एक जनवरी को अपनों के बहुत सारे शुभकामना सन्देशों के साथ भेंटस्वरूप एक पुस्तक भी उपहार में मिली –‘प्रत्यूषा’ । भेटकर्त्ता थे अनिरुद्ध श्रीवास्तव ।
पुस्तक एक उपन्यास है और अनिरुद्ध की प्रथम मौलिक कृति है । यह सहज सामान्य बात है विशेष बात है पुस्तक का मात्र सत्रह-अठारह दिन में पूरी कर लेना और प्रकाशित होने भेज देना। लगभग दो सौ पृष्ठ की किसी कथात्मक कृति का केवल एक बार में ही लिखना और इतनी अल्पावधि में पूरी कर देना किसी को भी चकित कर सकता है । लेकिन यह सच है । मुझे ध्यान आया कि अभी तक सबसे कम समय में लिखा गया उपन्यास था –'देह की देहलीज पर’ जो हम सबकी जानी मानी रचनाकार कविता वर्मा ने मित्र- लेखिकाओं के साथ लॉक-डाउन के 21 दिनों में पूरा किया था लेकिन ‘प्रत्यूषा’ अकेले अनिरुद्ध का प्रयास है वह भी अत्यल्प अवधि में ।
इतनी जल्दी क्यों और कैसे लिख लिया –मैंने पूछा तो अनिरुद्ध ने बताया कि ‘’साल भर से इसके बारे में सोच रहा था । घर रहते हुए जब समय और एकान्त मिला तो फिर कुछ और नहीं देखा । बस घंटों लगातार लिखता रहा पता नहीं वह सब कैसे हो गया । जहाँ तक जल्दी के कारण का सवाल है तो अगर सोचने बैठता तो यह पूरा नहीं होता । सोचा नहीं बस लिखता रहा ।’
हालाँकि इस जल्दबाजी का थोड़ा प्रभाव कथानक पर दिखाई देता है लेकिन इसे अपरिपक्व तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता ।
उपन्यास के कथानक के केन्द्र में प्रत्यूषा नामक युवती है जो अनिरुद्ध के शब्दों में ,”ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीती है ,खौफनाक स्मृतियों के बावज़ूद योद्धा की तरह लड़ती है और उन सारे बन्धनों से आजादी हासिल करती है जो उसे समाज ने दिये थे ।”
सात वर्ष पहले प्रत्यूषा किसी की क्रूर वासना का शिकार हुई जिससे वह इतनी आहत होगई थी कि प्राणान्त कर लेना चाहती थी लेकिन अथर्व नामक युवक की प्रेरणा से वह एक गुरु से मिलती है जो उसे जीवन की सार्थकता समझाते हुए आध्यात्म से जोड़ते हैं । वह एक गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी फिर खड़ी होती है । जीवन के उद्देश्य के रूप में एक गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) स्थापित करती है और असहाय ,पीड़ित जानवरों की सुरक्षा व देखभाल करने में , लोगों में उनके प्रति संवेदना जगाने में खुद को लगा देती है । प्रत्यूषा की कहानी के साथ ही गरिमा नामक युवती की कहानी भी समानान्तर चलती है जो दिल्ली में कार्यरत है । पति व परिवार की इच्छाओं के समक्ष स्वयं को विवश पाती है तब प्रत्यूषा ही उसे सम्बल देते हुए उसे अपनी दिशा व लक्ष्य स्वयं तय करने की प्रेरणा देती है । बीमारी के कारण प्रत्यूषा की मृत्यु होजाती है लेकिन उसकी प्रेरणा से ही गरिमा न केवल अपने जीवन को एक सार्थक दिशा देती है बल्कि प्रत्यूषा के कार्य को आगे बढ़ाती है ।
अब प्रश्न है कृति की कलात्मकता और गुणवत्ता का । यदि इसे हम लेखक की एक ही बार में, (दोबारा नही लिखा) वह भी अठारह दिन में लिख दी गई प्रथम कृति के रूप में देखते हैं तो इसका कथाक्रम , संवाद , वातावरण चकित करता है । कथानक का आरम्भ ही इतना रोचक और स्वाभाविक है कि प्रथम प्रयास लगता ही नही है । संवाद छोटे लेकिन पात्रानुकूल सहज स्वाभाविक हैं। प्रसंगानुसार संवाद कहीं हल्के-फुल्के और कहीं काफी गंभीर लम्बे हैं । तदनुसार संवादों की भाषा भी कहीं आम बोलचाल की और कहीं काफी परिपक्व व लेखक की गहरी समझ का परिचय देती है । गणना और स्थिति के साथ स्थान का वर्णन कथा को सहज और विश्वसनीय बनाता है । आध्यात्म के क्षेत्र में संभवत अनिरुद्ध की गहरी रुचि व ज्ञान है जो उपन्यास में प्रचुरता से दिखता है । आवरण अच्छा है । पृष्ठ और छपाई भी अच्छी है ।
किसी भी रचना का निर्माण सहज नहीं होता । एक लम्बी अन्तर्यात्रा होती है इसलिये मैं अनिरुद्ध की लगन ,अथक परिश्रम और कौशल की प्रशंसा करती हूँ और हृदय से शुभकामनाएं व बधाई देने के साथ आशा के साथ विश्वास भी रखती हूँ कि अगली रचना और भी निखरे व ठहरे हुए रूप में हमारे सामने आएगी ।
यह पुस्तक ऐमेजॉन पर उपलब्ध है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें