शनिवार, 25 जनवरी 2025

राष्ट्रगीत की वन्दना

उन्नीसवीं शताब्दी का सातवां दशक चल रहा था ।उन दिनों जितनी क्रूरता के साथ अंगरेज अधिकारी दमन कर हे थे उतनी ही प्रखरता के साथ  देश के नौजवान विरोध कर रहे थे । इसीलिये जब राष्ट्रगान के रूप में 'गॅाड सेव द क्वीन ' गीत अनिवार्य कर दिया गया था , तब श्री बंकिमचन्द्र चटर्जी ने , जो उस समय सरकारी अधिकारी थे , विकल्प-स्वरूप सन् 1876 ई. में  'वन्दे-मातरम्'  गीत की रचना की थी । बाद में इसे और बढ़ाकर अपने उपन्यास आनन्दमठ में शामिल किया गया  था ।  यह गीत हर देशभक्त का क्रान्ति गीत था । कांग्रेस के अधिवेशनों में इसे ध्येय गीत रूप में गाते थे । वन्देमातरंम का जयघोष नौजवानों में जोश भर देता था ।इसे गाते गाते कितने ही वीरों ने स्वतन्त्रता के महायज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दी थी । नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा  दिया था ।24 जनवरी 1950 को संविधान द्वारा भी 'जन-गण-मन' को राष्ट्रगान तथा इसे राष्ट्रगीत घोषित किया गया ।राष्ट्रगान 'जन गण मन...' की तरह  ही राष्ट्रगीत के रूप में वन्देमातरम् के पहले अन्तरा को ही मान्य किया गया है ।  विश्व के दस लोकप्रिय गीतों में वन्देमातरम् का दूसरा स्थान है । हर भारतवासी के मन प्राण में बसा यह गीत सर्वोच्च और सच्चे अर्थ में मातृ-भूमि की वन्दना का गीत है । हमारे स्वातन्त्र्य-आन्दोलन का गान ,वीरों के उत्सर्ग का मान ,और हर भारतवासी का अभिमान है .अपने राष्ट्रध्वज और राष्ट्र्गान की तरह ही राष्ट्रगीत  भी हर भारतीय के लिये सम्माननीय है .

 राष्ट्रगीत के सम्मान में  लिखी यह  कविता आप भी पढ़ें ।

 राष्ट्रगीत की वन्दना

चेतना के जागरण का गानवन्दे-मातरम्

तिमिर से संघर्ष का ऐलान वन्दे-मातरम्

गूँज से जिसकी धरा जागी गगन गुंजित हुआ ,

एकता और क्रान्ति का आह्वान वन्दे-मातरम्

 

गीत यह गाया दिशाओं ने ,क्षितिज के द्वार खोले

रंग सिन्दूरी बिखेरा पंछियों ने पंख तोले

पर्वतों ने सिर झुका कर रोशनी को राह दी ,

हर गली घर द्वार से उत्सर्ग को मन प्राण बोले ।

जागती उस सुबह का सन्धान वन्दे-मातरम्

 

भावनाओं में भरा परतन्त्रता का रोष था

जोश था ,आक्रोश था ,मन में विकम्पित रोष था ।

प्राण लेकर हाथ, निर्भय आगए रण भूमि में,

एक ही हुंकार जिनकी क्रान्ति का उद्घोष था

उन सपूतों का यही जयगान वन्दे-मातरम्

 

गर्व है इतिहास का ,यह तो  नहीं हैं गोटियाँ

आग पर इसकी न सेको राजनैतिक रोटियाँ 

साम्प्रदायिकता ,अशिक्षा जातिगत दलगत जहर
गहन भ्रष्टाचार का सर्वत्र टूटा है कहर ।
इन सभी से युद्ध का आह्वान वन्देमातरम्

 

मातृ-वन्दन, मन्त्र पावन ,गा इसे जो मिट गए

जिन शहीदों की प्रभा से मेघ काले छँट गए ।

जाति का या धर्म का उनको कहाँ कब भेद था,

बस उन्हें तो जननि की परतन्त्रता का खेद था ।

एक था उनका धरम-ईमान वन्दे-मातरम्

 

स्वत्त्व का यह मान है ,सम्पूर्णता का भान है

भारती के भाल का सम्मान है, अभिमान है ।

यह सबेरा है सुनहरा एक लम्बी रात का ,

आत्मगौरव और अपने आपकी की पहचान है ।

अतुल अनुपम जननि का यशगान वन्दे-मातरम्

चेतना के जागरण का गान वन्देमातरम्।

सोमवार, 13 जनवरी 2025

'परब' तिलवा' और मकर-संक्रान्ति--एक संस्मरण

 पुनः प्रेषित 

मकर-क्रान्ति से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है , सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर गति करता है ,यानी सूर्य का उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है । आज के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने जाता है इसलिये लोग तिल का दान करते हैं ।..वगैरा वगैरा .”

तब बड़े- बुजुर्गों की इन बातों से हमारा कोई वास्ता नहीं था । हमारे लिये तो मकर-संक्रान्ति का सबसे पहला और बड़ा मतलब था तड़के ही नदी के बर्फीले जल में डुबकी लगाकर 'परब' लेना । दादी और नानी से पहले भी सुन रखा था लेकिन संक्रान्ति से एक दिन पहले भी सुनाना नहीं भूलती थीं -- सुनो ,सूरज उगने से पहले 'परब' (स्नान) लेने से ही पूरा पुण्य मिलता है । वह भी ठण्डे पानी से. जो आज के दिन नहाए बिना कुछ खाएगा ऐसा वह घोर नरक में जाएगा ” 


पता नहीं ऐसे तथ्य किसने खोज निकाले होंगे । किसने इस तरह की परम्पराएं बनाईं होंगी जिनका पालन दादी ,नानी ,माँ आदि बड़ी कठोरता से करतीं थीं । यहाँ तक कि किसी परम्परा को न मानने वाले पिताजी भी तड़के ही नहा लेते थे । लेकिन शायद माँ जानती थीं कि रजाई से निकलकर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में जम जाने की हद तक ठण्डे होगए बर्फीले पानी में डुबकी लगाने के लिये हमें न तो पुण्य का लालच विवश कर सकता है न ही नरक का डर । इसलिये वे दूसरा बड़ा प्रलोभन देतीं थीं -जब तक नदी में चार डुबकियाँ लगाकर नहीं आओगे , किसी को तिलबा( गुड़ की चाशनी में पागी गई तिल के लड्डू ) नहीं मिलेंगे । ”   

यह बात हमें उस सबक की तरह याद थी जिसे याद किये बिना हमारा न स्कूल में गुजारा था न ही घर में । इसलिये ‘मुँह-अँधेरे’ जैसे ही गलियों में लोगों की कलबलाहट गूँजती ,मैं और छोटा भाई रजाई का मोह छोड़कर नदी के घाट की ओर दौड़ पड़ते थे । हमारे गाँव से बिलकुल सटकर बहती छोटी सी 'सोन' नदी , जिसे अब नदी कहना खुद के साथ सरासर छलावा करना होगा , तब गाँव की जीवनरेखा हुआ करती थी । कहीं ठहरी हुई सी और कहीं कलकल करती बहती वह नदी नहाने ,कपड़े धोने और सिंचाई के साथ साथ जानवरों को पीने का पानी और शौकिया खाने वालों को मछली भी देती थी । हमने भी उसके किनारे खूब सीप शंख बटोरे हैं और खूब रेत के घरोंदे बनाए हैं । 
अब 'सोन' अपने नाम को केवल बरसात में ही सार्थक करती हैं । बाकी पूरे साल उसकी धारा उजड़ी हुई माँग सी पड़ी रहती है .क्योंकि लोगों ने पानी को अपनी अपनी फसलों के लिये जगह जगह रोक रखा है । इसी स्वार्थी प्रवृत्ति पर दुष्यन्त कुमार ने क्या खूब कहा है--
"यहाँ तक आते आते सूख जातीं हैं कई नदियाँ ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ।"
खैर....
नदी में डुबकी लगाने से पहले हम अपने यहाँ वहाँ पड़े हौसलों को समेटकर इकट्ठा करते और हमारा इन्तज़ार करते स्वादिष्ट लड्डुओं पर ध्यान केन्द्रित करते और शरीर को इस तरह पानी में फेंक देते जैसे वह किसी और का हो । डुबकी लगाते हुए हमें कुछ नए खास अनुभव हुए थे जो आप सबके लिये काम के हैं –

(1)जैसे कि 'पड़ोस के पंडित जी नहाते समय ऊंची आवाज में जोर जोर से जो 'हर हर गंगे गोदावरी...' बोलते हैं वह भक्ति-भाववश नहीं बल्कि वह ठण्ड को परास्त करने के लिये दी गई हुंकार (war cry) है '..कराटे में भी चिल्लाने के पीछे शायद यही मकसद होगा ।

(2) 'कि ठण्डे पानी से नहाने के बाद सर्दी कम लगती है ।

(3)कि 'नहाने के बाद हर कोई अपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझता है जो नहाए नहीं हैं ।'

(4) कि नहाने से 'माँ की नजरों में भी प्यार और प्रशंसा आ जाती है .जो हर बच्चे के लिये एक उपलब्धि होती है।

(5) पिताजी कहते रहते थे कि ठंडे पानी से नहाने पर जठराग्नि ( जठर यानी पेट की अग्नि )तेज होजाती है इस अजीबेगरीब सी बात को ,जिस पर हम हँसते थे कि यह कैसी आग है जो पानी से बुझने की बजाय बढ़ती है ,हमने सही पाया।

बहरहाल जब हम नहाकर दाँत किटकिटाते हुए थर थर काँपते हुए लौटते थे तो माँ हमें कम्बल में लपेटकर देवता की तरह पलंग पर स्थापित कर देती थीं और पुरस्कार स्वरूप 'अच्छे' 'सयाने' और बहादुर बच्चे की उपाधि से अलंकृत करके जब तिल के दो दो लड्डू पकड़ा देतीं थी तब सचमुच वह उपलब्धि हमारे लिये किसी राष्ट्रीय पुरस्कार से कम नहीं थी ।


इस पर्व पर गाय बैल की पूजा का महत्त्व तो उस समय मालूम नहीं था । (अब मालूम हुआ है कि लोहड़ी के साथ संक्रांति का सम्बन्ध फसलों से भी है ) एक समय था जब बिना बैलों का किसान बहुत ही गरीब माना जाता था । और गाय का महत्त्व तो हम सभी जानते हैं । तो मिट्टी से बैल गाय जिसे हम गुड़िया कहते थे ) बनाने की बात न करूँ तो बात कुछ अधूरी रहेगी । इन्हें बनाने के लिये भूसे का बारीक चूरा या गोबर मिलाकर मसल मसलकर चिकनी मिट्टी तैयार करना फिर बहुत रच रचकर बैल जोड़ी बनाना सूखने पर सफेद खडिया से रंगना  ,ये सारी तैयारियाँ करते हम लोग ताऊजी ( स्व. श्री भूपसिंह श्रीवास्तव जो शिक्षक होने के साथ बड़े कलाकार भी थे) का अनुसरण करते थे । आँखों की जगह लाल काली घंघुची लगाते थे । सींगों को काला रंगते थे । पीठ पर दोनों तरफ थैलियों वाला ,कपड़े का पलान सिल कर डालते थे जिनमें तिलवा भरे जाते थे । गाय को तो इतनी सुन्दर बनाते थे कि लोग देखते रह जाते थे । मजे की बात यह कि इन्हें पहियेदार बनाकर खिलौनों का रूप देते थे कि कहीं भी घुमा सकें । क्या होगा पता नहीं लेकिन हम बच्चों का उल्लास दुगुना होजाता था । जब तक गाँव में रही मैं अपने बच्चों के लिये हर साल गाय बैल बनाती रही ।
उन दिनों खेतों में गन्ना की खूब होती थी । धन लाभ से अधिक अपना घर का शुद्ध गुड़ बनाने और गन्ना चूसने का ही मकसद हुआ करता था । गुड़ बनने की खुशबू पूरे वातावरण को मिठास से भर देती थी । बच्चे बरगद पीपल के पत्ते लेकर गरम गुड़ खाने खड़े रहते थे । कोई भी किसी को न रस देने से मना करता था न ही गुड़ देने से ।

संक्रान्ति वाले दिन बँटाई वाले भैया बाल्टीभर रस दे जाते। रसखीर बनती । तिल बाजरा की टिक्की के साथ मूँग दाल के मँगौड़े बनते । गाय बैल की पूजा की जाती ।  

उसी दिन मोरपंख-सज्जित साफा बाँधे ,मंजीरे बजाते , "संकराँति के निरमल दान..." गाते हुए फूला जोशी का आते थे तब संक्रान्ति का आनन्द और बढ़ जाता । फूला बाबा को सब लोग खिचड़ी और तिलवा देते थे और वह सबको भर भरकर आशीष ।
गाँव में जीवन अकेले व्यक्तिगत् प्रायः किसी का नहीं होता । दिन में किसी दरवाजे पर किवाड़ बन्द नहीं होते थे । मूल उतारने वाले फूला जोशी , चूड़ियाँ पहनाने वाले जुम्मा मनिहार चाचा ,कंघा ,रिबन बेचने वाले नौशे खां ,आटा लेने वाला धनकधारी ,बहुरूपिया साँई बाबा ,ढोल बजाकर विरुदावली गाने वाला भगवनलाल नट आदि कई लोग थे जिनका गाँव के दाना-पानी पर उतना ही अधिकार था जितना गाँववालों का । कैसा आनन्दमय था वह जीवन ..कहाँ गए वे लोग ,जिनकी खुशी सुख-सुविधाओं की मोहताज़ नही थी ।

 

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

आओ चलें रेत पर

आओ चलें कुछ देर,

नंगे पाँव ,

सूखी रेत पर ।

सूखी ,भुरभुरी ,कंकरीली रेत

बिछी है दूर तक किसी अनासक्त योगी सी 

अविचल , निस्पृह ,निरापद  

रौंदो ,घरोंदे बनाओ ,मिटाओ

बरसें बादल ,

उकसाए , हवा ,

बेअसर रेत ,नहीं बहती या उड़ती ,

धूल की तरह

धूल , जो ज़रा बुहारने पर ही 

विचलित होजाती है 

छोड़ देती है  अपनी जगह 

थामकर हवा का हाथ ।

अस्तित्त्वहीन है किसी का भी 'धूल होना' 

या 'मिलना धूल' में ।

तभी तो ,

नगण्यता का पर्याय है 'पैरों की धूल' ।

जबकि रेत आधार है निर्माण का ।

मजबूती लिये चट्टानों की ।

चट्टानें जो समय और 

मौसमों के क्रूर थपेड़ों से से भंगुर हुईं ,

पीसी गईं तेज प्रवाह में,

फिर भी रही अमिट ,अव्यय ,

रूपाकार हुईं अविभाज्य 

और अविचल रेत में ।

रेत का विचलित होना 

संकेत होता है तूफान का ।

तूफान किसी शान्त धीरोदात्त नायक के क्रोध सा

मिटाने अन्याय और दुराचार ।

अनावश्यक विस्तार लेती मनोवृत्ति का 

मनोवृत्ति आसमान नापते  उत्तुंग वृक्षों की 

जो रोकते हैं धूप ,हवा छोटे-छोटे पेड़-पौधों की ।

नहीं पनपने देती उन्हें 

अपनी जगह ,अपनी तरह से ।

 

बचपन में जब रहते थे हम 

अक्सर नंगे पाँव ,

चिन्ता नहीं थी काँटों ,कंकड़ों की ।

मुश्किल नहीं था ज़रा भी

पाँव में धँसे काँटे को निकाल फेंकना 

और खेलने लग जाना फिर से ।

आओ चले उसी तरह 

नंगे पाँव सूखी कंकरीली रेत पर 

महसूस करें रेत का रेतीला भुरभुरापन 

चुभन , सुविधा से दबे ढँके कोमल तलवों में ।

पढ़ें रेत पर लिखी इबारतें

कि नहीं मिलता किसी को

राह में बिछा हुआ मखमली गलीचा 

हमेशा..

मिलते हैं काँटे ,कंकड़ , चुभन भी , 

और अवरोध गति में भी ।

कि ज़रूरी है नंगे पाँव रहना ,

'ज़मीन' पर ,क्योंकि,

'पाँव ज़मीन पर' हों न हों ,

ज़रूरी है 'पाँवों के नीचे ज़मीन' होना ।



रविवार, 5 जनवरी 2025

'प्रत्यूषा' -जन्मदिन पर मिला एक उपहार

 एक जनवरी को अपनों के बहुत सारे शुभकामना सन्देशों के साथ भेंटस्वरूप एक पुस्तक भी उपहार में मिली –‘प्रत्यूषा’ । भेटकर्त्ता थे अनिरुद्ध श्रीवास्तव ।

