शनिवार, 31 अगस्त 2019

पहली रचना और उसकी पृष्ठभूमि

यह कविता 15 अप्रैल सन् 1975 में लिखी गयी थी . बात है जब मैं ग्यारहवी कक्षा में थी .तब 10+2 योजना लागू नहीं थी इसलिए ग्यारहवी की परीक्षा बोर्ड द्वारा संचालित थी सो हम लोगों के लिए परीक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं था . लेकिन हुआ यह कि पढाई से अधिक मेरे लिए अचानक वह दुनिया महत्वपूर्ण होने लगी जिसके बारे में मैंने अभी तक जाना ही नहीं था . सोचने का तो प्रश्न ही कहाँ था . लेकिन सोचना ही पड़ गया .
वह हुआ यों कि उन दिनो गाँव में पन्द्रह पार कर सोलह तक पहुंचने वाली लडकी का कुंवारी रहना घोर कलियुग आजाने का संकेत माना जाता था .उस पर मैं तो गाँव से बाहर पढने भी जाती थी . पिताजी वैसे तो काफी प्रगतिशील विचारों के थे लेकिन पता नहीं कैसे लोगों के प्रभाव में आगए या फिर ‘वर’ महाशय को देख कर वे इतने विमुग्ध होगए कि मुझे स्नातकोत्तर व पी एच डी तक पहुँचाने का उनका संकल्प हाशिये पर चला गया और बिना मेरी इच्छा जाने ही रिश्ता भी तय कर दिया .हालांकि उस समय लड़की ही नहीं लड़कों भी अपने विवाह के बारे में राय देने का चलन  नहीं था .परीक्षाओं के बीच यह एक ऐसा व्यवधान था जो मुझे बुरा नहीं लग रहा था लेकिन एकदम स्वीकार भी नहीं था .
यही वह दोराहा था जिसके एक तरफ एक अनजाना सा आकर्षण था .एक स्वप्निल सा ,अनजाना लेकिन ,मोहक संसार एक अभूतपूर्व मधुमय भावलोक जो अनायास और अनचाहे ही मुझे खीच रहा था . दूसरी तरफ मेरी अपनी दुनिया जिसे छोड़ने की अभी कल्पना भी नहीं की थी .साथ ही नई डगर पर पाँव रखते हुए एक हिचक और घबराहट भी थी . एक अव्यक्त सी बेचैनी  .तभी मैंने यह कविता लिखी . इसकी प्रेरणा निस्संदेह महादेवी वर्मा जी की कविता –कह दे माँ अब क्या देखूं... है . हालांकि उनसे तुलना की बात तो ध्रष्टता ही  है .

यह कविता जाने कैसे नष्ट होने से बच गयी है अन्यथा और भी बहुत सारी रचनाएँ थी जो मेरी लापरवाही में नष्ट होगईं .एकाध शब्द के हेर-फेर के बाद उसे यहाँ  प्रस्तुत कर रही हूँ .
"काँटों को मैं अपनालूं या मृदु कलियों को प्यार करूँ
ये दोनों जीवन के पहलू किसको मैं स्वीकार करूँ .
कितने कितने तूफानों में , डगमग यह जीवन नौका .
पहले आश्वासन देकर ,मांझी फिर देता है धोखा .
कभी किनारा मिल जाता है , और कभी मंझधार परूँ .
काँटों को.....      
अल्प ख़ुशी होती कलियों में , चन्चरीक चंचल बनता
राह दिशाएं भूल-भूला व्यर्थ उड़ानें ही भरता .
कहता है ,मकरंदभरे फूलों का क्यों उपहास करूँ ?
काँटों को .....
कंटकमय अवरोध सुप्त अंतर को कोंच जगाते हैं .
पग पग मिले विरोध ,लक्ष्य को भी मजबूत बनाते हैं .
पावक में जलकर निखरुं, या किसी छाँव आराम करूँ
काँटों को ....
जीवन की राहों में दो प्रतिमाएं रंग दिखाती हैं .
एक भरे आंचल में कंटक ,एक सुमन महकाती है
कौन पता देगी प्रिय तेरा ,जिसकी मैं मनुहार करूँ .
काँटों को ....
जीवन खिलती बगिया है , या करुणा विवश कहानी की .
क्या संघर्षों की छाया में ही रौनक मिले निशानी की .
उलझन में हूँ उत्तर दे ,कैसा जीवन श्रृंगार करूँ .
काँटों को में अपनालूं या मृदु कलियों को प्यार करूँ ."
  
नष्ट हुई रचनाओं कुछ रचनाओं के साथ शुरुआत के लेखन को मैं जरुर याद करना चाहती हूँ आप सबके साथ अगली किसी पोस्ट में . 

सोमवार, 22 जुलाई 2019

हिमालय के कोट में टँका हुआ फूल ---अन्तिम भाग

 .पिछली पोस्ट-- भाग दो
19 मई की सुबह हमने 'रामदा' से विदा ली और पुनाखा की ओर चल पड़े .रास्ते में फिर से वही खूबसूरत वादियों का सिलसिला शुरु हुआ .मैं अगर उस तरह याद करूँ जिस तरह बचपन में रट रटकर हम लोग मायने याद करते थे तो रटूँगी , "भूटान माने हरियाली.... भूटान माने सदाबहार पर्वत....भूटान माने कल कल बहतीं निर्मल नदियाँ.....भूटान माने ढेर सारे फूलों से भरी क्यारियाँ..., भूटान माने झरने , भूटान माने शान्त भीड़ रहित बाजार ,भूटान माने अपने काम से काम रखने वाले सीधे शान्त लोग , ..भूटान माने......"
दोचुला पास का एक दृश्य
थिम्पू से चलते हुए बीच रास्ते में दोचुला-पास नामक एक बहुत ही मनोरम स्थान है ,जो सतह से लगभग 3020 मीटर ऊँचाई पर है इसलिये यहाँ अपेक्षाकृत अधिक सर्दी थी .यहाँ 108 सुन्दर स्तूप हैं .जो किसी युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के स्मारक हैं .दोचुला में चारों ओर खूबसरत और सिर्फ खूबसूरत नज़ारा था .सोच रही थी कि कहीं कहीं प्रकृति किस तरह अपना प्यार उँड़ेल देती है . विकास ने बताया कि बादल न होते तो यहाँ से सामने हिमालय की बर्फीली चोटियाँ दिखतीं . यह जगह इतनी मनोरम थी कि आँखें तृप्त ही नहीं होतीं थीं . मन जाने के लिये तैयार ही नही  था . लेकिन जाना तो था ही .सीमित अवधि में बहुत कुछ देखने की योजना में आँखों और मन को समझौता करना पड़ता ही है . पुनाखा हमारी प्रतीक्षा कर रहा था .
दो चुला पास का एक और चित्र 

थिम्पू से 70-71 कि मी दूर 'पो छू' और 'मो छू' (छू यानी नदी .पो पितृ रूपा और मो मातृ रूपा) के किनारे बसा सुन्दर शहर पुनाखा भूटान का एक जिला है . पहले यह भूटान की राजधानी हुआ करता था . समुद्र तल से लगभग 1200 मीटर ही ऊँचे बसे पुनाखा के लिये अब हमारी गाड़ी नीचे उतर रही थी .
पुनाखा पहुँचने तक रास्तेभर हमारी आँखें हरी भरी वादियों में विचरती रहीं और मन नदी की मचलती धारा के साथ उन्मुक्त बहता रहा लेकिन पुनाखा पहुँचकर कुछ कुछ व्यग्रता बढ़ने लगी थी क्योंकि 'ईको लॉज' का, जहाँ हमें ठहरना था पता नही चल रहा था .जो पुनाखा से कुछ आगे बांगडी कस्बा में था ,पर कहाँ था यह सही और स्पष्ट बताने में गूगल भी असमर्थ था . स्थानीय लोगों के संकेत पर विकास गाड़ी को कभी दाईं तरफ ले जाए तो कभी लौटकर बाईं तरफ ..
ईकोलॉज के प्रांगण में  .
नेहा लगातार लॉज की स्वामिनी से सम्पर्क बनाए थी . आखिर बड़ी मशक्कत के बाद हमें ईकोलॉज का सही पता मिला पर वहाँ तक पहुँचते पहुँचते हमारी हालत खासी पतली हो गई थी .एक तो थिम्पू से यहाँ तक हरे भरे जंगल के बीच सुन्दर सड़कों से गुजरने के बाद हमारे सामने एक बहुत ही ऊबड़-खाबड़ , अनिश्चित सा पहाड़ी रास्ता था जो बिल्कुल कच्चा ,टेढ़ा मेढ़ा और सँकरा भी था .उस पर एक ही गाड़ी निकल सकती थी .उसका हर मोड़ बहुत गहरा घुमावदार था . कोई गाड़ी कब अचानक सामने आजाएगी पता नहीं चल रहा था यह बात हमें आशंकित कर रही थी .उस पर बहुत नीचे 'मो छू' बाहें,....कहना चहिये मुँह फैलाए बह रही थी . फिर यह भी तय नहीं था कि ईको लॉज है कितनी दूर . विकास अनुमान से गाड़ी बढ़ाए जा रहा था .


