शनिवार, 28 जुलाई 2012

सावन के गीतों में जीवन के रंग----3


दूसरे लोकगीतों की तरह सावन के गीतों में भी लोक जीवन के गहरे और पक्के
रंग मिलते हैं जिनमें हास-परिहास है । रिश्तों में उलाहने हैं ,टीस है ,तो अपराजेय अपनापन भी है ,वह सहिष्णुता भी है जो किसी भी मुसीबत में अडिग रहने का प्रशिक्षण देती है । इनमें उल्लास है तो वेदना भी है लेकिन वह सब हृदय को एक सशक्त भाव-भूमि देता है जिस पर निर्भय चलते चले जाओ ,कभी पराजय व निराशा राह नही रोकेंगीँ ।
यहाँ ऐसे ही कुछ और गीत हैं ।
(1) सावन का महीना और पीहर की गलियाँ
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सावन की फुहारें बचपन के गलियारों में ले जाकर भिगो देतीं हैं । मायके की गलियाँ उसे पुकारतीं हैं । बिछडी सहेलियों से मिलने की आकांक्षा मन की नदी में जैसे उमंगों की बाढ उमडाती है । बाबुल की गलियों में, मैया के आँगन में, बाग-बगीचों ,कूल-किनारों ,झूले-हिंडोलों और गीतों मल्हारों में साँस लेने की चाह में वह दिन रात माँ-जाये की प्रतीक्षा करती है । कब वह लीले घोडे पर सवार होकर अपनी बहन को लिवाने आएगा । बहन उसकी राह में पलक पाँवडे बिछाती है । उसके मलमल के कुरते के लिये महीन सूत कातती है । और गाती है---बहना नै लेखौ पठायौ ,वीरन .....(भाई का नाम.)...मोहे लै जाउ ..धुरही पछैंया है हठ परी..।
बहन-बेटी के बिना कैसा सावन ..। भाई बहिन को लिवाने उसकी ससुराल पहुँच ही जाता है । बहन फूली नही समाती । उसका रोम-रोम गाने लगता है--
आयौ री मेरौ माँ--जायौ वीर ,बाबुल ने लेन पठाइयौ ..।
तुम कहौ ए सासु पीहर जाउँ ,बारौ बीरन लैने आइयौ ...
तुम कहौ ए ननदी पीहर जाउँ ,छोटौ बीरन लैने आइयौ ।
सास तो फिर भी मान जाती है आखिर वह भी एक माँ है लेकिन निर्मम ननदिया को यह स्वीकार नही कि भाभी भरे त्यौहार में ,काम के समय मायके जा बैठे । वह कहती है--
जितनौ ए भावज कोठीनि नाज (अनाज) उतनौ पीसि धर जाइयो
जितनौ ए भावज कुँअलनि नीर ,उतनौ भरि धरि जाइयो ।
ननद पूरी तानाशाह है । उसकी बात टालने का साहस भाभी में कहाँ । पर मायके जाने से रोकना शायद सबसे बडा दुख होता है स्त्री का वह भी सावन में । भाभी बेचारी कह तो कुछ नही पाती ,इसलिये ननद के लिये कुकल्पनाएं करके ही मन को समझा लेती है--
सब घर ए बहना आय़ौ है ताव (बुखार)
ननद को आयौ बेलिया इकतरौ (मलेरिया)
सब घर ए बहना उतरौ है ताव ननदी कों लैगयौ बेलिया इकतरौ ।
पीहर जाने पर प्रतिबन्ध लगाने वाले के लिये ऐसी कल्पना एक सुकून देती है कि ननद को मलेरिया होगया है और ऐसा हुआ है कि दुष्टा ननद को लेकर ही जाएगा ।चलो पीछा छूटा । पर ऐसी कल्पनाएं केवल मन के क्रन्दन को शान्त करने के लिये होती है जैसे अपच होने पर वमन करना और कुछ नही । थोडी बहुत नानुकर के बाद बहू को पीहर भेज ही दिया गया । बहू की सारी शिकायतें खत्म । आमतौर पर हर लडकी ननद भी होती है और भाभी भी । इसलिये यह कहानी लगभग सभी की है जीवन की सच्चाई से जुडी । कोई बनावट नही कोई छल नही ।
(2)
मायके जाने के लिये मान-मनुहार का एक और जीवन्त चित्र--
सावन का हरा-भरा महीना है । पत्नी पीहर जाने को जितनी उतावली है पति उतना ही रोकने को ।
पत्नी---आई है सावन की बहार हम तौ पिय जाइँगे अपने माइकैं हो राज...।
पति को अचरज हुआ । पूछने लगा---
को तुनकों ए गोरी आए लैनहार ,को तुमको लायौ डोली पालकी हो राज...
पत्नी---वीsssरन ए हमें आए लैनहार, धीमर तौ लायौ डोली-पालकी हो राज ..।
पति --घर में ही ए गोरी हिंडोला गढाऊँ, झूला रेशम कौ रूपे पाटुली हो राज..।
फेरौ तौ हे गोरी डोलीया कहार भइया कों फेरौ राजी राजिया हो राज..।
( हे गोरी मायके जाकर क्या करोगी मैं घर में ही हिंडोला गढवा दूँगा ,रेशम की रस्सी और चाँदी की पटली बनवा दूँगा । तुम कहारों को वापस भेजदो और भैया राजा को मैं लौटा देता हूँ । लेकिन पत्नी को सावन में मायके तो जाना ही है न सो वह पति को कहती है--हे राजाजी झूला झूलने को तुम्हारी प्यारी बहन तो है मैं तो मायके जाऊँगी ही ) पति और भी प्रलोभन देता है---
माथे कौ ए गोरी बेंदा गढाऊँ ,बेसरि मुल्याऊँ तेरी मौज की हो राज ..।( मैं तेरे लिये माथे का टीका और नथ गढवा देता हूँ पर तू मायके न जा ) लेकिन मायके के लिये पहले से ही बकस तैयार कर बैठी पत्नी कोई प्रलोभन मानने राजी नही है---
बेंदा बेसरि राजा कछु न सुहाय हम तौ पिय जाइँगे अपने मायके हो राज..।
इसके आगे तो पति के पास कोई तर्क शेष नही रहता । आखिर वह भी तो पत्नी की खुशी चाहता है । हार कर कहता है ---पीहर जाउ गोरी नाही बिसराउ ,दस दिन रहि कै घर कों आइयो हो राज...।
(3)
एक अन्य गीत में एक सुन्दर षोडशी कृषक बाला भरी डलिया उठवाने खडी है । कोई दिखे तो मदद माँगे । उस कोमलांगी में इतनी शक्ति कहाँ कि इतनी भारी डलिया को अकेली ही उठा कर सिर पर रखले । तभी एक बटोही वहाँ आ निकलता है ।  कृषक बाला बटोही से डलिया उठवाने का निहोरा करती है ।
"डलना है भारी बटोहिया , तुम नैकु सहारौ देउ कै मेंहदी रंगै चढी...।"
वह बाँका बटोही कहता है कि डलिया तो उचवा दूँगा पर मेहनताना क्या देगी--" जो तोहि डलना उचाइयों ,मोहि काहा मजूरी देहि कै मेंहदी रंगै चढी...।" बाला कहती है --"हाथ कौ दैऊगी तोहि मूँदरा ,औरु गले कौ हार कै मेंहदी रंग चढी महाराज..।"
बटोही को हार--मूँदरा नही चाहिये उसकी मंशा तो कुछ और ही है कहता है--
"जो तोहि डलना उचाइयौं गोरी सी नार ,तू मेरी घरधनि होइ कै मेंहदी रंगै चढी महाराज..।"
वाह रे बटोही मन में इतना पाप भरा है कि जरा डलिया उठवाने के बहाने ही बाहर आगया । स्त्री को क्या तूने अपने खेत में लगी भाजी समझ लिया है कि जब मन करे तोडले । वह उसे दुतकार देती है---
"तो सौ तौ भरै मेरौ पानी बटोही ,मौ सी तौ मलि मलि नहाए कै मेंहदी रंगै चढी...।"
बटोही शर्मिन्दा होकर रूपसी की डलिया उचवा देता है ।
किसी क्षेत्र को आन्तरिक रूप से पूरी तरह समझने के लिये वहाँ के लोकगीतों व परम्पराओं को देखना ही होगा ।  
हालाँकि ये लोकगीत एक सीमित क्षेत्र के हैं लेकिन दूसरे लोकगीतों की तरह ही ये भी जनजीवन से गहरे जुडे हैं । सावन में जब बादलों की तरह मेंहदी का रंग भी गहरा होने लगता है , बाडों पर करेला और कुम्हडा की बेले फूल उठतीं है ,बागों में झूलों पर ऊँची पीगें होड लेतीं हैं तब चाँदनी के रुपहले जादुई संसार में कोकिल-कंठी तानें गूँज उठतीं हैं तब मानो जीवन ही मुखर होजाता है । पहर पल बन जाते हैं । गीत जीवन को गति देते हैं उल्लास भरी ऊर्जा देते हैं । आज जरूरत हैं लोकगीतों में बिखरे वैभव को खोजने की जहाँ जिन्दगी अपनी पूरी सच्चाई के साथ मौजूद है ।

