मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

चाँदनी मुस्कान है .

धूप नभ का गर्व है अभिमान है
चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है ।

दीप्त अविचल गगन का विश्वास है.
नयन में सौन्दर्य की यह प्यास है .
रात के कोमल हृदय का गान है
चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है ।

चन्द कवि ने लिख दिये कितने
रुपहले छन्द ये ।
मौन कोई पढ रहा है
प्रीति के अनुबन्ध ये .
रूपधन सी मानिनी का मान है
चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है ।

रात जागी अँखड़ियों में 
बुन लरजते ख्वाब .
पँखुड़ियों में भर रही 
चुपचाप रंगोआब .
पलक आँसू अधर पर मधुगान है 
चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है . 

गाँव की अल्हड किशोरी
खेत, नदिया ताल .
लो ,गई है भूल अपना
रेशमी रूमाल ।
महकते ये अनछुए अरमान है

चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है ।
(1999 में रचित)

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

झूला ,भुजरिया,' भेजा', और ' डढ़ैर'

अपने गाँव की बात 
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इन चार शब्दों में कम से कम दो नाम अटपटे और आपके लिये अपरिचित होंगे शायद .(स्थानीय नाम जो हैं ) लेकिन इनमें रक्षाबन्धन के साथ मेरे बचपन की उजली स्मृतियाँ उसी तरह पिरोई हुई हैं जैसे धागा में मोती .
यों तो हमारे लिये पहली वर्षा का मतलब ही सावन का आना हुआ करता था और सावन का मतलब झूला . 
जैसे ही उमड़-घुमड़कर बादल घिर आते और बूँदों से धरती गदबदा उठती , हमारे मन में झूलने की अभिलाषा गमक उठती थी ,लेकिन माँ का सख्त निर्देश था कि हरियाली अमावस्या तक रस्सी और 'पटुली'( लकड़ी की तख्ती जिसे रस्सी में फँसाकर उस पर बैठकर झूला जाता है ) का नाम तक नही लिया जाएगा .दादी कहतीं थीं कि इससे पहले जो 'पटुली' पर बैठेगी उसके बड़े बड़े फोड़े निकल आवेंगे .
इसलिये भले ही आषाढ़ की पहली बारिश से लेकर सावन की पहली चतुर्दशी तक बादल उमड़-घुमड़कर ,बिजली चमक-बमककर , मोर पपीहा पुकार-पुकारकर और आम नीम की डालियाँ झूम झूमकर हमें झूलने के लिये लाख बार आमन्त्रित करती रहतीं, पर हमारा सारा ध्यान हरियाली अमावस्या के दिन पर चिपका रहता था जैसे  बच्चों का ध्यान 'मोटू-पतलू' और ' डोरेमोन' या रेफ्रीजरेटर में रखे जूस व चॉकलेट पर रखा रहता है . हम बड़ी बेसब्री के साथ उस दिन इन्तजार करते थे मानो वह हमारा बड्डे हो और हमें बहुत सुन्दर कोई प्यारा उपहार मिलने वाला हो .
हरियाली अमावस्या का दिन हमारे बचपन के इतिहास में बेहद खास दिन रहा है . बाग में से लाए मेंहदी के हरे पत्तों को सिलबट्टे पर पीसना और पीसते पीसते हाथों का मेंहदी से रच जाना ,रसोई से निकलकर शुद्ध देशी घी की महक का दूर गली में फैल जाना ( तब पूरी ,हलवा ,पुए या अन्य पकवान बनने का मतलब कोई खास त्यौहार ही होता था ) और माटी के गमलों या पुराने मटकों को तोड़कर बनाए गए पात्रों में भुजरिया बोना ,..और ऊँचे टाँड़ पर सालभर से बन्धक बनाकर रखी गई रस्सी और पटुली का मुक्त होकर नीचे उतर आना ...और तब लगता था कि सावन ,लो वह खड़ा है द्वार पर . 
इसके बाद की पन्द्रह रातें गीतों –मल्हारों की मीठी गूँज से क्रमशः उजाली होती जातीं हैं .
