अपने गाँव की बात
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इन चार
शब्दों में कम से कम दो नाम अटपटे और आपके लिये अपरिचित होंगे शायद .(स्थानीय नाम जो हैं ) लेकिन इनमें रक्षाबन्धन
के साथ मेरे बचपन की उजली स्मृतियाँ उसी तरह पिरोई हुई हैं जैसे धागा में मोती .
यों तो
हमारे लिये पहली वर्षा का मतलब ही सावन का आना हुआ करता था और सावन का मतलब झूला .
जैसे ही उमड़-घुमड़कर बादल घिर आते और बूँदों से धरती गदबदा उठती , हमारे मन में झूलने की अभिलाषा गमक उठती थी ,लेकिन माँ का सख्त निर्देश था कि हरियाली अमावस्या तक रस्सी और 'पटुली'( लकड़ी की तख्ती जिसे रस्सी में फँसाकर उस पर बैठकर झूला जाता है ) का नाम तक नही लिया जाएगा .दादी कहतीं थीं कि इससे पहले जो 'पटुली' पर बैठेगी उसके बड़े बड़े फोड़े निकल आवेंगे .
जैसे ही उमड़-घुमड़कर बादल घिर आते और बूँदों से धरती गदबदा उठती , हमारे मन में झूलने की अभिलाषा गमक उठती थी ,लेकिन माँ का सख्त निर्देश था कि हरियाली अमावस्या तक रस्सी और 'पटुली'( लकड़ी की तख्ती जिसे रस्सी में फँसाकर उस पर बैठकर झूला जाता है ) का नाम तक नही लिया जाएगा .दादी कहतीं थीं कि इससे पहले जो 'पटुली' पर बैठेगी उसके बड़े बड़े फोड़े निकल आवेंगे .
इसलिये भले
ही आषाढ़ की पहली बारिश से लेकर सावन की पहली चतुर्दशी तक बादल उमड़-घुमड़कर ,बिजली
चमक-बमककर , मोर पपीहा पुकार-पुकारकर और आम नीम की डालियाँ झूम झूमकर हमें झूलने के लिये लाख
बार आमन्त्रित करती रहतीं, पर हमारा सारा ध्यान हरियाली अमावस्या के दिन पर चिपका रहता
था जैसे बच्चों का ध्यान 'मोटू-पतलू' और ' डोरेमोन' या रेफ्रीजरेटर में रखे जूस व चॉकलेट पर रखा रहता है . हम बड़ी बेसब्री के साथ उस दिन इन्तजार करते थे मानो वह हमारा ‘बड्डे’ हो और हमें बहुत सुन्दर कोई प्यारा उपहार मिलने वाला
हो .
हरियाली
अमावस्या का दिन हमारे बचपन के इतिहास में बेहद खास दिन रहा है . बाग में से लाए मेंहदी के हरे पत्तों को
सिलबट्टे पर पीसना और पीसते पीसते हाथों का मेंहदी से रच जाना ,रसोई से निकलकर शुद्ध देशी घी
की महक का दूर गली में फैल जाना ( तब पूरी ,हलवा ,पुए या अन्य पकवान बनने का मतलब कोई
खास त्यौहार ही होता था ) और माटी के गमलों या पुराने मटकों को तोड़कर बनाए गए पात्रों
में भुजरिया बोना ,..और ऊँचे टाँड़ पर सालभर से बन्धक बनाकर रखी गई रस्सी और पटुली
का मुक्त होकर नीचे उतर आना ...और तब लगता था कि सावन ,लो वह खड़ा है द्वार पर .
इसके बाद की पन्द्रह रातें गीतों –मल्हारों की मीठी गूँज से क्रमशः उजाली होती जातीं हैं .
इसके बाद की पन्द्रह रातें गीतों –मल्हारों की मीठी गूँज से क्रमशः उजाली होती जातीं हैं .