समाप्त ।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

सावन के लोकगीतों में आख्यान--2


पिछली पोस्ट में आपने तीन दुखान्त आख्यानक गीतों के विषय में पढा । आज कुछ और गीत हैं जो पूर्ण आख्यान तो नहीं कहे जासकते पर संवाद उन्हें कथा जैसा ही रूप देते हैं । इनमें वाक् चातुर्य ,रूप-सौंन्दर्य तथा स्नेह--माधुर्य पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित है । तत्कालीन समाज में वर्ग ,जाति आदि के कठोर बन्धनों के बावजूद तब भी न तो रूप-सौन्दर्य के जादू को बाँधा जा सका न ही प्रेम पर पहरा लगाया जा सका । क्योंकि यह तो सदा से ही मानव के स्वभाव से अभिन्न रूप से जुडा है ।
(4) धोबिन
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इस मधुर गीत में धोबी की रूपवती कन्या अपने जातीय गौरव व स्वाभिमान के साथ हमारे सामने आती है । वह रूपवती व रूपगर्विता ही नही वाक् पटु और चतुर भी है । कपडे धोना उसका पुश्तैनी व्यवसाय है जिसे वह स्वाभिमान के साथ निभाती है और रोज तालाब पर जो बगुलों की पंक्तियोंसे सज्जित रहता है ,कपडे धोने जाती है । एक दिन  एक बाँका 'सिपहिया' उधर से गुजरता है । उसकी नजर जब कपडे धोने जैसा कठोर कार्य करती हुई उस सुन्दर कोमलांगी षोडशी पर पडती है तो मुग्ध हुआ खडा रह जाता है और टोकने से अपने आपको रोक नही पाता ---
"धोबी वारी हौले-धीरे धोउ ,पतली कमर लचका लगै, ..तोरी गोरी बहियनि झटका लगै "
युवती को एक अजनबी का यों टोकना अजीब लगता है कहती है कि ,यह 'धोबीवारी' क्या लगा रखी है । हमारा नाम राजकुँवरि है । और यह तो हमारा काम है , तुम्हें क्या पडी है । अपनी राह जाओ---
जे तौ ढोला हमरौ है काम अरे तोहि हमारी ढोला का परी जी महाराज..। अरे गहि लेउ अपनी ही गैल कों जी महाराज..।
लेकिन युवती के प्रखर रूपजाल में उलझा सिपहिया आगे बढे तो कैसे । वह राजकुँवरि को रिझाने के लिये अपने महलों बगीचों का और तमाम वैभव का बखान करता है । लेकिन उसके लिये वही श्रेष्ठ है जो उसका अपना है । कहती है---"महलनि कौं का देखिहों ,मेरी एक झोंपडिया कौ मोल ...बागनि कौं का देखिहों , मेरी एक निबरिया कौ मोल..।"
हे राजा तुम मुझे अपना वैभव क्या दिखाते हो तुम्मेहारे महल मेरी एक झोंपडी का मोल भर हैं और तुम्हारे बाग-बगीचे मेरे एक नीम के पेड से ज्यादा मूल्यवान नही हैं । तब राजा असली बात पर आता है । कहता है --"तुम धनि रूप सरूप ,सुन्दर सूरति मेरे मन बसी ।"
चतुर राजकुँवरि मुस्कराई---अच्छा यह बात है तो क्या मेरे साथ कपडे धुलवा सकोगे ? मेरे पिता के गदहे चरा सकोगे ?
"जो तुम्हें धोबिन की है साध अरे कपडा धुवाऔ मेरे संग ही जी महाराज , अरे गदहा चराऔ मेरे बाप के जी महाराज ।"
प्रेम जो न करवाए कम है । मुग्ध सिपहिया घर बार वर्ग जाति सब कुछ भूल गया । प्रेयसी की परीक्षा में पास होने के लिये उसने अपनी घोडी को एक पेड से बाँध दिया और सब कुछ किया -
"कसि कम्मर बाँधी फेंट, घोडी तौ बाँधी करील ते जी महाराज । धोबिन ने धोई लादी
(गठरी) तीनि ,राजाजी ने धोई पूरी डेढ सौ ।"
जब राजाजी परीक्षा में खरे उतरे तब राजकुँवरि ने अपनी स्वीकारोक्ति दे दी । पिता से कह दिया---बाबुल मनचाहे वरु मोहि मिलि गए जी महाराज...।
फिर तो 'तेल माँगर' हुआ 'हल्दी मेहदी और काजल' लगा और सातों फेरे होगए । राजकुँवरि ससुराल पहुँच गई । सास रूपवती बहू देख प्रसन्न तो हुई पर यह जानना भी तो जरूरी था कि उसका वंश बढाने वाली आखिर  है किस जाति ,वंश की । सो सास ने कुल गोत्र पूछा ---"काहा गोत ,कहा नाम है अरे बहूअरि कौन की धीय बताइयो जी महाराज ..।" राजकुँवर गर्व के साथ उत्तर देती है ---",सासूजी हम धोबी वारी धीय राजकुँवरि म्हारौ नाम है ..।"
