विभाग ने पहली बार हिन्दी-प्रशिक्षण का कार्यक्रम बनाकर ( देर से ही सही ) हिन्दी के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया । वास्तव में देखा जाए तो हिन्दी के प्रशिक्षण और शिक्षण-सुधार की सर्वाधिक आवश्यकता है । हिन्दी के प्रति शासन ,शिक्षक और इसलिये छात्रों में भी ,जो उपेक्षा व उदासीनता का भाव देखा जा रहा है वह शिक्षा की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर गिरावट का संकेत है । क्योंकि हिन्दी महज विषय नही एक ठोस जमीन है जिसपर शिक्षा का भवन मजबूती से खडा हो सकता है । हिन्दी सही है तो हर विषय सही है । हिन्दी माध्यम में तो यह अपरिहार्य है ही अँग्रेजी में भी जरूरी है क्योंकि पढें चाहे जिस माध्यम से पर हमारी मातृभाषा तो हिन्दी ही है ।
लेकिन प्रशिक्षण का उद्देश्य अच्छे परीक्षा-परिणाम हेतु छात्रों की तैयारी कराना था । अगर मैं अपनी बात कहूँ तो परीक्षा की दृष्टि से पढाने का विचार ही सही नही है क्योंकि इससे छात्र का ध्यान केवल परीक्षा पर रहता है । वह विस्तार से पढना ही नही चाहता ।
यही कारण है कि अध्यापन में कुछ नया पढने व खोजने की बात तो दूर ,हमारा पढा हुआ भी विस्मृत होता जारहा है ।
हाल यह है कि सारे विषयों में छात्र की खींचतान होती रहती है । उन्हें किसी तरह परीक्षा में पास कराने की जुगाड में स्कूल ही नही पूरा विभाग लगा रहता है । शिवलाल ,युगबोध ,प्रबोध,केशव ,ज्ञानालोक जैसे प्रकाशनों की सीरीज शाहरुख सलमान की फिल्मों की तरह व्यवसाय करतीं हैं, क्योंकि वे पूरा पेपर 'फँसने' की 'फुल गारन्टी ' देते हैं । ( क्यों देते हैं यह भी अन्वेषण का विषय हो सकता है )
अब जिन्हें ठीक से हिन्दी पढनी व लिखनी नही आती ---( कामर्स की क्लास में 80 प्रतिशत और विज्ञान की कक्षाओं में 50 प्रतिशत ऐसे ही विद्यार्थी है )---उनके लिये व्यंग्यार्थ ,भावार्थ, भाव-विस्तार ,रस निष्पत्ति, अलंकार वाक्य-विश्लेषण आदि पढाने की बात ही कहाँ आ पाती है ! ऐसे में , अगर विभाग परीक्षा की तैयारी करवाने की विधि भी सिखाने वाला है तो यह भी एक बडा पाठ होगा हमारे लिये । इसलिये मन में विद्यार्थी बनकर सीखने का उल्लास था ।
विभाग के ही एक भवन में शिक्षक/व्याख्याताओं के ठहरने की व्यवस्था, खानपान और सोने का प्रबन्ध हमें यह अनुभव करा रहा था कि यहाँ हम कुछ खास हैं जो कुछ खास सीखने के लिये आए हैं । (हालांकि ऐसे विचार हम जैसे कुछ 'टुटपुँजिया 'लोगों के ही थे जो हर तरह की व्यवस्था में अपना काम चला लेते हैं ,यहाँ तो फिर भी ठीक ही था ) वरना हमारी कई साथी व्याख्याता व्यवस्था को घटिया बताते हुए खाना खाकर रात अपने रिश्तेदारों के यहाँ चली जातीं थीं ) खैर ,बात सीधी कक्षाओं की करें क्योंकि कम से कम मेरा ध्यान वहीं था ।