पुल जो भारत भूटान मैत्री का प्रतीक है .

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ईको लॉज 
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ईको लॉज पहुँचकर लगा कि हम एक बिल्कुल अलग दुनिया में आ गए हैं . एकान्त शान्त जहाँ हरियाली के नाम पर सेव के सिर्फ दो किशोरवय  पौधे  थे, एक अमरूद और दो आड़ू के पेड़  थे ,गुलाब की झाड़ियों और हवा के अलावा थे तो पुरानी शैली के तीन चार कमरे , पवन चक्की दो तीन बिल्लियाँ और तीन चार सुन्दर लड़कियाँ . इसके अलावा किचिन ,डाइनिंग हाल भी था . शायद उस कथित लॉज को शुरु हुए एक या दो साल से अधिक नहीं हुआ था .
"मैम अभी खाना तो नहीं मिलेगा .आप लेट होगए ...खाने के लिये एक घंटा पहले ऑर्डर करना पड़ता है . आपको वेट करना पड़ेगा ." दो सुन्दर लड़कियों ने कहा . मैंने पहले भी लिखा है कि भूटान में हमने हर जगह लड़कियों को ही काम करते देखा . वहाँ एक दो लड़के थे पर सहायक के रूप में ही थे .
उनकी बात सुनकर बड़ी हताशा हुई क्योंकि उस समय सभी भूखे थे .उन्होंने वहाँ की किन्ही वनस्पतियों से बना बिना दूध की चाय जैसा पेय दिया . कुछ आराम के बाद हम लोग नहा कर ताजा हुए तो खाने के नाम पर सिर्फ नूडल्स से ही सन्तोष करना पड़ा . उसी समय एक और कार आई तो नेहा हँसकर बोली –"लो मम्मी केवल हमी बेवकूफ नहीं बने हैं...
पुनाखा जोंग के लिये इस पुल से जाते हैं 
"जो भी हो ,नाम कितना अच्छा है, 'ईको-लॉज' , नाम को वहाँ की आबोहवा सार्थक कर रही है .
वास्तव में वहाँ का परिदृश्य भी बड़ा ही मोहक और लुभावना था . नीचे फिर दो नदियों का संगम दिख रहा था .सामने पहाड़ में खिलौने जैसी कारें परिक्रमा सी करती हुई उतर रहीं थीं . 
पुनाखा में हमारी योजना जोंग और सस्पेंशन ब्रिज देखने की थी . 
नेहा ने ईको लॉज पहुँचते पहुँचते कहा था-
"मम्मी अब तो यहाँ से कल ही उतरेंगे . जोंग वोंग कुछ नही देखना ." मैं भी नेहा से सहमत थी .उस रास्ते से उतरना फिर लौटना और फिर अगली सुबह उतरकर आगे जाना उस समय हमें काफी असुविधा भरा और खतरनाक लग रहा था . हमारी बात सुनकर विकास हँस पड़ा .बोला –"आपको चिन्ता करने की जरूरत नहीं मैडम . मैं हूँ ना .."
पुनाखा जेोंग
वह बेशक बड़ा नेक खुशमिजाज और काफी कुशल ड्राइवर था .  
पुनाखा जोंग ---यह जोंग पुनाखा का ही नही ,भूटान भर का सबसे बड़ा और प्रमुख बौद्ध मन्दिर है जो 'पो छू' और 'मो छू' के संगम पर बना है .इसका निर्माण सन् 1637 में शबदरूंग नगवांग नामग्याल द्वारा प्रशासकीय कार्यों के सम्पादन हेतु कराया था ( यह जानकारी गूगल से साभार ) जोंग तक पर्यटक बहुत ही सुन्दर पुल से होकर जाते हैं जो पो छू पर खूबसूरत पारम्परिक शैली में बना है .पुनाखा जोंग देखना भूटान भ्रमण का एक बहुत प्यारा और खूबसूरत अनुभव रहा . यहाँ हमने बहुत सारे फोटोग्राफ लिये .
पुनाखा जोंग के बाद सस्पेंशन ब्रिज भी देखा . लोहे की बड़ी मोटी जंजीरों से बँधा यह काफी लम्बा पुल मो छू पर बना है .एक और मठ चिमी लखांग भ्रमण भी योजना में था पर समय कम था , वैसे भी वहां अधिकतर सन्तान के इच्छुक दम्पत्ति ही जाते हैं .फिर इतने सुन्दर स्थान ( जोंग) को देखने के बाद अब कुछ देखने का मन भी नहीं था .
अँधेरा होने से पहले हम वापस ईको लॉज आ गए . शाम के खाने में चावल ,चीज के साथ बना पत्ता गोभी , चीज आलू ,तीखी ,चटनी ,मोमोज और के अलावा कॉर्न सूप था .
ईकोलॉज की सुहानी सुबह ने विगत कल की सारी परेशानियों को भुला दिया .नया नया शुरु होने के कारण अभी वहां कुछ असुविधाएं हैं पर जगह शानदार है .
पारो नदी 
संगम
पारो
20 मई को पुनाखा से पारो जाने के लिये हम थिम्पू लौटे और शहर के बाहर से ही पारो के लिये निकल पड़े . फुनशुलिंग –थिम्पू मार्ग में बीच में भारत की सहायता से बना जो पुल है ,और जहाँ पारो छू और थिम्पू छू का सुन्दर संगम है .और वहीं से पारो शहर के लिये हम फिर एक बहुत खूबसूरत यात्रा पर निकल पड़े .पहाड़ों के बीच चौरस घाटी में बसा पारो भूटान का सबसे सुन्दर शहर है और भूटान का एक मात्र हवाई-अड्डा भी . कहा जाता है कि यह दुनिया की उन खतरनाक हवाई पट्टियों में से एक है जहाँ प्लेन की लैंडिंग हर पायलट नहीं कर सकता . पर्वत शिखरों के बीच घाटी में लैंडिंग के लिये विशेष ट्रेनिंग दी जाती है . यहाँ दो ही ऐरोप्लेन है एक सरकारी और एक निजी . खैर ...
सस्पेंशन ब्रिज
पारो के रास्ते में 'पारो छू' सबसे खूबसूरत प्रसंग रहा . पूरे रास्ते इसकी उछलती मचलती धवल धारा हमें उत्साह और सौन्दर्य के गीत सुनाती सिखाती रही . एक जगह चौरस किनारे पर हम लोग इसकी धारा में उतर गए . शीतल जल में आचमन किया . आँखों को धोया . रोम रोम में इसकी ठण्डक को भर लिया .  नदी सचमुच धरती की ही नहीं हम प्राणियों की भी जीवन रेखा है . एक समय था जब नदी हमारा घर-आँगन थी . अब उससे मिलने के लिये समय निकालना पड़ता है . योजना बनानी होती है . बरसों बाद हुए इस मिलन से आत्मा तृप्त होगईं . रेत में पड़े सुन्दर सुडौल व सुनहरी रुपहली चमक वाले कंकड़ किसी अमूल्य धन से लग रहे थे . मैंने और विवेक ने कुछ कंकड़ तो बटोरे भी . यह हमारे भ्रमण का सचमुच बेहद प्यारा और याद रखने लायक अनुभव रहा .
पारो शहर पहुँचकर पहला काम था भोजन की तलाश . क्योंकि उस समय होटल में खाना मिलने वाला नही था .वैसे भी हमारा होटल 'उदुम्बरा' शहर से कुछ दूर था जहाँ विकास के अनुसार कोई रेस्टोरेंट नहीं था .वैसे तो भूटान भर में किन्तु पारो में शाकाहारी होटल मिलना काफी मुश्किल था . काफी तलाशने पर एक शाकाहारी होटल मिला --'ऑल सीजन.' वहीं हम सबने खाना खाया . जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि भूटान में मिर्च मसाले और चीज़ का इस्तेमाल बहुत होता है .वहाँ भी था .शाही पनीर रंग से नहीं , लाल मिर्च की भरमार से लाल था . यहाँ तक कि पनीर के साथ साबुत लाल मिर्च भी पड़ी थीं . मिर्च की चटनी तो वहाँ हर खाने के साथ मिलती है
उदुम्बराउत्कृष्ट कलात्मक शैली में बना बहुत खूबसूरत होटल है . संयोग यह कि हर बार हमारे बाजू में नदी जरूर रही है . उदुम्बरा के पीछे भी नदी का कलरव बराबर सुनाई दे रहा था . 
