गुरुवार, 26 जनवरी 2017

राजनीति में आवश्यकता है देशभक्त नौजवानों की .

दो साल पहले लिखा गया यह आलेख आज भी प्रासंगिक है
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देशभक्त, देश को अपना और अपने से अधिक महत्त्वपूर्ण मानने वाले लोग . अपने कार्य को निष्ठा व ईमानदारी से पूरा करने वाले लोग . देश के इतिहास भूगोल और संस्कृति को जानने ,समझने और उसपर गर्व करने वाले लोग . वैयक्तिक दायरे से बाहर निकल समाज व राष्ट्र के प्रति अपना दायित्त्व सझने वाले लोग और अपने देश को अपने अपने स्तर पर सर्वोपरि और उन्नत बनाने के प्रयास  निरन्तर करते रहने वाले लोग .
देश का सुनहरा वर्त्तमान और भविष्य ऐसे ही लोग सुनिश्चित किया करते हैं . हमें आज ऐसे ही देशभक्त नौजवानों की आवश्यकता है जो आगे आएं और भ्रष्टाचार , स्वार्थ , बैठे-ठाले नाम दाम पाने की नीयत जैसी हर प्रवृत्ति को निकाल फेंकें  . 
देश में ऐसे देशभक्त थे इसलिये वे विदेशियों से टकराए और हमें आजादी नसीब हुई . असंख्य स्वाभिमानी देशभक्तों ने संघर्ष किया क्यों ? जाने अनजाने बेशुमार क्रान्तिकारी वीरों ने अपने प्राणों निछावर किये क्यों ? भगतसिंह , आजाद ,सुखदेव, अशफाक आदि नौजवानों को क्या पड़ी थी कि हँसती खेलती जिन्दगी के सुखों को ताक़ पर रख फांसी पर झूल गए . सुभाषचन्द्र बोस जैसे वीरों को क्या पड़ी थी कि अपना सारा चैन गँवाकर देश के लिये मर मिट गए .विदेश से वकालत पढ़कर आए मोहनदास से क्यों आराम से नहीं रहा गया . क्या वे पागल थे ? नही , वे सब देशभक्त थे . क्योंकि उनकी रगों में राष्ट्रीयता हिलोरें ले रही थी .अन्यथा वे भी गद्दारों की तरह मौज-मजे और आराम की जिन्दगी बिताते .आजादी कोई पका हुआ फल नही थी कि हाथ बढ़ाया और तोड़ लिया .उसके लिये लोगों ने अपना तन मन धन और अपना सर्वस्व देश को समर्पित किया था .
आज भी देश में देशभक्त और अपने कार्य के प्रति ईमानदार लोग हैं जिनकी बदौलत उम्मीदें बनी हुई हैं .कार्य सुचारु रूप से चल रहे हैं . प्रगति का मार्ग प्रशस्त है . लेकिन वे बहुत अधिक नही है और जो हैं वे भी अधिकांशतः ऐसे लोगों के अनुसार कार्य करने विवश होते हैं जिनके पास अधिकार हैं ,सत्ता है , पद या धनबल के सहारे सबकुछ मनोनुकूल चाहते हैं . इससे ईमानदार और कर्मशील लोगों का मनोबल टूटता है ,टूट रहा है . 
यही कारण है कि आजादी के चौहत्तर साल बाद भी ,जो बात देश में ,जनजीवन में आनी चाहिये थी वह नही आई है . जो होना चाहिये ,वह नही हो रहा .सरकारी योजनाओं का लाभ जिन्हें मिलना चाहिये उन्हें नहीं मिलता . लोग अपने स्वार्थ के लिये धार्मिक और जातिगत मुद्दों को लेकर समाज में विषमताएं और अशान्ति फैला रहे हैं.आज भी आंचलिक क्षेत्रों में जनजीवन अनेक सुविधाओं से वंचित है . 
इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीति में और महत्त्वपूर्ण पदों पर देश के लिये समर्पित होजाने वाले लोगों की कमी . अपराधिक प्रवृत्ति वाले ,स्वार्थी और अपना घर भरने वाले लोगों की अधिकता .संसद में और टेलीविजन पर बहस करते नेताओं और उनके पक्षधरों की बहसें इसका प्रमाण हैं .राष्ट्र-हित को छोड़ नेता मंत्री दलीय और व्यक्तिगत छोटे छोटे मुद्दों पर बड़े हंगामे करते हैं जूते-चप्पल फिकते हैं ,धक्कामुक्की और हाथापाई तक होजाती है .जनता शर्मसार होती है कि कैसे लोगों को वोट दे दिया .
सत्ताधारी पार्टी पर नियंत्रण रखना उसकी त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण ,विश्लेषण बहस आलोचना आदि विपक्ष का आवश्यक कर्त्तव्य है लेकिन यहाँ तो एक दूसरे को येन केन प्रकारेण गिराना और शक्ति-प्रदर्शन करना प्रमुख है .लोग सिर्फ सत्ता के लिये लड़ते हैं ,मुद्दों के लिये नही .मुद्दे भी चुनाव जीतने के लिये खोद-खोदकर तलाशे जाते हैं .विरोध के लिये विरोध ,हंगामे . हंगामों के विरोध में भी हंगामे .यह कैसा देशहित और कहाँ की देशभक्ति . देशभक्ति शब्द को मज़ाक बनाकर रख दिया है .  
क्या आजादी की लड़ाई लड़ने वालों ने देश का ऐसा सपना देखा होगा .कुछ सोचा होगा .क्योंकि सभी संचार साधनों में अधिकांशतः राजनीति ही छाई रहती है जिसका अच्छा बुरा प्रभाव सीधे जनता पर पड़ता है .व्यावहारिक तौर पर भी हर व्यक्ति आज राजनीति से प्रभावित है .जैसा जनता देख रही है वही सीख रही है . तो सत्ता में , संचार माध्यमों में ऐसे लोग क्यों छाए रहें ? यह तभी संभव है जब सत्ता में देशभक्त और निष्ठावान लोग आएं . आज राजनीति में स्वार्थी भ्रष्ट ,गाल बजाने वाले और सत्ता-लोलुप लोगों की नही सच्चे और देशभक्त नौजवानों की ही जरूरत है . राजनीति स्वच्छ व निष्पक्ष होगी तो निश्चित ही देश का स्वरूप बदलेगा . सच्चा देशभक्त न भ्रष्ट हो सकता है न छुद्र स्वार्थी और न ही अकर्मण्य.
देशभक्त होने के लिये न जान देने की जरूरत है न ही काँटों पर चलने की . आज सच्चा देशभक्त होना यही है कि छुद्र स्वार्थ छोड़ ,जो भी कार्य और दायित्त्व मिला है उसे पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करें. महसूस करें कि अपने जीवन पर परिवार का ही नही समाज और देश का भी अधिकार है . जब सभी लोग ऐसा सोचेंगे तभी सही मायनों में इन पर्वों का सम्मान होगा .तभी राष्ट्रीयता का भाव आएगा जो हर नागरिक में होना चाहिये क्योंकि सत्ता में पहुँचा व्यक्ति भी पहले हमारे बीच का ही नागरिक है.
इस बात को जब हम मन प्राण में रचा-बसा लेंगे तभी इसका सही मर्म समझ सकेंगे .