पहली बात तो यह कि यहाँ भी बहुत ही जाने माने स्कूलों की तरह गजब की समय पाबन्दी थी । घडी का काँटा देखकर कथित विद्वजन कक्षा में आते और जाते थे । यह बात अलग है कि प्रतिदिन पाँच कालखण्डों में जो पढाया गया ,अधिकांशतः ऐसा कुछ नही था जो नया , उपयोगी या उल्लेखनीय हो । उसका न उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम से कोई सम्बन्ध था न ही परीक्षा की तैयारी से । जैसे बल्लभ सम्प्रदाय के सिद्धान्त । खडीबोली ( भाषा को बोली बताया ),शौरसेनी प्राकृत अपभ्रंश मागधी आदि बोलियाँ कैसे विकसित हुईं और कहाँ बोली जातीं हैं । शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में मतभेद क्यों थे । एक मैडम ने कबीर काव्य पर शोध-प्रबन्ध लिखा है । वे अपने पीरियड में धाराप्रवाह कबीर के पद और दोहे सुनाती रहीं और बेहद मधुर वाक्चातुर्य द्वारा उनके दर्शन का प्रदर्शन करती रही पर काव्य की व्याख्या एक बार भी नही की । या फिर ऐसे विषय लिये गए जो बहुत ही सामान्य और आम हैं जैसे वाक्यों के भेद अर्थगत् और रचनागत् । अलंकार --शब्दालंकार अर्थालंकार क्या हैं । विराम-चिह्न , द्विवेदीयुग, छायावाद आदि कालों के प्रमुख कवि....।
पर सबसे उल्लेखनीय रहा रस सिद्धान्त का पाठ ।इसे पढकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च स्तर के माने गए उन विद्वानों-विदुषियों का अध्यापन किस स्तर का होसकता है ।
"आहा...रस तो काव्य काव्य की आत्मा है रसात्मकं वाक्यं काव्यं ।"--एक सुदर्शिनी, मधुरभाषिणी प्राध्यापिका चुस्ती-फुर्ती के साथ मुस्कराती आई । उन्होंने आते ही शास्त्र सम्म्त कुछ सिद्धान्तों का व्याख्यान दिया । उनके अधिकार पूर्ण लहजे से हमें आश्वस्ति हुई कि ये कुछ नया जरूर बताएंगी ।
"अच्छा बताइये रस के कितने अंग होते हैं ?"
"मैडम चार अंग होते हैं --स्थायी-भाव ,विभाव अनुभाव और संचारी भाव ।"--एक व्याख्याता ने किसी छात्र की तरह खडे होकर कहा ।
"बहुत बढिया । अब आपको बताती हूँ कि रस निष्पत्ति कैसे होती है । विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । यानी कि भावों का विभाव अनुभाव और संचारी भावों से संयोग ही रस निष्पत्ति कहा जाता है ।"
"मैडम इसी को रस--परिपाक भी कहते हैं ?"
"वो अलग बात है उसे बाद में बताऊँगी पहले एक विषय समझलें ।--उस जिज्ञासु विद्यार्थी को शान्त करते हुए बोलीं -- देखिये कुछ भी समझने के लिये जरूरी है आप ध्यान एकाग्र रखें । आपने सुना तो होगा श्वान निद्रा..."
"मैडम आप आगे बताइये "---एक ने आशंकित होकर कहा क्योंकि मैडम में उपदेश देने की अपार क्षमता और ज्ञान है यह अनुमान पहले ही होगया था ।
"हाँ हाँ , तो पहले विभाव आता है उसके दो प्रकार होते है-आलम्बन और उद्दीपन । जब आलम्बन के भाव जाग्रत होते हैं तो ...।"
"मैडम कौनसे भाव । अनुभाव या स्थायीभाव ?"