कुछ देर आराम करके हम नेशनल म्यूजियम और रिनपुंग जोंग देखने निकल गए . भूटान का राष्ट्रीय संग्रहालय एक सांस्कृतिक संग्रहालय है . यहाँ भूटान की सम्पूर्ण संस्कृति ,वन सम्पदा ,पशु पक्षी ,नृत्य, वेशभूषा सबके दर्शन होते हैं . हर प्रतीक और भाव को प्रदर्शित करते मुखौटे यहाँ का बड़ा आकर्षण है .हालाँकि सीमित समय में वह सब विस्तार से नहीं देखा जा सका .
उदुम्बरा होटल  का शिल्प दर्शनीय है .
इसके नीचे रिनपुंग जोंग ( बौद्ध मठ ) है. यहाँ आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले भिक्षु व भिक्षुणियाँ नियुक्त हैं .चाहे बौद्धमठ हों ,मन्दिर हों या कोई भवन भूटानी वास्तुकला का सौन्दर्य हर जगह बिखरा हुआ है .
जोंग से नीचे फिर वहीं चंचल प्रवाहिनी पारो नदी थी . जिसकी नयनाभिराम धारा पर बहुत सुन्दर प्राचीन पुल है ..विकास ने तीर चलाने वाली खास जगह भी बताई .इसके बाद हम बाजार देखने निकले .
पारो का बाजार भी काफी सुन्दर और शान्त है . यहाँ भी हमने कुछ चीजें खरीदीं . कई दुकानों पर पुरुषांग की व नर नारी के संसर्ग की प्रतिमूर्त्तियाँ खुलेआम रखी देख बड़ी हैरानी हुई . बड़ा अजीब लगा . मन में सवाल उठे पर उनके हल का कोई उपाय नहीं था.
टाइगर्स नेस्ट (मॉनेस्ट्री)
21 मई
भूटान भ्रमण का सबसे कठिन किन्तु रोचक व महत्त्वपूर्ण स्थान है पारो तकसांग यानी टाइगर्स नेस्ट दूर से पहाड़ में टँगा हुआ सा एक नेस्ट ही प्रतीत होता है . यह हमारे राष्ट्रीय-चिह्न अशोक-चक्र की तरह भूटान का राष्ट्रीय प्रतीक भी है .लगभग सवा तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर स्थित टाइगर्स नेस्ट पर लगभग ग्यारह कि.मी. की चढ़ाई द्वारा पहुँचा जाता है .
चढाई के लिये तैयार
"सुबह जल्दी तैयार होजाना सर ...ताकि लौटते हुए शाम न हो .कम से कम आठ घंटे लगेंगे लौटने तक ."--शाम को विकास ने जाते जाते कहा था . सुबह मन में उत्साह लेकर हम आठ बजे निकल पड़े . विकास ने हमें उस जगह छोड़ दिया जहाँ से टाइगर्स नेस्ट की चढ़ाई शुरु होती है . वहाँ पचास रुपए प्रति एक के हिसाब से स्टिकें मिल रही थी . हमने चार खरीदीं .और टेकते हुए चल दिये . लाठी टेककर चलते हुए मुझे याद आया कि जब मैं बहुत छोटी थी ,गाँव में एक बूढ़ी नानी थी लाठी टेकते हुए चलती और कहती जाती थी –राम राम कहे जा , जा ही गैल गहे जा ..
जो चढ़ने में असमर्थ या कमजोर थे उनके लिये पाँच सौ रुपए में खच्चर भी उपलब्ध थे . हमने खच्चर नहीं लिये . हम्प्टा वैली ( हिमाचल प्रदेश ) की ट्रैकिंग के बाद मुझे खुद पर बड़ा यकीन होगया था कि मैं कहीं भी चढ़कर जा सकती हूँ .गत जनवरी में हम 2400 सीढ़ियाँ चढ़कर तिरुपति दर्शन के लिये भी गए थे . इसलिये मुझे खुद पर काफी भरोसा था पर एक-डेढ़ कि मी की चढ़ाई के बाद मेरी साँस बेकाबू सी होने लगी . मन्नू ने मेरी कलाई पर हार्टबीट बताने वाली घड़ी पहना दी थी . धड़कनों की गति देखकर मन्नू ने मेरे व विहान के लिये दो खच्चर बुलाए . एक पर विहान को बिठा दिया . पहले मैंने मना कर दिया .लेकिन जब नेहा और मन्नू ने ज्यादा आग्रह किया तो किसी तरह खच्चर पर बैठ तो गई पर बड़ा अजीब लगा . पता नही कैसे लोग आराम से हुमकते हुए बैठे जाते हैं .
"मेरे तो गिरने की पूरी संभावना है --मुझे यकीन होगया .और तुरन्त उतर पड़ी . अकेले विहान को लेकर खच्चर चल पड़ा . वह स्थिति सचमुच बहुत मुश्किल हो गई थी .खच्चर तो चलते क्या भागते हैं .उनके साथ चलना तो केवल उनके मालिकों का ही काम है . पर विहान को अकेला तो नही जाने दिया जा सकता था .
कैपेट एरिया , जहाँ मैं विहान रुके थे , से टाइगर्स नेस्ट का दृश्य
"मैं साथ जाती हूँ ." –कहकर नेहा बिना किसी विमर्श के खच्चर के साथ चलदी . किसी को भी सोचने का समय नहीं मिला कि जिस रास्ते पर दस बीस कदम एक साथ चलकर रुकना जरूरी लग रहा था उस पर नेहा जिसने कभी धूप या धूल का सामना नहीं किया वह खच्चर की गति से कैसे जाएगी .वह जल्दी ही नजरों से ओझल हो गई . मेरा कलेजा रह रहकर मुँह तक आ रहा था कि खच्चर के साथ लगभग दौड़ती नेहा पर क्या बीत रही होगी जबकि मेरी हालत दस कदम एक साथ चलने की नही थी . मन्नू मेरे लिये हर दस पन्द्रह कदम पर रुक जाता था . पछता भी रहे थे कि जो मेरे लिये जो खच्चर तय किया था उसी पर नेहा क्यों न बैठ गई . पर इतना सोचने का वक्त ही न मिला . 
दरअसल थकान का कारण केवल चढ़ाई नहीं थी .वास्तव में टाइगर्स नेस्ट का रास्ता कच्चा धूलभरा सँकरा और ऊबड़खाबड़ है उस पर आते जाते धूल का गुबार छोड़ते जाते खच्चरों से बचना भी किसी संघर्ष से कम नहीं था . इतने प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण स्थान का रास्ता निश्चित ही काफी असुविधा भरा और निराशाजनक लगा .उस समय मैं तिरुपति के पैदल रास्ते को याद करने लगी थी जो बहुत सुन्दर व सुविधाजनक है .
नेहा विहान के साथ लगभग पौन घंटा पहले ही पहुँच गई थी .उसे ठीकठाक देखकर जान में जान आई .वास्तव में यह एक माँ के ममत्त्व का बल था वरना बहुत ही अल्पाहारी, सुकोमल नेहा में कहाँ थी ऐसी क्षमता ?
यह वो जगह थी जहाँ आपको खच्चर छोड़ देते हैं . कहते हैं कि यह टाइगर्स नेस्ट तक की दूरी का आधा हिस्सा है . यहाँ पास में ही कैपेट एरिया है जहाँ जलपान व विश्राम की व्यवस्था है . तय हुआ कि सामान के साथ मैं और विहान वहीं रुकें . मन्नू और नेहा अकेले मॉनेस्ट्री तक जाएं . मैं थकी तो थी ही उस पर एक व्यक्ति ने कह दिया कि भाई आंटी को मत ले जाना . इनके लिये रास्ता बहुत कठिन है .
मन्नू नेहा का मुझे विहान के साथ छोड़ने का विचार और भी मजबूत हुआ और सामान के साथ हमें कैपेट एरिया छोड़कर चले गए . कुछ पल मुझे राहत तो मिली पर आराम की साँस लेने के तुरन्त बाद मुझे एहसास हुआ कि रुककर मैंने गलती करदी . मुझे जाना चाहिये था .
उधर एक घंटे बाद ही विहान का राग शुरु होगया –मम्मी पापा कब आएंगे ..दादी आप और मैं चलते हैं उन्हें ढूँढ़ने ..कहीं रास्ता तो नही भूल गए ..कितनी देर और लगेगी ...

