(1)
गन्दगी
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ए......ए,ए मौडा ,यहाँ नही । आगे ले जा ।
एक चौदह-पन्द्रह साल का लडका किसी चेम्बर का मलबा कनस्तरों में भर कर नाली में बहाने के लिये ले जा रहा था कि खिडकी में बैठी औरत चिल्लाई । उसकी आवाज सुन कर एक दो लोग और आगए । उनमें मोहल्लावासी होने का दायित्त्व जागा । इस एक एक करके उसे टोकने लगे ।
क्यों रे सुना नही , कहाँ से ला रहा है भर--भर कर । इधर क्या आदमी नही रहते जो गन्दगी को इधर बहाने ले आया ।
भाई साब मैं तो आगे ही .....। लडका अपनी सफाई में कुछ कहता तभी दूसरा आदमी आगया ।
ओय , इधर क्या जानवर रहते हैं ..हें..। गरीबों का मोहल्ला है तो हर कोई फालतू ही समझ लेता है । होंगे,, भी.आई.पी. तो अपने घर के होंगे।
अरे यार ये लोग भी तो ऐसे ही होते हैं । पूरे जूताखोर । रौब के मारे चलते हैं और हम जैसों को आँखें दिखाते हैं। कोई उठवा तो ले इनसे एक पत्ता भी ...।
इतने सारे लोगों के तीखे तेवर देख कर लडका सहम गया । उनकी बातों से कुछ आहत भी हुआ । तिलमिला कर बोला ---आप बेकार ही क्यों चिल्ला रहे हैं । मैने गन्दगी को यहाँ बहा तो नही दिया ।
अच्छा ...---एक आदमी दबंग की तरह बाँहें चढाता हुआ बोला---यहाँ कनस्तरों को खाली कर देता तब कहते तुझसे । हें ।
अगर नही टोकते तो साफ बहा ही दिया होता कि नही ...। दूसरा आदमी आगया ।
हेकडी तो देखो लौंडे की---बहा तो नही दिया ---अभी दो हाथ पड गए तो सारी अकड भूल जाएगा ।
ऐसे कैसे पड जाएंगे हाथ । गन्दगी को क्या हम अपने घर ले जाएं...। लडके का आत्मसम्मान जागा ।
तो फिर आ ...आज तेरी हेकडी को मैं निकालूँ ।--एक और आदमी मूँछों पर हाथ फेरता हुआ बढा ही था कि लडका दोनों कनस्तरों को वही पटक कर भाग लिया ।
वहाँ इकट्ठे हुए लोगों ने एक विजयी ठहाका लगाया ।
ससुरा ... भाग गया । नही तो उसे बताते कि इस मोहल्ले में कोई ऐरे--गैरे लोग नही रहते । अब कभी हिम्मत नही करेगा भूल कर भी..।
अरे , वो तो मेरी नजर पड गई वरना वो तो यही बहाने वाला था ।---वह औरत ,जो सबसे पहले चिल्लाई थी , बोली ।
और नही तो क्या बहन जी ..आपने अच्छा किया ।हम लोग एक मोहल्ले में रहते हैं तो हम सब की जिम्मेदारी बनती है कि सफाई का ध्यान रखें ।
सभी बडे सौहार्द्र के साथ अपनी सूझबूझ और जिम्मेदारी का बखान कर रहे थे । तभी गन्दी बदबू ने उन्हें अहसास कराया कि न केवल कनस्तर वही लुढके पडे हैं बल्कि उनसे गन्दगी भी बह कर फैल रही है ।
अरे,....कमबख्त यही पटक गया ..। कहते हुए सबने अपनी-अपनी नाक पर रूमाल रख लिया ।
इससे तो अच्छा था कि वह नाली में ही बहा जाता । ---एक ने बगल में थूकते हुए कहा ।
अब क्या होगा भाई----दूसरा वहाँ से काफी दूर जाकर बोला ।
होगा क्या , जमादार को खबर कर देते हैं । यह कह एक--एक कर सभी अपने घरों में बन्द हो गए ।
कनस्तरों से निकल कर बदबू छोडती हुई गन्दगी लगातार गली में बह रही थी ।
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(2)
स्वराज
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वीरू भाई, नल में टोंटी लगवा लो । पानी बेकार ही बह रहा है । ---श्रीवास्तव जी अपने पडौसी को समझा रहे थे ।
सब जानते हैं कि कुछ ही दिन पहले इस मोहल्ले के लोग किस तरह बाल्टी भर पानी के लिये सडक, चौराहे तक भटकते थे । कटोरी भर पानी भी फालतू नही फेंकते थे ।
आखिर एक दिन तंग आकर लोग इकट्ठे होकर महापौर के दफ्तर पहुँच गए । जमकर नारे बाजी की और विरोधी पार्टी के एक कार्यकर्ता ने दमदार भाषण भी दिया---
अँग्रेजी शासन में जब जनता पिसी तो हमारे वीरों ने कुर्बानियाँ देकर उन्हें भगाया और स्वराज स्थापित किया पर पर आजादी के बासठ साल बाद भी हमारी सरकार हमें पानी तक उपलब्ध नही करा सकी है । एक-एक बूँद पानी के लिये लोग पूरे दिन संघर्ष करते हैं। नही चाहिये ऐसे नेता ,ऐसे प्रशासक । महापौर हाय..हाय..।
