सोमवार, 24 सितंबर 2012

'अपनी खिडकी से'--एक समीक्षक की नजर से


बड़ों के लिए किस्से बचपन के
- लोकेन्द्र सिंह
गिरिजा कुलश्रेष्ठ का पहला कहानी संकलन है 'अपनी खिड़की से'। भले ही यह उनका पहला कहानी संग्रह है लेकिन उनकी लेखनी की धमक पहले से मौजूद है साहित्यकारों के बीच। हाल ही में अपने स्थापना के तीन सौ साल पूरे करने वाली बाल जगत की पत्रिका 'चकमक' में उनकी कहानियां प्रकाशित होती रही हैं। झरोका, पाठक मंच बुलेटिन  और सोशल मीडिया भी उनकी रचनाओं को लोगों तक पहुंचा चुका है। 'अपनी खिड़की से' में १५ बाल कहानियां हैं। हालांकि परंपरागत नजरिए से ये बाल कहानियां हैं लेकिन मेरे भीतर का मन इन्हें सिर्फ बाल कहानियां मानने को तैयार नहीं। इन १५ कहानियों का जो मर्म है, आत्मा है, संदेश है वह न सिर्फ बच्चों के लिए आवश्यक है बल्कि उनसे कहीं अधिक जरूरी बड़ों के लिए है। भाग-दौड़ के जीवन में अक्सर हमारा मन इतना थक जाता है कि हम अपने बच्चों की आवाज भी नहीं सुन पाते, उनकी संवेदनाओं को महसूस करना तो दूर की बात है। ऐसे में गिरिजा कुलश्रेष्ठ की कहानियां हमें ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि अनजाने में ही सही कहीं हम अपने लाड़ले के बचपन के साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे। हालांकि 'अपनी खिड़की से' की कहानियां खुलेतौर पर बड़ों को उनकी गलतियां नहीं बतातीं लेकिन कहानियों का मर्म यही है। ये कहानियां गुदगुदाती हैं, जिज्ञासा जगाती हैं, चाव बढ़ाती हैं, मुस्कान लाती हैं और हौले से जीवन की अनमोल सीख दे जाती हैं।
संग्रह का शीर्षक पहली कहानी के शीर्षक से लिया गया है। पहली कहानी में साधारण परिवार का बालक वचन अपने घर की खिड़की से पड़ोस में रहने वाले अमीर परिवार के बालक नीलू की गतिविधियां देखकर अपना मन उदास करता रहता है। नीलू के कितने मजे हैं। उसके पास कितने खिलौने हैं। इकलौता होने के कारण मम्मी-पापा के प्रेम पर भी अकेले का अधिकार। लेकिन, जिस दिन वह मौका पाकर नीलू के घर उसके साथ खेलने जाता है और वहां उसकी जिंदगी से बावस्ता होता है तब उसे पता चलता है कि मजे तो नीलू के नहीं उसके हैं। उसके मां-पिता कहीं भी जाते हैं तो सब भाई-बहनों को लेकर जाते हैं। वह जी भरकर साइकिल चला सकता है। कपड़े मैले होने का डर नहीं, वह मैदान में खेल सकता है। लेकिन नीलू की मां तो कितनी रोक-टोक करती है। चुपके से यह कहानी बड़ों को भी समझाइश देती है कि बच्चों के मन को समझो और उन्हें तितली की तरह आजाद रहने दो। तमाम तरह की बंदिशों में बचपन को बांधकर उन पर जुल्म न किया जाए। बच्चों को महंगे खिलौनों से अधिक अपनों का स्नेह चाहिए होता है। इसलिए दुनियादारी के बीच से अपने मासूमों के लिए थोड़ा-सा वक्त तो निकाला जाए। दूसरी कहानी 'पतंग' बड़ी महत्वपूर्ण है। माता-पिता कई बार जबरन और कुतर्क के साथ अपने विचार अपने बच्चों पर थोप देते हैं। बच्चे की खुशी जाए भाड़ में। माता-पिता की यही गलतियां कई बार उन्हें और बच्चों को