सोमवार, 19 मई 2014

कै हंसा मोती चुगै...

19 मई 2014 (पाँचवीं पुण्य तिथि)
पिछली  स्मृतियाँ  जारी....

अपने सिद्धांतों के प्रति काकाजी में जो खंड था उसका प्रभाव अच्छा हो रहा था ऐसा नहीं था। वे अपने विश्वास में धोखे खाजाते थे। खरीददारी में कच्चे दाल-मसालों की हो या भाभियों के लिए सबसे बड़े शौकीन की , साकी ने उन्हें बहुत ठगा था। उन्हें ठगना कोई मुश्किल नहीं था। केवल समन से वैज्ञानिक कहते हैं--- "मास्टरसाहब , विश्वास करना यह चीज है , इस दाम पर सिर्फ आपके लिए है। क्या आप सामान झूठ बोलेंगे ?"   इस पर भी जब सामान खराब निकलता है और मां कहती है कि सामान देख-पकड़कर ले लो तो नाराज हो जाते थे। कहो कि "उसने तो अच्छा दिखाया था। लोग झूठे मूर्तियाँ और फाउल हैं मैं क्या कर सकता हूँ ?" या कि "आइंदा उनसे सामान लाऊंगा ही नहीं।" और अंत में यह कि "ठीक है फिर तुम्हें ले आओ करो।" है ना अजीब तर्क ? लेकिन वे ऐसे ही थे। मजे की बात यह है कि उनके हर सिद्धांत के समर्थन में उनका कोई भी उद्धरण नहीं था। ऐसे में वे कहते हैं-- " कबिरा तुम ठगिए और न ठगिए कोय। तुम ठोगे सुख उपजे और ठगे दुख होय।" दूसरी वे गुड़िया उस बात पर जोर देते थे जिसे दूसरे लोग नहीं मानते थे। और जिसे सब मानते थे वे उसे भेड़चाल में बंद कर देते थे। जैसे अगर हर साल साल के लिए ' पुन्न ' ( धार्मिक भोज का आयोजन) कर रहे हों तो काकाजी जरूर अपना विरोध करेंगे। ऐसे भोज का आयोजन करने से भगवान प्रसन्न नहीं होते। का पैसा बरबादी है। वे अक्सर हमें यह दोहा भी सुनाते रहते थे-- " लाइक-लीक गाड़ी चलै लीक चलै कपूत। लाइक छोड़ो तीमारदार शायर सिंह सपूत।" उनके लाइक को फिर से शुरू करने की सनक ने अपनी (हम कंपनी) मुश्किलें भी बहुत बढ़ा दी। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि अपने इन सिद्धांतों के कारण काकाजी को बेरोजगारी भत्ता उठाना पड़ा था। पर उन्हें जरा भी पछतावा नहीं होता था। रिश्वत शब्द से तो वे इतनी दूर थे कोई कट्टर वैष्णव सामिषाहार से। इस सन्दर्भ में उदाहरण स्वरूप बहुत सी घटनाएँ हैं। लेकिन यहां सन् 1990 की एक घटना ही सत्य है। गाँव जहाँ हमारा घर है उसके बायीं ओर ब्राह्मणों के घर हैं और ऊपर और कुशवाहों (ठाकुर नहीं) के हैं। जहां ब्राह्मणों से हम सामाजिक रूप से जुड़े थे वहीं खेती के लिए कुशवाह समाज पर प्रतिबंध थे। जब दोनों पक्षों में एकता का कोई विरोध नहीं था तब सब कुछ बड़ी सहजता से चल रहा था लेकिन कुशवाह समाज की एक बेटी की निर्मम हत्या ने सब कुछ पलट कर रख दिया। कुशवाहों ने ब्राह्मण समाज पर लगाया हत्या का आरोप। हालात इतने बड़े हैं कि काकाजी की शानदार शिक्षकीय भूमिका और माँ के सामाजिक सहयोग को भुलाकर और हमारी बात सुने समझे बिना ही कुशवाहों ने हमारी ज़मीन छोड़ने का निर्णय लिया। हमारे सिद्धांत की स्थिति यह है कि यहां केवल कुशवाह लोग ही खेती कर सकते हैं। आसपास के सारे खेत उन्ही के हैं। क्योंकि लाठी " भुज भुजंग की बैसंगिनी भुजंगिनी सी..."हमेशा उनके हाथों में रहता था। सिक्का फरसा उनका सम्बल था। विरोध करने वाले की खेती करने की कोई और सोच भी नहीं हो सकती थी।



  
 
 




 
 