अनिरुद्ध न केवल मेरा भतीजा यानी भाई सन्तोष का छोटा बेटा

हैं बल्कि स्वयं इस पुस्तक का सर्जक भी है ।

पुस्तक एक उपन्यास है और अनिरुद्ध की प्रथम मौलिक कृति है । यह सहज सामान्य बात है विशेष बात है पुस्तक का मात्र सत्रह-अठारह दिन में पूरी कर लेना और प्रकाशित होने भेज देना। लगभग दो सौ पृष्ठ की किसी कथात्मक कृति का केवल एक बार में ही लिखना और इतनी अल्पावधि में पूरी कर देना किसी को भी चकित कर सकता है । लेकिन यह सच है । मुझे ध्यान आया कि अभी तक सबसे कम समय में लिखा गया उपन्यास था –'देह की देहलीज पर’ जो हम सबकी जानी मानी रचनाकार कविता वर्मा ने मित्र- लेखिकाओं के साथ लॉक-डाउन के 21 दिनों में पूरा किया था लेकिन ‘प्रत्यूषा’ अकेले अनिरुद्ध का प्रयास है वह भी अत्यल्प अवधि में ।
इतनी जल्दी क्यों और कैसे लिख लिया –मैंने पूछा तो अनिरुद्ध ने बताया कि ‘’साल भर से इसके बारे में सोच रहा था । घर रहते हुए जब समय और एकान्त मिला तो फिर कुछ और नहीं देखा । बस घंटों लगातार लिखता रहा पता नहीं वह सब कैसे हो गया । जहाँ तक जल्दी के कारण का सवाल है तो अगर सोचने बैठता तो यह पूरा नहीं होता । सोचा नहीं बस लिखता रहा ।’
हालाँकि इस जल्दबाजी का थोड़ा प्रभाव कथानक पर दिखाई देता है लेकिन इसे अपरिपक्व तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता ।
उपन्यास के कथानक के केन्द्र में प्रत्यूषा नामक युवती है जो अनिरुद्ध के शब्दों में ,”ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीती है ,खौफनाक स्मृतियों के बावज़ूद योद्धा की तरह लड़ती है और उन सारे बन्धनों से आजादी हासिल करती है जो उसे समाज ने दिये थे ।”
सात वर्ष पहले प्रत्यूषा किसी की क्रूर वासना का शिकार हुई जिससे वह इतनी आहत होगई थी कि प्राणान्त कर लेना चाहती थी लेकिन अथर्व नामक युवक की प्रेरणा से वह एक गुरु से मिलती है जो उसे जीवन की सार्थकता समझाते हुए आध्यात्म से जोड़ते हैं । वह एक गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी फिर खड़ी होती है । जीवन के उद्देश्य के रूप में एक गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) स्थापित करती है और असहाय ,पीड़ित जानवरों की सुरक्षा व देखभाल करने में , लोगों में उनके प्रति संवेदना जगाने में खुद को लगा देती है । प्रत्यूषा की कहानी के साथ ही गरिमा नामक युवती की कहानी भी समानान्तर चलती है जो दिल्ली में कार्यरत है । पति व परिवार की इच्छाओं के समक्ष स्वयं को विवश पाती है तब प्रत्यूषा ही उसे सम्बल देते हुए उसे अपनी दिशा व लक्ष्य स्वयं तय करने की प्रेरणा देती है । बीमारी के कारण प्रत्यूषा की मृत्यु होजाती है लेकिन उसकी प्रेरणा से ही गरिमा न केवल अपने जीवन को एक सार्थक दिशा देती है बल्कि प्रत्यूषा के कार्य को आगे बढ़ाती है ।
अब प्रश्न है कृति की कलात्मकता और गुणवत्ता का । यदि इसे हम लेखक की एक ही बार में, (दोबारा नही लिखा) वह भी अठारह दिन में लिख दी गई प्रथम कृति के रूप में देखते हैं तो इसका कथाक्रम , संवाद , वातावरण चकित करता है । कथानक का आरम्भ ही इतना रोचक और स्वाभाविक है कि प्रथम प्रयास लगता ही नही है । संवाद छोटे लेकिन पात्रानुकूल सहज स्वाभाविक हैं। प्रसंगानुसार संवाद कहीं हल्के-फुल्के और कहीं काफी गंभीर लम्बे हैं । तदनुसार संवादों की भाषा भी कहीं आम बोलचाल की और कहीं काफी परिपक्व व लेखक की गहरी समझ का परिचय देती है । गणना और स्थिति के साथ स्थान का वर्णन कथा को सहज और विश्वसनीय बनाता है । आध्यात्म के क्षेत्र में संभवत अनिरुद्ध की गहरी रुचि व ज्ञान है जो उपन्यास में प्रचुरता से दिखता है । आवरण अच्छा है । पृष्ठ और छपाई भी अच्छी है ।
किसी भी रचना का निर्माण सहज नहीं होता । एक लम्बी अन्तर्यात्रा होती है इसलिये मैं अनिरुद्ध की लगन ,अथक परिश्रम और कौशल की प्रशंसा करती हूँ और हृदय से शुभकामनाएं व बधाई देने के साथ आशा के साथ विश्वास भी रखती हूँ कि अगली रचना और भी निखरे व ठहरे हुए रूप में हमारे सामने आएगी ।

यह पुस्तक ऐमेजॉन पर उपलब्ध है ।