कर्नाटक एक्स. में द्वितीय श्रेणी का वातानुकूलित,शानदार और सर्वसुविधा युक्त डिब्बा ।कोई भीड़-भाड़ या शोर -शराबा नही ।ठाठ से बैठो,लेटो ,गाने सुनो ,किताब पढ़ो या कोई भी मनपसन्द काम करो। मैं डायरी लिखते हुए सोच रही हूँ कि 'सफर से ज्यादा आरामदेह घर', वाली बात अब पीछे चली गई है ।अब तो घर से ज्यादा आराम सफर में रहता है ।कम से कम अब तो मुझे यही लगता है ।
बाजू में कोई ट्रेन खड़ी है ।मेरे सामने जनरल बोगी है।लोग थैले में ठूँसे गये कपड़ों की तरह भरे हैं । कुछ लोगों ने जैसे गर्मी को लाल झण्डी दिखाने के लिये ही अपने कपड़े उतार रखे हैं ।मक्खियाँ उड़ रही हैं ।कई जगह खिड़कियों से नीचे तक उल्टियों के निशान हैं ।नीचे दो-तीन लड़के पानी पाउच, पुड़िया, बड़ापाव और 'चना मसाला' बेच रहे हैं । सीट पर बैठे लोग तो खुशकिस्मत हैं ही पर खिड़कियों के पास भी खड़े लोग भाग्यशाली हैं कि थोड़ी बहुत हवा के साथ खाने-पीने की चीजें प्राप्त कर पा रहे हैं ।अन्दर गर्मी पसीने और बदबू के भभकों से जूझते हुए लोगों के लिये बाहर का दृश्य देखना भी दुश्वार है . चीजों के लिये खिडकियों के पास बैठे लोगों की मिन्नतें कर रहे हैं कि ,ओ भैया ,ओ लल्ला ,भैन जी जरा बड़ापाव वाले को बुला देना . ये पैसे लो भैया एक बिस्कुट का पैकेट ले लेना बच्चा भूखा है । धैर्य के अभ्यास के लिये ऐसा प्रशिक्षण कही और नही मिल सकता ।आगे उसी ट्रेन में वातानुकूलित डिब्बे हैं जिनमें मेरी तरह ही आराम बैठे लोग किसी ऐसी ही जनरल बोगी की एकदम अलग दुनियाँ को निरपेक्षता और हेयता के साथ देख रहे होंगे । एक ही दुनिया में बसे लोगों में इतना फर्क!
लेकिन मेरे मन में न हेयता का कोई भाव है ना ही निरपेक्षता का ।आखिर कभी मैं भी ऐसी ही बोगियों की यात्री रही हूँ . वैसी ही घुटन और परेशानी को जिया है . मैं भी कभी इस भीड़ का हिस्सा रही हूँ । स्टेशन पर ट्रेन आने से लेकर ,सामान के साथ डिब्बे में पहुँच जाने की दुर्लभ जीत के बाद घंटों तक मैंने खड़े रह कर सीट खाली होने का इन्तजार किया है .उमस और बदबू सहते हुए अखबार या रूमाल से हवा करके गर्मी को टक्कर दी है ।यह बात अलग है कि उस समय परेशानियों का अहसास न था। इसलिये वे परेशानियाँ इतनी कष्टकर व असहनीय प्रतीत नही होती थी । हमारे सुख-दुख प्रायः सापेक्ष होते हैं ।आराम और फुरसत में हम विगत व्यथाओं व कठिनाइयों को आसानी व विस्तार से याद कर सकते हैं । और आश्चर्य भी कि आखिर वह सब हमने कैसे सहा और जिया .
जनरल बोगी की यात्रा अब भले ही मेरे लिये दूसरी दुनिया बन चुकी है ,अब मैं प्लेन या ट्र्रेन के प्रथम या द्विताय श्रेणी के वातानुकूलित कोच से कम में यात्रा नही करती लेकिन जनरल क्लास से कभी निरपेक्ष नही हो सकती । अनुभूति ,उसमें बैठने वाले हर व्यक्ति की पीड़ा सदा मेरे साथ है क्योंकि वह भी मेरी जमीन है, एक होगा हुआ यथार्थ । और क्या पता संयोग या विवशतावश कब फिर कभी जनरल में यात्रा करनी पड़ जाय ...
नवमीं कक्षा में एक पाठ 'दि स्कूल ऑफ सिम्पैथी ' मुझे बहुत अच्छा लगा जिसमें एक स्कूल में हर बच्चे के लिये एक क्रमशः 'ब्लाइन्ड डे' , 'डेफ डे' , 'डम डे' और 'लेम डे' होता है जिसमें उसे एक दिन पूरी तरह अन्धेपन के लिये आँखों पर पट्टी बाँधकर रहना होता है , गूँगा , बहरा और लँगड़ा बनकर रहना होता है . प्राचार्य के अनुसार यह सब इसलिये ताकि बच्चे अपंग बच्चों के दर्द को महसूस कर सके और उसके प्रति उपेक्षा का भाव न रखे .