भुजरिया ( स्थानीय भाषा में पन्हौरा) बोने की प्रक्रिया मुझे बड़ी अच्छी लगती थी .छलनी से छानी हुई मिट्टी, राख ,गोबर का चूरा एक निश्चित अनुपात में मिलाकर एकसार किया जाता था फिर उसे मिट्टी के बर्तन में बिछाया जाता था . उसमें गेहूँ या जौ के दाने बिखेर कर शुद्ध मँजा हुआ पानी डालकर पात्र को अँधेरे में रख दिया जाता था .(भुजरियाँ सुनहरी पीली उगें ( हरी नही )इसीलिये उन्हें अँधेरे में रखते हैं ). घर में जितनी लड़कियाँ होतीं उतने ही भुजरिया के पात्र तैयार होते थे .और पूर्णिमा तक उन्हें कोई नही देख सकता था .पन्द्रह दिन बाद जब हम उन गमलों में गेहूँ-जौ के लम्बे सुनहरे लच्छे लहलहाते देखते थे तो मन गर्व और खुशी से लबालब होजाता था . भुजरिया जितनी लम्बी और सुनहरी होतीं उतनी ही शुभ मानी जातीं थीं . यह अच्छी फसल होने का संकेत माना जाता था .
मैंने देखा था कि गाँव में चाहे बहन भारी जेवरों व कीमती कपड़ों से सजी बुलैरो में बैठकर आए या थैले में एक जोड़ी कपड़ा डालकर , दस-पन्द्रह रुपए के नारियल बतासे लेकर , भरी बसों में धक्के खाती हुई , कण्डक्टर से दो-चार रुपए के पीछे झगड़ा करके आए . चाहे वह युवती हो या अधेड़ हो ( कभी कभी तो बूढ़ी भी ) ,पर पीहर आने का उल्लास ही अलग होता है . शायद इसलिये कि बाबुल की देहरी पर आकर एक बार फिर बचपन को जीने का मौका मिल जाता है.
सावन की पूर्णिमा के दिन दोपहर को भाइयों की कलाइयों पर राखी सजाई जातीं हैं तिलक लगाकर नारियल मिठाई दी जाती है . और शाम को भुजरिया-मेला. 
भुजरिया सिराने का उत्सव रक्षा-बन्धन पर्व का सबसे उल्लासमय आयोजन होता था (है) सन्दूकों में से नए कपड़े निकल आते ,जो खासतौर पर इसी के लिये सम्हालकर रखे जाते थे .जिसके पास जैसा और जितना भी साज-श्रंगार होता किया जाता .
नव विवाहिता लड़कियों के लिये यह और भी उमंग-उल्लास का अवसर होता था क्योंकि विवाह का पहला सावन उनके लिये ससुराल से सोहगी( कपड़े ,श्रंगार की चीजें ,खिलौने और यथासामर्थ्य जेवर ) लेकर आता था अपनी सहेलियों में नई नई ससुराल और पति विषयक बातों को बतियाने  से अधिक रसीला और आवश्यक कार्य उनके लिये कुछ नही होता . तब उनके चेहरे का उल्लास और चमक देखते ही बनती है .
हमारे गाँव के बिल्कुल करीब ही एक छोटी सी नदी बहती है . उसी की बरसात में भरीपूरी धारा में भुजरियाँ सिराई जातीं हैं . सिराने के बाद पल्लू या दुपट्टा के छोर में बँधे हुए गेहूँ रेत में दबाते हुए सहेलियाँ आपसे में भरे हृदय से कहती हैं –मैं न रहूँ तो मेरे भैया को यह खोंह ( गढ़ा धन ) बता देना .” यह छोटी सी परम्परा भाई के लिये बहन के गहरे लगाव और त्याग की प्रतीक है . कहते कहते मेरा तो दिल भर आता था .सचमुच मायके में 'माँ-जाये' से प्यारा कौन हो सकता है . 
शाम को गाँव के सभी लोग परस्पर घर घर जाकर लड़कियों से भुजरिया माँगते हैं और पाँव छूकर बदले में कुछ न कुछ भेंट करते हैं . यह समाज में भाईचारे और कुटुम्ब जैसी भावना को मजबूत करने वाली परम्परा है  . हालांकि समय के प्रभाव से गाँव भी अब अछूते नही है फिर भी काफी कुछ बचा हुआ है .
यह दिन ससुराल में रच बस गईं वर्षों की बिछड़ी सहेलियों को मिलाने का एक मौका होने के कारण और भी उल्लासभरा होता है .मैं आज भी याद करती हूँ कि राखी पर गाँव में पुष्पा , शीला ,कुसुम आदि सहेलियाँ आई होंगी कितना अच्छा लग रहा होगा ..मुझे आज भी गाँव के सावन की बहुत याद आती है .बादलों की छाँव में हरे भरे खेत-किनारे , नदी की उमड़ती धारा ,जगह जगह नाचते पुकारते मोर ..बाड़ों पर छाईं तमाम तरह की बेलें ,फूल गीली गमकी धरती ..सचमुच वर्षाऋतु का पूर्ण सौन्दर्य गाँवों में ही दिखाई देता है . वर्षा ही क्यों शरद् शिशिर और वसन्त भी तो .. 