भुजरिया
( स्थानीय भाषा में ‘पन्हौरा’) बोने की प्रक्रिया मुझे बड़ी अच्छी लगती थी .छलनी
से छानी हुई मिट्टी, राख ,गोबर का चूरा एक निश्चित अनुपात में मिलाकर एकसार किया जाता था फिर उसे मिट्टी के बर्तन में बिछाया जाता था . उसमें गेहूँ या जौ के दाने बिखेर कर शुद्ध
मँजा हुआ पानी डालकर पात्र को अँधेरे में रख दिया जाता था .(भुजरियाँ सुनहरी पीली उगें ( हरी नही )इसीलिये उन्हें अँधेरे में रखते हैं ). घर में जितनी लड़कियाँ होतीं
उतने ही भुजरिया के पात्र तैयार होते थे .और पूर्णिमा तक उन्हें कोई नही देख सकता था
.पन्द्रह दिन बाद जब हम उन गमलों में गेहूँ-जौ के लम्बे सुनहरे लच्छे लहलहाते देखते थे
तो मन गर्व और खुशी से लबालब होजाता था . भुजरिया जितनी लम्बी और सुनहरी होतीं उतनी
ही शुभ मानी जातीं थीं . यह अच्छी फसल होने का संकेत माना जाता था .
मैंने देखा
था कि गाँव में चाहे बहन भारी जेवरों व कीमती कपड़ों से सजी बुलैरो में बैठकर आए या
थैले में एक जोड़ी कपड़ा डालकर , दस-पन्द्रह रुपए के नारियल बतासे लेकर , भरी बसों
में धक्के खाती हुई , कण्डक्टर से दो-चार रुपए के पीछे झगड़ा करके आए . चाहे वह युवती
हो या अधेड़ हो ( कभी कभी तो बूढ़ी भी ) ,पर पीहर आने का उल्लास ही अलग होता है .
शायद इसलिये कि बाबुल की देहरी पर आकर एक बार फिर बचपन को जीने का मौका मिल जाता
है.
सावन
की पूर्णिमा के दिन दोपहर को भाइयों की कलाइयों पर राखी सजाई जातीं हैं तिलक लगाकर नारियल मिठाई दी जाती है . और शाम को भुजरिया-मेला.
भुजरिया सिराने का उत्सव रक्षा-बन्धन पर्व का सबसे उल्लासमय आयोजन होता था (है) सन्दूकों में से नए कपड़े निकल आते ,जो खासतौर पर इसी के लिये सम्हालकर रखे जाते थे .जिसके पास जैसा और जितना भी साज-श्रंगार होता किया जाता .
भुजरिया सिराने का उत्सव रक्षा-बन्धन पर्व का सबसे उल्लासमय आयोजन होता था (है) सन्दूकों में से नए कपड़े निकल आते ,जो खासतौर पर इसी के लिये सम्हालकर रखे जाते थे .जिसके पास जैसा और जितना भी साज-श्रंगार होता किया जाता .
नव विवाहिता
लड़कियों के लिये यह और भी उमंग-उल्लास का अवसर होता था क्योंकि विवाह का पहला सावन
उनके लिये ससुराल से ‘सोहगी’(
कपड़े ,श्रंगार की चीजें ,खिलौने और यथासामर्थ्य जेवर ) लेकर आता था अपनी सहेलियों में
नई नई ससुराल और पति विषयक बातों को बतियाने से अधिक रसीला और आवश्यक कार्य उनके लिये कुछ नही होता . तब
उनके चेहरे का उल्लास और चमक देखते ही बनती है .