मेरे विचार से जिन्दगी को ठीक से समझने के लिये हर व्यक्ति को कभी न कभी ऐसे अनुभवों से गुजरना चाहिये .
बाजू में कोई ट्रेन खड़ी है ।मेरे सामने जनरल बोगी है।लोग थैले में ठूँसे गये कपड़ों की तरह भरे हैं । कुछ लोगों ने जैसे गर्मी को लाल झण्डी दिखाने के लिये ही अपने कपड़े उतार रखे हैं ।मक्खियाँ उड़ रही हैं ।कई जगह खिड़कियों से नीचे तक उल्टियों के निशान हैं ।नीचे दो-तीन लड़के पानी पाउच, पुड़िया, बड़ापाव और 'चना मसाला' बेच रहे हैं । सीट पर बैठे लोग तो खुशकिस्मत हैं ही पर खिड़कियों के पास भी खड़े लोग भाग्यशाली हैं कि थोड़ी बहुत हवा के साथ खाने-पीने की चीजें प्राप्त कर पा रहे हैं ।अन्दर गर्मी पसीने और बदबू के भभकों से जूझते हुए लोगों के लिये बाहर का दृश्य देखना भी दुश्वार है . चीजों के लिये खिडकियों के पास बैठे लोगों की मिन्नतें कर रहे हैं कि ,ओ भैया ,ओ लल्ला ,भैन जी जरा बड़ापाव वाले को बुला देना . ये पैसे लो भैया एक बिस्कुट का पैकेट ले लेना बच्चा भूखा है । धैर्य के अभ्यास के लिये ऐसा प्रशिक्षण कही और नही मिल सकता ।आगे उसी ट्रेन में वातानुकूलित डिब्बे हैं जिनमें मेरी तरह ही आराम बैठे लोग किसी ऐसी ही जनरल बोगी की एकदम अलग दुनियाँ को निरपेक्षता और हेयता के साथ देख रहे होंगे । एक ही दुनिया में बसे लोगों में इतना फर्क!
लेकिन मेरे मन में न हेयता का कोई भाव है ना ही निरपेक्षता का ।आखिर कभी मैं भी ऐसी ही बोगियों की यात्री रही हूँ . वैसी ही घुटन और परेशानी को जिया है . मैं भी कभी इस भीड़ का हिस्सा रही हूँ । स्टेशन पर ट्रेन आने से लेकर ,सामान के साथ डिब्बे में पहुँच जाने की दुर्लभ जीत के बाद घंटों तक मैंने खड़े रह कर सीट खाली होने का इन्तजार किया है .उमस और बदबू सहते हुए अखबार या रूमाल से हवा करके गर्मी को टक्कर दी है ।यह बात अलग है कि उस समय परेशानियों का अहसास न था। इसलिये वे परेशानियाँ इतनी कष्टकर व असहनीय प्रतीत नही होती थी । हमारे सुख-दुख प्रायः सापेक्ष होते हैं ।आराम और फुरसत में हम विगत व्यथाओं व कठिनाइयों को आसानी व विस्तार से याद कर सकते हैं । और आश्चर्य भी कि आखिर वह सब हमने कैसे सहा और जिया .
जनरल बोगी की यात्रा अब भले ही मेरे लिये दूसरी दुनिया बन चुकी है ,अब मैं प्लेन या ट्र्रेन के प्रथम या द्विताय श्रेणी के वातानुकूलित कोच से कम में यात्रा नही करती लेकिन जनरल क्लास से कभी निरपेक्ष नही हो सकती । अनुभूति ,उसमें बैठने वाले हर व्यक्ति की पीड़ा सदा मेरे साथ है क्योंकि वह भी मेरी जमीन है, एक होगा हुआ यथार्थ । और क्या पता संयोग या विवशतावश कब फिर कभी जनरल में यात्रा करनी पड़ जाय ...
नवमीं कक्षा में एक पाठ 'दि स्कूल ऑफ सिम्पैथी ' मुझे बहुत अच्छा लगा जिसमें एक स्कूल में हर बच्चे के लिये एक क्रमशः 'ब्लाइन्ड डे' , 'डेफ डे' , 'डम डे' और 'लेम डे' होता है जिसमें उसे एक दिन पूरी तरह अन्धेपन के लिये आँखों पर पट्टी बाँधकर रहना होता है , गूँगा , बहरा और लँगड़ा बनकर रहना होता है . प्राचार्य के अनुसार यह सब इसलिये ताकि बच्चे अपंग बच्चों के दर्द को महसूस कर सके और उसके प्रति उपेक्षा का भाव न रखे .
मेरे विचार से जिन्दगी को ठीक से समझने के लिये हर व्यक्ति को कभी न कभी ऐसे अनुभवों से गुजरना चाहिये .
Kuch aisa hi ehsaas meine bhi kiya h kayi bar.. Padkar bahut hi achchaa sa laga pata ni kyun :) :)
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