सामने होकर भी अभी बहुत दूर है टाइगर्स नेस्ट .फोटो मन्नू 

दरअसल कुछ लोग आपको बरगला देते हैं कि अरे बस यहाँ से आधा पौन घंटे का रास्ता है. पर उन्हें लौटने में पूरे चार घंटे लगे.  इतनी देर विहान को सम्हालते समझाते काफी मुश्किल हुई . साथ ही यह मलाल गहराता गया कि मेरा यह सफर अधूरा रह गया . कितना रोमांचक था वहाँ से सुदूर टाइगर्स नेस्ट को देखना . कैसे पहुँचते होंगे वहाँ . रास्ता कैसा होगा .वहाँ पहुँचकर कैसा लगता होगा ..उफ्...जाती तो वहाँ के दृश्य व अनुभव भी लिख पाती .
"मम्मी आप नहीं गईं , बहुत अच्छा हुआ . आप और विहान जाते तो हमें बीच से ही लौटना पड़ता ."–मन्नू व नेहा ने आते ही जो जो मुश्किलें बताईं उससे मेरा मलाल कुछ कम तो हुआ पर लगा कि शायद ये मुझे तसल्ली देने कह रहे हैं .
"मम्मी आपका स्वास्थ्य पहले है बाकी सब पीछे ..मैंने देखा कि आपकी पल्स कहाँ पहुँच गई थी ." –मन्नू मुझे समझाता रहा . शायद उसे मेरे खेद का अनुमान हो गया था .
कुछ देर आराम करने के बाद हम लोग उतर आए . पर टाइगर्स नेस्ट तक न जा पाने का अफसोस मुझे हमेशा रहेगा . 
लौटते हुए विकास ने टाइगर्स नेस्ट की कथा सुनाई कि ,"हजार साल पहले यहाँ एक राक्षस रहता था . गुरु रिम्पोचे यानी भगवान पद्मसंभव एक बाघ पर बैठकर आए थे .बाघ उड़कर आया क्योंकि तब बाघ के पंख हुआ करते थे .यहाँ पद्मसंभव भगवान ने राक्षस को हराया और इसी जगह तीन साल, तीन महीने ,तीन सप्ताह ,तीन दिन , और तीन घंटे तपस्या की थी . गुरु रिम्पोचे बाघ पर बैठकर आए थे इसलिये इसे टाइगर्स नेस्ट कहा जाता है . जो भी भूटान आता है वह यहाँ जरूर जाता है सर ..."
मैं तो नही जा सकी --मैंने सोचा पर इसके बाद कुछ सोचने कहने का कोई अर्थ नहीं था .
सुबह उदुम्बरा से विदा लेने से पहले विकास ने हमारे कुछ फोटो लिये .
एयरपोर्ट पारो 
22 मई को दस बजे हम फुन्शुलिंग की ओर चल पड़े . लौटते हुए प्रकृति के रंग बदले हुए थे . आसमान में तैरते बादल सघन होकर घने काले वितान में बदल गए थे . पहाड़ों का रंग एकदम गहरा गया था . चूखा से निकलने के बाद भारी वर्षा शुरु होगई . बारिश होते ही नटखट बच्चों की तरह झरने भी पहाड़ की गोद से उतरने के लिये उछलकूद मचाने लगे . उनके देखा देखी बादल भी नीचे उतर आए . और फैल गए आजू बाजू पेड़ों पर , रास्ते में ,सड़क पर.... परवाह किसे है कि ड्राइवर बेचारा कार के स्क्रीन से पानी हटाते हटाते हलकान हो रहा है . रास्ता सूझ नही रहा . आगे जा रही बस की धुँधली सी लाइट रास्ते का अनुमान करा रही है .सब कुछ एक धुन्ध में विलीन सा होगया था . कुछ मील इसी तरह चलते रहे और फिर अचानक जैसे दर्पण पर जमी धूल को किसी ने साफ कर दिया हो . पेड़ पहाड़ सड़क सब नहा निखरकर बाहर निकल आए . पन्त जी ने ऐसा ही कुछ देखकर कहा होगा –
"पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश ,पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश..."
फुन्शुलिंग में फिर पार्क होटल में ही रुके . संयोग से पहले वाले कमरे ही मिले तब लगा जैसे घर वापस आगए . इस तरह सुन्दर स्वप्निल सात दिन हमने भूटान में बिताए . 
23 मई की सुबह विकास ने हमसे विदा ली . हमारी इच्छा थी ,विकास की भी , कि वही हमें सिलीगुड़ी तक छोड़े . इन आठ दिनों में वह बिल्कुल अपना सा लगने लगा था . पर यह तय करने वाला न
कोरोनेशन ब्रिज
वह था न हम . विकास हमें यहीं से मिला था और यहीं से विदा हुआ . सिलीगुड़ी तक के लिये अब हमें दूसरा ड्राइवर और दूसरी गाड़ी लेनी थी .
लौटते हुए मन अपने घर की ओर लौटते उल्लसित था लेकिन लौट लौटकर भूटान की वादियों में जा रमता था .आँखों में पहाड़ झरने हरियाली और बादल भरे हुए थे . कोरोनेशन ब्रिज से होते हुए हम सिलीगुड़ी आए . कोरोनेशन ब्रिज की नींव 1937 ई में किंग जार्ज षष्ठम ने रखी थी .इसे सेवोक पुल या बाघ पुल भी कहा जाता है .वास्तुकला और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण यह सुन्दर पुल तीस्ता नदी पर बना है .
 23 मई को हमें सिलीगुड़ी में रुकना था . चुनाव परिणाम पर झगड़े फसाद की आशंका विकास ने भी जताई थी और नए ड्राइवर ने भी . सो हम लोग सुबह दस बजे ही सिलीगुड़ी के 'उड़ान क्लोवर होटल' पहुँच गए .वहाँ दिनभर चुनाव परिणाम देखते रहे .
सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल का सुन्दर शान्त शहर है .
यहां मेरी भतीजी पल्लवी गायनोकॉलोजी से पोस्ट ग्रेजुएशन कर मेडिकल कॉलेज में ही नियुक्त होगई है . उससे मिलना भी सुखद रहा . 24 मई को सुबह हम लोग बागडोगरा पहुँच गए . 8 45 की फ्लाइट थी . दोपहर एक बजे घर भी पहुँच गए .पूरे सप्ताह भागमभाग भरा लेकिन बहुत ही प्यारा और अविस्मरणीय सफर रहा .  भूटान हमारे दिल दिमाग में आज भी बसा है और बसा ही रहेगा .

