1.8.2010
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आज ,बडी प्रतीक्षा के बाद आसमान में बादल हैं ,ऐसे बादल जिनसे बारिस की उम्मीद की जा सकती है ।कुछ दिन पहले ,जब यहां सरकस लगा था,क्या मोहल्ले के बुजुर्ग और क्या स्टाफ के कथित बुद्धिजीवी लोग बडे विश्वास से दावा कर रहे थे कि जब तक सरकस रहेगा ,पानी नही बरसेगा । सरकार को वर्षाऋतु के आगमन काल में इस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये। खैर मैं इस तथ्य से अनजान हूँ ।
मेरे लिये तो वर्षा मानो गोली खाकर सोयी जिन्दगी को झिंझोडकर जगाने का काम करती है ।जरा सी नमी पाकर ही आकांक्षाएं दूर्वांकुरों सी फूट पडतीं हैं ।जाने कितनी भूमिगत व्यथा-वेदनाएं कीडे-मकोडों सी बाहर आकर रेंगने -कुलबुलाने लगतीं हैं ।कहीं कुछ छूट जाने का अहसास बेजान पडे पक्षी सा पानी के छींटों से छटपटाने लगता है ।यहाँ बारिश की दो कविताएं हैं ।पढें और अपने विचार अवश्य लिखें ।
बादल दो चित्र
(1)
आग...आग....आग..
हर कोई चिल्लाया ।
घबराया ।
मौसम विभाग
उठा है लो जाग ।
भेज दीं हैं दमकलें ।
छोड रहीं बौछारें ,
रिमझिम फुहारें ।
(2)
धरती को आसमान के,
स्नेहमय पत्र ।
बाँट रहा पोस्ट-मैन ,
यत्र-तत्र-सर्वत्र
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हम कच्ची दीवार हैं
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बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।
घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।
चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।
भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।
उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।
उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।
टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।
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आज ,बडी प्रतीक्षा के बाद आसमान में बादल हैं ,ऐसे बादल जिनसे बारिस की उम्मीद की जा सकती है ।कुछ दिन पहले ,जब यहां सरकस लगा था,क्या मोहल्ले के बुजुर्ग और क्या स्टाफ के कथित बुद्धिजीवी लोग बडे विश्वास से दावा कर रहे थे कि जब तक सरकस रहेगा ,पानी नही बरसेगा । सरकार को वर्षाऋतु के आगमन काल में इस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये। खैर मैं इस तथ्य से अनजान हूँ ।
मेरे लिये तो वर्षा मानो गोली खाकर सोयी जिन्दगी को झिंझोडकर जगाने का काम करती है ।जरा सी नमी पाकर ही आकांक्षाएं दूर्वांकुरों सी फूट पडतीं हैं ।जाने कितनी भूमिगत व्यथा-वेदनाएं कीडे-मकोडों सी बाहर आकर रेंगने -कुलबुलाने लगतीं हैं ।कहीं कुछ छूट जाने का अहसास बेजान पडे पक्षी सा पानी के छींटों से छटपटाने लगता है ।यहाँ बारिश की दो कविताएं हैं ।पढें और अपने विचार अवश्य लिखें ।
बादल दो चित्र
(1)
आग...आग....आग..
हर कोई चिल्लाया ।
घबराया ।
मौसम विभाग
उठा है लो जाग ।
भेज दीं हैं दमकलें ।
छोड रहीं बौछारें ,
रिमझिम फुहारें ।
(2)
धरती को आसमान के,
स्नेहमय पत्र ।
बाँट रहा पोस्ट-मैन ,
यत्र-तत्र-सर्वत्र
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हम कच्ची दीवार हैं
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बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।
घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।
चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।
भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।
उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।
उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।
टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।