मंगलवार, 31 जनवरी 2023

सिडनी डायरी -8 कॉकटू आइलैण्ड भ्रमण

14 जनवरी 2023
आज हम 'कॉकटू' आइलैंड देखने गए .

यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत में शामिल किया गया यह बहुत खूबसूरत द्वीप ( आइलैंड) सिडनी हार्बर का सबसे बड़ा द्वीप है . यहाँ 'पैरामेटा रिवर' और 'लेनकोव रिवर' मिलकर सिडनी हार्बर में मिलती हैं . पैरामेटा सबर्ब ( उपनगर ) से कॉकटू आइलैंड के लिये फैरी (river cat) सबसे सुन्दर आराम और आनन्ददायक साधन है .फैरी का पूरा सफर पैरामेटा 'वॉर्फ' (wharf) (घाट) से 'सिडनी हार्बर' तक लगभग एक घंटा बीस मिनट का है . कॉकटू सिडनी हार्बर से पहले आने वाला घाट wharf है .फैरी द्वारा यह मेरी दूसरी यात्रा थी . फिर भी अनभव उतना ही रोमांचक ,मनोरम , कौतूहल और आनन्दमय लगा . जिस तरह जलधारा को चीरती हुई फैरी गहरे विशाल जल पर रानी की तरह अपना आधिपत्य जताती हुई सी ,झूमती गाती ,पानी में भारी हलचल मचाती चलती है , मुझे जलपरी सी मोहक लगती है . नदी किनारे रोज सुबह वॉक करते हुए ,जब फैरी को आते जाते देखती हूँ पाँव स्वतः ही रुक जाते हैं . वह किस तरह सोई हुई सी शान्त नदी को छेड़ती चलती है और नदी जैसे नींद टूटने के कारण पूरे आवेग से झुँझला उठती है , उफनती हिलोरें किनारों से टकराती हैं .  

पैरामेटा से ओलम्पिक-पार्क’ तक ,जो कुल दूरी का एक चौथाई हिस्सा है , फैरी बड़े आराम से चलती है. कुल समय का लगभग आधा समय इतनी दूरी में ही ले लेती है . किनारे के पेड़ों ,पक्षियों , आसमान और हवा से बतियाती चलती है जैसे उसे घर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं हो . पर 'डक रिवर' के मिलने के बाद जैसे ही सिल्वर ब्रिज आता है फैरी अचानक गति पकड़ लेती है जैसे कोई ऑफिस जाने वाले को घड़ी देखने के बाद अपनी लेट लतीफी याद आती है और वह हडबड़ाता हुआ भागता है . सिलवर वाटर ब्रिज को बाद नदी गहरी और विशाल होजाती है और हवा के थपेड़े उतने ही तेज . बड़ी बड़ी लहरों पर झूलती हुई , सामने आती साथी फैरियों को हैप्पी जर्नी बोलती हुई , सात आठ स्टेशनों पर सहयात्रियों को उतारती चढ़ाती हुई आखिर कॉकटू स्टोशन पर हमें भी उतारकर विदा कहती हुई आगे बढ़ गई सिडनी हार्बर की ओर  .

कॉकटू आइलैंड का विस्तार पहले लगभग 32 एकड़ था किन्तु बाद में इमारती लकडियों और बलुआ पत्थरों ( सैंडस्टोन ) द्वारा बढ़ाया जाने से अब 44 विस्तार एकड़ है .समुद्रतल से लगभग 60 फीट ऊँचाई वाला , भीड़ और शोरगुल से अलग यह द्वीप प्रकृति का जैसे वरदान है . हरे भरे सघन वृक्ष , जानी अनजानी वनस्पतियों और फूलों को देख मन खिल उठता है . ऊँचाई से चारों ओर लहराते समुद्र के हरे नीले फिरोजी सौन्दर्य और धवल फेनिल लहरों को और लहरों पर तैरते छोटे बड़े जहाजों को देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है .

पैरामेटा  घाट (wharf) ,
जहाँ से फैरी लौट जाती है .

फैरी

कॉकटू आइलैंड न केवल नयनाभिराम सौन्दर्य के लिये बल्कि ऐतिहासिक व तकनीकी दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है . सन् 1839 से सन् 1869 तक यह ऑस्ट्रेलिया पेनल कोड द्वारा दण्डित उन अपराधियों का कारावास था , जो ब्रिटिश उपनिवेशों में नाराजी या विरोध से भरे होते थे . संग्रहालय के अलावा सन् 1857 से 1991 तक ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा 'शिपयार्ड' ( जहाज बनाने व मरम्मत करने का स्थान) रहा . बहुत सी इमारतें आज भी अच्छी स्थिति में हैं . हमने वहाँ आनन्ददायी तीन चार घंटे व्यतीत किये . शाम पाँच बजे फैरी द्वारा ही पैरामेटा लौट आए . कॉकटू आइलैंड भ्रमण एक बहुत शानदार और मनोरम अनुभव था .   

सोमवार, 23 जनवरी 2023

ध्रुवगाथा ( खण्डकाव्य) ----एक अंश

'ध्रुवगाथा' --सन् 2012 में प्रकाशित मेरी दो पहली पुस्तकों में से एक है ( दूसरी अपनी खिड़की से ). लेकिन मेरी ही कसौटी पर पूरी तरह खरी न उतरने के कारण इसका प्रचार प्रसार नहीं हुआ . वैसे तो मैंने सात बड़ी पुस्तकों में किसी का भी कहीं प्रचार नहीं किया है . उन्ही दिनों इसी ब्लाग  पर ध्रुवगाथा की चर्चाएं तो हुई हैं . दस वर्ष में कुछ नए साथी  भी यहाँ आए  हैं . इसलिये अपने और आप सबके विचारों में लाने के लिये  पुस्तक का एक अंश आप सबके अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ .  

........................

 नेह नेह का उत्तर हो , पर नहीं हुआ है .

समतल समझा जहाँ , वहीं पर गहन कुँआ है .

 दोष न केवल अनीति करना , सहना भी है .

सरेआम अन्याय देख चुप रहना भी है .

लेकिन ध्रुव को ऐसे नहीं बिखरने दूँगी .

मन माला से एक मोती गिरने दूँगी .

 और उठी आन्दोलित मन को चली सम्हाले .

मन की दुर्बलता की बेटा थाह पाले .

धीरज हुआ रेत का घर , जब ध्रुव को देखा .

तेज कटारी नोंक , हृदय पर गहरी रेखा .

 आँखें थीं आरक्त रिसा हो घाव नया ही .

ध्रुव की नज़रों ने माँ से सब हाल कहा ही .

 मेरा लाल ,बहादुर क्यों इतना उदास है .

कितनी सारी खुशियाँ अपने आसपास है .

 समझ न आय़ा , तुम सब मिलकर नगर गए क्यों ?

बहुत थका देने वाली थी , डगर गए क्यों ?

 मैंने समझाया था अभी नहीं जाना है .

स्वयं बुलाएंगे वह समय अभी आना है.

 यहाँ कुटज में ही देखो तो कितना सुख है .

शान्त ,सृष्टि के आँगन में बोलो क्या दुख है .

 रही लाल के अपने , पथ में पलक बिछाए .

मुख पर ऐसी गहन उदासी तनिक न भाए .

 तू तो मेरा सूरज , राजाओं का राजा .

आ बेटा , अब माँ की बाहों में भी आजा .

 हाथ हटाया , बैठ गया ध्रुव नज़र फेरकर .

बोला आँसू पौंछ ,और नजरें तरेरकर .।

 माँ , तुम सदा ज्ञान की ही बातें करती हो .

वीर बनो , यशवान् बनो , कहती रहती हो .

वीर यशस्वी कुछ भी मुझे नहीं बनना है .

क्या वे मेरे पिता नहीं , सच सच सुनना है .