"अभी स्थायीभाव कहाँ से आगए ? मैडम कुछ असन्तोष के साथ बोलीं ---"मैं अभी वहाँ आरही हूँ । आप धैर्य तो रखिये । हाँ तो मैं बता रही थी कि आलम्बन में आश्रय के मन में भाव जागे जो उद्दीपन से पुष्ट हुए । फिर आया अनुभाव । ये आश्रय की शारीरिक चेष्टाएं होते हैं । जब ये तीनों मिलकर संचारी भावों से मिलते हैं तो रसनिष्पत्ति होती है ।"
"लेकिन मैडम स्थायीभाव कहाँ रहे ?" मुझसे न रहा गया ।
"अरे मैंने बताया न कि वे आश्रय के मन में थे ।"
"तो फिर रस की अनुभूति किसे होगी ?"
"आश्रय को और किसको !"--उन्होंने मेरे अल्पज्ञान पर तरस खाते हुए कहा---" बडी साधारण सी बात है । रस की अनुभूति किसे नही होती ! रस है क्या ? रस माने आनन्द । सोचिये रस कहाँ नही है ! हममें, आपमें, बच्चों में ,प्रकृति में हर जगह रस है । जीवन में रस न हो ,भोजन में रस न हो तो क्या होगा ?
मानव मात्र का हदय रसिक होता है । मानवमात्र को रस की अनुभूति होती है । हर व्यक्ति आनन्द का प्रेमी होता है । यही तो रस है ।"
"लेकिन मैडम परिभाषा तो यह कहती है ,और हमारा अनुभव भी कि रस केवल काव्य में होता है । काव्य को पढते सुनते या देखते समय ,पाठक श्रोता या ..।"
"देखिये"---वह मेरी बात काट कर बोलीं---"परिभाषा परिभाषा की जगह है । पहले छात्र को सामान्य अर्थ में समझाइये कि रस आखिर है क्या । जहाँ कहीँ भी हमें आनन्द मिलता है वहीं रस है । वह सीधे स्थायीभाव ,विभाव को कैसे समझेगा । जब वह आनन्द को समझेगा तभी तो रस को जानेगा ! क्या कोई ऐसा होगा जिसे आनन्द की अनुभूति न होती हो ? नही न ? "
"हाँ हाँ मैडम सही है सही है । सबने कहा ।
और इस तरह रस-निष्पत्ति सम्पन्न होगई । चाहे स्थायी-भाव पूरी तरह आश्रय के आश्रित होगए । सहृदय डूब मरा समुद्र में । रसानुभूति गई रसातल में और रस-सिद्धान्त कहीं कोने में बैठा लजाता रहा । अब आप ही बताएं कि रसानुभूति किसे होती है ?
लेकिन प्रशिक्षण का उद्देश्य अच्छे परीक्षा-परिणाम हेतु छात्रों की तैयारी कराना था । अगर मैं अपनी बात कहूँ तो परीक्षा की दृष्टि से पढाने का विचार ही सही नही है क्योंकि इससे छात्र का ध्यान केवल परीक्षा पर रहता है । वह विस्तार से पढना ही नही चाहता ।
यही कारण है कि अध्यापन में कुछ नया पढने व खोजने की बात तो दूर ,हमारा पढा हुआ भी विस्मृत होता जारहा है ।
हाल यह है कि सारे विषयों में छात्र की खींचतान होती रहती है । उन्हें किसी तरह परीक्षा में पास कराने की जुगाड में स्कूल ही नही पूरा विभाग लगा रहता है । शिवलाल ,युगबोध ,प्रबोध,केशव ,ज्ञानालोक जैसे प्रकाशनों की सीरीज शाहरुख सलमान की फिल्मों की तरह व्यवसाय करतीं हैं, क्योंकि वे पूरा पेपर 'फँसने' की 'फुल गारन्टी ' देते हैं । ( क्यों देते हैं यह भी अन्वेषण का विषय हो सकता है )
