31 दिसम्बर 2010
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सन् 1985 जाते--जाते मयंक (सबसे छोटा बेटा) के रूप में एक उपहार हमें देगया था । मुझे याद आता है कि इसी तरह बुआ या जीजी घर से जब विदा होतीं थीं तो जाते-जाते हमारी हथेली पर रुपया-दो रुपया जरूर रखतीं थीं और वह राशि हमारे बड़ी यादगार और अनमोल हुआ करती थी ।
यों तो हर माँ को अपनी हर सन्तान विशिष्ट ही लगती है ।लेकिन मयंक की कई बातें हैं जो सचमुच विशिष्ट हैं ।वह बहुत छुटपन से ही रोना तो जैसे जानता ही नही था मानो ,मम्मी को कोई परेशानी न हो इसे वह जन्म से ही सीख आया था । जब वह दो ही साल का था चाक से आँगन में चित्र बनाता था, इतनी फुर्ती से कि देखने वाले चकित रह जाते थे ।
जब वह ढाई साल का था तभी वह उसने अक्षरों के बारे में अपने मौलिक अनुसन्धान (, कि र से स,य थ, श कैसे बन सकते हैं और ट से ही ठ,ड ढ द ह बनाए जा सकते हैं । च को उल्टा जोडो तो ज बनता है और प ष, म भ,घ ध में तो जरा सा ही अन्तर है ...आदि,) ने मुझे विस्मित कर दिया था । मैं हैरान थी कि इसने वर्णमाला कब , कैसे सीखली । सीख ही नही ली उसे इतनी सूक्ष्मता से समझ भी लिया ।
पहली कक्षा में उसने यह कविता भी लिख डाली थी ----
मेरे पास थी एक पतंग ।
चटक लाल था उसका रंग ।
फर्..फर्..फर्..फर् उडती थी ।
साथ हवा के चलती थी ।
पतंग में एक हाथी था ।
वह तो मेरा साथी था ।
जाने कहाँ वो चली गई ।
संग हवा के चली गई ।
मेरे पास थी एक पतंग।
बहुत अच्छा परिवेश व परवरिश न मिलने के कारण मयंक की प्रतिभा को निश्चित रूप से सही दिशा नही मिल पाई ।वह भी बेंगलुरु में ही इंजीनियर है । सब जानते हैं कि आज इंजीनियर बनना और किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी पाना युवाओं के लिये बड़ी बात नही रह गई है । फिर भी मयंक जहाँ भी है-----जो कुछ है उससे बेहतर चाहिये---का संकल्प उसके साथ है ।
इस समय वह बर्फवारी से घिरे न्यूयार्क शहर में है । पिछले साल जब वह न्यूजर्सी में था ,पहली बार वहाँ के वैभव ,बर्फीले सौन्दर्य और हडसन नदी के वैभव-विस्तार को देख उत्साहित होने के साथ उदास भी था ।बोला -मम्मी सब कुछ अच्छा है पर कमी यह है कि यह सब भारत में नही है । अपने देश , अपनी धरती के लिये उसके भाव-विचार मुझे आश्वस्त करते हैं ।
कल बातों-बातों में ही उसने कहा ---माँ , मुझमें ऐसी कोई बात ही कहाँ है जो मेरे लिये कुछ लिखा जाए । सच तो यह है कि वह सबसे छोटा व प्यारा होने के साथ कई बातों में इतना बड़ा व समझदार भी है कि जो भी लिखती हूँ प्रयोगवादी कविता के युग में भारतेन्दु-युग की रचना सा लगता है । उसके मना करने पर भी मैं केवल एक प्रसंग यहाँ दे रही हूँ जो बहुत छोटेपन में ही आगए उसके बड़ेपन को दर्शाता है ---- मयंक को एक दोस्त राहुल के साथ मेला जाना था । महीने का पहला सप्ताह होने के कारण भी और सबसे छोटे के लिये उदार भाव होने के कारण मैंने उसे पचास रुपए दिये ।कहा कि कुछ अच्छा खा-पीलेना । कुछ खरीदने लायक बजट था भी नही। शाम को जब लौटा तो उसके हाथ में गोर्की का उन्यास (माँ) था । मैने हैरान होकर इस खरीददारी का कारण पूछा तो उसने बताया कि पिछले साल आपने पैसे कम होने के कारण यह किताब लेते--लेते छोड़दी थी । इसलिये ....
पर यह तो 63 रुपए की है --मैंने कहा तो बोला कि तेरह रुपए राहुल से उधार ले लिये थे ।
पर बेटा ,पहले तो यह कि किताब खरीदना जरूरी नही था । किसी और दिन ले आते ।
माँ, रूसी किताबों की दुकान कल जाने वाली है । खाना -पीना तो फिर भी हो जाएगा ।
पर उधार केवल तेरह रुपए ही क्यों , ज्यादा ले लेता । यानी कि तुमने कुछ खाया पिया भी नही .यह बुरी बात है । मैंने पैसे इसलिये तो नही दिये थे ।
मेरी बात के उत्तर में उसने कहा --सॅारी मम्मा लेकिन , जब तक बहुत जरूरी न हो तब तक उधार नही लेना चाहिये न । फिर क्या कहती मैं ।
कुछ पंक्तियाँ मयंक के लिये---
सागर में लहर तू है
नदिया में भँवर तू है ।
ऊबी थकीं ---तिमिर से
आँखों को सहर तू है ।
खिल-खिल हँसी जो निकली
क्यों आँसुओं में बदली ।
तुझको पता नदी कब
किन घाटियों ने निगली ।
टकराने , जीत जाने की
पहली खबर तू है ।
सपनों के नीड छोड़े
रुख अँधेरे के मोड़े
बिखरे जो चिन्दियों में
संकल्प तूने जोड़े ।
पर्दों के पार देखे
वह तीखी नजर तू है ।
लगने लगा मुझे तो
छोटा दुआ का दामन
आकाश आ समाया
छोटे से अपने आँगन ।
है कही भी मरुस्थल
तो उसमें नहर तू है ।
असीम स्नेह व शुभ-कामनाओं के साथ
माँ