सुन कर सास ने माथा पीटा---"भए बेटा पूत--कपूत अरे गोरी के कारण धोबी है गए ..।"
तब आत्मसम्मान सहित वह सासुजी को दिलासा देती है---"मति सासुलि पछताउ, एक के देऊँगी सासु चौगुने जी महाराज ..।"
 दुखी ना हो सासजी , मैं ऐसे ही नही आगई हूँ । सतभाँवरी हूँ । आपके एक बेटे के बदले मैं आपको चार बेटे दूँगी । ब्याहता बहू की शान ही अलग होती है । और तुम हो कि मेरी जाति देख रही हो "
"ब्याही धन ऐसी सरूप जैसे 'बन्देजी पौंमचा',ओढत फीकौ लागियो और धोवत-धोवत नित नई ।"
मैं ब्याहता हूँ 'बन्देजी पौंमचा' की तरह जो भले ही चटक रंग का न हो पर सालों साल धोते-पहनते नया बना रहता है । (बन्देजी पौंमचा देशज शब्द हैं जिनका प्रचलित अर्थ नही मालूम शायद कपडे की एक किस्म का नाम हैं )
अब ऐसी रूपवान और चतुर बहू पाकर कौनसी सास प्रसन्न न होगी ।
(5)
कलारिन
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एक समय था जब समाज में जाति और वर्ग का भेद काफी गहरा था । उच्चवर्ग निम्न माने जाने वाले लोगों से एक निश्चित दूरी बनाए रखता था । लेकिन उसकी सुन्दर स्त्रियों पर अपनी नजर डालने व सम्बन्ध बनाने में जरा भी नही हिचकता था । प्रेमचन्द जी ने इसे बखूबी चित्रित किया है । इस गीत में भी ऐसा ही कुछ है लेकिन चतुर रूपवती कलारिन ऐसे लोलुप प्रेमियों का उपचार करना जानती है । यह सब इस गीत में देखने लायक है ।
एक रूपरसिक ढोला पानी पीने के बहाने सुन्दर कलारिन से मिलने जाता है । कहता है-- हे सुन्दर कलारिन अपना दरवाजा खोल दे हमें प्यास लगी है पानी पिलादे । (कलरिया री फरसौ ( काँटों व टहनियों से बना कपाट) दै खोल ,प्यासे मरत ढोला दूरि के जी महाराज ..।)
कलारिन ऐसे रसिक मनचलों को खूब जानती है कहती है---ना मेरे घर लोटा है न डोर और मेरे पति भी नही हैं ।
"ना मेरें लोटा ना डोर ,अरे घर ही जु नईं हैं मेरे साहिबा जी महाराज..।"
इसके अलावा हे ढोला मेरी छाती में विष की गाँठ है । मेरे हाथ का पानी पीओगे तो मर ही जाओगे।
"मेरे आँचर विस की है गाँठ ,जोई पियैगौ मरि जाइगौ जी महाराज ..।"
"जौ तेरे विस की है गाँठ कैसें जिये तेरौ साहिबा जी महाराज..।"
{अच्छा ऐसी बात है तो तेरा पति कैसे जिन्दा है ?}
"यह तुम क्या जानो ?" चतुर कलारिन कहती है--"मेरे साहिब तो जहर मारने व साँपों को वश में करने की कला जानते हैं ।"
ढोला हार नही मानता कहता है----"कुछ भी हो , हे रूपसी तू तो फूल जैसी है । तुझे मैं पगडी में लगाना चाहता हूँ । ये तेरे लम्बे-लम्बे केस हैं इन्हें मैं ओढना-बिछाना चाहता हूँ ।"
(ऐसी बनी है जैसे फूल ए कलार की, तोहि पगडी में धरि लै चलौं जी महाराज ।
गोरी तेरे लम्बे--लम्बे केस आधे बिछावौं आधे ओढियों जी महाराज ।)
उत्तर मिलता है---ये केस तो मेरी माँ ने पाले पोसे हैं इन पर तुम्हारा कोई हक नही । गद्दा बिछालो और दुपटा ओढलो ।( जे तौ मैया के पोसे केस गद्दा बिछावौ दुपटा ओढियो जी महाराज..।
ढोला फिर कहता है---"गोरी तेरे बडे--बडे नैन , नैन मिलाई तोसे हों करूँ जी महाराज."..
उत्तर मिलता है ---"ये नैन तुम्हारे वश में हो ही नही सकते । ये तो अलबेले (पति) के वश में पडे हैं।"
ढोला बात बदल कर कहता है----"अरे ये तुम्हारे घर में अँधेरा क्यों है ।"
कलारिन---मेरे पास न रुई है न तेल और मेरे साहिब भी घर नही हैं । (शायद अँधेरे की बात सुन कर यह मनचला लौट जाए ) लेकिन उसका लौटना इतना सहज नही है कहता है---अच्छा तेल नही है । बाती भी नही है । तो कोई बात नही मैं शहर में तेली बसा दूँगा । कडेरे बसा दूँगा चिन्ता किस बात की । ( एक समय गाँवों में तेली व कडेरे ही तेल व रुई उपलब्ध कराते थे )
