्कर काट रही हैं ताकि वह परीक्षा पास करले । बच्चों की शादी के बहाने दीदी से फिर सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे रवि के कारण काफी परेशान हैं । यही नहीं बीमार भी रहने लगी हैं । ग्वालियर में ही उनका इलाज चल रहा है । बीमारी की बात चिन्ताजनक थी पर रवि से परेशान हैं ,यह जानकर और भी चिन्ता हुई क्योंकि परेशान होना तो वे जानती ही नहीं थीं ।
"रवि को सबकुछ मालूम होगया है ।" --दीदी ने चिन्ता का कारण बताया तो मुझे भी हैरानी हुई। असल में रवि दीदी का अपना बेटा नहीं था। उसकी कहानी शिवपुरी के अस्पताल में उस दिन शुरु हुई जिस दिन कोई झाड़ियों में से एक नवजात को उठाकर लाया था । उसकी साँसें चल रही थीं पर बहुत बुरी हालत थी । शरीर में तमाम काँटे चुभे थे ,चींटियाँ भी काट गईं थीं । दीदी ने उस मासूम को देखा तो रो पड़ीं और उस अभागे शिशु को अपनी ममता के अंचल में छुपा लिया और वैसे भी उनकी अपनी सन्तान तो थी नहीं इसलिये उसे ही अपनी खुशियों का आधार बना लिया । पति के रहने तक सब कुछ अच्छा था । रवि को अपनी सच्चाई की भनक तक नहीं थीं ।
“रवि को पता चल गया है कि मैंने उसे जन्म नहीं दिया । पता नहीं किसने बताया । यह जानने के बाद वह एकदम बदल गया है । बहुत अजीब बातें करता है । कड़वे जबाब देता है । पर सबसे बड़ा दुख यह कि इस बात का इस्तेमाल वह अपनी इच्छाओं को पूरी करवाने में करता है । ज़रा कमी रह जाए तो ताना देता है कि “हाँ मेरी बात क्यों मानोगी ,मैं कोई सगा बेटा थोड़ी हूँ? ...तुम्हारा अपना बेटा होता तो क्या तुम मेरे साथ भेदभाव रखतीं? अलमारी को ताला लगाकर रखतीं ?”--कहते हुए दीदी की आँखें भर आईँ । मुझे हैरानी हुई । दीदी का स्नेह पाकर तो गैर बच्चे भी खिल उठते हैं फिर रवि ने तो आँखें ही दीदी की गोद में खोलीं थीं । भरपूर स्नेह पाया फिर कैसे उसे दीदी से मोह नहीं है । उसे तो ज्यादा होना चाहिये ।
“मोह तो बहुत है । दीदी ने कहा --मेरे
बिना वह रह भी नही सकता पर अपनी माँग पूरी करवाने जमीन आसमान एक कर देता है। मुश्किल
यह है कि अब मुझे उसकी ज्यादा परवाह करनी पड़ती है । हर समय यह ध्यान रहता है कि
किसी तरह वह आहत ना हो वह जो पहनना चाहता
है ,खरीद कर देती हूँ। जैसा खाना चाहता है ,बनाती हूँ। फिर भी चाहे जब नाराज हो
जाता है । क्यों नही समझता कि जो कुछ मेरा है वह उसी का तो है ।”
“दीदी ,जबकि वह आपकी भावनाओं को समझ नहीं रहा है ,आप थोड़ी सख्त बनें ।उसकी हर माँग पूरी करेंगी तो उसका हौसला बढ़ता रहेगा ।”---–मैंने कहा था तो बोलीं---“सख्ती दिखाती हूँ ,तो रोने लगता है। और वही बात दोहराता है कि मैं आपका सगा बेटा नहीं हूँ ।क्या करूँ मुझसे उसके आँसू नहीं देखे जाते। पता नहीं कैसे जिन्दगी बसर करेगा ?”- उनका स्वर पीड़ा की आँच से पिघल रहा था। स्नेह पर अटूट भरोसा करने वाली दीदी यही समझती रहीं कि अभी बच्चा है ,भ्रमित है ,बड़ा होकर सब समझ जाएगा। लेकिन रवि ने दीदी के कोमल विश्वास को निर्ममता से तोड़ दिया। प्रचलित कहावत के विपरीत आम बोने पर बबूल उग रहा था।
दीदी ने अपनी संचित सारी धनराशि भी रवि के नाम करदी तो मुझे दीदी पर हल्का सा रोष आया। कम से कम अपने लिये कुछ तो बचाकर रखतीं । लम्बे समय से बीमार चल रही थीं। अच्छे इलाज की ज़रूरत थी। पर उन्होंने अपने लिये कुछ नहीं बचाया सिवा वेतन के । उसको मनमानी करने का अवसर दे दिया दीदी। उसने तो आपकी भावनाओं को ज़रा भी नहीं समझा ..!” –मैंने कहा था तो बोलीं ----“पीछे तो समझेगा कि माँ ने उसे कभी पराया नहीं माना...।” अपने ममत्त्व से मिली चोट से दीदी बुरी तरह टूट गईं थी। मुझे नहीं मालूम था कि अच्छे काम का परिणाम इतना बुरा मिलता है। पहलीबार ही मुझे भी जिया की असहमति पर अफसोस हुआ । क्या पता दीदी अपनी पसन्द के युवक से ही विवाह कर लेतीं तो शायद ऐसी दुर्दशा न होती । पानी का वह सहज प्रवाह , जो कभी किसी रुकावट से नहीं ठहरा था, एक दुर्भेद्य दीवार ने बाँध लिया । रवि उनसे मिलने तक नहीं आया । हताशा की अथाह जल में वे छटपाटाती रहीं । वह विकलता उनके प्राणों के साथ ही खत्म हुई ।
उनके भाई का सन्देश पढ़कर आँसुओं के साथ एक गहरी आह निकली कि रेखा दीदी का क्या दोष था ? क्या लोगों को अपने जैसा ही सहज सरल समझने का दोष? क्या मूक रहकर सब सह जाने का दोष? जैसे को तैसा उत्तर न दे पाने का दोष? एकमात्र प्रेम को ही हर समस्या समाधान समझने का दोष?..बहुत उचित और आवश्यक होने पर भी किसी को ‘ना’ न कह पाने का दोष ? या सारे ही दोष थे दीदी में । काश दीदी लोगों की नीयत को परख पातीं । काश ज़रूरी होने पर तो 'ना' कहना सीखी होतीं । काश वे स्वयं को भी महत्त्व दे पातीं । काश ...