पुनः प्रेषित
‘मकर-क्रान्ति से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है , सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर गति करता है ,यानी सूर्य का उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है । आज के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने जाता है इसलिये लोग तिल का दान करते हैं ।..वगैरा वगैरा .”
तब बड़े-
बुजुर्गों की इन बातों से हमारा कोई वास्ता नहीं था । हमारे लिये तो मकर-संक्रान्ति
का सबसे पहला और बड़ा मतलब था तड़के ही नदी के बर्फीले जल में डुबकी लगाकर 'परब' लेना । दादी और नानी से पहले भी सुन रखा था लेकिन
संक्रान्ति से एक दिन पहले भी सुनाना नहीं भूलती थीं --“ सुनो
,सूरज उगने से पहले 'परब' (स्नान) लेने
से ही पूरा पुण्य मिलता है । वह भी ठण्डे पानी से. जो आज के दिन नहाए बिना कुछ खाएगा
ऐसा वह घोर नरक में जाएगा ।”
पता नहीं ऐसे तथ्य किसने खोज निकाले होंगे । किसने इस तरह की परम्पराएं
बनाईं होंगी जिनका पालन दादी ,नानी ,माँ आदि
बड़ी कठोरता से करतीं थीं । यहाँ तक कि किसी परम्परा को न मानने वाले पिताजी भी तड़के
ही नहा लेते थे । लेकिन शायद माँ जानती थीं कि रजाई से निकलकर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड
में जम जाने की हद तक ठण्डे होगए बर्फीले पानी में डुबकी लगाने के लिये हमें न तो पुण्य
का लालच विवश कर सकता है न ही नरक का डर । इसलिये वे दूसरा बड़ा प्रलोभन देतीं थीं
-“जब तक नदी में चार डुबकियाँ लगाकर नहीं आओगे , किसी को ‘तिलबा’( गुड़ की चाशनी
में पागी गई तिल के लड्डू ) नहीं मिलेंगे । ”
यह बात
हमें उस सबक की तरह याद थी जिसे याद किये बिना हमारा न स्कूल में गुजारा था न ही घर
में । इसलिये ‘मुँह-अँधेरे’ जैसे
ही गलियों में लोगों की कलबलाहट गूँजती ,मैं और छोटा भाई रजाई
का मोह छोड़कर नदी के घाट की ओर दौड़ पड़ते थे । हमारे गाँव से बिलकुल सटकर बहती छोटी
सी 'सोन' नदी , जिसे
अब नदी कहना खुद के साथ सरासर छलावा करना होगा , तब गाँव की जीवनरेखा
हुआ करती थी । कहीं ठहरी हुई सी और कहीं कलकल करती बहती वह नदी नहाने ,कपड़े धोने और सिंचाई के साथ साथ जानवरों को पीने का पानी और शौकिया खाने वालों
को मछली भी देती थी । हमने भी उसके किनारे खूब सीप शंख बटोरे हैं और खूब रेत के घरोंदे
बनाए हैं ।
अब 'सोन' अपने नाम को केवल बरसात में
ही सार्थक करती हैं । बाकी पूरे साल उसकी धारा उजड़ी हुई माँग सी पड़ी रहती है .क्योंकि
लोगों ने पानी को अपनी अपनी फसलों के लिये जगह जगह रोक रखा है । इसी स्वार्थी प्रवृत्ति
पर दुष्यन्त कुमार ने क्या खूब कहा है--
"यहाँ तक आते आते सूख जातीं हैं कई नदियाँ ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ।"
खैर....