 
तो हुआ यह कि आषाढ़ की पहली वर्षा साथ ही में (हैसियत और नीड के अनुसार) जहां हल-बैलों और साज़िशों का मेला सा लगा , जुताई-बुवाई से खेत आबाद हो गए वहीं हमारे खेत बिसूरते हुए से खाली सूने पड़े थे। हमने सोचा कि हमारे सार्वभौम में अब संपत्ति तो है , रबी की फसल भी शायद ही हो क्योंकि कुशवाहों को कोई समझा नहीं सकता। काकाजी ने उन्हें पूरी तरह से गलत तत्व दिए थे, बजाय इसके कि उनसे दूरियां बनाई गईं, ठीक माना जाता था लेकिन यहां तो सालभर के फल का सवाल था। " ऐसी ही एक बात बन सकती है मास्टरसाहब।"

कुशवाहों की ओर से एक आदमी आया। काकाजी ने अपनी ओर से ऐसा देखा जैसे कुछ सुना ही नहीं जा सकता---"मास्टरसाब ये तो बुरा हो रहा है। खेत सुने रहिए। मेरी मानो तो फलां आदमी से बात करो। सौ-दो सौ रुपए अपने साथियों में रखदो। उसकी बात कुछ नहीं हो सकती। काचियों में तो उनके ' पेसाब से भी दिए जलते ' हैं , ब्राह्मणों में भी उनकी धाक कम नहीं है माड़साब।" " किससे ? मुकंदी को ?? " यह भी पता चला कि आर्थिक रूप से हम पर काफी प्रतिबंध थे। काकजी को वेतन बहुत ही मामूली सा था। " उस गद्दार और शैतान आदमी को सौ रुपए तो क्या एक फूटी कौड़ी भी न दंगले। तू ने यहां भेजा था। यहां से चल जा। कह दे कि मुंदियों की सरकार काछियों--ब्राह्मणों में घूमेगी। यहां नहीं। खेत एक क्या चार साल पड़े रहो।" " हे भगवान् !"----माँ का चेहरा फ़क्क । "गुस्से में देखें न ताव। आदर्श ब्राह्मणों को समागम की क्या आवश्यकता थी ?"  लेकिन काकाजी ऐसी परवाह कब करते थे। " मैं तो माड़साब आपके भले के लिए कह रहा था। खेत ऐसे ही रह गए थे तो धरती मैया ' सराफ ' देवी।" " मुझे शाप मत दो, तुम लोग मुझे धोखा दो, क्योंकि तुम लोग मुझे धोखा देते हो। मैं तुम लोग मुझे धोखा देता हूं ? और वह मनुष्य क्या पसन्द करता है... ? कभी नहीं।" कुछ हितैषियों और व्यवहारकुशल लोगों ने काकाजी को बताया कि , " माड़साब ' नाकुछ ' रुपये हैं जबकि घाटा हजारों का होगा। फेकदो उसके सामने और निर्देश को आबाद दो।" " मैंने गलत आदमी को अपने हित के लिए गलत दवा का इस्तेमाल नहीं किया। ' कै हंसा मोती चुगाई कै लंघनी मर जाए '... " इस सूक्ति को काकाजी बार-बार बड़े गौरव के साथ अपना संबल बक बात अपनी पर अड़े रहते थे। तो हुआ ये कि हमारे खेत उस साल जुताई-बुवाई का इंतज़ाम करते ही रह गए। लोगों ने कहा--"मास्टर कंजूस और सनकी है। दो सौ रुपये के उफान के फेर में हजारों का नुक्सान कर लिया। ऐसी हेकड़ी किस काम की ?" लेकिन काकाजी ऐसे ही थे। उन्होंने तो अगले साल एक ठाकुर को काकाजी की बात बताते हुए कहा कि अपने बाली पर कुशवाहों को चुनौती देते हुए सरकार ने बीजारोपण किया। और लगातार चार साल तक पूरे कुशवाह समाज को चुनौती देते रहे हमारे खेत आबाद रहे। बाद में धीरे-धीरे जब दैत्य समाप्त हो गया तो कुशवाहों ने अपनी शांतिचित्त काकाजी से खेत मांग ली। काकाजी के ऐसे विचार का सबसे अधिक प्रभाव डाला गया। अच्छा भी और बुरा भी। अच्छा तो यही है कि मेरे पास हमेशा के लिए गलत के प्रति विद्रोह हो रहा है। विद्रोह निश्चित ही ऊर्जावान भाव है जो कभी सृजनात्मक भी होता है और कभी विध्वंसक भी। लेकिन जैसा कि उन मुस्लिम अदिगता, निरपेक्षता और निर्भयता नहीं आ अशिक। काश अजाती.... 