असहज स्थितियों में लाकर खड़ा कर देती हैं। अब इसी कहानी के पात्र सूरज को लीजिए, वह ईमानदार, सच बोलने वाला और माता-पिता का आज्ञाकारी बालक है। उसके पिता का मत है कि पतंग उड़ाने वाले लड़कों का भविष्य निन्यानवे प्रतिशत खराब है। वे सबके सामने यदाकदा घोषणा भी करते रहते हैं कि हमारा बेटा सूरज कभी पतंग नहीं उड़ाएगा। उसे तो एक अच्छा विद्यार्थी बनना है। अब भला पतंग न उड़ाने और अच्छे विद्यार्थी बनने का क्या विज्ञान है? सूरज का मन तो पतंगों के रंगीन ख्वाब सजाता है। एक दिन पतंग उड़कर खुद ही उसके करीब आ जाती है। अब वह पिता के डर से उसे छिपाता है, झूठ भी बोलता है, इस चक्कर में वह गिरकर चोटिल भी हो जाता है। हालांकि अंत में पिता को पता चल जाता है और बेटे की खुशी को भी वो समझ लेते हैं। 'रद्दी का सामान, इज्जत वाली बात, मां, बॉल की वापसी और आंगन में नीम' बेहद रोचक कहानियां हैं। ये बड़ों और छोटों के मनोविज्ञान को उकेरती हैं। बड़ों और छोटों के बीच किन बातों को लेकर उठापटक, खटपट और अनबन रहती है और इन्हें कैसे दूर करके दोनों एक-दूसरे के नजदीक आ सकते हैं, दोस्त बन सकते हैं, इन कहानियों में बेहद खूबसूरती से इसका शब्द चित्रण किया गया है।
'कोयल बोली' निश्चित ही आपको भावुक कर देगी। आपको आपका छुटपन और छुटपन के खास दोस्त की याद दिला देगी। 'बिल्लू का बस्ता' स्कूल के शुरुआती वर्षों की यादों का पिटारा खोल देगा। स्कूल जाने की कैसी-कैसी शर्तें होती थी। मां-पिता भी कितने प्रलोभन देते थे स्कूल भेजने के लिए। हमारे बस्ते में किताबें कम खिलौने ज्यादा मिला करते थे। विद्या के नाम पर किताबों में किसी पक्षी के रंगीन पंख और पौधे की पत्तियां। कंचे, डिब्बे-डिब्बियां, किताबों से काटे गए कार्टून और फूल के चित्र न जाने क्या-क्या। उस वक्त तो यही हमारे लिए कुबेर का खजाना होता था। सबसे छिपाकर रखना पड़ता था अपना खजाना।
'सूराख वाला गुब्बारा' और 'बादल कहां गया' बड़ी मजेदार कहानियां हैं। सूराख वाला गुब्बारा का आशय चंद्रमा से है। यह धरती, सूरज और चंद्रमा के संबंध में है। मनुष्य की गलतियों की वजह से 'बादल का अपहरण' हो गया है। हवा बालक बादल को अपने साथ ले गई है। उसने फिरौती के रूप में मांगे हैं पेड़, पौधे, जंगल और बगीचे। बादल चाहिए तो हमें धरती को हरी साड़ी से सुशोभित करना पड़ेगा। प्रकृति के संवद्र्धन का संदेश देती कहानी है यह।
तो मित्रो गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने अपने पहले ही कहानी संग्रह में हमें एक भरी-पूरी फुलवारी सौंपी है। जिसके १५ पुष्पों से उठती तरह-तरह की भीनी खुशबू बेहतरीन है। लेखिका प्रस्तावना में उम्मीद व्यक्त करती हैं उनकी ये बाल-कहानियां बाल पाठकों में ही नहीं वरन् प्रबुद्ध पाठकों के बीच में भी अपना स्थान बनाएंगी। मेरा मत है कि कहानियां प्रबुद्ध पाठकों द्वारा निश्चित ही सराही जाएंगी। अपने मकान की 'अपनी खिड़की से' देखेंगे तो कहीं न कहीं ये कहानियां हमें अपने आस-पास ही बिखरी नजर आएंगी।