अब जिन्हें ठीक से हिन्दी पढनी व लिखनी नही आती ---( कामर्स की क्लास में 80 प्रतिशत और विज्ञान की कक्षाओं में 50 प्रतिशत ऐसे ही विद्यार्थी है )---उनके लिये व्यंग्यार्थ ,भावार्थ, भाव-विस्तार ,रस निष्पत्ति, अलंकार वाक्य-विश्लेषण आदि पढाने की बात ही कहाँ आ पाती है ! ऐसे में , अगर विभाग परीक्षा की तैयारी करवाने की विधि भी सिखाने वाला है तो यह भी एक बडा पाठ होगा हमारे लिये । इसलिये मन में विद्यार्थी बनकर सीखने का उल्लास था ।
विभाग के ही एक भवन में शिक्षक/व्याख्याताओं के ठहरने की व्यवस्था, खानपान और सोने का प्रबन्ध हमें यह अनुभव करा रहा था कि यहाँ हम कुछ खास हैं जो कुछ खास सीखने के लिये आए हैं । (हालांकि ऐसे विचार हम जैसे कुछ 'टुटपुँजिया 'लोगों के ही थे जो हर तरह की व्यवस्था में अपना काम चला लेते हैं ,यहाँ तो फिर भी ठीक ही था ) वरना हमारी कई साथी व्याख्याता व्यवस्था को घटिया बताते हुए खाना खाकर रात अपने रिश्तेदारों के यहाँ चली जातीं थीं ) खैर ,बात सीधी कक्षाओं की करें क्योंकि कम से कम मेरा ध्यान वहीं था ।
पहली बात तो यह कि यहाँ भी बहुत ही जाने माने स्कूलों की तरह गजब की समय पाबन्दी थी । घडी का काँटा देखकर कथित विद्वजन कक्षा में आते और जाते थे । यह बात अलग है कि प्रतिदिन पाँच कालखण्डों में जो पढाया गया ,अधिकांशतः ऐसा कुछ नही था जो नया , उपयोगी या उल्लेखनीय हो । उसका न उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम से कोई सम्बन्ध था न ही परीक्षा की तैयारी से । जैसे बल्लभ सम्प्रदाय के सिद्धान्त । खडीबोली ( भाषा को बोली बताया ),शौरसेनी प्राकृत अपभ्रंश मागधी आदि बोलियाँ कैसे विकसित हुईं और कहाँ बोली जातीं हैं । शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में मतभेद क्यों थे । एक मैडम ने कबीर काव्य पर शोध-प्रबन्ध लिखा है । वे अपने पीरियड में धाराप्रवाह कबीर के पद और दोहे सुनाती रहीं और बेहद मधुर वाक्चातुर्य द्वारा उनके दर्शन का प्रदर्शन करती रही पर काव्य की व्याख्या एक बार भी नही की । या फिर ऐसे विषय लिये गए जो बहुत ही सामान्य और आम हैं जैसे वाक्यों के भेद अर्थगत् और रचनागत् । अलंकार --शब्दालंकार अर्थालंकार क्या हैं । विराम-चिह्न , द्विवेदीयुग, छायावाद आदि कालों के प्रमुख कवि....।
पर सबसे उल्लेखनीय रहा रस सिद्धान्त का पाठ ।इसे पढकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च स्तर के माने गए उन विद्वानों-विदुषियों का अध्यापन किस स्तर का होसकता है ।
"आहा...रस तो काव्य काव्य की आत्मा है रसात्मकं वाक्यं काव्यं ।"--एक सुदर्शिनी, मधुरभाषिणी प्राध्यापिका चुस्ती-फुर्ती के साथ मुस्कराती आई । उन्होंने आते ही शास्त्र सम्म्त कुछ सिद्धान्तों का व्याख्यान दिया । उनके अधिकार पूर्ण लहजे से हमें आश्वस्ति हुई कि ये कुछ नया जरूर बताएंगी ।
"अच्छा बताइये रस के कितने अंग होते हैं ?"
