आओ चलें कुछ देर
सूखी भुरभुरी रेत पर ।
मरमरी ,कंकरीली रेत
मुट्ठी से फिसलती है
लेकिन चलने या दौड़ने
पर
रहती है निस्पृह
,निरापद ,अनासक्त
कोई भी रौंदे , उड़ाएं
,घरोंदे बनाए तोड़े
बरसें बादल ,
उकसाए हवा ,
नहीं बहती ,नहीं उड़ती
,
धूल की तरह
ज़रा बुहारने पर ही जो
छोड़ देती है
अपनी जगह
घबराकर चढ़ती है कपड़ों
पर ,माथे पर ,
भरती है बालों में
झाड़ दी जाती है तुरन्त
उपेक्षा के साथ
नगण्यता का पर्याय है
पैरों की धूल ।
पर रेत है चट्टानों का
हृदय
मौसमों के क्रूर प्रहार
से टूटी कटी शिलाएं
टुकड़ा टुकड़ा पीसी गई
तेज प्रवाह में
चूर चूर , बदली अमिट ,अव्यय
,अविभाज्य रेत में ।
इसीलिये सर्दी हो गर्मी
हो या बरसात हो
रेत हर हाल रहती है
बेअसर ।
साधारण नहीं है रेत का
विचलित होना ।
आक्रोशित होना है किसी
धीरोदात्त नायक का
किसी अन्याय और
दुराचार को मिटाने
हटाने अनावश्यक बढ़ गए
, फैल गए पेड़ों को
रोकते हैं धूप ,हवा छोटे-छोटे
पेड़-पौधों की ।
टोकते हैं उन्हें ज़रा
भी टहनियाँ फैलाने पर ही ।
बचपन में रहते थे
अक्सर नंगे पाँव
चिन्ता नहीं थी काँटों
कंकड़ों की ।
काँटा लग भी जाता तो
मुश्किल नहीं था उसे
निकाल फेंकना
और खेलने लग जाना फिर
से ।
रेत पर चलना जुड़ना है
ज़मीन से
रूबरू होना है पैरों
का ,ज़मीनी हकीक़त से कि
सबको हमेशा नहीं मिलता
राह में बिछा हुआ
मखमली गलीचा ।
मिलते भी हैं काँटे ,कंकड़
, चुभन , गति में अवरोध
अभ्यस्त होने के लिये चलना
ज़रूरी है कभी कभी
नंगे पाँव सूखी
कंकरीली रेत पर भी ।
और इसलिये भी कि पाँव
ज़मीन पर हों न हों ,
ज़रूरी है पाँवों के
नीचे ज़मीन होना ।
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