भेजा फोड़ना ( यह स्थानीय शब्द है इसका अर्थ है निशाना लगाना ) भी इस पर्व का एक रोचक प्रसंग है . निशानेबाजी की परीक्षा भी .वैसे गाँवों में निशानेबाजों की कमी नही होती .
लेकिन इस अवसर पर डढ़ैर का उल्लेख नही किया तो प्रसंग अधूरा ही है . यह स्थानीय सामूहिक नृत्य है पता नही इसका सही नाम क्या है . गाँव में इसी नाम से जाना जाता है . इसमें ढोल की ताल पर पन्द्रह से पच्चीस तक लोग बड़े सधे हुए कदमों से नाचते हैं . हाथों में डण्डियाँ होती हैं जो एक विशेष गति और लय पर आपस में टकरातीं हैं .समूह के बीच में एक एक करके लोग नाचते हुए ही कई तरह के बड़े अद्भुत करतब दिखाते हैं . यह नाच एक विशेष प्रकार के समूह गान के साथ होता है जिसे गाना भी एक विशेष कला है .हर कोई नही गा सकता . जब गाँव में थी तब मैंने इस पर खास ध्यान नही दिया . तब वीडियो-रिकॉर्डिंग कोई साधन भी नही था . लेकिन अब जब टीवी पर मध्यप्रदेश या अन्य प्रदेशों के आंचलिक नृत्य देखती हूँ तो मुझे गाँव का डढ़ैर नाच याद आता है .पता नही कि यह अभी तक मध्यप्रदेश के लोक कला और संस्कृति विभाग की नजर में क्यों नही आया . आना चाहिये ही . आया होगा भी तो मुझे जानकारी नही है .

बहुत से मेरे परिचित मेरे ग्रामीणा होने को प्रशंसा की नजर से नही देखते .लेकिन मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत मानती हूँ कि मेरा जन्म माटी की सुगन्ध के बीच हुआ है और मानती हूँ कि माटी से विलग होकर कोई भी सच्चे आनन्द का अनुभव नही कर सकता .              

बुधवार, 19 अगस्त 2015

रामौतार सुनो !