 जयहिन्द . 

शनिवार, 14 जनवरी 2017

'परब' तिलवा' और मकर-संक्रान्ति--एक संस्मरण

'परब' तिलवा' और मकर-संक्रान्ति--एक संस्मरण

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मकर-क्रान्ति से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है , सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर गति करता है ,यानी सूर्य का उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है । आज के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने जाता है इसलिये लोग तिल का दान करते हैं ।..वगैरा वगैरा .”

तब बड़े- बुजुर्गों की इन बातों से हमारा कोई वास्ता नहीं था । हमारे लिये तो मकर-संक्रान्ति का सबसे पहला और बड़ा मतलब था तड़के ही नदी के बर्फीले जल में डुबकी लगाकर 'परब' लेना । दादी और नानी से पहले भी सुन रखा था लेकिन संक्रान्ति से एक दिन पहले भी सुनाना नहीं भूलती थीं -- सुनो ,सूरज उगने से पहले 'परब' (स्नान) लेने से ही पूरा पुण्य मिलता है । वह भी ठण्डे पानी से. जो आज के दिन नहाए बिना कुछ खाएगा ऐसा वह घोर नरक में जाएगा ” 


पता नहीं ऐसे तथ्य किसने खोज निकाले होंगे । किसने इस तरह की परम्पराएं बनाईं होंगी जिनका पालन दादी ,नानी ,माँ आदि बड़ी कठोरता से करतीं थीं । यहाँ तक कि किसी परम्परा को न मानने वाले पिताजी भी तड़के ही नहा लेते थे । लेकिन शायद माँ जानती थीं कि रजाई से निकलकर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में जम जाने की हद तक ठण्डे होगए बर्फीले पानी में डुबकी लगाने के लिये हमें न तो पुण्य का लालच विवश कर सकता है न ही नरक का डर । इसलिये वे दूसरा बड़ा प्रलोभन देतीं थीं -जब तक नदी में चार डुबकियाँ लगाकर नहीं आओगे , किसी को तिलबा( गुड़ की चाशनी में पागी गई तिल के लड्डू ) नहीं मिलेंगे । ”   

यह बात हमें उस सबक की तरह याद थी जिसे याद किये बिना हमारा न स्कूल में गुजारा था न ही घर में । इसलिये ‘मुँह-अँधेरे’ जैसे ही गलियों में लोगों की कलबलाहट गूँजती ,मैं और छोटा भाई रजाई का मोह छोड़कर नदी के घाट की ओर दौड़ पड़ते थे । हमारे गाँव से बिलकुल सटकर बहती छोटी सी 'सोन' नदी , जिसे अब नदी कहना खुद के साथ सरासर छलावा करना होगा , तब गाँव की जीवनरेखा हुआ करती थी । कहीं ठहरी हुई सी और कहीं कलकल करती बहती वह नदी नहाने ,कपड़े धोने और सिंचाई के साथ साथ जानवरों को पीने का पानी और शौकिया खाने वालों को मछली भी देती थी । हमने भी उसके किनारे खूब सीप शंख बटोरे हैं और खूब रेत के घरोंदे बनाए हैं । 
अब 'सोन' अपने नाम को केवल बरसात में ही सार्थक करती हैं । बाकी पूरे साल उसकी धारा उजड़ी हुई माँग सी पड़ी रहती है .क्योंकि लोगों ने पानी को अपनी अपनी फसलों के लिये जगह जगह रोक रखा है । इसी स्वार्थी प्रवृत्ति पर दुष्यन्त कुमार ने क्या खूब कहा है--
"यहाँ तक आते आते सूख जातीं हैं कई नदियाँ ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ।"
खैर....
नदी में डुबकी लगाने से पहले हम अपने यहाँ वहाँ पड़े हौसलों को समेटकर इकट्ठा करते और हमारा इन्तज़ार करते स्वादिष्ट लड्डुओं पर ध्यान केन्द्रित करते और शरीर को इस तरह पानी में फेंक देते जैसे वह किसी और का हो । डुबकी लगाते हुए हमें कुछ नए खास अनुभव हुए थे जो आप सबके लिये काम के हैं –

(1)जैसे कि 'पड़ोस के पंडित जी नहाते समय ऊंची आवाज में जोर जोर से जो 'हर हर गंगे गोदावरी...' बोलते हैं वह भक्ति-भाववश नहीं बल्कि वह ठण्ड को परास्त करने के लिये दी गई हुंकार (war cry) है '..कराटे में भी चिल्लाने के पीछे शायद यही मकसद होगा ।