"मैडम चार अंग होते हैं --स्थायी-भाव ,विभाव अनुभाव और संचारी भाव ।"--एक व्याख्याता ने किसी छात्र की तरह खडे होकर कहा ।
"बहुत बढिया । अब आपको बताती हूँ कि रस निष्पत्ति कैसे होती है । विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । यानी कि भावों का विभाव अनुभाव और संचारी भावों से संयोग ही रस निष्पत्ति कहा जाता है ।"
"मैडम इसी को रस--परिपाक भी कहते हैं ?"
"वो अलग बात है उसे बाद में बताऊँगी पहले एक विषय समझलें ।--उस जिज्ञासु विद्यार्थी को शान्त करते हुए बोलीं -- देखिये कुछ भी समझने के लिये जरूरी है आप ध्यान एकाग्र रखें । आपने सुना तो होगा श्वान निद्रा..."
"मैडम आप आगे बताइये "---एक ने आशंकित होकर कहा क्योंकि मैडम में उपदेश देने की अपार क्षमता और ज्ञान है यह अनुमान पहले ही होगया था ।
"हाँ हाँ , तो पहले विभाव आता है उसके दो प्रकार होते है-आलम्बन और उद्दीपन । जब आलम्बन के भाव जाग्रत होते हैं तो ...।"
"मैडम कौनसे भाव । अनुभाव या स्थायीभाव ?"
"अभी स्थायीभाव कहाँ से आगए ? मैडम कुछ असन्तोष के साथ बोलीं ---"मैं अभी वहाँ आरही हूँ । आप धैर्य तो रखिये । हाँ तो मैं बता रही थी कि आलम्बन में आश्रय के मन में भाव जागे जो उद्दीपन से पुष्ट हुए । फिर आया अनुभाव । ये आश्रय की शारीरिक चेष्टाएं होते हैं । जब ये तीनों मिलकर संचारी भावों से मिलते हैं तो रसनिष्पत्ति होती है ।"
"लेकिन मैडम स्थायीभाव कहाँ रहे ?" मुझसे न रहा गया ।
"अरे मैंने बताया न कि वे आश्रय के मन में थे ।"
"तो फिर रस की अनुभूति किसे होगी ?"
"आश्रय को और किसको !"--उन्होंने मेरे अल्पज्ञान पर तरस खाते हुए कहा---" बडी साधारण सी बात है । रस की अनुभूति किसे नही होती ! रस है क्या ? रस माने आनन्द । सोचिये रस कहाँ नही है ! हममें, आपमें, बच्चों में ,प्रकृति में हर जगह रस है । जीवन में रस न हो ,भोजन में रस न हो तो क्या होगा ?
मानव मात्र का हदय रसिक होता है । मानवमात्र को रस की अनुभूति होती है । हर व्यक्ति आनन्द का प्रेमी होता है । यही तो रस है ।"
"लेकिन मैडम परिभाषा तो यह कहती है ,और हमारा अनुभव भी कि रस केवल काव्य में होता है । काव्य को पढते सुनते या देखते समय ,पाठक श्रोता या ..।"
"देखिये"---वह मेरी बात काट कर बोलीं---"परिभाषा परिभाषा की जगह है । पहले छात्र को सामान्य अर्थ में समझाइये कि रस आखिर है क्या । जहाँ कहीँ भी हमें आनन्द मिलता है वहीं रस है । वह सीधे स्थायीभाव ,विभाव को कैसे समझेगा । जब वह आनन्द को समझेगा तभी तो रस को जानेगा ! क्या कोई ऐसा होगा जिसे आनन्द की अनुभूति न होती हो ? नही न ? "
"हाँ हाँ मैडम सही है सही है । सबने कहा ।
और इस तरह रस-निष्पत्ति सम्पन्न होगई । चाहे स्थायी-भाव पूरी तरह आश्रय के आश्रित होगए । सहृदय डूब मरा समुद्र में । रसानुभूति गई रसातल में और रस-सिद्धान्त कहीं कोने में बैठा लजाता रहा । अब आप ही बताएं कि रसानुभूति किसे होती है ?