गुरुवार, 20 सितंबर 2012

पच्चीस साल बाद


'पच्चीस साल बाद' ---फिल्मी नाम लग रहा है न ? लेकिन यह सच है कि पुस्तक 'ध्रुव-गाथा' जो कल ही प्रकाशित होकर आई है ,पच्चीस साल से पहले ही लिखी गई थी । कथ्य व शिल्प में बेहद सामान्य होते हुए भी इस दृष्टि से मान्य हो सकती है कि यह सुदूर गाँव की केवल ग्यारहवीं पास और स्वाध्याय से बी.ए. प्रथम वर्ष पढ़ती हुई महिला की रचना है । जब इसकी रचना हुई थी मैंने कविता के नाम पर केवल पंचवटी पढ़ी थी । गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हुए ,बच्चों को सम्हालते हुए स्वाध्याय से ही जैसे-तैसे शिक्षा ले रही थी ऐसे में मेरा साहित्यिक ज्ञान कितना होगा । स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम से बाहर नही । गुप्त जी की पंचवटी मेरी प्रिय पुस्तक थी (है) ध्रुवगाथा पर उसका ही प्रभाव दिखता है ।
लिखने की प्रवृत्ति तो हाईस्कूल पास करते ही दिखने लगी थी । कुछ गीत ,कहानियाँ व एक बाल-उपन्यास (रानी नील गगन की) ग्यारहवीं पास करते-करते लिख लिया था । पर जाने क्यों लगता था कि जैसा लिखा जाना चाहिये वह यह नही है । (आज भी ऐसा ही है ) इसलिये वे रचनाएं नष्ट भी होगईं । इसका एक ही कारण है कि मैं पर्याप्त साहित्य नही पढ़ पाई हूँ । अध्ययन न केवल अभिव्यक्ति के द्वार खोलता है बल्कि उसे निखारता व विविधता भी देता है । सन् 1982 में जब ध्रुवगाथा लिखना शुरु किया तब विवेक का जन्म होने को था ।
ध्रुव की कथा ने मुझे सदा प्रभावित किया । भागवत कथा में जब शास्त्री जी साश्रु इस कथा को सुनाते थे तब प्रौढ़ श्रोताओं के साथ हम बच्चे भी रोने लगते थे । समयानुसार इस कथा का बीज नमी और धूप पाकर अंकुरित हुआ और सहज ही कुछ पंक्तियाँ रच गईँ । और फिर यों ही बचकाने से प्रयास-स्वरूप ध्रुवगाथा ने एक खण्डकाव्य का रूप ले लिया ।1986 तक यह पूरा होगया । पिताजी ने शाबासी दी तो मैं खुद की नजरों में कुछ बड़ी होगई । लेकिन जब 1987 में मैंने एम.ए. के पाठ्यक्रम में 'नई कविता' पढ़ी तो मेरा उत्साह क्षीण होगया । मुझे अपनी रचना द्विवेदी-युग की शुरुआत में ही में लिखी गई कुछ ज्यादा ही साधारण रचना लगी । पर उसमें सुधार-परिष्कार का अवकाश ही नही था । अब मेरे जीवन में मयंक जी(छोटा बेटा) भी आ चुके थे और मेरे दिल-दिमाग और समय पर पूरा अधिकार जमा चुके थे । अब कहाँ किताबें और कहाँ पढ़ाई । इसके बाद यह हुआ कि मैं ध्रुवकथा को किसी बक्सा में डालकर भूल गई । सन् 2001 में बाल-साहित्य की एक कार्यशाला में लखनऊ जाना हुआ .वहाँ गाजियाबाद की सुश्री मधु बी.जोशी जी से भेंट हुई । संयोग से मैं उन्ही के कमरे में ठहरी थी । मधु दीदी बहुत ही खुशमिजाज और ज़िन्दादिल महिला हैं । उनके पास बैठ कर कोई ऊब नही सकता । बातों-बातों में मैंने अपने उस बचकाने प्रयास का उल्लेख किया तो उन्होंने हर तरह से मुझे यह मानने विवश कर दिया कि अपनी रचना को यों गुमनामी के अँधेरे में रखना ठीक नही । अपने लिये ही सही उसे प्रकाश में जरूर लाओ ।तब मैंने कुछ सुधार के साथ ध्रुवकथा को टंकित करवाया । भाषा छन्द शैली कुछ नही बदला जा सका । बदलना चाहती थी पर वह दीवारों को छत और फर्श को दीवार बनाने जैसा दुष्कर कार्य होता ।
खैर पच्चीस साल बाद आई इस रचना को कहीं कोई जगह मिलेगी ऐसा तो मैं नही मानती फिर भी बाल खण्ड-काव्य के रूप में इसे कुछ लोग पसन्द करेंगे ऐसी उम्मीद तो है । पुस्तक में से ही ध्रुव-नारद-संवाद के कुछ अंश यहाँ दे रही हूँ पढ़ कर अपनी बेबाक टिप्पणी अवश्य दें । 
----
स्वर्ग धरा के बीच सुगम संचार चलाने
आते हैं जब-तब नारद संवाद बनाने ।
............
वन सुषमा को देख मुग्ध हो चले आरहे
प्रभु के नही प्रकृति के मुनिवर गीत गा रहे
.........।
सहसा ठिठके ज्यों सोये बालक को देखा
उभरी माथे पर विस्मय की गहरी रेखा ।
पल्लव सा सुकुमार यहाँ क्योंकर सोया है
किसने छोड़ा , कुलभूषण किसका खोया है ?
   ..................
 "वत्स कौन हो ?और यहाँ तुम कैसे आए?
घोर विपिन में तुम क्यों जरा नही घबराए ?"
"घबराऊँगा क्यों ? प्रभु से मिलने निकला हूँ
राजपुत्र हूँ पर काँटों के बीच पला हूँ ।
यह तो आप कहें  कैसे आए हैं मुनिवर
कहीं आप ही तो हैं नही पिता परमेश्वर
माँ ने कहा रूप कोई भी रख लेते हैं
यूँ भगवान भक्त को खूब परख लेते हैं ।
यह सच है तो अपना असली रूप दिखाओ
बाहों में ले लो फिर अपने गले लगाओ ।"
......
"सदियों से मैं खोज रहा हूँ ईश्वर को ही ।
होते अगर कहीं वो ,मिल जाते मुझको ही ।
वन में भटक रहे हो ,किसने बहकाए हो ?"
मेरे मत से बेटा व्यर्थ यहाँ आए हो ।"
"अरे !आपको शायद यह भी पता नही है
तरु मेरा विश्वास , कि नाजुक लता नही है ।
जरा खींचने से जो टूट बिखर जाएगा
ध्रुव है यह ,जो ठान लिया वो कर पाएगा ।"
...........................
"भजन ?अरे बालक यह तो है मन बहलाना
इसी बहाने बुरे विचारों से बच जाना ।
कहीं नही है नाम रूप का कोई ईश्वर
सुन पुकार जो आजाए जैसे जादूगर ।"
.................
"गहन समर्पण और लगन से कितनों ने ही
ईश्वर को पाया है , बतलाया माँ ने ही ।
मुझमें लगन समर्पण भी गहरा है मुनिवर
यद्यपि मैं छोटा भी हूँ अज्ञान निरक्षर ।"......

रविवार, 16 सितंबर 2012

वे 'लक्षणा' को नही जानते ।


"ए ! ओ !! अरे भाई सुनो !!!" 
साक्षरता अभियान के दल-प्रमुख ने एक गाँव वाले को पुकारा जो एक तरफ भागता हुआ सा जारहा था । यह कुछ साल पहले अक्टूबर-नवम्बर की बात है जब प्रदेश के पूर्ण साक्षर होने के आँकडों को जुटाने के लिये शिक्षक अपने छात्रों की बजाय निरक्षरों को साक्षर बनाने गाँव-गाँव घूम रहे थे पर निरक्षर थे कि खेत-खेत ,रबी की फसल बोने तथा अपने दूसरे कामों में रमे थे । खेत बुवाई के लिये उसी तरह सज-सँवर कर तैयार थे जैसे वधू-आगमन पर घर-आँगन और द्वार चौक-साँतियों से सजा-सँवार दिये जाते है । यही कारण था कि जब मोटरसाइकिलों की फौज मोतीझील ( मोतीझील कोई झील नही ग्वालियर में ही एक जगह का नाम है ) के पास उस छोटे से गाँव में पहुँची ,उस समय गाँव में बाहर दरवाजों पर बँधे छोटे बछडों--मेमनों तथा बूढे जानवरों को छोड कोई नही दिखाई दे रहा । या किसी चबूतरा पर पडी चारपाई से कभी-कभी खाँसने की आवाज बता देती थी कि कोई बीमार लेटा है । धूप चमकीली थी लेकिन हल्की सी नरम होगई थी ।  
"यह हाल है इस देश का । लोगों को भूख नही है पर सरकार है कि मुँह में कौर ठूँसे ही जारही है । ठूँसे ही जा रही है ।"
दल-प्रमुख नरेन्द्र जी ने एक असन्तोषभरी नजर पंचायत-भवन के आसपास बिखरे घासफूस और गोबर पर डाली एक दौडते-फँलागते आदमी पर लपककर आवाज का जाल फेंका--"ओ भाई जरा बात तो सुनो ।"
दो बार तो वह जाल खाली ही आया पर तीसरी बार वह आदमी जाल में मछली की तरह फँसा चला आया ।  
"क्या है साब ?"
"अबे ! कहाँ है सब लोग?"
"हजूर ,गेहूँ चना और मटर की बुवाई हो रही है । इस समय तो कोई नही मिलेगा ।"
"अबे मिलेगा कैसे नही । कल खबर भिजवाई थी ना ? हम क्या ऐसे ही डोल रहे हैं मारे-मारे ? सरकार का हुकम है । सबको कुछ जरूरी बात समझानी है । गाँव के सरपंच को तो कम से कम होना ही था यहाँ । जा बोल सबको । औरत ,बच्चे ,बूढे ,जवान सबको बुला ला ।" 
नरेन्द्र जी ने लताडा । फिर धीरे से बोले---"साले पूरे ढोर हैं । अब क्या इन्सान बनेंगे !"
वह आदमी इतने सारे पढे-लिखे लोगों को गाँव में देखकर अपनी लताड भूल गया और आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया ।
सरपंच तक सूचना पहुँची । सरपंच कामधाम छोड कर आए । 
"सरपंच जी , आपको तो पता है कि साक्षरता अभियान चल रहा है । कल खबर भी भिजवाई थी कि सब लोगों को बारह बजे पंचायत-भवन पर इकट्ठे होने को कहदें ..।"
"आपकी नाराजी वाजिब है साब लेकिन आजकल साँस लेने को भी "...
"अरे छोडो खां साब ,मुश्किल से आधा-पौन घंटा लेंगे । सबको बिस्कुट वगैरा भी दिये जाएंगे ।"
"साब ! कोई कुछ नही खा पाएगा । यह सब हमारे लिये जहर है अभी ।"--सरपंच ने हाथ जोडकर कहा । नरेन्द्र जी चौंके--"जहर !! अरे भाई हम तुम्हें जहर देंगे ? तुम हमारे भाई जैसे ही हो ।...भैया ,हम तो अमृत बाँटने आए हैं। आप लोगो को अशिक्षित होने का कितना घटा सहना पडता है ,पता है ??...चार अक्षर सीख लोगे तो काम आएंगे ..वही सिखाने आए है । सोचो कि आपके घर तक खुद पूरा स्कूल आया है....।"  
"मैं कोशिश करता हूँ साब ..लेकिन" ...।
नरेन्द्र जी पीछे से कहने लगे --"देखा ! लोग ऐसे दंगे फसाद करवाते हैं । हमारे बिस्कुटों में ही जहर बता दिया । यही बात अखबारों तक पहुँच जाए तो क्या हो...! खैर हमें क्या ! सरकार ने भेजा तो आगए । 
"सरपंच से साइन जरूर ले लेना ।" 
"यह जहर वाली बात प्रिंसिपल साहब को जरूर बताना नरेन्द्र ।"
"और क्या । कौन जानता है कि किसके मन में क्या है ।"
कुछ साथियों ने अपनापन दिखाते हुए कहा ।
"ठीक है लेकिन आप लोगों को तो बिस्कुटों में जहर होने का सन्देह नही है न ?"
नरेन्द्र जी ने मुस्कराकर साथियों को देखा तो सब हँस पडे और पारले जी का एक-एक पैकेट अपने बैग में डाल लिया

