बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

चिता या चीता

आज ही अखबार में पढा कि परीक्षा परिणाम को अच्छा बना कर अपनी साख को बचाने के लिये विभाग के आला अफसरों ने एक नया किन्तु विचित्र सुझाव दिया है कि उत्तर-पुस्तिकाओं के परीक्षण में छोटी--मोटी भूलों (??) जैसे छात्र ने पवन की जगह पबन लिखा हो या छोटी बडी मात्राओं की गलती हो तो उसके अंक न काटे जाएं ।

आहा ,ऐसी उदारता पर कौन न मर जाए !! छात्र सूरदास को सुरदास या रमानाथ को रामनाथ लिखदे तो कोई गलती नही मानी जाएगी । फिर तो गजवदन गजबदन भी हो सकते हैं और कृष्ण, कृष्णा (द्रौपदी)(अंग्रेजी की कृपा से कृष्ण को कृष्णा बोला भी जारहा है )। लुट गया व लूट गया तथा पिट गया व पीट गया में कोई फर्क नही होगा । अब जरा समान लगने वाले वर्ण ,अनुस्वर व मात्राओं के हेर-फेर वाले कुछ और शब्दों पर भी ध्यान दें---सुत-सूत, कल-कलि-कली, अंश-अंस, सुरभि-सुरभी, अशित-असित, चिता-चीता ,कुच-कूच ,सुधि--सुधी, शिरा-सिरा ,चिर--चीर, कहा-कहाँ , लिखे-लिखें, गई--गईं, तन-तना-तान-ताना , तरनि-तरनी, मास--मांस, रवि-रबी , जित-जीत ,शोक--शौक ,पिसा-पीसा ,आमरण--आभरण, पिला--पीला ,सुना-सूना , गबन-गवन ,अजित-अजीत, पुरुष-परुष, शन्तनु-शान्तनु ,वसुदेव-वासुदेव आदि । विराम चिह्नों की तो बात पीछे आती है किन्तु वह क्या कम महत्त्वपूर्ण है ?--रुको, मत जाओ । तथा रुको मत , जाओ । इसी तरह --वह गया । , वह गया ! ,तथा वह गया ? में विराम चिह्न का ही चमत्कार है ।

ये तो बहुत छोटे-मोटे उदाहरण हैं । अखबारों ,टेलीविजन ,व सस्ती पत्रिकाओं और जगह--जगह अशिक्षित पेंटरों द्वारा बनाए गए बोर्ड व पोस्टरों ने वैसे ही हिन्दी की हालत खराब कर रखी है । पाठ्य-पुस्तक निगम की पुस्तकों में भी हिन्दी के साथ कम छेडछाड नही की । ऊपर से इस तरह के प्रस्ताव भाषा पर क्या प्रभाव छोडने वाले हैं उसका कथित विद्वानों को अनुमान तक न होगा । प्रश्न यह है कि क्यों परीक्षा परिणाम ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य रह गया है ?क्या अध्ययन की उपेक्षा करके परीक्षा को ही लक्ष्य बनाना उचित है ? बार-बार परीक्षा लेने से और किसी भी तरीके से परिणाम के आँकडे इकट्ठे करने से शिक्षा का स्तर क्या उठ पाएगा ? ऐसे परीक्षा प्रमाण पत्र का क्या अर्थ व औचित्य है जिसमें छात्र शुद्ध पढना व लिखना तक न जान पाए । अर्थ की समझ तो बहुत बाद की बात है । भाषा की इस दशा पर विचार करने की अत्यन्त आवश्यकता है । गलत तरीके से गलत परिणाम देकर शिक्षा का ढिंढोरा पीटने से बेहतर है कि परीक्षा ली ही न जाएं । परीक्षा हो तो सही हो वरना नही ।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

वह बात

कहदो वही बात
मुझसे तुम आज
कहदी जो सुबह-सुबह
सूरज ने नेह भर
मैदानों, गलियों से
लहरों से, कलियों से
बिखराये कितने रंग
खुशबू के संग ।

कहदी हवाओं ने
जो बात मेघों से,
हुए पानी-पानी
फुहारें सुहानी ।

कहदी दिशाओं ने
पर्वत के कानों में
पिघली शिलाएं
फूटी जल धाराएं ।

फूँकी जो मौसम ने
टहनी के कानों में
पल्लव मुस्काये
और अमुआ बौराए ।

पीडा ने ह्रदय से
जो बात कह कर
सँवारा है गीतों को
मान दिया मीतों को ।

गहरा गयी है
क्षितिज तक खामोशी
घिरे ना अँधेरा
कि यूँ ना रहो चुप
कहो ना वही बात
मुझसे तुम आज

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

अपरिहार्य

सुना है कि तुम हो सर्वव्यापक

फिर भी तुम्हारे होने का विश्वास ,

बहुत जरूरी है ।

मेरे होने के लिये ।

चाहे सुदूर पथ में ,

पथरीले बीहडों से

अकेले ही गुजरना हो या

दंगा-पीडित शहर के चौराहों पर

जलती आग में ,

बेनाम ही झुलसना हो ..

बहुत जरूरी है ,

तुम्हारे सम्बल का अहसास,

अपंग हुई सी उम्मीदों को

ढोने के लिये ।

यूँ तो क्षितिज पर

सूरज की लाली है ।

फूलों में खुशबू है ।

वन में हरियाली है

पर बहुत जरूरी है ,

तुम्हारी निकटता का उल्लास

इन सबमें खोने के लिये...

सूनी टहनी पर ,

गौरैया उदास है ।

पीले पत्तों सी ,

अब झरने लगी,

हर आस है ।

प्रतीक्षित है एक मधुमास,

नव- पल्लव संजोने के लिये ।