( "तेली बसाऊँ जा ही सहर में ...अरे झमकि उजेरौ गोरी दीवला जी महाराज" )
अब तो हद ही होगई । धृष्टता की भी सीमा होती है । यह ढीठ तो टलता ही नही । कलारिन आखिर झुँझलाकर कह ही देती है ---"जा रे ढोला निपट अजान ,तोहि हमारी का परी । घर ही जु नई है म्हारे साहिबा ..तोहि हमारी का परी ।"
अरे निपट अज्ञान, तुझे करना क्या है । जा अपना रास्ता देख । तेरी समझ में नही आता कि मेरे साहिब (पति) घर नहीं हैं । तेरी इन बातों का आखिर मतलब क्या है ।
इतनी निस्संगता पाकर 'ढोला' निराश होकर चला जाता है । उसके पास उस निष्ठुर रूपसी को कोसने के अलावा और कोई चारा नही है----अरी पाषाणी तुझे काला नाग डस जाए , भादों की बिजली तुझ पर टूट पडे । और न जाने क्या--क्या....। ("अरे डसियो तोहि कारौ ही नाग...। तडपि मरियो भादों बीजुरी । आस निरासौ तेनें मैं कियौ ।" )
(6)
मनिहार
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ससुराल में बहू की ननद से बडी सहेली और ननद से बडी बैरिन और कोई नही । ननद सहेली बन जाए तो सब कुछ आसान और दुश्मनी पर उतर आए तो बस तनाव ही तनाव ।
यहाँ ननद--भावज सहेलियाँ हैं । छज्जे पर बैठीं मन बहलाव कर रहीं हैं कि गली में मनिहार (चूडीवाला) की टेर सुनाई देती है । भाभी ननद से मनुहार करती है---
"जाऊ ननद बाई मनिरा बुलाइ लाऊ ,ए जी हरे कलर कौ ,लाल-गुलाबी कलर कौ चूडौ पैरियो जी राज..।"
मनिहार आता है और रंग-बिरंगी चूडियों का वैभव आँगन में फैला देता है । भाभी मुग्ध हुई कई चूडे पसन्द करती है लेकिन एक उसे बहुत ही भाता है । पूछती है --अरे मनिहार भैया ,इस चूडे का मोल क्या लोगे ।
"कै लाख ए मनिरा बीरन चूडे कौ मोल ऐ , अरे मनिरा,  कै लाख कहिये जाके दाम हैं जी राज..।"
मनिहार कहता है --
"नौ लाख ए गोरी चुरिला कौ मोल ,ए नैक दस लाख ए री जाकौ मोल है जी राज..।"
लेकिन इतना मँहगा चूडा कैसे खरीदे । प्रियतम तो परदेस हैं । इतना मोल कौन चुकाएगा ..।
मनिहार उस भोलीभाली कोमलांगी के असमंजस को समझ जाता है । बडी उदारता से कहता है--
"तेरी बँहियन कौ गोरी मोल न लेंगे , अरे नैक हँसि-हँसि कैं पहरौ जा रंग चूरिला जी राज...।"
गोरी मनपसन्द चूडा पहन कर फूली न समाई । उसकी गोरी--गोरी लमछारी बाँहों में चूडे की शोभा और बढ गई । पर जैसे ही घर चलने लगी पर मनिहार उसके अपूर्व  सौन्दर्य पर रीझ उठता है । चूडे की कीमत के बदले कम से कम दो पल नयनों को रूप का अमृत तो पीने दे । मनिहार  उससे रुकने की मनुहार करता है । वह कुलवती वधू मनिहार को अपनी सास ,जेठानी ,देवरानी ,ननद सबका वास्ता देती है । मनिहार उसे बहलाता है---हे रूपसी ,तेरी सास को चरखा भेंट कर दूँगा । जेठानी को दुधारी भैंस दूँगा । देवरानी को हार गढवा दूँगा और ननद को ससुराल भिजवा दूँगा ।तू कुछ देर तो ठहरजा ।
" सासू कौं हे गोरी चरखा मुल्याइ दऊँ ,जिठनी कौं हे गोरी भैंस मुल्याइ दऊँ ।"
लेकिन उस कुलीना को बहलाना आसान नही है । वह अपने पति का वास्ता देकर विनम्रता पूर्वक मनिहार को टाल कर घर चली जाती है । लेकिन घर पर ननद की लगाई आग उसकी प्रतीक्षा कर रही होती है । सास, जेठानी सब सन्देह करती हैं कि आखिर इतना मँहगा चूडा मनिहार ने मुफ्त में कैसे पहना दिया----
"कैसे जा चूडे कौ मोल मुल्यानौ ,ए बहू का हर मोल चुकाइयौ जी राज...।"
बहू के सामने यह बडा धर्मसंकट था । सही तो है पराए आदमी ने कैसे इतना मँहगा चूडा बिना मोल लिये पहना दिया । बहू ने चतुराई से काम लिया । बोली --मनिहार तो मेरा मुँहबोला भाई है ।
"मनिरा कौ लरिका म्हारौ बीरन जो कहिये ,ए सासू चुरिला कौ मोल कैसे माँगियो जी राज..।"
अब भाई बहिन को चाहे तो लाख का चूडा पहनाए या दस लाख का । इसमें किसी को भला क्या ऐतराज हो सकता है ।