रविवार, 9 सितंबर 2012

दर्द को सोने न देना ।


----------------------------------------------
यह 19 वर्ष पहले की बात है । सातवीं कक्षा एक का मासूम छात्र एक दिन स्कूल में अपने शिक्षक द्वारा पूछे गए सवाल का सही उत्तर देकर आत्म-विश्वास से भर उठा था ।
सवाल गणित का था । कक्षा में केवल एक वही था जिसने सही उत्तर दिया था । शिक्षक ने मुस्करा कर शाबाशी देने की बजाय उससे कहा कि ठीक है , चलो अब सबको एक-एक थप्पड लगाओ ।
सबको यानी अपने सभी सहपाठियों को । वह सीधा-सादा छात्र लडाई-झगडे से दूर रहने व सहपाठियों को अपना दोस्त मानने के अलावा डरता भी था । पर सबसे बडी बात तो यह थी कि वह इसे बिल्कुल गलत मानता था । अगर छात्र सवाल का जबाब नही दे पाए तो खुद सर को ही उन्हें दण्ड देना चाहिये न । वह अपने सहपाठियों को भला कैसे थप्पड मारता ,सो लडखडाती सी जुबान में बोल पडा---"सर मैं कैसे.?..क्यों ....??"
"अच्छा ! कैसे....!" बच्चे के कक्षाध्यापक ने आँखें निकाल कर कहा--- "आ देख मैं बताऊँ ! ऐसे...।" और उन्होंने बच्चे के गाल पर जोर का थप्पड लगा दिया ।
बच्चे को चोट लगी । गाल पर लगी तो लगी पर मन पर जो चोट लगी उसका दर्द बहुत गहरा हुआ । 'आखिर मुझे थप्पड क्यों मारा सर ने ? मैंने तो सही जबाब दिया था । क्या सही जबाब का ऐसा इनाम मिला करता है ?
इस बात को वह वर्षों तक नही भूल पाया । शायद आज तक भी उसे मलाल है कि आखिर लोग सही उत्तर को मान क्यों नही देना जानते । क्या इससे गलत और झूठे जबाबों की राह नही खुल जाती ?
वह बच्चा कोई और नही मन्नू (विवेक) था । जो आज 30 वर्ष का होगया है ,उस दर्द को भुलाने की  नाकाम कोशिश करता हुआ । मुझे मालूम है कि यह कोशिश बेकार ही होती है । सहृदय सरल व्यक्ति संवेदना को दरकिनार करके बहुत दूर तक सहज नही रह सकता । जो झूठ बोलना नही जानता वह कोशिश भी करता है तो पकडा जाता है ।
फिर कोशिश करने की जरूरत ही क्या है । दर्द कायम  रहे और वह रचनात्मक रूप लेता रहे , सकारात्मक रूप में व्यक्त होता रहे ।
अनन्त शुभ-कामनाओं व स्नेह के साथ यह कविता भी आज मन्नू और मन्नू जैसे हर सच्चे ,ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति के लिये है जो कहीं न कहीं निराश होकर विचारों का प्रवाह बदलने की कोशिश करता है -----

