शनिवार, 31 जुलाई 2010

बारिश की दो कविताएं

1.8.2010
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आज ,बडी प्रतीक्षा के बाद आसमान में बादल हैं ,ऐसे बादल जिनसे बारिस की उम्मीद की जा सकती है ।कुछ दिन पहले ,जब यहां सरकस लगा था,क्या मोहल्ले के बुजुर्ग और क्या स्टाफ के कथित बुद्धिजीवी लोग बडे विश्वास से दावा कर रहे थे कि जब तक सरकस रहेगा ,पानी नही बरसेगा । सरकार को वर्षाऋतु के आगमन काल में इस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये। खैर मैं इस तथ्य से अनजान हूँ ।
मेरे लिये तो वर्षा मानो गोली खाकर सोयी जिन्दगी को झिंझोडकर जगाने का काम करती है ।जरा सी नमी पाकर ही आकांक्षाएं दूर्वांकुरों सी फूट पडतीं हैं ।जाने कितनी भूमिगत व्यथा-वेदनाएं कीडे-मकोडों सी बाहर आकर रेंगने -कुलबुलाने लगतीं हैं ।कहीं कुछ छूट जाने का अहसास बेजान पडे पक्षी सा पानी के छींटों से छटपटाने लगता है ।यहाँ बारिश की दो कविताएं हैं ।पढें और अपने विचार अवश्य लिखें ।

बादल दो चित्र
(1)
आग...आग....आग..
हर कोई चिल्लाया ।
घबराया ।
मौसम विभाग
उठा है लो जाग ।
भेज दीं हैं दमकलें ।
छोड रहीं बौछारें ,
रिमझिम फुहारें ।
(2)
धरती को आसमान के,
स्नेहमय पत्र ।
बाँट रहा पोस्ट-मैन ,
यत्र-तत्र-सर्वत्र

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हम कच्ची दीवार हैं
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बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।

घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।

चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।

भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।

उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।

उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।

टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मैं---कुछ व्यंजनाएं

(१)
शाम के धुँधलके में ,
महानगर की व्यस्त सडक के किनारे,
वाहनों की तेज रफ्तार के बीच,
धुँए के गुबार से घबराया हुआ,
रोशनी के प्रहार से चकराया हुआ,
अजनबी भीड के सैलाब में धकियाया हुआ,
मैं.....
एक अकेला
पैदल यात्री
(२)
मैं ...
एक कहानी ।
अप्रासंगिक ,पुरानी ।
सुनना नहीं चाहता जिसे अब ,कोई भी।
फिर भी सुनाए जा रही है ,
बूढी--बहरी सी जिन्दगी ।
(३)
रिश्तों के दफ्तर में ,
मैं एक कर्मचारी ।
अतिरिक्त,
अनावश्यक,
अनाहूत ।
(४)
मैं...
मैला -कुचैला,
पीठ पर लादे ,
उम्मीदों का थैला ।
असहाय , उन्मन,
एक बचपन ।
कुरेदता रहता है ,कचरे का ढेर ।
तलाशने --लोहा,प्लास्टिक ।
कुछ सपने -अपने ।
(५)
मैं ...
दीपक की लौ,
जल रही है जो,
तेज रोशनी वाले बल्बों के बीच ,
व्यर्थ ही ...।
(६)
मैं ....
एक चालक,
नौसिखिया ,अनाडी ।
रिश्ते.....उफ्,
ब्रेक-फेल गाडी ।
(७)
मैं ....
गए साल का कैलेण्डर,
टँगा रह गया है जो ,भूल से ,
वक्त की दीवार पर ।
(८)
मैं ...
बेहद लापरवाही और,
गैर-जिम्मेदारी से ,
गलत पते पर डाला गया ,
एक पत्र।
पडा है अभीतक कोने में ,
अपठित, उपेक्षित ।
(९)
मैं....
एक अजनबी शहर के चौराहे पर खडा ,
गन्तव्य का नाम पता भूल गया,
एक अनपढ देहाती ।

सन्१९९८ में रचित

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

मेरे पडौसी की लडकी

मेरे पड़ौस में 
एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ।
बड़ी हो रही है वह,
वसन्त में अँखुआती टहनी की तरह ।
गुलमोहर और कचनार,
खिलतीं हैं उसकी आँखों में ।
बालों में महकते हैं ,शिरीष , मोगरा ,चम्पक ।
सतरंगी तितली सी नजरें ,
उडतीं फिरतीं है --यहां-वहाँ...
न जाने कहाँ ।
पीपल की कोंपलों से होंठ, 
काँप उठते हैं
हल्के से झकोरे की छुअन से ही...।