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

हिमालय के कोट में टँका हुआ फूल--भाग 2

भाग 1 से आगेl

थिम्पू
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17 मई 2019 
लगभग 2335 मी. की ऊँचाई पर बसा शहर 'थिम्पू' भूटान की राजधानी है और शायद भूटान का सबसे बड़ा शहर भी .फुनशुलिंग से थिम्पू तक हरे-भरे मनोरम पहाड़ों में ऊपर नीचे चढ़ते उतरते हुए पाँच छह घंटे के सफर के बाद अब तन मन दोनों ही विश्राम चाह रहे थे . थिम्पू के शानदार 'रामदा' होटल में हम दो रातें गुजारने वाले थे .होटल पहुँचते ही दो युवक गाड़ी से सामान उतारने आगए .फिर जब दो सुन्दर लड़कियों ने मुस्कराते हुए हमारे कन्धे पर सफेद रेशमी दुपट्टा डालकर अभिवादन और स्वागत किया तो एक गरिमामय अनुभव हुआ .उनकी अतिथि सत्कार की यह परम्परा हमें अपूर्व और बहुत आत्मीय प्रतीत हुई . साथ ही यह एहसास भी हुआ कि अब हम सचमुच दूसरे देश में हैं .

वास्तव में यहाँ आकर ही हमें असली और हर दृष्टि से समग्र भूटान देखने मिला . थिम्पू में दो दिन रुके इसलिये बहुत सारी नई व अनौखी जानकारियाँ मिलीं . जैसे कि , भूटान का स्थानीय नाम 'ड्रुक' अर्थात ड्रैगन की भूमि है .राज्य के चीफ को ड्रेगन किंग कहा जाता है.....यहाँ लोकतांत्रिक शासन है पर संवैधानिक राजशाही भी है.....यहाँ ट्रैफिक सिग्नल नहीं हैं लेकिन एक से बढ़कर एक शानदार गाड़ियों सड़कों पर दौड़ती देखी जा सकतीं हैं.....दो पहिया वाहन नहीं दिखाई देते . हर जगह (होटल ,शॉपिंग सेन्टर व अन्य स्थानों पर ) लड़कियाँ ही काम करतीं हैं ...सबसे अनौखी बात यह कि यहाँ कोई अपना अलग से जन्मदिन नहीं मनाता बल्कि हर साल नववर्ष को ही सबके जन्मदिन के रूप में मनाते है...यहाँ प्लास्टिक और धूम्रपान पूरी तरह प्रतिबन्धित है ....लोग पर्यावरण के प्रति बहुत जागरूक हैं अधिकतर लोग हिन्दी समझते हैं ...शादी के बाद लड़का लड़की के घर आकर रहता है....बहुविवाह प्रथा को गलत नही माना जाता .लोग अपनी संस्कृति व परम्पराओं के प्रति बहुत प्रतिबद्ध व आस्थावान हैं .वगैरा ..वगैरा ...

