आप सबको दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएं ।
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22 अक्टूबर को चकमक के तीन सौ वें अंक का विमोचन भारत-भवन( भोपाल) में श्री गुलजा़र जी द्वारा किया गया । इस अवसर पर उनके अलावा और भी अनेक प्रख्यात साहित्यकार थे । प्रयाग शुक्ल जी और वरुण ग्रोवर से काफी बातें हुई . वरुण ग्रोवर और सुशील शुक्ल कभी चकमक के बाल पाठक हुआ करते थे . आज आसमान छू रहे हैं . वरुण फिल्म लाइन में चले गए हैं और सुशील चकमक को नया रूप देने की कोशिश कर रहे हैं . सुशील बहुत अच्छे रचना कार भी हैं . उत्साही जी और उनकी श्रीमती निर्मला से भी भेंट हुई . चकमक से जुडे सभी लोगों के लिये यह काफी महत्त्वपूर्ण अवसर था । मेरे लिये भी ।
गुलज़ार जी व सुशील शुक्ल के साथ |
सन् 1986 में चकमक से मेरा परिचय अँधेरे कमरे में टार्च हाथ लग जाने जैसा हुआ था । उन दिनों में उसी गाँव के उसी स्कूल में पढाया करती थी जहाँ कुछ साल पहले मैं खुद पढी थी । मुख्य सड़क से काफी दूर हमारा गाँव तब हर सुविधा से वंचित था .आठवीं व ग्यारहवीं कक्षा तो सात-आठ कि. मी.पैदल जा जाकर पास करलीं थी और बी. ए. एम.ए. के प्रमाण-पत्र बच्चों को पालते-सम्हालते हुए स्वाध्याय द्वारा हासिल कर लिये थे ।मतलब कि बाहर की दुनिया से कोई खास परिचय नही था । खास तौर पर पत्र-पत्रिकाओं व साहित्य से ।(आज भी मैं कूप-मण्डूक ही हूँ) जो कुछ भी पाठ्यक्रम में आया ,ज्ञान वहीं तक सीमित रहा । यों लिखने का शौक तो ग्यरहवीं कक्षा से ही शुरु होगया था । और सात-आठ कहानियाँ व कविताएं व गीत तभी लिख डाले थे । यही नही एक बाल उपन्यास भी लिख डाला जिसका एकमात्र पाठक मेरा छोटा भाई ही रहा । खैर वह उपन्यास व कहानियाँ तो नष्ट हो गईँ पर कविताएं अभी भी हैं लगभग दो सौ गीत ---जाने कौन जिन्दगी में यह नव-परिवर्तन लाया ..या मैं तुमको पहचान न पाई ..आदि । पर वे सब अप्रकाशित रचनाएं आत्म-केन्द्रित सी हैं और उन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने का दुस्साहस नही करूँगी ।
चकमक का आना एक नयी राह , नयी दिशा मिलने जैसा था । हालाँकि उसके बाद मैंने कोई सृजन के कीर्तिमान नही बनाए फिर भी पहली बार हुई हर घटना अविस्मरणीय होती ही है । यह चकमक ही है जिसमें पहली बार मेरी कोई रचना प्रकाशित हुई । वह रचना एक कविता थी--मेरी शाला चिडिया घर है ..। इस कविता के प्रकाशन विषयक एक रोचक प्रसंग है जिसे फिर कभी लिखूँगी । हाँ इसके बाद चकमक का हर अंक मेरे लिये कुछ न कुछ लाता रहा और मुझसे खींच कर रचनाएं भी लेजाता रहा । एक शिक्षिका होने के नाते चकमक से मैंने बहुत कुछ सीखा । बहुत अधिक तो नही पर अब तक चकमक में मेरी लगभग पचास रचनाएं आ चुकीं हैं । मैं मानती हूँ कि अगर चकमक से न जुडी होती तो शायद ये रचनाएं भी न बन पातीं । इस अर्थ में अच्छी पत्रिकाओं से वंचित रहना एक बडी हानि है पाठक व लेखक दोनों की ।
कलेवर की दृष्टि से चकमक अब सचमुच चकमक होगई है । शानदार रंगीन पृष्ठ ,चित्र आकर्षक आवरण और प्रख्यात देशी-विदेशी रचनाकारों की रचनाएं । सम्पादक भाई सुशील शुक्ल अपनी प्रतिभा का भरपूर उपयोग करते प्रतीत होते हैं । मैं जब चकमक से जुडी थी तब चकमक के सम्पादक श्री राजेश उत्साही थे । उस समय क्योंकि पत्रिका का आरम्भकाल था सो भले ही इतना बाह्याकर्षण नही था लेकिन सामग्री का स्तर किसी भी स्तर पर कम नहीं था ।,बल्कि कहीं अधिक ऊँचा था . श्री राजेश उत्साही बहुत ही कुशल व अनुभवी सम्पादक रहे . रचनाओं का चयन सम्पादन गज़ब था ... खैर ,यहाँ उस पहली रचना को पुनः दे रही हूँ ---
"मेरी शाला है चिडिया-घर ।
हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ...।
(1)फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती ,---डर जाते ,
हँसती,------ तो हँसते हैं,
मुँह बिचका कर .। मेरी शाला .....
(2)तोतों सा मुँह चलता रहता,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले ,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल-कूदते ,
मानो वे हैं नटखट बन्दर ।
मेरी शाला ........
(3)हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से ,
बात-बात पर लडते --मनते ।
पंख लगा उडते से लगते ,
आसमान में सोन -कबूतर ।
मेरी शाला.....।
(4)पल्लू पकड खींच ले जाते ,
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोई...धक्का मारा ...,
शिकायतों में ही उलझाते ।
और नचाते रहते मुझको ,
रखना काबू कठिन सभी पर ।
मेरी शाला ....।
(5)पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब हो जाते ,
कहीं ओट से दीदी--दीदी----
चिल्लाते हैं ,फिर छुप जाते ।
कान पकड लाती हूँ तो ,
अपराधी से होजाते नतसिर ।
मेरी शाला .....
(6)जरा प्यार से समझाती हूँ ,
तो बुजुर्ग से हामी भरते ।
पर वे ऐसे मनमौजी ,
अगले पल अपने पथ पर चलते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....
(7)गोरे ,काले ,मोटे पतले ,
लम्बे ,नाटे ,मैले ,उजले ।
कोमल ,रूखे ,सीधे ,चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जितने ,जैसे भी हैं ,
मुझको लगते प्राणों से बढकर ।
मेरी शाला है चिडियाघर ।
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