बेशक हैं ,बेटा सवाल क्यों आया मन में .

क्योंकि यही नवनीत सा मिला मन मन्थन में .

सहना तुमने सीखा है माँ , मुझे न भाता .

दुनिया में मेरी तो एक तुम्ही हो माता .

बेटा , कोई जटिल समस्या होगी मन में .

शायद बाधा कुछ आई होगी चिन्तन में  .  

 राजनीति की बातें हैं ,तुम बच्चे ही हो .

क्या समझोगे अभी अक्ल के कच्चे ही हो .

 यदि छोटी छोटी बातों पर ही ऐसे उलझेंगे .

बड़े बड़े मसले उनसे कैसे सुलझेंगे .

 तुम तो माँ बस उनकी सी ही बात कहोगी .

मेरी अब क्या कोई बात नहीं समझोगी ?

 राज काज में बच्चों का दिल तोड़ा जाता ?

बुरा भला हो , मनचाहा पथ मोड़ा जाता ?

 राजेश्वर ,रानी को समझा भी सकते थे .

मुझको पास बुलाकर गले लगा सकते थे .

 पर जड़वत् बने रहे ,कुछ कहा न टोका .

चले वहाँ से, तब भी दे आवाज न रोका .

 फिर भी तुम कहती हो ,मुझको सह लेना था .

रानी जो कुछ कहती उसको कह लेना था .

 रहा रोकता कुछ पल तक ध्रुव अपने वशभर

पीड़ा फूट पड़ी नयनों से निर्झर झर झऱ ..

 बीते पल खुद सुनीति ने भी देखे जीकर

गहरी आह भरी , आई, दृगजल को पीकर .

 बाँहों में ले सुत को अपने कंठ लगाया .

मन को संयत किया , लाड़ले को समझाया .

अच्छा चलो साँझ घिर आई दीप जलाऊँ .

भूखे होगे बोलो रुचि का ,अभी पकाऊं .

 देखो वह रह रहकर जुगनू चमक रहा है .

विकसा कोई फूल पवन जो महक रहा है .

 तुमने उस दिन देखे थे जो अण्डे प्यारे .

निकल पड़े हैं आज उन्हीं से बच्चे प्यारे .

 चीं चीं चीं चीं करके माँग रहे थे दाना .

नहीं समझ में आता उनका रोना गाना .

 सुनो लाल , अब रोष छोड़कर उठ भी जाओ .

सिखलाया जो गीत तुम्हें , अब मुझे सुनाओ.

 माँ मुझको चिड़ियों फूलों से मत बहलाओ .

मेरी क्लान्ति मिटे ,वह कोई राह दिखाओ .

तुम ही कहतीं ,जो परवश हो झुक जाते हैं .

जीते हैं लेकिन अन्दर से मर जाते हैं .

 स्वत्व छिने तब भी कोई जो चुप रहता है .

बेचारा बनकर ही आजीवन रहता है .

शान्ति , शान्ति बस शान्ति सदा कायर करते हैं .

तूफानों के साथ वीर जीते मरते हैं .

अच्छा , मैं भी सुनूँ ..कहाँ क्या काम करोगे ?”

नन्हें हाथों कहाँ कहाँ तुम नाम लिखोगे .

कहने को हूँ अभी जननि मैं छोटी वय का .

किन्तु हठी हूँ स्थिर हूँ मैं अपनी लय का .

 उन्हें समझनी होगी पीड़ा की परिभाषा .

भर देते बचपन की झोली ढेर निराशा.

हाँ ,हाँ तुम ऐसा ही कर लोगे , करना भी .

न्याय के लिये उन्हें मिटाना , खुद मिटना भी .

 किन्त्तु अन्य पथ भी है ,उन्हें सजा देने का .

खुद की ही नज़रों में उन्हें झुका देने का .

 राह नहीं है किन्तु कलह विद्रोहों वाली .

वह है दृढ़ विश्वास अटल संकल्पों वाली .

 वैसे भी प्रतिशोध जलाता है खुद को भी .