 जारी.........

रविवार, 22 जुलाई 2012

सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान---1


आख्यानक गीत अर्थात् कथाबद्ध गीत । यह प्रबन्ध काव्य का ही एक स्वरूप है । हिन्दी साहित्य में झाँसी की रानी , सरोजस्मृति ,राम की शक्ति-पूजा आदि रचनाएं आख्यानक गीत की श्रेणी में आती हैं । लोक साहित्य में आख्यानक गीतों की समृद्ध परम्परा है । हरदौल, नरसी, आल्हा-ऊदल रूप-वसन्त ,राजा हरिश्चन्द्र व मोरध्वज आदि के जीवन के मार्मिक प्रसंग आज भी गीतों के रूप में बडी करुणा व श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं ।
सावन के गीतों में भी कुछ छोटे-छोटे आख्यान सुनने मिलते हैं ,इनमें
अधिकांश आख्यान प्रेम के ही हैं । प्रेम जो शाश्वत है । सत्य है । झरने की तरह निर्बन्ध और स्वच्छन्द । भेदभाव व ऊँच-नीच से परे । फिर सावन का लरजता बरसता महीना तो है ही ऐसा कि मन की धरती में लालसाओं के अंकुर फूट पडते हैं । प्रतीक्षा के बादल उमड़ते हैं ,स्मृतियों की बिजली कौंध उठती है । उधर लहरका मारती पछैंया ,रिमझिम फुहारें ,झूले और मल्हारें ,हरियाते बाग-वन ,मोर--पपीहे की पुकार, सिल-बट्टे पर पीस कर रचाई मेंहदी की महक कलेजे में हूक उठाती है और इधर ललनाएं ऊँची अटारी पर चढी या तो परदेसी प्रीतम की बाट देखतीं हैं  ( जीविका के लिये महीनों सालों के लिये गए  ) या अपने 'माँ-जाये' की ।  
यहाँ सावन में गाए जाने वाले कुछ आख्यान हैं जो मैंने अपनी दादी व माँ से सुने थे । नही मालूम कि इन्हें किसने कब रचा और किसने संगीतबद्ध किया और यह भी नही पता कि क्यों राखी के इस महीने में गाई जाने वालीं मल्हारें भाई-बहिन के गीतों से कहीं अधिक प्रेम , वह भी अधिकांशतः परकीया प्रेम से रँगी-पगी हैं ?
 जैसा कि पुराण हों या इतिहास हो या फिर समाज---जाने क्यों हर कहीं वर्जनाओं की भूमि में उगे ,पल्लवित हुए तथा फूले--फले प्रेम को ही गीतों में गाया गया है । विद्यापति और सूरदास जैसे महान कवियों ने राधा-कृष्ण के प्रेम को ( कृष्ण-रुक्मिणी क्यों नही ) अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाया है . हालाँकि वह हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है इसमें कोई सन्देह नहीं पर वह परकीया प्रेम ही है . खैर... 
जो भी हो माधुर्य से रचे-बसे इन गीतों में प्रेम की व्यापकता है ,पीडा है , बन्धनों की कसक और लोक-मर्यादा की गरिमा है, हास-विलास है और शाश्वत सौन्दर्य--बोध है . मार्मिक तो है ही । 
ये गीत दबे छुपे प्रेम की अभिव्यक्ति के साथ उस कालखण्ड के परिचायक भी हैं जब लोग रोजगार--व्यापार के सिलसिले में वर्षों तक घरबार छोड़ परदेस में पडे रहते थे । उनकी रूपसी पत्नियाँ किसी तरह सास--ननदों के ताने उलाहने सुनतीं सहतीं,  विरह को अपना व्रत बना लेतीं थी । रपटीली राहों में खुद को सम्हालने में लहूलुहान भी होती थी तो कभी गिर भी जातीं थीं । 
इन गीतों में जहाँ प्रेम का उत्सव है वहीं भारतीय नारी का मान-सम्मान और विस्तार भी है । साथ ही मर्यादा के लिये उत्सर्ग भी है । आख्यानों का दुखान्त इसी तथ्य की पुष्टि करता है । 
विशेष बात यह है कि सभी गीत मधुर रागों में रचे-पगे हैं ।
(1)
उड़िनी
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यह गीत सुनने में जितना मधुर है उतना ही करुण भी है । उड़िनी एक अत्यन्त सौन्दर्यवती नवोढ़ा है । तालाब की पार पर कहार उसकी डोली ले जा रहे हैं । वह रूपगर्विता जब डोली के परदा से बाहर झाँकती है तब उस पर अनायास ही एक बाँके नौजवान की नजर पड़ जाती है . वह रूपसी के सौन्दर्य पर मुग्ध होजाता है । पर उड़िनी उसे नजर अन्दाज कर देती है । अपने प्रति उड़िनी की लापरवाही उस नौजवान को अखरती है । वह मुग्ध हुआ कहता है -- "अरे गोरी नैकु चितहु मेरी ओर ..।" 