बेशक , इसमें तुम्हारी गलती नही थी 
कि , मोह टूट गया तुम्हारा अपने गाँव से ।
अपने खेत--खलिहान ...
और नीम की छांव से ।
कि खींच लिया तुम्हें बाजार ने ।
शहर के व्यापार ने ।

मुझे मालूम है कि
घास फूस या खपरैल की छत
और तुम्हारे घर की दीवारें कच्ची थीं
लेकिन तुम्हारे लिये अच्छी थी ।
गोबर मिट्टी के गारे से
दीवारों की मरम्मत करते हुए
देखा था तुम्हें ऊर्जा से भरपूर
तनाव से दूर ।

याद करो रामौतार ,
कि तुम खुश थे,
खुले आसमान के नीचे ही
तारों से बतियाते हुए ,
गिने--चुने सपनों की चाँदनी तले.
सन्तुष्ट थे ,खरहरी खाट पर ही,
लेते हुए एक भरी-पूरी नींद ।

अपने खेतों को जोतते हुए
या सडक के लिये माटी खोदते हुए
तुम नही थे जरा भी असन्तुष्ट या रुष्ट
राह की धूल से ।
पाँव में चुभे शूल से ।

जब टीवी और अखबारों ने जगाया
प्रगतिवादी विचारकों ने
भोलापन और अज्ञान बताया
तुम्हारी सन्तुष्टि को ।
धरती पर तुम्हारे हाथों रचे
सौन्दर्य के प्रशंसकों ने आकर
तुम्हारा ही खाकर  
तुम्हें अहसास कराया कि
तुम दीन हो ,हीन हो,
छोटे से पोखर में साँस लेती मीन हो.
अज्ञानी, अशिक्षित और पिछड़े हो 
गोबर और माटी में फालतू ही लिथड़े हो.
अभावों से लड़ रहे हो 
गाँव में पड़े बेकार ही सड़ रहे हो 

भागती हुई सी भीड़ ने कहा--
"शहर चल रामौतार ,शहर चल
गरीबी और बेरोजगारी की
दलदल से निकल
सब उन्नति करेंगे ,आगे बढ़ेंगे
टीवी, कम्प्यूटर के जरिेये
दुनिया से मिलेंगे 
तभी देश आगे बढ़ेगा
हर रामौतार उन्नति की सीढियाँ चढ़ेगा ।
मिलेगी मुक्ति कीचड़-धूल से
जाहिल रह जाने की भूल से ।"
तब तुम्हारी क्या गलती कि,
दुनियाभर में तमाम रंग भर देने वाली
तुम्हारी अपनी ही दुनिया तुम्हें
लगने लगी बेरंग और बेढंग.
सभ्य लोग अच्छी नजर से 
कहाँ देखते हैं
गाँव वालों को ?
बेर-बबूल की छाँव वालों को ।
मानते हैं निम्नस्तर
बेहाल बदतर
तुम कबतक सुनते सहते वह सब
और क्योंकर ?
इसीलिये तुम जैसे नींद से जाग गए 
और अपनी जमीन बेचकर
शहर भाग गए ।
यों तो मिल ही जाता है
शहर में कोई न कोई धन्धा ।
उजला या गन्दा ।
तुम बस कमाने लगे हो ।
कितने आसमान आँखों में
समाने लगे हो ।
आसमान , जिससे हर कोई नीचा होता है 
सभ्यता की दौड में बस खींचा हुआ होता है ।

रामौतार ,
तुम्हारी जरा भी गलती नही कि
अब तुम देखना नही चाहते
जाहिल जिन्दगी गाँव की ।
गलती तो उनकी है जो इतराते है
तुम्हारा उगाया अन्न खाते हैं
और तुम्हें जाहिल कहकर
खुद को सभ्य बताते हैं । 
लेकिन रामौतार ,
तुम्हारे साथ धोखा हुआ है ।
जड़ से उखडे हुए पेड से तुम
जब तक समझ सकोगे कि
क्रैडिट कार्ड से खुशियाँ नही खरीदी जा सकतीं ।
कम्प्यूटर से फसलें नही उगाई जा सकतीं ।
अन्न का विकल्प नही बन सकता कोई 'गैजेट'
कोई प्रोजेक्ट, नही मिटा सकता भूख,
अनजान हो चुके होगे तुम अपने आप से ही ।