 अपनी सभ्यता व संस्कृति को बाहरी प्रभाव से मुक्त रखने के लिये लम्बे समय तक भूटान ने पर्यटकों के लिये अपने दरवाजे बन्द रखे थे .1970 ई में यहाँ पहला विदेशी पर्यटक आया .1999 से पहले यहाँ टीवी इन्टरनेट जैसे संचार साधन नहीं थे . यहाँ का वास्तु शिल्प बड़ा अनूठा और विशिष्ट है . पूरे भूटान में सभी इमारतें एक ही शैली में बनी हुई हैं .निचले भाग में सफेद और ऊपरी भाग में कत्थई पेंट किया गया है जिस पर हरे सुनहरे रंगों की कलात्मक आकृतियाँ हैं .खिड़की दरवाजों और झरोखों में लकड़ी की शिल्पकारी देखने लायक है . यहाँ पारम्परिक शैली से अलग रंग और ढंग के भवन निर्माण की अनुमति नहीं है....होटल अपार्टमेंट्स ,मॉल ..सभी भवन एक ही शैली में बने हुए हैं . यह भूटान की अनुशासनप्रियता का अनुकरणीय उदाहरण है . हिमालय की गोद में बसे सिक्किम और भूटान में भौगौलिक समानताएं हैं . लेकिन अलग राष्ट्र होने के साथ भवन निर्माण शैली भी भूटान को सिक्किम (भारत) से अलग करती है .
थिम्पू के बाजार बहुत साफसुथरे शान्त व भीड़ रहित हैं....कोई आपाधापी या तनाव नहीं है.... विदेशियों के लिये भूटान काफी मँहगा है लेकिन भारतीय पर्यटकों के लिये यह छोटा सा देश अपने घर आँगन जैसा है ...यहां का राष्ट्रीय पक्षी 'रेवेन' है जो एक शक्तिशाली देवता माना जाता है . उसे मारने पर उम्रकैद की सजा का प्रावधान है .रेवेन-क्राउन को वांग्चुक वंश का मॉडल माना जाता है ... यहाँ लोग राजा को बहुत मानते हैं . वर्त्तमान राजा 'जिग्मे खेसर नामग्याल' हैं और रानी 'जेटसुन पेमा'.यहाँ आय का बड़ा स्रोत बिजली है... अन्य में वन सम्पदा और अब पर्यटन भी शामिल हो रहा है .पर्यावरण के प्रति यहाँ लोग बहुत जागरूक हैं . दो-तीन साल पहले राजपुत्र के जन्मोत्सव के रूप में लोगों ने एक लाख पेड़ लगाए .यहँ की पाम्परिक वेशभूषा .धौं व कीरा है . हर भूटानी नागरिक के लिये यही परिधान अनिवार्य है .भूटान के लोग अपनी भाषा , वेशभूषा और परम्पराओं के प्रति बड़े प्रतिबद्ध हैं ...ये सारी जानकारियाँ हमें विकास दे रहा था   ..
रात के भोजन के बाद हम अपने अपने कमरों में चले गए . विवेक ने विकास के ठहरने के विषय पूछा तो वह हँसकर बोला ---हो जाएगा सर ,हमारा तो रोज का काम है . हँसते समय उसकी आँखें लगभग बन्द होगई लगतीं हैं .
सर सुबह नौ बजे तक ब्रेकफास्ट लेकर तैयार रहें . मैं आ जाऊँगा .”विकास ने एक बार और दोहराया फिर खाना खाकर अपने किसी परिचित या मित्र के यहाँ चला गया .
मेरे साथ विहान के खूब मजे रहे . उसे मालूम तो हो ही गया है कि दादी पापा मम्मी से भी बड़ी हैं .इतनी बड़ी कि जरूरत होने पर वे उन्हें डाँट भी सकती हैं . इसलिये उनसे डरने की कोई बात नहीं .सोने से पहले वह मुझसे एक- दो कहानियाँ व चुटकुले सुनता फिर खुद अपने प्रिय कार्टून डोरेमोन के किस्से सुनाता और मेरी नॉलेज परखने के लिये उनसे जुड़े सवाल भी करता (मानो नोबिता ,डोरेमोन सूजैन वगैरा को मैं रोज मिलती हूँ ) जो मेरे पल्ले तो नही पड़ते पर मैं अन्दाज से जबाब देती जाती .इससे वह बड़ा खुश होता . कहता –--"अरे दादी आप तो काफी इन्टेलिजेंट हैं ."
कहानी सुनकर विहान सो गया लेकिन मुझे उस रात नींद बहुत ही कम आई . बल्कि कहूँ कि नहीं ही आई .एक तो कम से कम डेढ़-दो बालिश्त मोटा गद्दा आपत्ति की हद तक मुलायम और गुलफुला था . हम दोनों उसमें लगभग धँस गए थे . मुझे इतनी आरामदायक चीजें रास नहीं आतीं . उस पर रास्ते के दृश्य दिल-दिमाग और आँखों में इस तरह भरे हुए थे कि नींद के लिये जगह ही न थी . वह आ आकर लौट जाती थी .
18 मई
मेमोरियल चोर्टन 
विकास सचमुच सुबह ठीक नौ बजे आगया . हम लोग भी तैयार थे . पहले हम मेमोरियल चोर्टन (msmorial chorten) ( किसी किसी ने कोर्टन भी लिखा है . कोई नियम--धरम नहीं है रोमन लिपि का ) गए . यह थिम्पू के मनोरम ,प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित स्मारकों में से एक है . विश्वशान्ति को समर्पित, तिब्बती शैली में बना यह मठ तृतीय ड्रुक ग्यालपो ( भूटान का राजा) जिग्मी डोरजी वांगचुक की याद में बनाया गया था .हमने देखा ,सैकड़ों लोग उस हरे भरे मैदान के बीच स्थित धवल भव्य स्मारक की परिक्रमा कर रहे थे . आस्था , प्रेम व श्रद्धा का केन्द्र चाहे मानवीय हो या दैवीय वह मन को ऊर्जा, उल्लास और जीवन को सौन्दर्य देता है . आस्था व विश्वास के बिना जीवन जैसे बिना चालक के चलता दिशाहीन वाहन है .
बुद्ध—पॉइंट और थिम्पू शहर--
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भूटान बौद्ध संस्कृति का देश है .बौद्ध धर्म यहाँ का राजकीय धर्म है .सड़क ,पुल ,पेड़ , पहाड़ , हर जगह बौद्धधर्म के रंगबिरंगे परचम लहराते दिख जाते हैं .जंगल पहाड़ और नदियों के साथ साथ भूटान को बौद्ध मठों ( मॉनेस्टरीज) का भी देश कहा जा सकता है .थिम्पू में स्थित भगवान बुद्ध डोरडेम्मा की प्रतिमा भूटान ही नहीं पूरे एशिया में सबसे ऊँची प्रतिमा है . हम वहीं जा रहे थे .गाड़ी लहराती हुई पहाड़ चढ़े जा रही थी और मैं नीचे छूटते जा रहे शहर को देख रही थी जहाँ भवनों के बीच की दूरियाँ मिटती जा रही थी और शहर सिमटता जा रहा था . विहंगम दृष्टि भौतिक के साथ आध्यात्मिक व व्यावहारिक संकेत भी देती है . दृष्टिकोण जितना ऊँचा होगा ,विषमता और संकीर्णता उतनी ही कम होगी . मैंने अपनी कविता ऊँचाई पर दो व्यंजना में भी लिखा है कि ऊँचाई का मतलब ही है ,भेदों का मिट जाना .  कुछ ही पलों में हम भगवान बुद्ध के विशाल प्रांगण में थे ,विस्मित अभिभूत .... आसमान में बादलों के बीच शान्त , उन्नत-भाल भगवान बुद्ध की स्वर्णखचित प्रतिमा सचमुच भव्य है , अद्भुत है , दिव्य है . प्रतिमा की ऊँचाई का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि नीचे प्रांगण खड़े होकर बुद्ध का मस्तक देखने के लिये आकाश की ओर देखना पड़ता है . 169 फीट ऊँची इस प्रतिमा की स्थापना भूटान के चतुर्थ नरेश जिग्मे सिंगे वांग्चुक के साठवें जन्मदिन पर की गई थी . कहते हैं कि इसके अन्दर भी काँसे की सवा लाख बौद्ध-प्रतिमाएं हैं . इसके निर्माण और स्थापना में चीन जापान कोरिया आदि देशों का पर्याप्त सहयोग मिला है . उस ऊँची और बंजर सी पहाड़ी पर जहाँ हरियाली वैसी नहीं थी जैसी रास्तें में थी लेकिन हवा में गज़ब का जोर था , जैसे पाँव फर्श पर कसकर पर नहीं रखे तो उखड़ जाएंगे . मानो कि दर्शनार्थियों की यह एक परीक्षा थी कि कितना टिक सकोगे यहाँ , भगवान बुद्ध के मार्ग पर जो धन-वैभव और पति पत्नी व सन्तान जैसे आत्मीय सम्बन्धों के प्रति भी व्यक्ति को निस्संग व निर्मोही बना देता है .
सुविशाल प्रांगण में चारों ओर देवी देवतों की सुनहरी और भव्य प्रतिमाएं खड़ी थीं मानो वे सुविशाल भगवान बुद्ध की स्तुति कर रहे हों और नीचे सारा थिम्पू शहर भगवान बुद्ध के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर रहा हो और बुद्ध जैसे अपने संरक्षण में आए शहर को अभयदान दे रहे हों .प्रतिमा से ऐसा ही भास होता है .प्रतिमा के नीचे विशाल भवन है . वहाँ बुद्ध भगवान विष्णु , शिव ,ब्रह्मा , सरस्वती आदि के बीच विराजमान हैं . बाहर मोर व गरुड़ की मूर्त्तियाँ हैं . इस तरह मुझे वहाँ हिन्दू और बौद्ध धर्म का समन्वय देखने मिला .वास्तव में बौद्ध धर्म का प्रवर्त्तन भी तो एक तपस्वी बने हिन्दू राजकुमार ने ही किया था . उस विशाल भव्य भवन में लकड़ी के स्तम्भों और छत की शिल्पकारी अद्भुत है . हमने वहाँ जितना भी समय बिताया , वह बड़ा आनन्दमय ,अपूर्व और अविस्मरणीय है .
इसके बाद एक दूसरे बहुत प्राचीन बौद्धमठ या मन्दिर को भी देखने गए जो बारहवीं शताब्दी में बनाया गया . बौद्ध धर्म यहाँ नौवीं सदी में आया था .इससे पहले का इतिहास कहीं लिपिबद्ध नहीं है. केवल जनश्रुतियों में ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित हो रहा है . परम्पराओं ,कथाओं का हस्तान्तरण करना सचमुच एक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण कार्य है .
भूटान और भारत के सम्बन्ध अच्छे पड़ोसी जैसे ही हैं . भूटान में सड़क, पुल का निर्माण , म्यूजियम ,कई परियोजनाएं , सीमा सुरक्षा आदि में भारत का सहयोग व हस्तक्षेप है . हुआ यों कि 1865 ई. में ब्रिटेन और भूटान के बीच एक सन्धि हुई जिसके तहत भूटान के कुछ सीमावर्त्ती भूभाग के बदले उसे वार्षिक अनुदान देना तय हुआ . आजादी के बाद वह अधिकार भारत को मिला लेकिन भारत ने जैसी हमारी नीति रही है अपने पड़ोसी के प्रति सहृदयता निभाते हुए सन् 1949 ई. में भूटान को उसकी सारी ब्रिटेन अधिकृत भूमि लौटादी . उसके बदले में भारत को भूटान की विदेश व रक्षा नीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका मिली जो अभी तक बरक़रार है.

निहाशा ने पहले ही विकास को बता दिया था कि हम दोपहर का भोजन होटल में नहीं बल्कि ऐसी किसी जगह करना चाहेंगे जहाँ केवल भूटान के पारम्परिक व्यंजन मिलते हों . होटलों में तो हर जगह लगभग एक सा ही मेनू पनीर दाल सब्जी रायता चपाती सलाद आदि होता है . रवि हमें 'कावाजंग्सा'( kawajangsa) फोक हैरिटेज रेस्टोरेंट ले गया . वहाँ की पारम्परिक कला से सज्जित व्यवस्था देख मन खुश होगया . एक बहुत खूबसूरत लड़की --–"अच्छा चलता हूँ दुआओं में याद रखना .." गीत गुनगुना रही थी .सुनकर अपनेपन का अनुभव हुआ . 
वहाँ भी हमारी प्राचीन परम्परा की तरह ही भोजन फर्श पर बैठकर करने का नियम हैं .हमारे सामने सुसज्जित चौकियाँ थी जिन पर भोजन रखा जाने वाला था . सबसे पहले हमें मिट्टी के कुल्हड़ों में 'सुजा' (बटर टी ) दी गई .यह पेय चाय ,नमक और मक्खन से बनाया जाता है . इसके बाद जो कुछ आया सब नया था .परोसने का तरीका भी शानदार था .. व्यंजनों में 'एमादात्शी' ,'केवादात्शी', 'रेड-राइस' ,'वेज मोमोज' , लाल मिर्च की तीखी चटनी ,'खुली' ,'एजी' परोसा गया . .'खुली' (khulee) कूटू के आटे से बना पेन केक होता है , 'एमादात्शी' भूटान का राष्ट्रीय व्यंजन कहा जाता है .इसे लाल मिर्च मक्खन और चीज़ के साथ पकाया जाता है जबकि केवादात्शी , पत्तागोभी , बीन्स आलू चीज़ और मक्खन से बनता है .यहाँ सब्जी में मिर्च की मात्रा ज्यादा होती है . 'एजी' चीज़ के साथ बारीक कटा सलाद था . 'रेडराइस' बेस्वाद (लेकिन सेहत के लिये अच्छे ) लाल चावल होता है...स्थानीय भोजन में शाकाहारी लोगों के लिये बस इतना ही है . हमने जैसे तैसे उदरपूर्ति की , फिर निकट ही स्थित म्यूजियम देखा 