(2) 'कि ठण्डे पानी से नहाने के बाद सर्दी कम लगती है ।

(3)कि 'नहाने के बाद हर कोई अपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझता है जो नहाए नहीं हैं ।'

(4) कि नहाने से 'माँ की नजरों में भी प्यार और प्रशंसा आ जाती है .जो हर बच्चे के लिये एक उपलब्धि होती है।

(5) पिताजी कहते रहते थे कि ठंडे पानी से नहाने पर जठराग्नि ( जठर यानी पेट की अग्नि )तेज होजाती है इस अजीबेगरीब सी बात को ,जिस पर हम हँसते थे कि यह कैसी आग है जो पानी से बुझने की बजाय बढ़ती है ,हमने सही पाया।

बहरहाल जब हम नहाकर दाँत किटकिटाते हुए थर थर काँपते हुए लौटते थे तो माँ हमें कम्बल में लपेटकर देवता की तरह पलंग पर स्थापित कर देती थीं और पुरस्कार स्वरूप 'अच्छे' 'सयाने' और बहादुर बच्चे की उपाधि से अलंकृत करके जब तिल के दो दो लड्डू पकड़ा देतीं थी तब सचमुच वह उपलब्धि हमारे लिये किसी राष्ट्रीय पुरस्कार से कम नहीं थी ।


इस पर्व पर गाय बैल की पूजा का महत्त्व तो उस समय मालूम नहीं था । (अब मालूम हुआ है कि लोहड़ी के साथ संक्रांति का सम्बन्ध फसलों से भी है ) एक समय था जब बिना बैलों का किसान बहुत ही गरीब माना जाता था । और गाय का महत्त्व तो हम सभी जानते हैं । तो मिट्टी से बैल गाय जिसे हम गुड़िया कहते थे ) बनाने की बात न करूँ तो बात कुछ अधूरी रहेगी । इन्हें बनाने के लिये भूसे का बारीक चूरा या गोबर मिलाकर मसल मसलकर चिकनी मिट्टी तैयार करना फिर बहुत रच रचकर बैल जोड़ी बनाना सूखने पर सफेद खडिया से रंगना  ,ये सारी तैयारियाँ करते हम लोग ताऊजी ( स्व. श्री भूपसिंह श्रीवास्तव जो शिक्षक होने के साथ बड़े कलाकार भी थे) का अनुसरण करते थे । आँखों की जगह लाल काली घंघुची लगाते थे । सींगों को काला रंगते थे । पीठ पर दोनों तरफ थैलियों वाला ,कपड़े का पलान सिल कर डालते थे जिनमें तिलवा भरे जाते थे । गाय को तो इतनी सुन्दर बनाते थे कि लोग देखते रह जाते थे । मजे की बात यह कि इन्हें पहियेदार बनाकर खिलौनों का रूप देते थे कि कहीं भी घुमा सकें । क्या होगा पता नहीं लेकिन हम बच्चों का उल्लास दुगुना होजाता था । जब तक गाँव में रही मैं अपने बच्चों के लिये हर साल गाय बैल बनाती रही ।
उन दिनों खेतों में गन्ना की खूब होती थी । धन लाभ से अधिक अपना घर का शुद्ध गुड़ बनाने और गन्ना चूसने का ही मकसद हुआ करता था । गुड़ बनने की खुशबू पूरे वातावरण को मिठास से भर देती थी । बच्चे बरगद पीपल के पत्ते लेकर गरम गुड़ खाने खड़े रहते थे । कोई भी किसी को न रस देने से मना करता था न ही गुड़ देने से ।

संक्रान्ति वाले दिन बँटाई वाले भैया बाल्टीभर रस दे जाते। रसखीर बनती । तिल बाजरा की टिक्की के साथ मूँग दाल के मँगौड़े बनते । गाय बैल की पूजा की जाती ।  