" याद रखो ,
दर्द को आबाद रखो ।
दर्द , जो होता है सही सवाल के
गलत जबाब का  ।
दर्द जो बनावटी व्यवहार और
झूठे हिसाब का ।
दर्द ,जो सरलता पर
छल के वारों का है
दर्द ,जो आँगन में उठती दीवारों का है
दर्द ,जो अन्याय की जीत का है
दर्द ,जो 'गोंडवी' के गीत का है ।
दर्द ,जो उठता है
अखबार की सुर्खियाँ  पढने पर
दर्द ,जो होता है खुले आसमान तले
राशन के सडने पर ।
दर्द ,जो जगा देता है ,
'अलार्म की तरह ।
दर्द जो चलाए रखता है
गंतव्य तक पहुँचने के 'चार्म' की तरह ।
इस दर्द को सोने न देना ।
यह पूँजी है जीवन की ,
दौलत है दुनिया की
इसे खोने न देना ।"

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

'वह सबक'----माँ का एक अविस्मरणीय संस्मरण

--------------------------------------------------------------
"उन दिनों स्कूल लगभग आठ घंटे लगता था । सुबह से दोपहर और फिर तीन से चार घंटे शाम को "---एक दिन मेरे आग्रह पर माँ ने जब अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताया तो बचपन जैसे उनकी आँखों में साकार हो उठा । 
"यह सन् 1946-47 के आसपासकी बात है । तब मध्यप्रदेश को मध्यभारत कहा जाता था । ग्वालियर में सिन्धिया जी का राज था । गाँवों की व्यवस्था जमींदारों के हाथों में थीं ."
वे उल्लास सहित बताने लगीं---
"हमारे गुरुजी पं. छोटेलाल जी थे । पाँच या दस रुपए वेतन मिलता था । कच्ची ,लेकिन लिपी-पुती और एकदम साफ-सुथरी खपरैल( पाटौर) हमारी पाठशाला थी जिसकी दीवारों पर खुद गुरुजी ने ही रंगों से वर्णमाला ,पक्षी फूल फल और पशुओं को अंकित किया था । दिशाओं की सही जानकारी के लिये चारों दीवारों पर दिशाओं के हिसाब से बडे अक्षरों में पूरब,पश्चिम,उत्तर व दक्षिण लिख दिया गया था । वैसे दिशाओं ज्ञान वे एक बडे आसान तरीके से कराते थे कि सुबह के समय जब हमारा मुख सूरज की ओर होता है तब पीठ पश्चिम की तरफ ,बाँया हाथ उत्तर में और दाँया हाथ दक्षिण की ओर होता है । शाम को ठीक इसके विपरीत होता है यानी मुख पश्चिम की ओर तो पीठ पूरब की ओर...।
झकाझक सफेद कमीज और धोती पहने ,माथे पर रोली का तिलक लगा ,पैरों में खडाऊँ डाले जब पंडित जी शाला में आते थे तो हम सब उनके सम्मान में एक साथ खडे होजाते थे , मानो इतनी देर से हम केवल खड़े होने के लिये ही बैठे थे । लगभग पन्द्रह मिनट ईश-विनय होती और फिर गुरुजी  सबके ,कपडों ,बालों दाँतों व नाखूनों का निरीक्षण करते थे । वैसे तो वे हमारे साथ जमीन पर ही बैठ कर बड़े प्रेम से हर चीज समझाते थे लेकिन निर्देश के अनुसार काम न मिलने पर सजा के लिये उनके पास पतली हरी संटी भी रहती थी जो हथेली पर पड़ने से पहले ही सांय की आवाज से मन में दहशत भर देती थी और इसमें सन्देह नही कि वह दहशत समय पर काम पूरा करने में सहायक ही होती थी ।
इसके बाद सबकी पट्टियों व सुलेख की जाँच होती थी । उस समय स्लेट भी नही थी । काठ की बड़ी-बड़ी पट्टियाँ ही स्लेट का काम देतीं तीं जिन्हें कालिख से पोत कर काँच से घिस-घिसकर चमकाना भी एक जरूरी काम था । सरकंडे से खुद अपनी कलम बनानी होती थी । गुरुजी पहले ही सिखा देते थे कि बडे अक्षरों के लिये नोंक कितनी चौड़ी हो और छोटे अक्षरों के लिये कितनी पतली । खड़िया के घोल में कलम डुबाकर पट्टी पर सफाई व सुघड़ता से लिखना होता था वरना गुरूजी की संटी को सक्रिय होने में देर नही लगती थी । साफ सुन्दर और शुद्ध लेखन तब पढाई की पहली की पहली शर्त हुआ करता था ।