रविवार, 11 मई 2014

रहत अचम्भा जानिये ।

सोचा था कि काकाजी के लिये कुछ लिखूँ ।आधा-अधूरा कुछ लिखा भी लेकिन पोस्ट यह संस्मरण हुआ , क्यों हुआ ?
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"ताऊजी ,मैंने सुना है कि आप पहली कक्षा में ही स्कूल छोड़ आए थे ।"--मैंने एक बार उनसे पूछा --यही नही आपने मास्टर जी की मूँछें भी काट दी थीं ।"
" तो क्या करता ! ससुरे मास्टर ने पहले दिन ही ऐसी संटी मारी कि खाल उधड गई थी पीठ की । बस हमने सोच लई कि इसका बदला तो लैना पड़ैगा आखिर किस गलती पर उसने हमको मारा ।" 
"तो वह  बदला कैसे किया ताऊजी ?"
"हमने रात में जब मास्टर जी खर्राटे भर रहे थे , कैंची उठाई और चुपचाप उनकी लम्बी-लम्बी 'पूरा' ( घास का गट्ठर) जैसी 'गोंछ' कतर डालीं । सोचा सबेरे की सबेरे देखी जाएगी । " 
"फिर क्या हुआ ?"
"होता क्या अम्मा ने मास्टर से कह दिया कि लड़का पढने भेजा था , पिटने नही । हमें ना पढवानों ।"
फिर आगे कभी नही पढ़े ?"
"अरे बिटिया ,तब जे 'साटीफिकट' नही आदमी का हुनर देखा जाता था । देख आज मैं पोस्टमास्टर का ढोल टाँग कर मजे में चैन की बंसी बजा रहा हूँ अपने बँगला में , कि नही ? ये दोनों ( भाई )पढ़ लिये बहुत है पर बेटी, जो काम मैं कर सकता हूँ , न बाबू ( मेरे पिताजी ) कर सकता है न भैया ( बड़े ताऊजी भूपसिंह) । भोपाल मंत्रालय तक में बड़े बड़े अफसर उठकर हाथ में से बैग ले लेते हैं ।साथ बैठाकर चाय पिलाते हैं और काम तो चुटकियों में कर देते हैं । "
कुछ समय पहले ही ये संवाद हुए थे मेरे अपने छोटे ताऊजी श्री रतनलाल श्रीवास्तव के साथ ,जो आज अपनी जीवन-लीला शान के साथ पूरी कर अपने दोनों भाइयों से जा मिले हैं । 
शाम पाँच बजे यह घटना मामचौन, (मुरैना जिले का एक सुदूर गाँव) में घटी है और मैं ढाई हजार किमी दूर बैंगलुरु में  सजल आँखों और भरे हदय से उन्हें याद कर रही हूँ ।
 छोटी बहिन ने बताया कि वे बीमार नही थे । बस एक-दो दिन खाना नही खाया । हम सभी का यह पक्का विश्वास था कि एक बार तो अपनी हेकड़ी में वे मौत को भी दुत्कारकर भगा देंगे । कहेंगे कि " जा री जा , फिर आना । अभी मेरा मन नही है जाने का ."
 लेकिन सच वही है जो कबीरदास ने कहा है ---
" नव द्वारे का पींजरा ,तामें पंछी पौन ।
 रहत अचम्भा जानिये ,गए अचम्भा कौन ।" उसके आगे भला किसी की हेकड़ी चलती है ?" 
दादी के तीन बेटे थे । सबसे बड़े श्री भूपसिंह (किशोर भैया के पिताजी )और सबसे छोटे मेरे पिताजी श्री बाबूलाल । ये  ( श्री रतनलाल ) मँझले थे । और आदतों व विचारों में विरले भी । अनपढ, लेकिन पढ़े-लिखों की बोलती बन्द कर देने वाले ।
आज़ाद खयाल ऐसे कि विवाह का बन्धन ही कभी स्वीकार नही किया । अपने भाइयों की सन्तानों में ही अपना ममत्त्व बाँटकर सन्तुष्ट थे । वे गाँव के पहले पोस्टमास्टर होने का बाकायदा आत्मसम्मान भी रखते थे । 
 मुझे नही पता कि जनसंघ के एक नेता , जिनके साथ अक्सर वे जाते रहते थे , यहाँ उनकी कितनी पहुँच थी या कि बिना स्कूल में पढ़े और बिना किसी सर्टिफिकेट के वे पोस्टमास्टर कैसे बने । पर लोगों के बीच उनके रौब और हमारे दरवाजे पर लगी लाल पत्र-पेटिका और सुबह शाम फर्श पर बिखरे रहते कार्ड ,अन्तर्देशीय पत्र और लिफाफे ,रजिस्ट्रियाँ , तार  चपडी ,ठप्पा ,काली स्याही आदि उनकी ताकत और नौकरी का पक्का प्रमाण थे । हम उनके कार्यक्रमों को कौतूहल से देखा करते थे ।  