उसी दिन मोरपंख-सज्जित साफा बाँधे ,मंजीरे बजाते , "संकराँति के निरमल दान..." गाते हुए फूला जोशी का आते थे तब संक्रान्ति का आनन्द और बढ़ जाता । फूला बाबा को सब लोग खिचड़ी और तिलवा देते थे और वह सबको भर भरकर आशीष ।
गाँव में जीवन अकेले व्यक्तिगत् प्रायः किसी का नहीं होता । दिन में किसी दरवाजे पर किवाड़ बन्द नहीं होते थे । मूल उतारने वाले फूला जोशी , चूड़ियाँ पहनाने वाले जुम्मा मनिहार चाचा ,कंघा ,रिबन बेचने वाले नौशे खां ,आटा लेने वाला धनकधारी ,बहुरूपिया साँई बाबा ,ढोल बजाकर विरुदावली गाने वाला भगवनलाल नट आदि कई लोग थे जिनका गाँव के दाना-पानी पर उतना ही अधिकार था जितना गाँववालों का । कैसा आनन्दमय था वह जीवन ..कहाँ गए वे लोग ,जिनकी खुशी सुख-सुविधाओं की मोहताज़ नही थी ।

 


आप सबको तिल गुड़ की महक और मिठास के साथ मकरसंक्रान्ति की हार्दिक बधाई .

बुधवार, 11 जनवरी 2017

मेरे अजनबी

सफर में अक्सर ऐसे कई मोड़ और चौराहेआते हैं जहाँ हम खुद को अकेला और अनजान पाते हैं .जहाँ न कोई हमारी भाषा समझता है न हम किसी को समझा पाते हैं . अजनबीपन की यह पीड़ा एक बहुत बड़ी त्रासदी है ,खासतौर पर किसी संवेदनशील व्यक्ति के लिये . मैं इसी अजनबीपन को जीते हुए यहाँ तक चली हूँ . अपनी ही समझ और सीमाओं में घिरी उजाले की कल्पना करते हुए अँधेरे में लिखी गई कविताएं  ,केवल अपनेआपको बाँटने का तुच्छ प्रयासभर है .जिनमें अधिकांशतः आप ब्लाग पर पढ़ते रहे हैं पर पुस्तकाकार रूप में भी अब देखी जा सकती हैं . संग्रह से एक और कविता यहाँ दे रही हूँ ---

मेरे अजनबी

वे विचलित हुए बिना ही
देख सकते हैं तटस्थ रहकर
उफनती हुई नदी में
डूबते हुए आदमी को .
उन्हें समझ है कि
डूबते हुए को बचाना,
हो सकता है खुद भी डूब जाना ।
या कि वे हिसाब लगा लेते हैं 
बचाने पर हुई हानि या लाभ के
अनुपात का...

वे पास होकर भी अलग हैं
मुसीबतों से विलग हैं ।
आता है उन्हें खुद को
बचा लेना ,धूल कीचड और काँटों से
पहन रखे हैं उन्होंने
कठोर तल वाले जूते ।
रौंदे जाते हैं रोज कितने ही जीव -जन्तु
बेपरवाही से ।

वे निरपेक्ष रहते हैं
कंकरीट की दीवार से
बेअसर होते हैं उन पर
आँधी--तूफान ,ओले ,भूकम्प
तबाही या दुर्घटनाओं को देखते हैं वे
किसी नेता मंत्री या 
मीडियाकर्मी की तरह ।
वे अति व्यस्त  हैं
कार्य-भार से त्रस्त हैं
रहते हैं हमेशा यंत्रवत्
किसी क्लर्क की तरह
देते हैं अधूरा सा जबाब,
दस बार पूछने पर भी ।
अटका रहता है पूछने वाला,
एक पूरे और सही
जबाब के लिये ।

कितना कठिन होता है
ऐसे अजनबी लोगों के साथ
एक लम्बा सफर तय करना

रोज ही ।