वैसे तो
कई कहानियाँ ,जबसे मैंने सुनना समझना शुरु किया था
,मेरे ,हमारे साथ लगी हुई हमें निर्देशित करती आ रही हैं ,जिन्हें कुछ को हमने
पढ़ा है और कुछ माँ ने सुनाईं थीं.उन्ही में से एक कहानी अकबर-बीरबल की है जिसकी मुख्य
बात है कि ," दिल की दिल से राह होती है . यानी किसी के बारे में जो भाव आप रखते हैं दूसरा भी स्वतः वैसा ही आपके लिये सोचता है ."
बादशाह ने बीरबल की बात का परीक्षण एक
लकड़हारे और बुढ़िया पर किया और सच पाया .
मैंने भी अक्सर इसे सच ही पाया है और उसी भरोसे
पर एक लम्बा रास्ता तय भी
किया है .हाँ
कभी-कभी अति निकटस्थ अपने ही कुछ लोगों के कारण इसकी सच्चाई पर सन्देह भी हुआ है
.
लेकिन इस बार यात्रा में ,जब पिछली बार बैंगलोर
से ग्वालियर जा
रही थी ,और उसके बाद जो अनुभव हुए हैं उनके अनुसार तो उस सच्चाई को पूरी तरह नकारने का मन
होने लगा है .
यात्रा की ही बात करें तो इस बार की यात्रा कुछ अलग सी रही . अलग इसलिये कि इटारसी पर कुछ व्यवधान आने के कारण ट्रेन गुजरात और राजस्थान से गुजरती हुई लगभग पन्द्रह घंटे लेट आठ बजे मथुरा पहुँची थी .यों
तो कोई असुविधा नही थी . सेकण्ड एसी में लोअर बर्थ और अच्छे सहयात्री थे जिनमें
आगरा की मिसेज श्रीवास्तव और गुलबर्गा के श्री संजूकुमार (सपरिवार) थे .मिसेज
श्रीवास्तव अपनी बेटी के पास रहकर लौट रही थीं और संजूकुमार अपनी पत्नी की राष्ट्रपति-भवन
देखने की इच्छा पूरी करने दिल्ली जा रहे थे .जैसा कि अक्सर होता है ,पच्चीस-तीस घंटों में हमारे बीच परिचय के साथ तमाम बातें होतीं रहीं .
ट्रेन अब नए रास्ते से गुजरेगी यह सोचकर मुझे अच्छा लग रहा था . लेकिन अलग खासतौरपर इसलिये कि एक प्रसंग ने मुझे हैरान भी किया और आहत भी . नया पाठ सीखने तो मिला ही .
क्योंकि मथुरा से रात में ही ट्रेन या बस द्वारा ग्वालियर जाना था इसलिये मैं सोच रही थी (भयवश नही )कि काश ग्वालियर जाने वाला कोई और
भी साथ होता . तभी मुझे पता चला कि ग्वालियर जाने वाले कई लोग हमारे डिब्बे में ही हैं .जाहिर है कि मुझे काफी राहत महसूस हुई .
कहा भी जाता है कि एक से भले दो . इनमें कुछ लोग बैंगलोर स्थित श्री रविशंकर जी के आश्रम से सत्संग करके लौटे थे और कुछ सत्य सांई आश्रम पुट्टीपर्थी से .
लेकिन हुआ यह कि कुछ लोगों ने मथुरा से अपने लिये ‘इनोवा’ तय करली थी . एक-दो मथुरा में ही रुक रहे थे . एक सज्जन जो रतलाम से ही साथ चलने की बात करते आ रहे थे बोले—“मैडम वैसे तो गाड़ी में जगह की कमी है . जगह किसी तरह बना भी लेंगे लेकिन किराया हजार रुपया किराया देना होगा . आप देखलो.. .वैसे
वो आंटी भी ग्वालियर ही जा रही हैं ." उन्होंने एक महिला की ओर संकेत किया .
उनका संकेत स्पष्ट था .वे
मुझे साथ नही
ले जाना चाहते थे .किराए की बात गौण थी. वैसे भी हमें किसी को भी किराया देने की जरूरत नही थी . वही टिकिट मान्य था .पता नही उन्होंने यह सोचा या नही .मैंने कहा-
“कोई बात नही ..अभी ‘एपी’ (आन्ध्र-एक्सप्रेस) आने ही वाली है .”
वैसे भी ट्रेन का सफर ज्यादा आरामदायक होता है . समय भी कम लगता है और बेशक किराया भी लगभग न के बराबर है ,यदि देना भी पड़ता .मुझे कोई मुश्किल नही थी .सामान के नाम पर सिर्फ एक बैग था . फिर मुझे अकेली ही सफर करने की आदत भी है .
मैंने देखा वह
एक महिला बैशाखियों के सहारे चली आ रही हैं .
ऊँचा कद ,
मजबूत काठी , खिचड़ी बाल उम्र पैंसठ-सत्तर के बीच की होगी . दुबला-पतला सा एक लड़का उनका सामान उठाए था . वे धीरे धीरे चल रही थीं . जबकि साथ वाला लड़का सामान लेकर काफी
आगे निकल गया . उनकी स्थिति देख संवेदना व शिष्टाचार वश मैं भी तेज न चलकर उनके साथ ही चलने लगी . और निश्चित जगह पर उन्हें एक बैंच पर बिठा दिया . बुजुर्गों के लिये मेरे मन में हमेशा आदर-भाव रहता है .
“आपके लिये पानी लाऊँ ?”--मैंने पूछा .
“नही मेरे पास है .
आप बैंगलोर से ही आ रही हैं न?”
“हाँ . पुट्टीपर्थी से और...?”