उड़िनी समझाती है कि ओ बावले ढोला मेरे साथ ससुर की फौज है ,जेठ का दरबार है ,चुलबुले देवर जी का पहरा है । तू पागल न बन अपनी राह चला जा । ढोला किसी भी तरह नही जाना चाहता । उड़िनी उसकी आतुरता देख उसे टालने के लिये कह देती है--
ठीक है ,--"जो तू बोल कौ साधिलौ , ढोला आइयो हमारे देस..।"
बस ढोला नए कपडे पहन पाँचौ हथियार बाँध कर नीले घोडे पर सवार हो अपनी प्रेयसी के देश चलने तैयार होता है । माँ-बहन और पत्नी आशंकित होकर उसे रोकतीं हैं---
"मैया नै पकरी बाँह री औरु बहना ने घोड़िला लगाम .धनि नै दुराई पनहीं औ दुराए पाँचौ हथ्यार...।" 
ढोला निवेदन करता है कि माँ मेरी बाँह छोडदे . हे बहन मुझे घोड़े की लगाम दे दे . मुझे हर हाल में उड़िनी के देश जाना ही है। इसी तरह पत्नी से भी पनही(जूते) व हथियार माँग लेता है । 
लेकिन चलते समय असगुन होते हैं---"छींकत पैरीं (पहनी) ढोला पनही और बरजत भए असवार ।" 
इस तरह लाख रोकने पर भी ढोला सारी बाधाओं को पार कर ,प्रिया उड़़िनी के देस पहुँचता है----"इक वन नापे ,दूजे वन नापे  तीजे वन धनि के देस..।"
परदेसी पति के विरह में दग्ध उड़िनी , ऐसे साहसी प्रेमी ढोला की अवमानना नही कर पाती । उसके लिये सुस्वादु व्यंजन (जो किसी अति प्रिय के लिये ही पकाए जाते थे )बनवाती है --
"चामर राँधे हैं ऊजरे ,ढोला हरिय मुगल धोआ दारि । 
आलम-सालम साग रे ढोला बैगन छौंकों बघार । 
लामन-लाडू सुख पुरी जलेबीनि संख समाय । ...
पापर सेकों जिगजिगे ढोला खोआ-खीर पकाय ।"
खाना तैयार कर उड़िनी ने ढोला को चन्दन की चौकी पर बिठाया और अपने अंचल से हवा करने लगी --"चन्दन चौक बिठाइकें ढोला,अँचरा से ढोरति ब्यारि ।"
और तभी गजब हुआ कि उड़िनी का पति परदेस से लौट आया । उड़िनी को खुद से ज्यादा ढोला की चिन्ता होती है । आखिर वह उसी के कारण तो संकट में फँसा था । कहती है कि मैंने तुझसे पहले ही मना किया था । अब जैसे भी हो अपने प्राण बचा कर भागले । ढोला कहता है कि अरी रूपसी कोई तो बहाना बता कि मैं यहीं रह जाऊँ । तेरे घर में चौपाए भी नही कि उन्हें चराने के लिये रुकूँ या कि छोटा बच्चा होता तो उसे ही खिलाने का काम कर लेता -- 
"नहि तौरैं ढोर चौपाइये ,ताहि चराइ रहि जाउँ ,
नहि कोऊ बारौ बेदरौ गोरी ताहि खिलाइ रहि जाउँ."
 उड़िनी फिर निवेदन करती है कि हे ढोला तू जैसे भी हो अपने प्राण बचा पर तभी उसका पति आजाता है । उसके शयनकक्ष में भला दूसरा पुरुष .!! मारे क्रोध के आव देखा न ताव ,तलवार चला ही दी---
"एक दई दूजी दई और तीजी पे हने हैं पिरान ..।" 
उडिनी अपने निर्दोष प्रेमी का ऐसा अन्त देख बिलख उठती है-" अरे निर्दयी प्रीतम उसे मारना तो जरूरी नही था । क्या प्रेम करना इतना बडा अपराध है कि उसकी सजा मौत ही हो ?"
"मेरे री राजा बुरौ कियौ ,परदेसी के लए हैं पिरान..।"
व्यथित उड़िनी को ढोला के घरवालों का ख्याल आता है .इसलिये 'सरग उडन्ती' चील को ढोला की अँगूठी देकर उसके घर सन्देश भेजती है । सन्देश पाकर  ढोला की पत्नी बिलख उठती है ---"देखि मूँदरा रोइयौ ढोला ठाड़े से खाति पछार ,मेरी तू सौति उड़िनिया मेरे ढोला के लए हैं पिरान...।"
लेकिन इसमें उडिनी का क्या दोष . परवाने की तरह ढोला खुद ही जलने चला आया तो उड़िनी बेचारी क्या करती !