मेरे पड़ौस में एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ---
टी.वी. पर धारावाहिक और फिल्में देखते -देखते,
अब उसे मामूली और घटिया से लगते हैं ,
अपने कपड़े ।
छोटा और बेकार सा अपना घर ।
उसके सपने नीचे नहीं उतरते ,
गाड़ी और बँगला से ।
उसकी आँखें...
अपना खोया सिक्का तलाशते 
बेचैन बच्चे जैसी,
अक्सर आतीं जातीं रहतीं हैं 
गली के नुक्कड़ तक ।


मेरे पड़ौस में एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ,
बिना कुछ सीखे -समझे ही ।
वह पारंगत तो होगई है ,
कपड़ों का रंग ,डिजाइन चुनने में ।
कई तरह की हेअर-स्टाइल बनाने में ।
और बिन्दी, चूडी ,नेल-पॅालिश या पर्स की मैचिंग करने में ।
लेकिन ,नही आता उसे तुरपन करना या बटन टाँकना ।
नही भाता उसे गेहूँ बीनना या बर्तन माँजना ।
कतराती है वह सब्जी काटने या आटा गूँथने से ।
ताव खाती है टोकने पर कि,
कपड़े तहाने की बजाय क्यों ,छतपर खड़ी ,
ताकती रहती है ,उड़ती हुई पतंगों को ।
बड़ी होरही है वह ,
यूँ ही हवा में उड़ते ।
आसपास के खिड़की-दरवाजे ,
चिपके रहते हैं मेरे पड़ौसी के घर से ।
माता-पिता से ज्यादा ,
उन्हें चिन्ता है ...
दिलचस्पी है कि ,
बड़ी होरही है अब ,
उनके पड़ौस में वह लडकी ।
ढेर सारे सपनों के साथ...।
जैसे निकला हो कोई बैंक से
बैग में ढेर सारा रुपया लेकर
अकेला ही ,
अजनबी शहर में ।

रविवार, 4 जुलाई 2010

चाँदनी वाला मोहल्ला-----24 जून ग्वालियर
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हम जिस मोहल्ले में रहते हैं ,वह ग्वालियर की पुरानी और पिछडी बस्तियों में से एक है ।नाम है --कोटावाला मोहल्ला। कहते हैं कि सामने खण्डहर सी दिखने वाली हवेली कोटावाले राजा की थी ।मोहल्ले का यह नाम इसीलिये पडा ।इससे ज्यादा जानकारी रखने वाले लोग अब नहीं हैं ।न ही जानने की किसी को जरूरत व फुरसत है ।
-कुछ दिनों पहले मेरी एक परिचिता ने अपनी निजी जानकारियों के आधार पर इस मोहल्ले को - ,कोठावाला मोहल्ला -कहा । ।मेरे चौंकने पर उसने मुझे लगभग झिडकते हुए कहा --तुम तो न जाने किस दुनियाँ में रहती हो....।देखा नही अमुक लडकी के रंग-ढंग और तेवर कैसे बदल रहे हैं ।पाँच-पाँच सौ के सूट कहाँ से पहनरहीं है ,बालों की सेटिंग,मेकअप सेंडल..और क्या-क्या...।घर में नही दाने ,अम्मा चली भुनाने ।कहाँ से आ रहा है सब ।...अमुक की जनीं (पत्नी)को रात में कोई रोज कार से छोडने आता है ....।और..वो....धत् तुम्हें कुछ भी नही पता ।
मैं इन सब बातों पर गौर नही करती ।न ही विश्वास ।
मेरा भतीजा इसे--कुत्ता वाला मोहल्ला कहता है । जो कभी कभी सटीक लगता है ।जब यहाँ आदमियों से ज्यादा कुत्ते नजर आते हैं । काले ,भूरे,बादामी ,चितकबरे छोटे- बडे, सीधे-लडाकू --सभी तरह के बहुत सारे देशी कुत्ते (विदेशियों को ऐसी आजादी कहाँ )। दिन में खूब खिलवाड करते है।और रात में खूब मन भर रोते हैं ।भगाओ तो भाग जाते हैं पर कुछ देर के लिये, आपको यह तसल्ली देने ही कि आपकी आज्ञा का पालन होता तो है कम-से-कम ।
पर मेरे दिमाग में इस मोहल्ले का एक नया और प्यारा सा नाम उगा है ----चाँदनी वाला मोहल्ला ।
जी नही , यह चाँदनी चाँद से उतरी किरण नही है ।और ना ही कोई रूपसी युवती ।यह तो सामने शौचालय से लगी खोली में रहने वाली पारबती की डेढ-दो साल की बेटी है ,जो घर से ज्यादा गली में रहती है ।गाती, खेलती,गिरती,,रोती....।
पारबती को देख कर कोई भी कह सकता है कि भगवान जब देता है, सचमुच छप्पड फाड कर ही देता है ,समुचित रूप में खिडकी- दरवाजे से नही । पारबती के पास रहने ,खाने पहनने-ओढने की कोई समुचित व्यवस्था नही है।कमरा छोटा होने के कारण आधे से भी ज्यादा काम --कपडे ,बर्तन धोना ,नहाना ,आदि--बाहर ही होते हैं । जिन्दगी ने उसे भले ही दूसरे सुखों से वंचित रखा है ,पर मात्रत्व की निधि खुले हाथों लुटाई है ,हर दूसरे साल एक मासूम प्यारा बच्चा उसकी कोख में डाल कर। चाँदनी उसकी तीसरी या चौथी सन्तान है ।
सुबह होते ही चाँदनी अपनी कोठरी से बाहर आजाती है। दिखाने भर के लिये दूध डाली गई पतली काली कटोरी भर चाय के साथ बासी रोटी या माँ के बहुत लाड आने पर मँगाई गई पपडी खाकर घंटों तक चाँदनी गली में रमक-झमक सी घूमती रहती है ।कभी वह कुत्ते के गले में बाँहें डालना चाहती है तो कभी बैठी हुई गाय की पीठ पर सवारी करने के मनसूबे बनाती है ।यही नही ,जब उसका रास्ता रोकने की हिमाकत करता कोई सांड खडा होता है, वह उसके नीचे से निकल कर ऐसे खिलखिलाती है जैसे कोई बाजी जीत गई हो ।माँ बेपरवाह है तो क्या ,जानवर चाँदनी का पूरा खयाल रखते है ।इस मासूम परी को शब्दों में बाँधना आसान नही है ।मैंने तो बस कोशिश की है --