रामौतार ,भले ही गलती तुम्हारी नही है
लेकिन फिर भी ,
सजा से बच न सकोगे तुम भी ।
पहचानने से इनकार कर देगी तुम्हें
तुम्हारी अपनी सिसकती हुई जमीन ,
जहाँ खडी होंगी बहुमंजिला इमारतें ।
मुर्दा पडे खेतों की छाती पर ।
समय हाथ से जा चुका होगा 
उसे शहर खा चुका होगा
हर खेत ,मैदान और जंगल को ।
गाँव को कही निर्वासित कर हमेशा के लिये ।

शहर जाकर शहर हो रहे
कितने ही सुखी-सम्पन्न रामौतार ,
एक दिन ढूँढेंगे पुरानी खुशियाँ
जिन पर टिकी है सारी दुनिया
दुनिया जब पूरी तरह शहर हो जाएगी ।


सुनो रामौतार ,
यही कामयाबी तुम्हारे लिये 
कहर होजाएगी ।

सोमवार, 27 जुलाई 2015

यह समस्या मेरी है .

एक जंगल से गुजरते हुए ,
लिपटे चले आए हैं ,
कितने ही मकड़जाल.
चुभ गए कुछ तिरछे नुकीले काँटे
धँसे हुए मांस-मज्जा तक .
टीसते रहते हैं अक्सर .
महसूस नही कर पाती ,
क्यारी में खिले मोगरा की खुशबू .
अब मुझे शिकायत नही कि,
तुम अनदेखा करते रहते हो मेरी पीड़ाएं .   
यह समस्या तो मेरी है कि ,
काँटों को निकाल फेंक नही सकी हूँ , 
अभी तक . 
कि सीखा नही मैंने
आसान सपाट राह पर चलना .

कि यह जानते हुए भी कि,
तन गईं हैं कितनी ही दीवारें
आसमान की छाती पर ,
मैं खड़ी हूँ आज भी
उसी तरह , उसी मोड़ पर
जहाँ से कभी देखा करती थी .
सूरज को उगते हुए .

कि ठीक उसी समय जबकि ,
सही वक्त होता है
अपनी बहुत सारी चोटों और पीड़ाओं के लिये  
तुम को पूरी तरह जिम्मेदार मानकर
तुम से ..इसलिये पीड़ा से भी 
छुटकारा पाने का.
और आश्वस्त करने का मैं को ,
मैं अक्सर तुम्हारी की जगह आकर
विश्लेषण करने लगती हूँ ,
तुम' की उस मनोदशा के कारण का , 
उसके औचित्य-अनौचित्य का.
और ...
मैं' के सही-गलत होने का भी .
तब मुक्त कर देती हूँ तुम को
हर अपराध से .
इस तरह हाशिये पर छोड़ा है  
एक अपराध-बोध के साथ सदा मैं को
खुद मैंने ही .

विडम्बना यह नही कि
दूरियाँ सहना मेरी नियति है .
बल्कि यह कि आदत नही हो पाई मुझे
उन दूरियों की अभी तक .
जो है ,जिसे होना ही है
उसकी आदत न हो पाने से बड़ी सजा
और क्या हो सकती है .

पता नही क्यूँ ,
जबकि जरूरत नही है
उस पार जा कर बस गए लोगों को,
मेरा सारा ध्यान अटका रहता है
एक पुल बनाने में .
उनके पास जाने के लिये ,
जिनके बिना रहना
सीखा नही मैंने अब तक .
चली जा रही हूँ उन्ही के पीछे 
जो देखते नही एक बार भी मुड़कर .