“मैं भी.बैंगलोर से ही आ रही हूँ ”
उनका जबाब मुझे कुछ रूखा और संक्षिप्त लगा लेकिन मैंने ध्यान नही दिया .तभी ट्रेन आगई . हमें आसानी से सीट मिल गई ट्रेन चलते ही टीसी महाशय आगए . उन्होंने उन महिला का टिकिट देखा और बिना सवाल किये लौटा दिया .फिर
मुझसे पूछा--
"कहाँ जाना है ?"
"ग्वालियर ."–मैंने टिकिट देते हुए कहा .उन्होंने
टिकिट देखा
“यह टिकिट नही चलेगा .दूसरा लेना होगा .”
“क्यों सर ?”
“यह टिकिट दिल्ली तक का है .”
“हाँ लेकिन मुझे तो ग्वालियर ही उतरना था .”
“इसमें तो ऐसा उल्लेख नही है .”
“उल्लेख
कैसे होगा .टिकिट बैंगलोर से दिल्ली तक का बुक किया था .तत्काल में ऐसे ही आसानी
से मिल पाता है ."
"मैं आपकी बात कैसे मानलूँ ?"
"माननी तो पड़ेगी सर ,मैं जो कह रही हूँ .”
“आपके कहने से क्या होता है ?”
“तो
फिर किसके कहने से होगा ?" –मुझे सुनकर बड़ा अजीब लगा .बोली--
"आपकी समझ में नही आ रहा कि अगर मुझे दिल्ली जाना होता तो उसी ट्रेन में जाने की बजाय यहाँ क्यों होती ? हम तीनों ही तो ग्वालियर जा रहे हैं .”–मैंने उन महिला और उनके साथ के लड़के को शामिल करते हुए कहा . एक तो टीसी ने उनसे कुछ नही कहा था .फिर हमारा गन्तव्य भी एक ही था . मैंने उसी भाव से कह दिया .
“वे तो आगरा जा रही हैं . उनका टिकिट आगरा का है ( यह मुझे मालूम
नही था ) आपको टिकिट लेना पड़ेगा .”
"जरूरी होगा तो मैं जरूर ले लूँगी .पहले आप ठीक से पता कर
लीजिये."
“ठीक है, ठीक है .”-.कहकर वे महानुभाव तो चले गए .फिर
लौटकर नही आए पर उसके जाते ही मेरे साथ बैठी महिला ने एक पत्थर सा उछाला-
“अपने काम से काम रखा कर .समझी !”
स्पष्ट तो नही था फिर भी मुझे यकीन होगया कि वे मुझसे ही कह रही थीं .मन नही माना पूछ ही लिया .
“आपने मुझसे कुछ कहा ?”
“हाँ तुझसे ही कह रही हूँ . तूने हमारा नाम क्यों लिया ? हम कहीं भी जारहे हैं तुझे क्या ?”
मैं हैरान .वो मेरे लिये ऐसा सोचेंगी, मेरी कल्पना में भी नही था इसलिये
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये कहा--
“ माताजी हम साथ
ही जा रहे हैं इसलिये ऐसा कह दिया . मुझे मालूम नही था कि आपको बुरा लगेगा
.पर ऐसा तो कुछ अनुचित नही कहा .”
“आई बड़ी माताजी वाली ..कह भी लिया और कह रही है कि कुछ अनुचित नही कहा बेशरम कहीं की .” बेशरम शब्द सुनकर मुझे सचमुच गुस्सा आगया ,बोली --
“आप तो नाहक ही फालतू बातें
किये जा रही हैं . मैं आपकी उम्र का लिहाज कर रही हूँ ....”
“नही तो क्या करेगी ? हाँ ? ”
मैं इस अप्रत्याशित प्रहार से एकदम हिल गई . उसने मुझे खुली चुनौती दे डाली . इसके बाद मुझे चुप रहना ही उचित लगा .एक अपाहिज और वृद्ध महिला से उलझने पर लोग मुझे ही समझाते और मैं भी अन्ततः खुद को ही दोष देती रहती .
वह कुछ देर बड़ बड़ करती रही फिर खाना मँगाकर खाया और सामने वाली सीट पर जाकर सो गई .
उस समय रोष से अधिक मेरी जिज्ञासा प्रबल थी कि आखिर यह महिला कौन है . और ऐसा इसके पास क्या है कि यह किसी
के भी साथ ऐसा बर्ताव करने के लिये स्वतंत्र है .बहुत कोशिश करने पर उस लड़के ने डरते हुए केवल इतना ही बताया कि वह उसका नौकर है . डीबी सिटी में बेटी के साथ रहती हैं.स्वाभाव भी ऐसा ही है .
वास्तव में ऐसा बर्ताव मुझसे किसी ने नही किया था . वह भी बिना किसी विशेष कारण के . कम से कम बाहर के किसी व्यक्ति ने तो
कभी नही. आखिर मैंने उससे ऐसा क्या गलत कह दिया था ?
उत्तर में बेटे ने कहा कि गलत न भी हो पर आपको जरूरत
नही थी उसका हवाला देने की .
मेरे लिये सचमुच यह नई सीख है .
बेटे बैंगलोर में है इसलिये
आना जाना बना रहता है .सफर में तमाम लोग मिलते हैं .खूब बातें होतीं हैं . यहाँ तक कि परस्पर फोन व पते तक नोट कर लिये जाते हैं .एक दो से तो स्थाई परिचय होगया है .
फिर मेरे अन्दर से गाँव और मोहल्ला बोल ही पड़ता है इसलिये यह सीख आगे काम ही आएगी .
लेकिन यहाँ कहानी वाली बात तो गलत
ही सिद्ध होगई . क्या नही ?