(1)
कुँए की मुडेर पर,
धूप के आते-आते
उतर आती है चाँदनी भी
कोठरी के क्षितिज से।
बिखर जाती है पूरी गली में ।
धूप ,जो---
उसके दूधिया दाँतों से झरती है ।
(2)
चाँदनी सुबह-सुबह,
भर जाती है मन में
नल से फूटती
जलधार की तरह
मन--- जो रातभर लगा रहता है ,
कतार में ।
खाली खडखडाते बर्तनों सा,
भरने कुछ उल्लास,ऊर्जा ।
दिन की अच्छी शुरुआत के लिये ।
(3)
भरी दोपहरी में,
चाँदनी नंगे पाँव ही
टुम्मक-टुम्मक..
चलती है बेपरवाह सी
तपती धरती पर
आखिर ,कौन है वह,
जो बिछा देता है ,
हरी घास या अपनी नरम हथेली,
उसके पाँव तले ।
(4)
दूसरे बच्चों की तरह,
उसके कपडे साफ नही हैं
बाल सुलझे सँवरे नही हैं ।
पीने-खाने को दूध-बिस्किट नही है ।
और दूसरे बच्चों की तरह ,
मचलने पर उसे
टॅाफी या खिलौने नही मिलते है।
पर दूसरे तमाम बच्चों से ज्यादा,
हँसती-खिलखिलाती और खेलती है।
वह नन्ही बच्ची---चाँदनी ।
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और अन्त में ------------
चिडियों की चहकार है चाँदनी।
ताजा अखबार है चाँदनी ।
गजक मूँगफली बेचने वाले के गले की खनक,
दूधवाले की पुकार है चाँदनी ।