(2)  मथुरावली
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यह गीत भी मधुर और सुरीला है . 
मथुरावली एक कुलवन्ती वधू है । आज्ञाकारिणी और सास-ससुर की सेवा करने वाली है । एक दिन उमस भरी दोपहरी में सास बिजना (पंखा) माँगती है । बहू बिजना ढूँढती है लेकिन बैरी बिजना कहीं नही मिलता--"मढ़हा ढूँढौ तिवारौ ढूँढौ ढूढी है राम रसोई ,...बैरी बिजना ना मिल्यौ..।"
तब सासूजी की आज्ञा के पालन के लिये मथुरावली खाती (पंखा बुनने वाला) से पंखा बुनवाने जाती है ---
"सासूजी कौ हुकम-अदूल बिजना गुहावन खाती घर चली ।"
खाती  पंखा बुनता है . इतने में तो बाजार पर तुर्क हमला कर देते हैं . वहीँ उनकी नजर सुन्दरी मथुरावली पर पड़ती है तो उसे बन्दिनी बना लेते हैं "जो नौं र खाती बिजना बुनि रह्यौ ,मुगलनि घेर् यौ है द्वार, बन्दी भई मथुरावली ।"
सरग उडन्ती चील री मेरे ससुरा से कहियो जाइ ,अपनी बहुअरि कौं लेउ छुडाइ बन्दी भई....।"
मथुरावली चील के माध्यम से ससुर जेठ देवर और अपने भँवर जी को सन्देश भेजती है । सन्देश पाकर ससुर हाथियों की ,जेठ ऊँटों की ,देवर घोडों की फौज तथा साहिब अशर्फियों की गठरी लेकर मुगल सरदार को भेंट करने तथा मथुरावली को छुडाने आते हैं --
"ससुर छुडावन कौं चले लै हथियन बगडोरि ...
जेठ छुडावन कौं चले लै करहनि बगडोर ...।"
पर मुगल सरदार उनकी एक नही सुनता । कहता है---मुझे न हाथी चाहिये न घोडा । न ऊँट और न ही असर्फियाँ । मैं तो मथुरावली को बीबी बनाऊँगा ---
"जाके हैं लम्बे--लम्बे केस ..जाके हैं बडे-बडे नैन बीबी बनाऊँ मथुरावली ।"
मुगल का ऐसा कठोर फैसला सुन मथुरावली को यकीन हो जाता है कि इस तुरक से जीतना असंभव है । उसके पास बड़ी सेना है ,हथियार हैं । ताकत है । इनसे लड़ाई करना अपने आपको मिटाना ही होगा । यह सोच कर वह समझाती है---
"जाउ ससुर घर आपने लै हथियन बगडोर, बीबी ना बनूँगी मियां तुरक की..राखूँ त्यारी पगडी की लाज बीबी ना बनूँगी ,मियां तुरक की ...। दै कें फांस मरौंगी ...,..।"
मथुरावली सबको समझा कर घर लौटा देती है । और सरदार के पास आकर कहती है कि --बीबी तो बनाओगे ही । अपने हाथ का पानी तो पिलादो । 
सरदार पानी लेने चला जाता है तब तक मथुरावली तम्बू में आग लगा लेती है --
"पानी पिलाइदेउ मुगला हाथ कौ जो मोहि बीबी बनाउ ..। 
जौनों र मुगला पानी लाइयौ तम्बुलनि दै लई आगि 
ठाडी जली मथुरावली ।
 हाड जरैं जैसे लाकडी ,केस जरैं जैसे लांक ठाडी जली मथुरावली ..ए जी बीबी ना बनी .मियां तुरक की ..।"
इस तरह मथुरावली अपनी इज्जत बचाने जलकर भस्म होजाती है . मुझे याद है ,गाँव में गाते गाते महिलाओं का गला अवरुद्ध हो जाता था .