सुबह के चार घंटों में केवल हिन्दी, व सामाजिक अध्ययन पढाया जाता था । हिन्दी में व्यंजनों व मात्राओं के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था । 'श' की जगह 'स' या व'' की जगह 'ब' जैसी गलतियों को वे बिल्कुल बर्दाश्त नही करते थे । मात्राओं के उच्चारण में वे हमारी ही नही अपनी भी दम निकाल लेते थे । 'क' पर 'आ' की मात्रा लगाने पर वे पूरा मुँह खोलकर बुलवाते--"-काssss" । फिर 'इ' की मात्रा पर झटके से रुकते --'कि' । फिर 'ई' की मात्रा पर वही लम्बा स्वर होता --"कीssss" । और इस तरह मात्राओं के गलत होने का सवाल ही नही था । इतिहास को वे कहानी की सुनाते थे और भूगोल को नक्शों, माडलों से या बाहर नदी और मैदान में जाकर, पहाड़ दिखाकर पढ़ाते थे । ग्राफ द्वारा वे भारत का नक्शा इतनी अच्छी तरह बनवाते थे कि न तो कच्छ की खाड़ी में कोई गलती होती न ही पूर्वांचल की सीमाओं में । अन्त में वे इबारत लिखवाते या कोई व्यावहारिक कार्य करवाते जैसे तकली चलाना ,नारियल के खोखले के टुकडों को घिस कर  बटन बनाना या गीली मिट्टी से फलों व सब्जियों के माडल व कौडियाँ बनाना । सुबह की पाली दोपहर खत्म होजाती थी ।
"और फिर दूसरी पाली ?"-- ऐसी निराली पाठशाला के बारे में और भी जानने की मेरी उत्कण्ठा बढ़ गई तो माँ भी दुगने उत्साह से बताने लगीं---"दूसरी पाली ढाई-तीन बजे शुरु होजाती थी । बीच में मिले विराम में पंडितजी खाना बनाते--खाते और हम जुट जाते अपनी पट्टियाँ चमकाने में । शाम की पाली होती थी गणित व खेलों की । गिनती ,पहाडे, पाव ,पौना ,ड्यौढा सब कण्ठस्थ करने होते थे और बेसिक सवाल (जोड. बाकी,गुणा,भाग )अधिकतर मौखिक ही होते थे जैसे कि 'सत्रह में क्या जोडें कि पच्चीस होजाएं ?'या कि 'तीन किताबें चौबीस रुपए की तो पाँच किताबों का मूल्य क्या होगा ?' केवल बड़े और कठिन सवाल ही स्लेट या कापी में करने होते थे ।
पी.टी. करवाते समय जब वो कड़क आवाज में सावधान कहते तो लगता कि एक पखेरुओं का झुण्ड साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ने तैयार हो । खेलों में खो,खो कबड्डी ,रूमालझपट,कोडामार और कुक्कुट युद्ध जैसे अनेक खेल होते थे । शाम पाँच बजे छुट्टी मिल जाती थी । पंडितजी दिशा-मैदान चले जाते और हम पूरी तरह आजाद ।
रात में भी दो घंटे पंडित जी की पाठशाला चलती थी । तब वे लोग पढ़ते थे जो खेती के कामकाज या गाय-भैंसचराने के कारण दिन में नही पढ़ पाते थे । पंडितजी को वेतन मात्र कामचलाऊ ही मिलता था . प्रसिद्धि की उन्हें कोई लालसा नहीं थी . वे अपने काम को ईश्वर की पूजा का ही एक रूप कहते थे और पूरी लगन व ईमानदारी से करते थे लेकिन उन्होंने जो कमाया उसके आगे रुपया पैसा सब बेकार है .आज भी आदर्श शिक्षक के रूप में उन्हीं का नाम लिया जाता है गाँव में . ...