हमारे गाँव के
बिल्कुल करीब ही एक छोटी सी नदी बहती है . उसी की बरसात में भरीपूरी धारा में भुजरियाँ
सिराई जातीं हैं . सिराने के बाद पल्लू या दुपट्टा के छोर में बँधे हुए गेहूँ रेत में
दबाते हुए सहेलियाँ आपसे में भरे हृदय से कहती हैं –“मैं न रहूँ तो मेरे भैया को यह ‘खोंह’ ( गढ़ा
धन ) बता देना .” यह छोटी सी परम्परा भाई के लिये बहन के गहरे लगाव और त्याग की प्रतीक है . कहते कहते मेरा तो दिल भर आता था .सचमुच मायके में 'माँ-जाये' से प्यारा कौन हो सकता है .
शाम को गाँव के सभी लोग परस्पर घर घर
जाकर लड़कियों से भुजरिया माँगते हैं और पाँव छूकर बदले में कुछ न कुछ भेंट करते
हैं . यह समाज में भाईचारे और कुटुम्ब जैसी भावना को मजबूत करने वाली परम्परा है .
हालांकि समय के प्रभाव से गाँव भी अब अछूते नही है फिर भी काफी कुछ बचा हुआ है .
यह दिन ससुराल में रच बस गईं वर्षों की
बिछड़ी सहेलियों को मिलाने का एक मौका होने के कारण और भी उल्लासभरा होता है .मैं आज
भी याद करती हूँ कि राखी पर गाँव में पुष्पा , शीला ,कुसुम आदि सहेलियाँ आई होंगी कितना
अच्छा लग रहा होगा ..मुझे आज भी गाँव के सावन की बहुत याद आती है .बादलों की छाँव में हरे भरे खेत-किनारे , नदी की उमड़ती धारा ,जगह जगह नाचते पुकारते मोर ..बाड़ों पर छाईं तमाम तरह की बेलें ,फूल गीली गमकी धरती ..सचमुच वर्षाऋतु का पूर्ण सौन्दर्य गाँवों में ही दिखाई देता है . वर्षा ही क्यों शरद् शिशिर और वसन्त भी तो ..
भेजा फोड़ना ( यह स्थानीय शब्द है इसका
अर्थ है निशाना लगाना ) भी इस पर्व का एक रोचक प्रसंग है . निशानेबाजी की परीक्षा
भी .वैसे गाँवों में निशानेबाजों की कमी नही होती .
लेकिन इस अवसर पर ‘डढ़ैर’ का उल्लेख नही किया तो प्रसंग अधूरा ही
है . यह स्थानीय सामूहिक नृत्य है पता नही इसका सही नाम क्या है . गाँव में इसी
नाम से जाना जाता है . इसमें ढोल की ताल पर पन्द्रह से पच्चीस तक लोग बड़े सधे हुए
कदमों से नाचते हैं . हाथों में डण्डियाँ होती हैं जो एक विशेष गति और लय पर आपस
में टकरातीं हैं .समूह के बीच में एक एक करके लोग नाचते हुए ही कई तरह के बड़े अद्भुत
करतब दिखाते हैं . यह नाच एक विशेष प्रकार के समूह गान के साथ होता है जिसे गाना
भी एक विशेष कला है .हर कोई नही गा सकता . जब गाँव में थी तब मैंने इस पर खास
ध्यान नही दिया . तब वीडियो-रिकॉर्डिंग कोई साधन भी नही था . लेकिन अब जब टीवी पर
मध्यप्रदेश या अन्य प्रदेशों के आंचलिक नृत्य देखती हूँ तो मुझे गाँव का डढ़ैर नाच
याद आता है .पता नही कि यह अभी तक मध्यप्रदेश के लोक कला और संस्कृति विभाग की नजर
में क्यों नही आया . आना चाहिये ही . आया होगा भी तो मुझे जानकारी नही है .
बहुत से मेरे परिचित मेरे ग्रामीणा होने
को प्रशंसा की नजर से नही देखते .लेकिन मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत मानती हूँ कि
मेरा जन्म माटी की सुगन्ध के बीच हुआ है और मानती हूँ कि माटी से विलग होकर कोई भी
सच्चे आनन्द का अनुभव नही कर सकता .