(3) कान्हा
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कान्हा भी एक दुखान्त प्रेम का कर्णप्रिय आख्यान है । कान्हा एक घुमक्कड नौजवान है । एक दिन यों ही चलते-फिरते उसकी नजर एक केशराशि को सुखाती हुई कृशकाय सुन्दरी पर पडती है जो उसे सजल आँखों से देख रही है । कान्हा का हृदय पिघल जाता है वह उसकी उदासी का कारण पूछता है--
"कै तेरी सास दुसामती (सौतेली) री कै तेरौ पीहर दूर ..।" 
हे रूपसी, तू इतनी उदास और मलिन वेशिनी किस कारण से है क्या तेरी सास सौतेली है या तेरा मायका दूर है । ( भरे सावन में उदासी का और क्या कारण हो सकता है )
वह रूपसी कहती है कि , हाँ मेरी सास दुसामती है और मेरा पीहर भी दूर है लेकिन हे परदेसी  ! मेरी उदासी का कारण तो तेरी सूरत है जो मेरे साहिब से मिलती है जो परदेस में हैं और मुझे भूल भी गया है । कान्हा ऐसी रूपसी विरहिन को देख द्रवित हो उठता है और उसे अपने साथ ले जाने और उसे अपनाने के लिये ललचा उठता है ।
 "संग चलै तौ तोहि लै चलौं गोरी लै चलौं अपने देस .. हरवा गढाऊँ नाक बेसरि पैराऊँ और रनिया बनाइ कैं राखियों....।"
जीवन की तमाम खुशियों से वंचिता और उपेक्षिता वह भोली रूपधन कान्हा के साथ चलने तैयार हो जाती है । ससुराल में रहे भी तो किसके भरोसे । जिसे भरे सावन में अपनी प्रिया की सुधि नही आई उसकी बाट जोहना बेकार है । लेकिन कान्हा के देश जाकर उसे मालूम होता है कि अपना सब कुछ छोड कर जिसके साथ वह आई है वह पहले से विवाहित है ।
"धरि डोली में लै चल्यौ कान्हा लै चल्यौ अपने ही देस..।
जाइ उतारी महल में  कान्हा ब्याही र पूछै बात ।
कै लाए बहन भानैजिया ,पिया कै तुम लाए ल्हौरी सौत..।"
कान्हा की ब्याहता पत्नी पूछती है कि आखिर यह कौन स्त्री है जिसे तुम डोली में लाए हो । क्या यह तुम्हारी बहन है या भानजी या फिर मेरी सौत ले आए हो । दूसरी स्त्री के मोह में ब्याहता को नाराज थोडे ही करता । उसे मनाते हुए कहता है  कि न तो यह मेरी बहन है ना ही भानजी ना ही तुम्हारी सौत । यह तो दूसरी है( रखैल ,एक तरह से सेविका जिसका कोई कहीं अधिकार नही होता ) जो तेरे पाँव दबाएगी ,तेरा पीसना पीसेगी ,तेरी रोटियाँ सेकेगी, तेरा गोबर डालेगी और तेरे बच्चों को खिलाएगी ।
"ना लाए बहन भानैजिया गोरी ना लाए ल्हौरी सौत
तुम पर लाए हम दूसरी ,दिन भर हुकम बजाए ..।
रात पीसैगी तेरौ पीसनौ ,गोरी दो सौ रोटीनि की जेट ( ढेर)
रात दबाऐ तेरे पैरुआ गोरी दिन में खिलाऐ तेरौ लाल...।"
यह सुन कर कान्हा के साथ आई वह रूपसी हतप्रभ रह जाती है । इतना बडा धोखा । लेकिन वह अपना स्वाभिमान गिरा कर ,दूसरी बन कर हरगिज नही रह सकती । तभी तो साफ कह देती है ---
"जारौं रे बारों तेरौ पीसनों ,कान्हा आग लगाऊँ रोटी जेट ।"
"ज्हाँ ते र लायौ वहीं लै चलौ कान्हा लै चलौ म्हारे ही देस ..।"
तैनें तौ कान्हा मोसे छल कर् यौ ...।" 
अरे ,निर्मोही छली , तेरे पीसने में, रोटियों में आग लगा दूँगी । तेरा बच्चा मेरी बला खिलाएगी । भला यही होगा कि जहाँ से लाया है मुझे वही पहुँचादे ।
लेकिन कान्हा निर्ममता से कह देता है कि तुम्हें यों रहना पसन्द नही है तो जाओ----"पिछवारैं बनिया बसै गोरी धरि बेसरि बिसु खाउ ।"
"अपनी बेसरि को गिरवी रख कर जहर खरीद कर खाले और क्या । अब मैं लौटाने कहाँ जाऊँगा ।"
उस स्वाभिमानिनी को बात लग गई और सचमुच वह ---
'घोरि कटोरा बिस पीगई कान्हा सोगई दुपटा तान । "
आखिर उसने प्राण तज दिये । कान्हा की ब्याहता को दुख होता है वह करुणा से भर जाती है । कहती है--कान्हा यह बहुत बुरा हुआ । यह किसी की बेटी थी किसी की बहू । माँ सोचेगी कि बेटी ससुराल में है और सास समझेगी कि बहू मायके में है । पर यह हतभागी न इधर की हुई न उधर की बीच में ही प्राण गँवा बैठी ।
"जे तौ कान्हा बुरी भई ,परदेसिन ने तजे हैं पिरान
माइ कहै धिय सासुरैं, और सासु कहै पौसार
अपनी करी ना काऊ और की कान्हा अध बिच तजे हैं पिरान ..।"

इन गीतों में हमें कहीं न कहीं तत्कालीन पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों की तस्वीर दिखाई देती है .  

जारी.........

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

बारिश --- कुछ क्षणिकाएं



(1)
आग..आग..आग..
हर कोई चिल्लाया
घबराया दहलाया
मौसम विभाग
उठा है लो जाग
भेज दीं हैं दमकलें
छोड रहीं बौछारें
रिमझिम फुहारें ।
(2)
आसमान के धरती को
स्नेहमय पत्र
बाँट रहा पौस्टमैन
यत्र-तत्र-सर्वत्र ।
(3)
वर्षा की पहली फुहार
फाके और इन्तजार
तब रमुआ को मिली
जैसे पहली पगार ।
(4)
पौधा ,जो कल तक था
रूठा सा मुरझाया
कैसा है खिल रहा
बूँदों ने कानों में
क्या कुछ कहा ।
(5)
कभी-कभी दिख रहे
डायरी में लिख रहे
ये कैसी कहानी
प्यासों की भीड है
दो चुल्लू पानी ।
(6)
लगते हैं ऐसे ये छींटे
बौछार के
बोले किसी ने हैं
दो बोल प्यार के ।
(7)
पहली बारिश की बूँदें
पत्तों पर पडीँ ऐसे
हथेली पर प्रसाद की रेवडियाँ
रखती है अम्मा जैसे ।

सोमवार, 9 जुलाई 2012

एक शाम का लेखा-जोखा


आज का दिन भी चला गया
उम्मीदों की सारी धूप समेट कर
बिखर गई थी जो
रोज की तरह
सुबह-सुबह सूरज के साथ ही
हर पल अनछुआ सा ही गुजर गया
 करीब से,
बिना कुछ पूछे-बताए ही ।
नही किया कोई काम
सार्थक ...
प्रतीक्षाएं हुईं धूमिल, निरर्थक..।
नहीं आया कोई सन्देश
किसी अपने का
नही हुआ संवाद कोई मन का
बीत रहे हैं दिन-रात
आज की शाम की तरह ..।
यूँ हीं अनवरत
हर हसरत
पीछे छूट जाती है
ट्रेन से छूटते जाते हैं
जैसे पेड और पहाड
जिन्दगी आखिर होती ही कितनी है !