ओला नाशक फसल , गलाता है खुद को भी ,

 जहाँ द्रोह के कंटक जाल बिछाए जाते .

उन्नति की राहों में शूल उगाए जाते .

यह सब नहीं , राह दिखलाओ वही मुझे माँ .

जिस पर चल , कुछ होने का हो भान मुझे माँ .

अच्छा सुनो , परम ईश्वर पालक हैं सबके .

परमपिता है , परम हितैषी सारे जग के .

मैं ,तुम ,राजा , रानी क्या हैं , विश्व उन्ही का .

धरती से अम्बर तक है साम्राज्य उन्हीं का .

उनके इंगित से ही यह दुनिया चलती है .

पतझड़ होता मधुऋतु में कलियाँ खिलती हैं .

 पर्वत सागर नदियाँ सूरज चाँद सितारे .

उनके कहने भर से ही चलते हैं सारे .

 आश्रय लेना है तो केवल जगत्पिता का .

उनको पाकर भूलोगे अध्याय व्यथा का .

परमेश्वर है कौन ? पिता कैसे हो सकते ?

नेह पितृ सम परमेश्वर कैसे दे सकते ?

 राजेश्वर हैं जनक , उन्ही का नेह चाहिये .

द्वेषमयी के नयनों से बस मेह चाहिये .

तो तुम मेरी पूरी बात नहीं समझे हो .

राजा, रानी , द्वेष ,दण्ड में ही उलझे हो .

 इसको छोड़ो , आगे भी जाकर कुछ सोचो .

जो कोई भी सोच न पाया हो वह सोचो .

ऐसा है तो , पूरी बात बताओगी अब

जगत्पिता के घर मुझको पहुँचाओगी कब ?”

 हाँ !...तो मैंने कहा पिता ईश्वर से बढ़कर .

कोई नहीं जगत में आश्रय उनसे बढ़कर .

 राजा, रानी मैं, तुम . सब  इनके अनुचर हैं .

परम सत्य है ,परम पिता वे परमेश्वर हैं .

 जब चाहो ,जैसा भी चाहो पा सकते हो .

अपनी सारी बातें उन्हें बता सकते हो .

 हर वंचित की खोज खबर लेने वाले हैं ,

पुस्कार या दण्ड वही देने वाले हैं .

 चन्दा सूरज तारों में उनकी उजियाली .

उनसे ही पत्ते पत्ते में है हरियाली .

अच्छा माँ फिर मुझको उनका पता बताओ .

उन्हें सुनाने अच्छा सा एक गीत सिखाओ .

 कैसा रंग रूप है ,वास कहाँ है उनका .

और कौन जो सबसे खास रहा है उनका .

एक जगह हो तो कहदूँ यह उनका घर है .

उनका घर तो सारा ही धरती अम्बर है .

 निर्मल अन्तर वाले ही उनसे मिल पाते .

भोले निश्छल मन वाले ही उनको भाते .

कहदो माँ ,क्या निर्मल  निश्छल मन है मेरा ?”

हँसकर माँ ने हाथ यों ही बालों में फेरा .

फिर तो माँ मैं ईश्वर से मिलने जाऊँगा .

तभी मिटेगी व्यथा , तभी सो भी पाऊँगा .

अब तो खुश हो बेटा ,चलकर खा लो खाना .

और सुनो ,मित्रों को यह सब नहीं बताना .

 अभी नहीं है मुझको माँ , कुछ खाना वाना ..

पहले परमपिता को सारी बात बताना .

अभी चला जाता हूँ माँ यह ठीक रहेगा .

सुबह मिलेगा जो अपनी ही बात कहेगा .

उफ् !..ध्रुव तुम तो पीछे पड़ जाते हो .

नहीं जानते कुछ भी केवल अड़ जाते हो .

 बता दिया है ,लेकिन अभी नहीं जाना है .

और बहुत कुछ है जो तुमको समझाना है .

 अभी अल्पवय हो , जब कुछ और बढ़ोगे .

