26 जुलाई को मैं दिल्ली होते
हुए बैंगलोर आ रही थी .
हवाईयात्रा समय की दृष्टि से एक तरह का चमत्कार ही होती है . चालीस-बयालीस घंटे का सफर मात्र ढाई घंटे में ! जिनके पास पैसा है पर समय नहीं है उनके लिये तो हवाई यात्रा एक वरदान ही है ,लेकिन हवाई यात्रा के बाद ऐसा लगता है मानो किसी ने आँखों पर पट्टी बाँधकर गन्तव्य तक पहुँचा दिया हो . कैसा रास्ता ,कौनसा मोड़ ,कुछ पता नहीं . धरती से हजार
किमी ऊपर चारों ओर सिर्फ शून्य होता है या फिर बादलों की तैरती जमीन अस्थिर आधारहीन बेरंग...रात
में तो वह भी नहीं . जबकि ट्रेन में चलते हुए आप कितने ही पहाड़ों नदियों पुल और जंगलों
से बातें करते चलते हैं...
भाई सलिल जी (सलिल वर्मा) ने कह रखा था कि
जब भी मैं दिल्ली होकर जाऊँ तो उन्हें अवश्य बताऊँ .मैंने उन्हें बता तो दिया था लेकिन उनसे
मिलना बिल्कुल संभव नहीं था .ट्रेन 'निजामुद्दीन' तक ही थी और वहाँ से टैक्सी सीधे एयरपोर्ट जाने
वाली थी . बड़े शहरों में इस तरह मिलना आसान भी नहीं होता . खैर..
कोयम्बटूर एक्सप्रेस के
स्लीपर कोच में ग्वालियर से दिल्ली तक पाँच घंटे भीषण तपन और लू जैसी हवा के साथ
गुजरे . भरे सावन में मौसम की इस बेमुरब्बती पर कुढ़ते हुए मुझे अपनी एक पैंतीस साल
पुरानी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही थीं जो सही मायनों में अब चरितार्थ हो
रही थीं कि –
"सूरज के आतंक से त्रस्त
सूखा और कुपोषण से ग्रस्त
पेड़-पौधे, फसलें..
सहमी सिकुड़ी नदी तलैया
उस पर बादलों का रवैया
कि किसी नेता की तरह आते हैं
भाषणों सा गरजते हैं
और बिना बरसे ही चले जाते
हैं ...."
हाँ फरीदाबाद तक आते आते
बादल दिखे और ‘निजामुद्दीन’ पर उतरते ही ,जबकि जरूरत नहीं थी, बारिश ने घेर
लिया .उस पर टैक्सी वालों की हड़ताल का असर . यानी कोढ़ में खाज .
हड़ताल का पता वैसे तो ट्रेन
में ही चल गया था . कुछ सहयात्री सलाह भी दे रहे थे कि मैं किसी ट्रेन से ‘नई दिल्ली’ तक
पहुँचूँ वहाँ से मैट्रो द्वारा एयरपोर्ट . लेकिन प्रशान्त ने कहा कि मम्मी चिन्ता
की कोई बात नहीं है . टैक्सी बुक होगई है .आप कॉमजॉम होटल तक पहुँच जाएं वहीं
टैक्सी मिलेगी . यह कॉमजॉम कहाँ है? दिल्ली मेरे लिये लगभग अपरिचित ही है सो कुली
की सहायता ली .उसने सौ रुपए लेकर मुझे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा दिया .
“लेकिन टैक्सी तो यहाँ नहीं है ?” मैंने
पूछा तो प्रशान्त ने कहा—“मम्मी आपको बस स्टैण्ड तक ,जो सामने कुछ ही दूरी पर है,
जाना होगा .लोग टैक्सी को उधर आने नहीं दे रहे हैं .”