टाकिन--
टाकिन
टाकिन भूटानका राष्ट्रीय पशु है इससे बड़ी विशेषता है कि यह बकरी और गाय का मिलाजुला रूप है , आगे बकरी और पीछे से गाय. तब तो टाकिन को देखना ही चाहिये ,इस विचार के साथ हम मोतीथांग प्रेजरवे (अभयारण्य) पहुँचे . विकास ने टाकिन के बारे में एक जनश्रुति सुनाई कि सदियों पहले एक लामा घूमते घूमते इधर आए . एक दिन उन्होंने एक जगह एक गाय की हड्डियाँ पड़ी देखी और दूसरी जगह एक बकरी की . लोगों को मालूम हो चुका था कि लामा के पास दैवीय शक्ति है इसलिये उनसे कुछ चमत्कार दिखाने का आग्रह किया तो सन्त ने बकरी और गाय दोनों की हड्डियों को जोड़कर प्राण डाल दिये तो एक विचित्र जानवर उठ खड़ा हुआ . वही जानवर आज टाकिन के नाम से जाना जाता है  .300 रुपए प्रति व्यक्ति टिकिट के हिसाब से 1200 रुपए देकर हम अन्दर गए तो महसूस हुआ कि इतने रुपए व्यर्थ गए क्योंकि वहाँ मात्र चार-पाँच टाकिन दिखे वह भी बहुत दूर . वे दूर उधर ही घूमते रहे .पास से देखने की चाह पूरी नहीं हो पाई . लौटते हुए परिजनों को उपहार देने हेतु 'बेम्बो मार्केट' से कुछ 'की-चेन' ,पर्स ,स्पेशल होममेड साबुन ,बुद्ध की प्रतिमाएं आदि सामान खरीदा . 
भूटान में हमने हर जगह लड़कियों को काम करते पाया .होटलों में भी रिशेप्शन से लेकर ,कुकिंग, फूड सर्विंग ,सफाई सब कुछ लड़कियाँ करतीं हैं और वह भी निर्भय , निश्चिन्त ,हँसमुख... यह बात हमें बड़ी अच्छी लगी . अच्छी और एक मिसाल .
रात में रॉयल पैलेस
अब तक शाम हो चली थी .तन मन दोनों ही आराम चाह रहे थे पर विकास ने कहा ----कुछ देर रुकें , रॉयल पैलेस की लाइट देखकर चलेंगे . 
"यहाँ आए ही हैं तो देख लेते हैं ना सर? "
.विकास साग्रह बोला . वह खुशमिजाज होने के साथ बहुत उत्साही और पर्यटकों का ध्यान रखने वाला युवक है . पैलेस की लाइट जलने में अभी लगभग एक घंटा की देर थी पर वह हमें यहाँ वहाँ घुमाता रहा और जानी अनजानी जानकारियाँ देता रहा कि यह खेल का मैदान है . तीरन्दाजी और डार्ट्स यहाँ के राष्ट्रीय खेल है , कि उस तरफ डोक्लाम है .आपको याद तो होगा न वहाँ का सीमा विवाद ..इस बार भूटान ओलम्पिक में भी शामिल हुआ था ... कि यहाँ भारत के सभी प्रधानमंत्री आ चुके हैं ... कि भूटान का एक मतलब भूतान भी है यानी भूतों का घर ..पहले यहाँ भूतों का डेरा हुआ करता था .हाँ सच्ची......
सात बजे रॉयल पैलेस लाल पीली रोशनी से जगमगा उठा तब विकास का आग्रह हमें बहुत आत्मीय और सार्थक लगा .वरना उसे क्या पड़ी थी . उस रात काफी अच्छी नींद आई .

जारी......