उनकी बढ़ चढ़कर बोलने की आदत थी । बड़े ताऊजी और पिताजी को यह जरा भी पसन्द नही था । पर वे इसे अपनी राजसी प्रवृत्ति का जरूरी भाग मानते थे । हम सब ताऊजी की ऐसी शेखियों पर खूब हँसते थे पर कभी शर्मिन्दा भी होना पडता था । मैं जब भी गाँव में अपने घर जाती थी , वे गाँव वालों से मेरा परिचय कराते,  कहते---" देखो हमारी बेटी , कालेज में लेक्चरार है ।"
"ताऊजी!"--मैं शर्म से पानी-पानी होजाती थी --"मैं अभी सिर्फ प्राइमरी की मास्टरनी हूँ । लेक्चरर नही .....।" ( तब मैं प्राइमरी स्कूल में ही थी )
" अरे आज नही है तो क्या , कल हो जाएगी, देखना ।'--वे विश्वास से कहते -" पता है, इससे मेरी शान कितनी बढ़ जाती है ।"
कच्ची लेकिन थोड़ी बड़ी पाटौर ( खपरैल) को वे बँगला कहते थे . वही उनका डाकघर भी था । जो हमेशा कन्नौजी इत्र से महकता रहता था । वे उसमें उसी शान से रहते थे जिस शान से बीते दिनों में जमींदार-जागीरदार रहते  । जब भी बाहर निकलते थे ,किसी बड़े विशिष्ट व्यक्ति की तरह । नील-टिनोपाल से झकाझक हुए सफेद धोती-कुरता , बालों में ब्राह्मी आँवला तेल ,कानों में 'कदम्ब' या 'काला-भूत' का फाहा और हाथों में चमड़े का काला बैग । भले ही उसमें उनके केवल लँगोट-तौलिया ही रखे हों और अपनी कुलीनता के गर्व से भरे सीना ताने झूमती हुई चाल । 
राह चलते जब कोई उन्हें सिर झुकाकर  "लालाजी राम राम" कहता तो वे उसे अभयदान देने की मुद्रा में सिर हिलाकर उत्तर देते थे । उन दिनों फर्श, गैस लालटेन हारमोनियम ,ढोलक जैसी चीजें केवल ताऊजी के बँगला में ही मिलती थीं । और इसका उन्हें बराबर भान था । अपनी कीमत कैसे कायम रखी जाती है कोई उनसे सीखता । 
हम चार भाई-बहिन हालाँकि उनके सान्निध्य में कम रहे । पिताजी कुछ कारणों से हम सबको लेकर घर छोडकर चले गए थे जबकि बड़े ताऊजी (जो प्रकृति से कलाकार शान्त और लड़ाई-झगड़ों से दूर रहने वाले थे ) की छहों सन्तानें छोटे ताऊजी की छत्रछाया में पलीं । उन सभी पर छोटे ताऊजी की बेबाकी ,ज़िन्दादिली और हर तरह के संघर्ष के लिये तत्पर रहने का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । वे अपने पक्ष के लिये जितने अडिग और मजबूत दिखाई देते हैं , हम लोग नही । छोटे ताऊजी से दूर रहकर हमें उपलब्धियाँ तो मिलीं पर एक बड़ी हानि भी हुई । 
। आज उस पीढ़ी के तीनों ही भाई नही हैं । मामचौन में लालाओं का इकलौता घर छत-विहीन सा होगया है । बँगला अब बँगला नही रह गया । हारमोनियम के सुर टूट गए हैं । दीवारें भुरभुराकर गिर रहीं हैं । आँगन टुकड़ों में बिखर गया है ।
लेकिन इससे उन्हें क्या । वे तो "जियो तो ऐसे जियो कि सब तुम्हारा है " ,वाली सोच के साथ जिए और उसी फकीराना अन्दाज़ के साथ दुनिया को छोड़ गए कि दुनिया री अब तू हमारे लायक नही रही । जा रहे हैं । तू भी क्या याद करेगी कि कोई था । 
उनके समग्र व्यक्तित्त्व के लिये मुझे आज ठाकुर रोशनसिंह( काकोरी काण्ड) की पंक्तियाँ याद आ रही हैं---- 
"जिन्दगी जिन्दादिली को जान ए रोशन 
वरना कितने पैदा होते हैं कितने चले जाते हैं ।"