यह मेरी ही समस्या है कि,

कि मुझे हवा के साथ चलना नही आता 
नहीं भाता ,धारा के साथ बहना .
प्रायः बैर रहता है मगर से ही , 
जल में रहते हुए भी .

यह समस्या मेरी ही है
कि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे मलालों 
और सवालों के घेरे में 
खुद ही .  

(200 वीं पोस्ट) 


मंगलवार, 21 जुलाई 2015

वह कहानी वाली बात


वैसे तो कई कहानियाँ ,जबसे मैंने सुनना समझना शुरु किया था ,मेरे ,हमारे साथ लगी हुई हमें निर्देशित करती आ रही हैं ,जिन्हें कुछ को हमने पढ़ा है और कुछ माँ ने सुनाईं थीं.उन्ही में से एक कहानी अकबर-बीरबल की है जिसकी मुख्य बात है कि ," दिल की दिल से राह होती है . यानी किसी के बारे में जो भाव आप रखते हैं दूसरा भी स्वतः वैसा ही आपके लिये सोचता है ."
बादशाह ने बीरबल की बात का परीक्षण एक लकड़हारे और बुढ़िया पर किया और सच पाया .
मैंने भी अक्सर इसे सच ही पाया है और उसी भरोसे पर एक लम्बा रास्ता तय भी किया है .हाँ कभी-कभी अति निकटस्थ अपने ही कुछ लोगों के कारण इसकी सच्चाई पर सन्देह भी हुआ है .
लेकिन इस बार यात्रा में ,जब पिछली बार बैंगलोर से ग्वालियर जा रही थी ,और उसके बाद जो अनुभव हुए हैं उनके अनुसार तो उस सच्चाई को पूरी तरह नकारने का मन होने लगा है .
यात्रा की ही बात करें तो इस बार की यात्रा कुछ अलग सी रही . अलग इसलिये  कि इटारसी पर कुछ व्यवधान आने के कारण ट्रेन गुजरात और राजस्थान से गुजरती हुई लगभग पन्द्रह घंटे लेट आठ बजे मथुरा पहुँची थी .यों तो कोई असुविधा नही थी . सेकण्ड एसी में लोअर बर्थ और अच्छे सहयात्री थे जिनमें आगरा की मिसेज श्रीवास्तव और गुलबर्गा के श्री संजूकुमार (सपरिवार) थे .मिसेज श्रीवास्तव अपनी बेटी के पास रहकर लौट रही थीं और संजूकुमार अपनी पत्नी की राष्ट्रपति-भवन देखने की इच्छा पूरी करने दिल्ली जा रहे थे .जैसा कि अक्सर होता है ,पच्चीस-तीस घंटों में हमारे बीच परिचय के साथ तमाम बातें होतीं रहीं .
ट्रेन अब नए रास्ते से गुजरेगी यह सोचकर मुझे अच्छा लग रहा था . लेकिन अलग खासतौरपर इसलिये कि एक प्रसंग ने मुझे हैरान भी किया और आहत भी . नया पाठ सीखने तो मिला ही .
क्योंकि मथुरा से रात में ही ट्रेन या बस द्वारा ग्वालियर जाना था इसलिये मैं सोच रही थी (भयवश नही )कि काश ग्वालियर जाने वाला कोई और भी साथ होता . तभी मुझे पता चला कि ग्वालियर जाने वाले कई लोग हमारे डिब्बे में ही हैं .जाहिर है कि मुझे काफी राहत महसूस हुई . कहा भी जाता है कि एक से भले दो . इनमें कुछ लोग बैंगलोर स्थित श्री रविशंकर जी के आश्रम से सत्संग करके लौटे थे और कुछ सत्य सांई आश्रम पुट्टीपर्थी से .