तभी जगतपति की सूरत पहचान सकोगे .

 राह कठिन है अभी नहीं तुम चल पाओगे .

कहाँ कहाँ ढूँढ़ोगे , बेटा थक जाओगे .

 देखो अभी माँगते हो खाना तुतलाकर .

अपनी हठ पूरी करवाते मचल मचलकर .

 लोरी बिना सुने भी क्या तुम सो पाते हो

ज़रा कहीं ओझल होजाती ,चिल्लाते हो .

 अवसर आएगा ,जब दोनों साथ चलेंगे .

उनके साथ रहेंगे  सारी बात कहेंगे .

 कितने ही आख्यान और श्लोक सुनाए .

टीस भुलाने माँ ने ध्रुव को खेल खिलाए .

 दिवस ढला ,सन्ध्या आई , रैना कजराई .

स्वप्न सजाने पलकों पर , एक लोरी गाई .

........................

मन्द हुआ स्वर माँ का , लोरी गाते गाते

शान्त श्रान्त सो गई पुत्र को स्वयं सुलाते .

 पर ध्रुव को थी नींद कहाँ , मन में थी हलचल .

तारों पर ठहरी थीं कब से अखियाँ अविचल .

 नए सवालों की पीड़ा भी नई अभी थी .

उसे गोद से उतारने की बात चुभी थी .

 समझ नहीं आता यों अपना वन में रहना .

तज अधिकार राजमाता का यों चुप रहना ..

 माँ के मन में क्यों कोई विद्रोह नहीं हैं .

धन वैभव सुख सुविधाओं से मोह नहीं हैं

फिर भी छोटी रानी के मन में भय कैसा ?

क्यों इतना आक्रोश और उद्वेलन ऐसा ?

 जो न बैठना भाया पास पिता के मेरा .

ज्ञात नहीं क्या है सम्बन्ध पिता से मेरा .

 सूत्र कहाँ है द्वेष ईर्ष्या भरी कथा का .

माँ ने क्यों ढोया है इतना भार व्यथा का .

 सुत होकर भी पिता के लिये हुआ पराया .

मुझ पर क्या गुज़री यह उनको ध्यान न आया .

क्यों पा लेता ठाठ कोई एकाधिकार का .

क्यों बनता अधिकार वही मन के विकार का

 सारे प्रश्न करूँगा मैं तो परम पिता से

लक्ष्य एक मिलना है मुझको जगत्पिता से .

 माँ कहती है सबके परम पिता ईश्वर हैं .

फिर भी अभी नही जाने देती क्योंकर है .

बड़ा तो न जाने कब तक मैं हो पाऊँगा .

सोच सोचकर ही तिल तिल मिटता जाऊँगा .

 इसीलिये मुझको जाना ..जाना ही होगा .

ईश्वर का आश्रय , मुझको पाना ही होगा .

 हठ भी यह ,संकल्प और अभिलाषा भी है

मिलें जनक जीवन के , नेह पिपासा भी है .

बड़ा नहीं तो क्या संकल्प बड़ा है मेरा .

पा ही लूँगा मोहन को विश्वास घनेरा

 माँ कहती है समदर्शी ममतामय ईश्वर .

उन्हें बुलाता जो मन से मिल जाते सत्वर .

समदर्शी के लिये बड़ा क्या ,क्या है छोटा .

मिलता सबको स्नेह खरा हो या हो खोटा .

 उनसे मिलकर सब कुछ मैं कहने वाला हूँ .

सहकर यों अन्याय न चुप रहने वाला हूँ .

 चुपके से ध्रुव उठा न आहट होने ही दी .

दबे पाँव बाहर निकला , माँ सोने ही दी .

 जागा क्षणिक विचार , बहुत दुख होगा माँ को .

कुछ न दे सका अपनी इतनी प्यारी माँ को .

 किन्तु विचार विलीन हुआ संकल्प भँवर में .

और चला चुपचाप अकेला घोर तिमिर में .