पहली फुहार जैसी।
फूलों के हार जैसी ।
भर कर दुलार छूटी ,
दुद्धू की धार जैसी ।





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स्कूल ऑफ सिम्पैथी

कर्नाटक एक्स. में द्वितीय श्रेणी का वातानुकूलित,शानदार और सर्वसुविधा युक्त डिब्बा ।कोई भीड़-भाड़ या शोर -शराबा नही ।ठाठ से बैठो,लेटो ,गाने सुनो ,किताब पढ़ो या कोई भी मनपसन्द काम करो। मैं डायरी लिखते हुए सोच रही हूँ कि 'सफर से ज्यादा आरामदेह घर', वाली बात अब पीछे चली गई है ।अब तो घर से ज्यादा आराम सफर में रहता है ।कम से कम अब तो मुझे यही लगता है । 
बाजू में कोई ट्रेन खड़ी है ।मेरे सामने जनरल बोगी है।लोग थैले में ठूँसे गये कपड़ों की तरह भरे हैं । कुछ लोगों ने जैसे गर्मी को लाल झण्डी दिखाने के लिये ही अपने कपड़े उतार रखे हैं ।मक्खियाँ उड़ रही हैं ।कई जगह खिड़कियों से नीचे तक उल्टियों के निशान हैं ।नीचे दो-तीन लड़के पानी पाउच, पुड़िया, बड़ापाव और 'चना मसाला' बेच रहे हैं । सीट पर बैठे लोग तो खुशकिस्मत हैं ही पर खिड़कियों के पास भी खड़े लोग भाग्यशाली हैं कि थोड़ी बहुत हवा के साथ खाने-पीने की चीजें प्राप्त कर पा रहे हैं ।अन्दर गर्मी पसीने और बदबू के भभकों से जूझते हुए लोगों के लिये बाहर का दृश्य देखना भी दुश्वार है . चीजों के लिये खिडकियों के पास बैठे लोगों की मिन्नतें कर रहे हैं कि ,ओ भैया ,ओ लल्ला ,भैन जी जरा बड़ापाव वाले को बुला देना . ये पैसे लो भैया एक बिस्कुट का पैकेट ले लेना बच्चा भूखा है । धैर्य के अभ्यास के लिये ऐसा प्रशिक्षण कही और नही मिल सकता ।आगे उसी ट्रेन में वातानुकूलित डिब्बे हैं जिनमें मेरी तरह ही आराम बैठे लोग किसी ऐसी ही जनरल बोगी की एकदम अलग दुनियाँ को निरपेक्षता और हेयता के साथ देख रहे होंगे । एक ही दुनिया में बसे लोगों में इतना फर्क!
लेकिन मेरे मन में न हेयता का कोई भाव है  ना ही निरपेक्षता का ।आखिर कभी मैं भी ऐसी ही बोगियों की यात्री रही हूँ . वैसी ही घुटन और परेशानी को जिया है . मैं भी कभी इस भीड़ का हिस्सा रही हूँ । स्टेशन पर ट्रेन आने से लेकर ,सामान के साथ डिब्बे में पहुँच जाने की दुर्लभ जीत के बाद घंटों तक मैंने खड़े रह कर सीट खाली होने का इन्तजार किया है  .उमस और बदबू सहते हुए अखबार या रूमाल से हवा करके गर्मी को टक्कर दी है ।यह बात अलग है कि उस समय परेशानियों का अहसास न था। इसलिये वे परेशानियाँ इतनी कष्टकर व असहनीय प्रतीत नही होती थी । हमारे सुख-दुख प्रायः सापेक्ष होते हैं ।आराम और फुरसत में हम विगत व्यथाओं व कठिनाइयों को आसानी व विस्तार से याद कर सकते हैं । और आश्चर्य भी कि आखिर वह सब हमने कैसे सहा और जिया .
जनरल बोगी की यात्रा अब  भले ही मेरे लिये दूसरी दुनिया बन चुकी है ,अब मैं प्लेन या ट्र्रेन के प्रथम या द्विताय श्रेणी के वातानुकूलित कोच से कम में यात्रा नही करती लेकिन जनरल क्लास से कभी निरपेक्ष नही हो सकती । अनुभूति ,उसमें बैठने वाले हर व्यक्ति की पीड़ा सदा मेरे साथ है क्योंकि वह भी मेरी जमीन है, एक होगा हुआ यथार्थ  । और क्या पता संयोग या विवशतावश कब फिर कभी जनरल में यात्रा करनी पड़ जाय ...
नवमीं कक्षा में एक पाठ 'दि स्कूल ऑफ सिम्पैथी ' मुझे बहुत अच्छा लगा जिसमें एक स्कूल में हर बच्चे के लिये एक क्रमशः 'ब्लाइन्ड डे' , 'डेफ डे' , 'डम डे' और 'लेम डे' होता है जिसमें उसे एक दिन पूरी तरह अन्धेपन के लिये आँखों पर पट्टी बाँधकर रहना होता है , गूँगा , बहरा और लँगड़ा बनकर रहना होता है . प्राचार्य के अनुसार यह सब इसलिये ताकि बच्चे अपंग बच्चों के दर्द को महसूस कर सके और उसके प्रति उपेक्षा का भाव न रखे . 
मेरे विचार से जिन्दगी को ठीक से समझने के लिये हर व्यक्ति को कभी न कभी ऐसे अनुभवों से गुजरना चाहिये .