लेकिन हुआ यह कि कुछ लोगों ने मथुरा से अपने लिये इनोवा तय करली थी . एक-दो मथुरा में ही रुक रहे थे . एक सज्जन जो रतलाम से ही साथ चलने की बात करते रहे थे बोलेमैडम वैसे तो गाड़ी में जगह की कमी है . जगह किसी तरह बना भी लेंगे लेकिन किराया हजार रुपया किराया देना होगा . आप देखलो.. .वैसे वो आंटी भी ग्वालियर ही जा रही हैं ." उन्होंने एक महिला की ओर संकेत किया .
उनका संकेत स्पष्ट था .वे मुझे साथ नही ले जाना चाहते थे .किराए की बात गौण थी. वैसे भी हमें किसी को भी किराया देने की जरूरत नही थी . वही टिकिट मान्य था .पता नही उन्होंने यह सोचा या नही .मैंने कहा-
कोई बात नही ..अभी एपी (आन्ध्र-एक्सप्रेस) आने ही वाली है .
 वैसे भी ट्रेन का सफर ज्यादा आरामदायक होता है . समय भी कम लगता  है  और बेशक किराया भी लगभग न के बराबर है ,यदि देना भी पड़ता .मुझे कोई मुश्किल नही थी .सामान के नाम पर सिर्फ एक बैग था . फिर मुझे अकेली ही सफर करने की आदत भी है .
मैंने देखा वह एक महिला बैशाखियों के सहारे चली रही हैं . ऊँचा कद , मजबूत काठी , खिचड़ी बाल  उम्र पैंसठ-सत्तर के बीच की होगी . दुबला-पतला सा एक लड़का उनका सामान उठाए था . वे धीरे धीरे चल रही थीं . जबकि साथ वाला लड़का सामान लेकर काफी आगे निकल गया . उनकी स्थिति देख संवेदना शिष्टाचार वश मैं भी तेज चलकर उनके साथ ही चलने लगी . और निश्चित जगह पर उन्हें एक बैंच पर बिठा दिया . बुजुर्गों के लिये मेरे मन में हमेशा आदर-भाव रहता है .
आपके लिये पानी लाऊँ ?”--मैंने पूछा .                         
नही मेरे पास है .
आप बैंगलोर से ही रही हैं न?
हाँ . पुट्टीपर्थी से और...?
मैं भी.बैंगलोर से ही रही हूँ
उनका जबाब मुझे कुछ रूखा और संक्षिप्त लगा लेकिन मैंने ध्यान नही दिया .तभी ट्रेन आगई . हमें आसानी से सीट मिल गई  ट्रेन चलते ही टीसी महाशय आगए . उन्होंने उन महिला का टिकिट देखा और बिना सवाल किये लौटा दिया .फिर मुझसे पूछा--
"कहाँ जाना है ?"
"ग्वालियर ."–मैंने टिकिट देते हुए कहा .उन्होंने टिकिट देखा
यह टिकिट नही चलेगा .दूसरा लेना होगा .
क्यों सर ?
यह टिकिट दिल्ली तक का है .
हाँ लेकिन मुझे तो ग्वालियर ही उतरना था .
इसमें तो ऐसा उल्लेख नही है .
उल्लेख कैसे होगा .टिकिट बैंगलोर से दिल्ली तक का बुक किया था .तत्काल में ऐसे ही आसानी से मिल पाता है ."
"मैं आपकी बात कैसे मानलूँ ?" 
"माननी तो पड़ेगी सर ,मैं जो कह रही हूँ .
आपके कहने से क्या होता है ?
तो फिर किसके कहने से होगा ?" –मुझे सुनकर बड़ा अजीब लगा .बोली--
 "आपकी समझ में नही आ रहा कि अगर मुझे दिल्ली जाना होता तो उसी ट्रेन में जाने की बजाय यहाँ क्यों होती ? हम तीनों ही तो ग्वालियर जा रहे हैं .मैंने उन महिला और उनके साथ के लड़के को शामिल करते हुए कहा . एक तो टीसी ने उनसे कुछ नही कहा था .फिर हमारा गन्तव्य भी एक ही था . मैंने उसी भाव से कह दिया .