मुझे पैदल चलने की खूब आदत
है .बस स्टैण्ड सामने दिख भी रहा था लेकिन बारिश में एक बड़ा और एक लैपटॉप बैग
लेकर वहाँ तक जाना बहुत मुश्किल था . मैंने फिर एक कुली की सहायता ली . उसने भी बस-स्टैंड
तक के सौ रुपए लिये . खैर अब मैं टैक्सी वाले को तलाश रही थी . रिमझिम जारी थी . काफी
देर बाद फोन पर उसकी थकी हुई सी आवाज आई – “मैडम आप
और आगे आ जाइये . गाड़ी पंक्चर है .” मैंने जाकर देखा कि किसी ने गाड़ी के दोनों
पहियों में कील ठोक दी थी .यानी हड़ताल पूरे यौवन पर थी .
“अब क्या करेंगे ?”
“देखते हैं मैड़म . नहीं तो आप दूसरे साधन से चली
जाइये .”
“यह क्या बात हुई ? मैं सोच रही थी हालाँकि इसमें टैक्सीवाले का कोई दोष नहीं
था .
यों तो दिल्ली में विवेक ( मँझला
बेटा) की ससुराल है . गुड़गाँव में हनी और बंटी भैया है .प्रशान्त और मयंक के कई
अच्छे मित्र हैं जो सूचना मिलते ही हाजिर होने वालों में हैं लेकिन उन्हें अचानक आने
में निश्चित ही कुछ असुविधा होती फिर सलिल भैया फोन पर लगातार जानकारी ले ही रहे
थे. उन्होंने कहा कि दीदी आप किसी तरह सुप्रीम कोर्ट तक आ जाइये .मैंने कहा तो टैक्सी वाला खतरा उठाकर चलने तैयार होगया . उसने मुझे समझा दिया कि अगर कोई रोके तो इसे आप
अपनी निजी गाड़ी बताना .
लेकिन कुछ ही दूरी चलने पर
पता चला कि टैक्सी के चारों पहिये एकदम पिचके हुए हैं . गाड़ी अब बिल्कुल आगे नहीं
जा सकती थी . उस समय मुझे अवश्य ही कुछ विवशता का अनुभव हुआ (चिन्ता नहीं .फ्लाइट 9.40 की थी मेरे पास कम से कम तीन घंटे थे) मुश्किल यह थी कि उस समय तेज बारिश हो रही
थी और कोई ऑटो या टैक्सी वाला बात सुनना तो दूर रुकने तक भी तैयार नहीं था .उन्हें रोकने के प्रयास
में टैक्सीवाला भीगे जा रहा था . मेरे कपड़े भी कुछ भीग गए थे .सलिल भैया मैट्रो से ऑफिस
आते हैं इसलिये उनके पास भी आने का कोई साधन नहीं था कि आकर मुझे ले जाते हालाँकि
वे प्रयास कर रहे थे पर ऑटो टैक्सी वाले हड़ताल के लिये पूरी तरह कमर कसे हुए थे .लगभग आधा घंटा यों ही बीत गया . टैक्सी वाला सचमुच बहुत भला
था . उसने लगातार प्रयास करके एक टैक्सीवाले को रोक ही लिया . उसने मुझे सरोजिनी
हाउस पहुँचा दिया .वहाँ गेट पर ही सलिल भैया प्रतीक्षा में खडे थे . मजे की बात
यह कि तब बारिश भी बन्द होगई जैसे फिल्मों में कोई भयानक ,त्रासद या संकट के दृश्य
में बारिश बिजली आँधी अँधेरा और न जाने क्या क्या होता है और संकटकाल टलते ही धूप
खिल जाती है . पेड़-पौधे झूम उठते हैं वगैरा वगैरा ..जैमिनी फिल्मों की तरह अन्त भले का भला की तरह सब ठीक होगया .
लगभग शाम के छह बजे सलिल
भैया मुझे एयरपोर्ट छोड़ने गए . तब मुझे महसूस हुआ कि संयोग होता है तो रास्ता अपने आप निकल आता है . यह भी कि
कुछ लोग रिश्ते मात्र कहने के लिये ही नहीं बनाते उन्हें दिल से निभाते भी है .भाई सलिल उन्ही में से हैं .यह सफर सचमुच एक यादगार सफर
रहा .