गुरुवार, 27 जून 2019

हिमालय के कोट में टँका हुआ फूल


भाग--1 एक परदेश अपना सा
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जब हिमालय की बात होती है तो कल्पना में या तो देवदार के शानदार वृक्षों ,सघन हरियाली से आवृत्त असंख्य पर्वत शिखर और शरारती चंचल बच्चों से कल कल चलते हुए दूधिया झरने होते हैं या फिर हिम का ताज पहने सगर्व शीश ताने उत्तुंग शिखर . प्रशान्त के साथ देखे सिक्किम और 'हिमाचल' का सौन्दर्य अभीतक दिल-दिमाग से उतरा नहीं था . जब मन्नू (मँझला बेटा विवेक) ने भूटान-भ्रमण की योजना के बारे में बताया तो कल्पनाएं एक बार फिर हिमालय की रमणीय गोद में जा लेटीं . हालाँकि मन में लोकसभा चुनाव का व्यवधान था . 
उस समय तक चुनाव की तारीख भी घोषित नहीं हुई थी . सन् 2014 में चुनाव अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में होगए थे उसी के अनुसार मैंने अनुमान लगाया था कि ज्यादा से ज्यादा मई के प्रथम सप्ताह तक चुनाव हो जाएंगे . इसी आधार पर मन्नू ने 9 मई की टिकिटें बुक करवा लीं . लेकिन निराशा तब हुई जब ग्वालियर में चुनाव पाँचवे चरण यानी 12 मई को होना तय हुआ . तो मेरी सारी कल्पनाएं धूल में मिल गईँ . चुनाव में ड्यूटी थी . न होती तब भी हर तरह का अवकाश प्रतिबन्धित था .मुख्यालय अवकाश तो किसी भी सूरत में नहीं ..
मन्नू , मेरा जाना संभव नहीं . तुम लोग चले जाओ .—मैंने कहा तो मन्नू और नेहा बोले – 
मम्मी जो भी हो हम आपको लेकर ही चलेंगे .
तीस्ता डैम पश्चिम बंगाल
और उन्होंने 9 मई के टिकिट कैंसल कर 16 मई के टिकिट बुक कराए . 12 को चुनाव सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ . मैं पन्द्रह को बैंगलोर पहुँच गई और इस तरह 16 मई की सुबह हम लोगों ने बागडोगरा के लिये प्रस्थान किया .विहान बहुत खुश था क्योंकि मैं उसके साथ थी और मैं भी बहुत खुश थी कि पूरे दस दिन मैं और विहान साथ रहने वाले हैं .
बागडोगरा हम लगभग ग्यारह बजे पहुँच गए . वहाँ अविनाश (ड्राइवर) इनोवा के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था . सिलीगुड़ी होते हुए हम जयगाँव की ओर चल पड़े . यह पूरा सफर सफर काफी मनोरम था .सिलीगुड़ी से तीस्ता डैम तक तो रास्ता बेहद ही खूबसूरत है . साफ पानी से भरी पूरी चौड़ी तीस्ता नहर के किनारे कतारबद्ध खड़े पेड़ पानी के दर्पण में अपना रूप निहारते हुए विमुग्ध थे . बढ़िया चौड़ी सड़क पर हमारी इनोवा दौड़ नही रही जैसे पानी में तैर रही थीं .विशाल तीस्ता डैम जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि तीस्ता नदी पर बना है .नीले-हरे जल वाली वही तीस्ता जो सिक्किम में हर जगह हमारे साथ थी .
जयगाँव---
चारों ओर चाय के खूबसूरत बागानों से घिरा जयगाँव पश्चिम बंगाल का ही नहीं भारत का भी अन्तिम शहर हैं और सीमा भी है फिर भी मुझे काफी उपेक्षित सा लगा . अव्यवस्थित  भीड़ भरा बाजार सफाई का नाम नहीं . सड़क भी कहीं कहीं खराब थी. ऐसा शायद इसलिये लगा क्योंकि हम शायद मुख्य बाजार से नहीं निकले थे .इसलिये जाते समय हमें भूटान का वह सुन्दर प्रवेश-द्वार भी नहीं मिला जो हमें लौटते हुए मिला था .और इसीलिये हमें पता ही नही चला कि कहाँ से विदेश की धरती आरम्भ होगई 
फुंशुएलिंग की फुहारों नहाई सड़क 
"जहाँ से भीड़भाड़ रहित साफ सुन्दर सड़क शुरु हो जाए वहीं समझ लें कि हम भूटान में आ गए .”–अविनाश ने कहा था.
" क्या !" 
जी हाँ आपको केवल सड़क देखकर ही पता चल जाएगा कि अब आप इण्डिया में नहीं ,भूटान में हैं .
मुझे थोड़ा अजीब लगा पर सच यही था .भूटान की सड़कें सचमुच बहुत साफ सुथरी व सुन्दर हैं . इसके पीछे वहाँ जनसंख्या की कमी और प्रशासन की सजगता दोनों ही तथ्य हैं . 
मुझे ध्यान आया कि सड़क पर देहरी जैसा हल्का सा गतिरोधक और छोटी सी चैकपोस्ट पार की थी वही भूटान की सीमा रेखा थी . अजीब बात . हम दूसरे देश में आराम से आगए न किसी ने रोका न टोका .
मैडम भूटान में सात कि.मी. तक बिना पासपोर्ट या परिचयपत्र के आ जा सकते हैं .—अविनाश ने बताया-- भूटान के लोग जयगाँव में आकर सब्जी –सामान खरीदते हैं और जयगाँव के लोग भूटान में सुबह सैर-सपाटा करते हैं .
जयगाँव का विहंगम दृश्य
वाह ,क्या बात है . पड़ोस हो तो ऐसा हो .  
उजाला रहते हम फुएन्शुलिंग पहुँच गए . भूटान का यह शहर जयगाँव से लगा हुआ है . यहीं भूटान भ्रमण के लिये परमिट लेना होता है .और फोटो ,फिंगरप्रिंट आदि औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं .
सर सुबह जल्दी परमिट का काम निपटा लें .ताकि थिम्पू समय से पहुँच जाएं . और क्योंकि कल शनिवार से दो दिन छुट्टी रहेगी . ऑफिस बन्द रहेंगे . आपको मुश्किल होगी.. .—अविनाश ने पहले ही ही बता दिया था .
हमने पार्क होटल में रात्रि विश्राम किया .
नेहा (निहाशा) के साथ
होटल की खिड़की से सुन्दर सड़क बाजार और सुदूर हरी भरी चोटियों देखते हुए मन पुलक और रोमांच से भर गया .अपने देश से बाहर परदेस की धरती पर यह मेरा पहला कदम था. पर वास्तव में अभी परदेस का एहसास बिल्कुल नही हो रहा था . न लोग न भाषा . न पासपोर्ट की जरूरत न अँग्रेजी की बध्यता . सब हिन्दी बोल समझ रहे हैं . खाना भी अपने होटलों जैसा ही था.. 
सुबह चाय नाश्ता लेकर हम लोग परमिट के ऑफिस (जो पार्क होटल के पास ही है ) गए . नेहा और विवेक के प्रयासों से ग्यारह बजे तक सारी औपचारिकताएं पूरी होगईं . इस तरह के कार्यों में नेहा बहुत ही कुशल और सक्रिय है . टिकिट बुकिंग से लेकर , भ्रमण की सारी योजना , दर्शनीय स्थान , दिन ,होटल ,ड्राइवर सब कुछ उसी ने तय की थी जो काफी व्यवस्थित और शानदार थी .
लंच के बाद अब हम थिम्पू जाने के लिये ड्राइवर की प्रतीक्षा कर रहे थे . अविनाश का साथ बागडोगरा से फुन्शुएलिंग तक ही था . अब गाड़ी और ड्राइवर दोनों ही नए लेने थे . काफी देर बाद ड्राइवर आया . विकास नाम का वह नेपाली युवक हमें काफी चुस्त-दुरुस्त और भला लगा .लेकिन लम्बी प्रतीक्षा की खीज उस पर उतरे बिना न रही .
फुएनशुलिंग से थिम्पू लगभग 175 कि.मी. है जैसा कि अविनाश ने बताया था . पहुँचने में पाँच से छह घंटे कम से कम लगेंगे ही . उस समय दो बज रहे थे .मन्नू ने कहा--
आने में काफी देर करदी विकास भाई ,हम कबसे इन्तजार कर रहे हैं . थिम्पू पहुँचते रात होजाएगी .जबकि हमें जल्दी पहुँचना था .
सर आप चिन्ता न करें . सब मेरे ऊपर छोड़दें आपको कोई परेशानी नही होगी .”-विकास ने मुस्कराते हुए विनम्रता के साथ कहा .
चूखा में गुलाब
फुंशुएलिंग से ही चढ़ाई और पहाड़ों का सौन्दर्य शुरु होता है .पूरे रास्ते आँखें इनोवा की खिड़की पर लगी विमुग्ध होती रही . सुन्दर सर्पिल सड़क पर जब लहराती हुई गाड़ी सड़क के मोड़ों को गिनती हुई पहाड़ों की ऊँचाइयों को नाप रही थी ,मुझे सिक्किम याद आ रहा था .बिल्कुल वैसे ही पेडों से ढँके-छुपे हरियाले पहाड़ , वैसे ही पहाड़ की परिक्रमा करते ऊपर नीचे झूलते हुए से रास्ते , ऊँचे पेड़ों की ओट से आँख-मिचौनी खेलता आसमान ,रोम रोम में स्फूर्ति भरती ताजी हवा , जहाँ तहाँ पत्थरों की खामोशी को तोड़ते खिलखिलाते छोटे छोटे झरने , और अकेले में भी खुशी का इज़हार करते जाने अनजाने फूल...मन उल्लास व ऊर्जा से भरता जा रहा था.
सिक्किम और भूटान एक सी ही धरते के दो लाल .शासन के अलावा केवल भवन निर्माण कला और सुन्दर चौड़ी सड़क सिक्किम को भूटान से अलग करती है . यह बात अलग है कि थिम्पू तक यह सड़क हमारे देश के सहयोग से ही बनी है .
पेड़ों के कन्धों पर सोए बादल
बीच में चूखा नामक स्थान पर चाय पानी के लिये कुछ देर रुके . मौसम और भी सुहाना होगया था . बादल पेड़ों के कन्धों पर आ टिके थे . सुदूर सामने एक झरना हरे कुरते में टँकी मोती की लड़ी जैसा लग रहा था या कि जैसे हरी स्लेट पर किसी बच्चे ने खड़िया से टेढ़ी मेढ़ी सी लकीर खींच दी हो . चूखा बेहद खूबसूरत जगह है .यहाँ बेशुमार खिले गुलाब के बड़े बड़े फूल ललचाते हैं . उनका आकार चकित करता है कि आखिर इस मिट्टी में ऐसा क्या जादू है .
चूखा में भारतीय सड़क संगठन का कैम्प है . वांग चू (नदी) पर भारत के ही सहयोग से बनी विद्युत जल परियोजना है .यह भूटान की आय का महत्त्वपूर्ण घटक है . भारत बड़े पैमाने पर भूटान से बिजली खरीदता है ...यह सब विकास बता रहा था . मेरा ध्यान तो गुलाव के बड़े बड़े फूलों में अटका था .
फुनशुएलिंग से थिम्पू तक कितने पहाड़ पार किये याद नहीं . जब ऊँचाई पर दौड़ती हुए गाड़ी घूमती हुई नीचे उतरती तब समझ में आता कि अब दूसरा पहाड़ चढ़ना है . यों चढ़ते उतरते ही वह सुन्दर लेकिन लम्बा रास्ता पूरा किया . अगर सपाट रास्ता होता तो वह दूरी बहुत सिमट गई होती . बीच में एक पुल मिला .उसके पार बाईं तरफ रास्ता था . विकास ने कहा कि यह पारो की तरफ जाता है .हमारा अन्तिम पड़ाव पारो में ही था .   
सूरज पहाड़ों के पीछ उतर गया था .साँझ पहाड़ों को सुला रही थी .हवा हल्की थपकियाँ दे रही थी . दूर से जगह जगह बेशुमार जुगनू से चमकते दिखने लगे तो पता चला कि हम थिम्पू पहुँच रहे हैं .

जारी ........