और कुछ लोग तो...माँ कुछ रुकीं और मुस्करा कर बहत्तर वर्षीय देवीराम को देखा जो अचानक हमारे वार्तालाप को सुनकर आ खडे हुए थे । वे माँ के सहपाठी रहे थे । उन्हें देखकर माँ पुलक के साथ बोलीं---"-हाँ मैं कह रही थी कि उनके कुछ शिष्य तो आज भी उनके नाम से थरथराते हैं । क्यों देवी भैया !"
देवीराम आदर ,लज्जा व बचपन की यादों की मिठास से भर उठे । माँ कहने लगीं---"देवी भैया कक्षा के सबसे फिसड्डी छात्र थे । इन्हें कई बार समझाने पर भी कुछ याद नही होता था । कभी सबक पूरा करके नही लाते थे । बस कभी 'पंडी इक्की जाऊँ ?'तो कभी 'दुक्की जाऊँ' रटते रहते थे । ( इक्की, दुक्की का प्रयोग क्रमशः पेशाब जाने व शौच जाने के लिये होता था ) इतना कहते कहते माँ की हँसी फूट पडी । मैंने देखा उनके चेहरे की झुर्रियाँ कहीं गायब होगईं हैं ।
"तब सबक याद न करने पर तुम्हारी कितनी पिटाई होती थी भैया । याद है ?"
"सब याद है, बाईसाब ,सब याद है ।"-- देवीराम जैसे किसी स्वप्न संसार की सैर कर रहे थे----"वे क्या दिन थे ! अब कहाँ वैसी पढाई और कहाँ वैसा सनेह ! वह तो मार भी अच्छी थी । उसी मार के कारण मुझ जैसा निखट्टू भी उँगलियों पर हिसाब करना सीख गया था । और सारे सबक तो मुझे ऐसे रट गए कि आज तक नही भूला । आज भी पूरा याद है । "
"कौनसे सबक ?"---मेरी जिज्ञासा जागी ।
"अरे हाँ पुस्तक के पाठ, इबारत और कठिन शब्द लिखते-पढते हम सबको याद भी होजाते थे । केवल देवीराम भैया को ही याद नही होते थे । पर एक दिन इन्होंने सारे सबक एक साथ गुरूजी को सुना दिये तब हँसते-हँसते उन्होंने इनकी पीठ खूब ठोकी थी और एक दुअन्नी इनाम भी दी थी । तो फिर आज वह सारा कंठस्थ सबक सुना ही दो भैया ।"--माँ ने आग्रह किया । मैंने माँ की बात एक बार और दोहराई । तब बहत्तर साल के देवीराम ने बारह साल के छात्र की तरह सावधान मुद्रा में खडे होकर वह सबक सुनाया--- तीन अच्छरों के शब्द जैसे बतख, महल,नगर...चार अक्षर के शब्द जैसे खटमल, अजगर, ...माला-काला, पानी-नानी, सूप-धूप ,मेला-ठेला-केला ...पीतल का रंग पीला होता है ,नीम कडवा होता है, बतासा मीठा होता है ,सडा फल मत खा, रोज दाँतों में मंजन कर , झूठ मत बोल, लज्जा नारी का भूषण होता है , गिद्ध की निगाह तेज होती है ,बर्र का डंक जहरीला होता है , मच्छर के काटने से मलेरिया होता है ,गन्दा पानी इकट्ठा मत होने दो ,पेड मत काटो ,जीवों पर दया कर, ठठ्ठा मत कर , सुबह घूमना अच्छा होता है , चोरी करना बुरी बात है मीठा खाने से दाँतों में कीडा लगता है ,मिले अच्छर याद कर जैसे--डुग्गी ,घुग्घू, झझ्झर, मच्छर, कंकड , जैसे--गिद्ध, डिब्बा, कुप्पा ...ड्यौढा एकम् ड्यौढा, ड्यौढा दूनी तीन, ड्यौढा तीय साढे चार.....एकन पन्द्रह, दूनी तीस, तिय पैंतालीस ,चौके साठ......
सबक चल रहा था लगातार बिना साँस लिये । पूर्ण विराम तो दूर कहीं अल्प-विराम भी नही । हम सबकी हँसी दबे-दबे ठहाकों में बदल गई थी पर देवीराम पूरी गंभीरता व सजगता के साथ अपना सबक सुनाए जारहे थे मानो किसी छात्र को बीच में ध्यान बंग होजाने पर सबक भूल जाने का डर हो ,भूल जाने पर गुरुजी की नाराजी का डर हो या कि वह भी दिखा देना चाहता हो कि सबक याद करने में वह किसी से कम नही है ।
आज समय और परिवेश के साथ शिक्षक व शिक्षा के अर्थ ही बदल गए हैं .