वे तो आगरा जा रही हैं . उनका टिकिट आगरा का है ( यह मुझे मालूम नही था ) आपको टिकिट लेना पड़ेगा .
"जरूरी  होगा तो मैं जरूर ले लूँगी .पहले आप ठीक से पता कर लीजिये."
ठीक है, ठीक है .-.कहकर वे महानुभाव तो चले गए .फिर लौटकर नही आए पर उसके जाते ही मेरे साथ बैठी महिला ने एक पत्थर सा उछाला-
अपने काम से काम रखा कर .समझी !
स्पष्ट तो नही था फिर भी मुझे यकीन होगया कि वे मुझसे ही कह रही थीं .मन नही माना पूछ ही लिया .
आपने मुझसे कुछ कहा ?
हाँ तुझसे ही कह रही हूँ . तूने हमारा नाम क्यों लिया ? हम कहीं भी जारहे हैं तुझे क्या ?
मैं हैरान .वो मेरे लिये ऐसा सोचेंगी, मेरी कल्पना में भी नही था इसलिये अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये कहा--
“ माताजी हम साथ ही जा रहे हैं इसलिये ऐसा कह दिया . मुझे मालूम नही था कि आपको बुरा लगेगा .पर ऐसा तो कुछ अनुचित नही कहा .
आई बड़ी माताजी वाली ..कह भी लिया और कह रही है कि कुछ अनुचित नही कहा बेशरम कहीं की .” बेशरम शब्द सुनकर मुझे सचमुच गुस्सा आगया ,बोली --
आप तो नाहक ही फालतू बातें किये जा रही हैं . मैं आपकी उम्र का लिहाज कर रही हूँ ....
नही तो क्या करेगी ? हाँ  ?
मैं इस अप्रत्याशित प्रहार से एकदम हिल गई . उसने मुझे खुली चुनौती दे डाली . इसके बाद मुझे चुप रहना ही उचित लगा .एक अपाहिज और वृद्ध महिला से उलझने पर लोग मुझे ही समझाते और मैं भी अन्ततः खुद को ही दोष देती रहती .
वह कुछ देर बड़ बड़ करती रही फिर खाना मँगाकर खाया और सामने वाली सीट पर जाकर सो गई . 
उस समय रोष से अधिक मेरी जिज्ञासा प्रबल थी कि आखिर यह महिला कौन है . और ऐसा इसके पास क्या है कि यह किसी के भी साथ ऐसा बर्ताव करने के लिये स्वतंत्र है .बहुत कोशिश करने पर उस लड़के ने डरते हुए केवल इतना ही बताया कि वह उसका नौकर है . डीबी सिटी में बेटी के साथ रहती हैं.स्वाभाव भी ऐसा ही है .
वास्तव में ऐसा बर्ताव मुझसे  किसी  ने नही किया था . वह भी बिना किसी विशेष कारण के . कम से कम बाहर के किसी व्यक्ति ने तो कभी नही. आखिर मैंने उससे ऐसा क्या गलत कह दिया था ?
उत्तर में बेटे ने कहा कि गलत न भी हो पर आपको जरूरत नही थी उसका हवाला देने की .
मेरे लिये सचमुच यह नई सीख है . 
बेटे बैंगलोर में है इसलिये आना जाना बना रहता है .सफर में तमाम लोग मिलते हैं .खूब बातें होतीं हैं . यहाँ तक कि परस्पर फोन व पते तक नोट कर लिये जाते हैं .एक दो से तो स्थाई परिचय होगया है .
फिर मेरे अन्दर से गाँव और मोहल्ला बोल ही पड़ता है इसलिये यह सीख आगे काम ही आएगी . 
लेकिन यहाँ कहानी वाली बात तो गलत ही सिद्ध होगई . क्या नही ?