नदी में डुबकी लगाने से पहले हम अपने यहाँ वहाँ पड़े हौसलों को समेटकर
इकट्ठा करते और हमारा इन्तज़ार करते स्वादिष्ट लड्डुओं पर ध्यान केन्द्रित करते और
शरीर को इस तरह पानी में फेंक देते जैसे वह किसी और का हो । डुबकी लगाते हुए हमें कुछ
नए खास अनुभव हुए थे जो आप सबके लिये काम के हैं –
(1)जैसे
कि 'पड़ोस के पंडित जी नहाते समय ऊंची आवाज में जोर जोर से जो 'हर हर गंगे गोदावरी...' बोलते हैं वह भक्ति-भाववश नहीं
बल्कि वह ठण्ड को परास्त करने के लिये दी गई हुंकार (war cry) है '..कराटे में भी चिल्लाने के पीछे शायद यही मकसद होगा
।
(2) 'कि ठण्डे पानी से नहाने के बाद सर्दी कम लगती है ।
(3)कि
'नहाने के बाद हर कोई अपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझता है जो नहाए नहीं हैं ।'
(4) कि
नहाने से 'माँ की नजरों में भी प्यार और प्रशंसा आ जाती है .जो
हर बच्चे के लिये एक उपलब्धि होती है।
(5) पिताजी
कहते रहते थे कि ठंडे पानी से नहाने पर जठराग्नि ( जठर यानी पेट की अग्नि )तेज
होजाती है इस अजीबेगरीब सी बात को ,जिस पर हम हँसते थे कि यह कैसी आग है जो पानी
से बुझने की बजाय बढ़ती है ,हमने सही पाया।
बहरहाल
जब हम नहाकर दाँत किटकिटाते हुए थर थर काँपते हुए लौटते थे तो माँ हमें कम्बल में लपेटकर
देवता की तरह पलंग पर स्थापित कर देती थीं और पुरस्कार स्वरूप 'अच्छे' 'सयाने' और बहादुर बच्चे
की उपाधि से अलंकृत करके जब तिल के दो दो लड्डू पकड़ा देतीं थी तब सचमुच वह उपलब्धि
हमारे लिये किसी राष्ट्रीय पुरस्कार से कम नहीं थी ।
इस पर्व पर गाय बैल की पूजा का महत्त्व तो उस समय
मालूम नहीं था । (अब मालूम हुआ है कि लोहड़ी के साथ संक्रांति का सम्बन्ध फसलों से
भी है ) एक समय था जब बिना बैलों का किसान बहुत ही गरीब माना जाता था । और गाय का
महत्त्व तो हम सभी जानते हैं । तो मिट्टी से बैल गाय जिसे हम ‘गुड़िया’ कहते थे ) बनाने की बात न करूँ
तो बात कुछ अधूरी रहेगी । इन्हें बनाने के लिये भूसे का बारीक चूरा या गोबर मिलाकर
मसल मसलकर चिकनी मिट्टी तैयार करना फिर बहुत रच रचकर बैल जोड़ी बनाना सूखने पर सफेद
खडिया से रंगना ,ये सारी तैयारियाँ करते हम
लोग ताऊजी ( स्व. श्री भूपसिंह श्रीवास्तव जो शिक्षक होने के साथ बड़े कलाकार भी थे)
का अनुसरण करते थे । आँखों की जगह लाल काली घंघुची लगाते थे । सींगों को काला रंगते
थे । पीठ पर दोनों तरफ थैलियों वाला ,कपड़े का पलान सिल कर डालते
थे जिनमें तिलवा भरे जाते थे । गाय को तो इतनी सुन्दर बनाते थे कि लोग देखते रह जाते
थे । मजे की बात यह कि इन्हें पहियेदार बनाकर खिलौनों का रूप देते थे कि कहीं भी घुमा
सकें । क्या होगा पता नहीं लेकिन हम बच्चों का उल्लास दुगुना होजाता था । जब तक गाँव
में रही मैं अपने बच्चों के लिये हर साल गाय बैल बनाती रही ।
उन दिनों खेतों में गन्ना की खूब होती थी । धन लाभ से अधिक अपना घर
का शुद्ध गुड़ बनाने और गन्ना चूसने का ही मकसद हुआ करता था । गुड़ बनने की खुशबू
पूरे वातावरण को मिठास से भर देती थी । बच्चे बरगद पीपल के पत्ते लेकर गरम गुड़
खाने खड़े रहते थे । कोई भी किसी को न रस देने से मना करता था न ही गुड़ देने से ।
संक्रान्ति
वाले दिन बँटाई वाले भैया बाल्टीभर रस दे जाते। रसखीर बनती । तिल बाजरा की टिक्की के
साथ मूँग दाल के मँगौड़े बनते । गाय बैल की पूजा की जाती ।
उसी दिन
मोरपंख-सज्जित साफा बाँधे ,मंजीरे बजाते , "संकराँति के निरमल दान..." गाते
हुए फूला जोशी का आते थे तब संक्रान्ति का आनन्द और बढ़ जाता । फूला बाबा को सब लोग
खिचड़ी और तिलवा देते थे और वह सबको भर भरकर आशीष ।
गाँव में जीवन अकेले व्यक्तिगत् प्रायः किसी का नहीं होता । दिन में
किसी दरवाजे पर किवाड़ बन्द नहीं होते थे । मूल उतारने वाले फूला जोशी , चूड़ियाँ पहनाने वाले जुम्मा मनिहार चाचा ,कंघा ,रिबन
बेचने वाले नौशे खां ,आटा लेने वाला धनकधारी ,बहुरूपिया साँई बाबा ,ढोल बजाकर विरुदावली गाने वाला
भगवनलाल नट आदि कई लोग थे जिनका गाँव के दाना-पानी पर उतना ही अधिकार था जितना गाँववालों
का । कैसा आनन्दमय था वह जीवन ..कहाँ गए वे लोग ,जिनकी खुशी सुख-सुविधाओं
की मोहताज़ नही थी ।
मकर संक्रांति की गुड़ जैसी मीठी यादों से सिक्त सुंदर संस्मरण, पढ़ते-पढ़ते गाँव के दृश्य सजीव हो उठे, हमारे बचपन में भी एक नदी थी, पर अब सूख गई है
जवाब देंहटाएंप्रणाम आपको अनीता जी। आपको मकरसंक्रांति मंगलमय हो
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