महापौर को अपनी कुर्सी डोलती नजर आई सो तुरन्त इस मोहल्ले के लिये अलग बोरिंग की व्यवस्था करदी । अब पानी का कोई संकट नही है । एक-दो घण्टे जितना चाहे पानी लो ।
भले ही हमें भरपूर पानी मिल रहा है भाई ,लेकिन इसे व्यर्थ नही बहाना चाहिये पानी की एक--एक बूँद कीमती होती है ।--- श्रीवास्तव जी वीरेन्द्र को यही समझा रहे थे ।
अरे भाई साब काहे फालतू की टेंसन में दुबला रहे हो ।--वीरू ने ढिठाई से हँसते हुए कहा ----
पानी कौनसा तुम्हारे घर से जा रहा है ।
घर से तो न मेरे जारहा न तुम्हारे । लेकिन मेरे भाई जल के भण्डार की भी सीमा होती है ।
तो ठीक है न । खतम होजाएगा तो.......बस जरा सा हंगामा करने की जरूरत है सरकार फिर कोई इन्तजाम करेगी ।
श्रीवास्तव जी के पास अब वीरू को समझाने के लिये कुछ भी नही था । पानी नाली में बहे जा रहा था ।
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011
विवेक के जीवन में विहान
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZLjz5iD6Lrq2VubF3ohb-xBrDYAhXsYQwwNvLkcFWxDyEiaaeyI-xGR_csttm9gAWgR3OEsspsdc-GE7VMxYMUC9lnP-OXXYu1QsxK3N3IUUM1PnQUFXHbCFvSctz2Ku9O7WPUefmG2M/s320/Photo0172.jpg)
9 अप्रेल 2011 , सर गंगाराम अस्पताल दिल्ली ,समय --दोपहर 12 .07
निहाशा और विवेक एक पुत्र (विहान )के माता-पिता बन गए । मैं विमुग्ध थी कि नन्हा शिशु ,जो आँखें भी नही खोल पारहा था अपनी नन्ही उँगलियों को मुँह में देने की कोशिश करता हुआ आसपास कैसा नरम सा उजाला फैला रहा था । एकदम सुबह की कोमल धूप सा । प्रभाती सूरज के रूप सा । उसकी गुलाबी कोमल हथेलियों को छूते हुए मुझे अपने चारों ओर बेशुमार गुलाब खिलते हुए महसूस हुए । एक जीवन की यह अद्भुत सुबह .. ह्रदय के क्षितिज पर एक नया विहान ।
प्रियजन,
कुछ सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया आई कि कस्बा व महानगर की तुलना कुछ तिक्त होगई है । हालाँकि मुझे तो ऐसा नही लगा किन्तु अगर उन्हें ऐसा महसूस हुआ है तो उसमें सत्यता होगी ही । आंशिक ही सही । उनकी राय का सम्मान करते हुए मैं वे अंश निकाल रही हूँ ।
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
उन दिनों
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1h0DLQmMYR_IA0rqfGk-D2cgSIFYTyL0HrDa-p-XBrFrbf4bEVwaNc6aEa6q6g8uimnDqkBUUrx5nXFiE8NSaZM45_C-BIyPTAehkw8MNb4O084DLMPfRfWbXX_49ZWr2kuzuk7vmJe0/s320/Photo0114.jpg)
यह बात उन दिनों की है ,
जब हमारे आँगन में
खुशियाँ महकतीं थीं
नीम और सरसों के फूलों में ही
और ठण्डक देती थी
बबूल की छाँव भी ।
पाँव नही थकते थे
मीलों चलते हुए भी
भरी दुपहरी में ।
बिताते थे हम अँधेरी रातों को
बिना किसी शिकायत के
गीतों के दीप जलाकर
प्रतीक्षा करते हुए उजाले पाख की ।
और चाँदनी सचमुच उतर आती थी
हमारी आँखों में ,निर्बाध.....
और बुनती थी छप्पर के तिनकों में ही
रुपहले रेशमी सपने ।
ऊँची नहीं होतीं थी
माटी की दीवारें ,
झाँक सकते थे पडौस के आँगन में
पंजों के बल खडे होकर
देखने ,कि सब्जी क्या बन रही है ।
या कि किस बात पर आपस में ठन रही है ।
कहीं किसी दुराव की जरूरत नही थी ।
बिना दस्तक दिये ,बिना पूछे ही
आँगन में ,आकर बैठ जाता था
पूरा आसमान,
बेझिझक पाँव पसार ।
नदी की राह में नही थी कोई खाई या दीवार
जरा सी आहट पर झट् से खुल जाते थे द्वार
यह उन दिनों की बात है
जब हर बार कुछ नया पेश करने की सूरत नही थी
मन बहलाने किसी साधन की जरूरत नही थी
खाली नही था मन को कोई कोना
मुट्ठी में था खुशी का होना न होना ।
क्योंकि तब हमारे बीच शहर नही था ।
शहर --जो अपनी असभ्यता व पिछडेपन से उबरने
खुद हमने ही बसाया ।
अपने आसपास ।
अब ,हम सभ्य हैं
प्रगतिशील हैं
हमारे आसपास चमक-दमक है
सुविधाएं हैं और सोने--चाँदी की खनक है
एक भरा-पूरा शहर आ बसा है हमारे बीच..।
और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
एक ठहाके वाली हँसी
किसी भीड भरे बाजार में ।
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