सफर में अक्सर ऐसे कई मोड़ और चौराहेआते हैं जहाँ हम खुद को अकेला और अनजान पाते हैं .जहाँ न कोई हमारी भाषा समझता है न हम किसी को समझा पाते हैं . अजनबीपन की यह पीड़ा एक बहुत बड़ी त्रासदी है ,खासतौर पर किसी संवेदनशील व्यक्ति के लिये . मैं इसी अजनबीपन को जीते हुए यहाँ तक चली हूँ . अपनी ही समझ और सीमाओं में घिरी उजाले की कल्पना करते हुए अँधेरे में लिखी गई कविताएं ,केवल अपनेआपको बाँटने का तुच्छ प्रयासभर है .जिनमें अधिकांशतः आप ब्लाग पर पढ़ते रहे हैं पर पुस्तकाकार रूप में भी अब देखी जा सकती हैं . संग्रह से एक और कविता यहाँ दे रही हूँ ---
मेरे अजनबी
वे विचलित हुए बिना ही
देख सकते हैं तटस्थ रहकर
उफनती हुई नदी में
डूबते हुए आदमी को .
उन्हें समझ है कि
डूबते हुए को बचाना,
हो सकता है खुद भी डूब जाना ।
या कि वे हिसाब लगा लेते हैं
बचाने पर हुई हानि या लाभ के
अनुपात का...।
वे पास होकर भी अलग हैं
मुसीबतों से विलग हैं ।
आता है उन्हें खुद को
बचा लेना ,धूल कीचड और काँटों से
पहन रखे हैं उन्होंने
कठोर तल वाले जूते ।
रौंदे जाते हैं रोज कितने ही जीव -जन्तु
बेपरवाही से ।
वे निरपेक्ष रहते हैं
कंकरीट की दीवार से
बेअसर होते हैं उन पर
आँधी--तूफान ,ओले ,भूकम्प
तबाही या दुर्घटनाओं को देखते हैं वे
किसी नेता मंत्री या
मीडियाकर्मी की तरह ।
वे अति व्यस्त हैं
कार्य-भार से त्रस्त हैं
रहते हैं हमेशा यंत्रवत्
किसी क्लर्क की तरह
देते हैं अधूरा सा जबाब,
दस बार पूछने पर भी ।
अटका रहता है पूछने वाला,
एक पूरे और सही
जबाब के लिये ।
कितना कठिन होता है
ऐसे अजनबी लोगों के साथ
एक लम्बा सफर तय करना
रोज ही ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'