'ध्रुवगाथा' --सन् 2012 में प्रकाशित मेरी दो पहली पुस्तकों में से एक है ( दूसरी अपनी खिड़की से ). लेकिन मेरी ही कसौटी पर पूरी तरह खरी न उतरने के कारण इसका प्रचार प्रसार नहीं हुआ . वैसे तो मैंने सात बड़ी पुस्तकों में किसी का भी कहीं प्रचार नहीं किया है . उन्ही दिनों इसी ब्लाग पर ध्रुवगाथा की चर्चाएं तो हुई हैं . दस वर्ष में कुछ नए साथी भी यहाँ आए हैं . इसलिये अपने और आप सबके विचारों में लाने के लिये पुस्तक का एक अंश आप सबके अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ .
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समतल समझा जहाँ , वहीं पर गहन कुँआ है .
सरेआम अन्याय देख चुप रहना भी है .
लेकिन ध्रुव को ऐसे नहीं बिखरने दूँगी .
मन माला से एक न मोती गिरने दूँगी .
मन की दुर्बलता की बेटा थाह न पाले .
धीरज हुआ रेत का घर , जब ध्रुव को देखा .
तेज कटारी नोंक
, हृदय पर गहरी रेखा .
ध्रुव
की नज़रों ने माँ से सब हाल कहा ही .
कितनी सारी
खुशियाँ अपने आसपास है .
बहुत थका देने वाली
थी , डगर गए क्यों ?
स्वयं बुलाएंगे
वह समय अभी आना है.
शान्त ,सृष्टि
के आँगन में बोलो क्या दुख है .
मुख पर ऐसी गहन
उदासी तनिक न भाए .
आ बेटा , अब
माँ की बाहों में भी आजा .”
बोला आँसू पौंछ
,और नजरें तरेरकर .।
वीर बनो , यशवान्
बनो , कहती रहती हो .
“वीर यशस्वी कुछ भी मुझे नहीं बनना है .
क्या वे मेरे
पिता नहीं , सच सच सुनना है .”
“बेशक हैं ,बेटा सवाल क्यों आया मन में .”
“क्योंकि यही नवनीत सा मिला मन मन्थन में .”
सहना तुमने सीखा है माँ , मुझे न भाता .
दुनिया में मेरी
तो एक तुम्ही हो माता .”
बेटा , कोई जटिल समस्या होगी मन में .
शायद बाधा कुछ
आई होगी चिन्तन में .
क्या समझोगे
अभी अक्ल के कच्चे ही हो .
बड़े बड़े मसले
उनसे कैसे सुलझेंगे .”
मेरी अब क्या
कोई बात नहीं समझोगी ?
बुरा भला हो ,
मनचाहा पथ मोड़ा जाता ?
मुझको पास
बुलाकर गले लगा सकते थे .
चले वहाँ से,
तब भी दे आवाज न रोका .
रानी जो कुछ
कहती उसको कह लेना था .”
पीड़ा फूट पड़ी
नयनों से निर्झर झर झऱ ..
गहरी आह भरी ,
आई, दृगजल को पीकर .
मन को संयत
किया , लाड़ले को समझाया .
“अच्छा चलो साँझ घिर आई दीप जलाऊँ .
भूखे होगे बोलो
रुचि का ,अभी पकाऊं .
विकसा कोई फूल
पवन जो महक रहा है .
निकल पड़े हैं आज
उन्हीं से बच्चे प्यारे .
नहीं समझ में
आता उनका रोना गाना .
सिखलाया जो गीत
तुम्हें , अब मुझे सुनाओ.”
मेरी क्लान्ति
मिटे ,वह कोई राह दिखाओ .
तुम ही कहतीं ,जो परवश हो झुक जाते हैं .
जीते हैं लेकिन
अन्दर से मर जाते हैं .
बेचारा बनकर ही
आजीवन रहता है .
शान्ति , शान्ति बस शान्ति सदा कायर करते हैं .
तूफानों के साथ
वीर जीते मरते हैं .”
“अच्छा , मैं भी सुनूँ ..कहाँ क्या काम करोगे ?”
नन्हें हाथों
कहाँ कहाँ तुम नाम लिखोगे .”
“कहने को हूँ अभी जननि मैं छोटी वय का .
किन्तु हठी हूँ
स्थिर हूँ मैं अपनी लय का .
भर देते बचपन की झोली ढेर निराशा.”
“हाँ ,हाँ तुम ऐसा ही कर लोगे , करना भी .
न्याय के लिये उन्हें
मिटाना , खुद मिटना भी .
खुद की ही
नज़रों में उन्हें झुका देने का .
वह है दृढ़
विश्वास अटल संकल्पों वाली .
ओला नाशक फसल ,
गलाता है खुद को भी ,
उन्नति की
राहों में शूल उगाए जाते .”
“यह सब नहीं , राह दिखलाओ वही मुझे माँ .
जिस पर चल , कुछ
होने का हो भान मुझे माँ .”
“अच्छा सुनो , परम ईश्वर पालक हैं सबके .
परमपिता है ,
परम हितैषी सारे जग के .
मैं ,तुम ,राजा , रानी क्या हैं , विश्व उन्ही का .
धरती से अम्बर
तक है साम्राज्य उन्हीं का .
उनके इंगित से ही यह दुनिया चलती है .
पतझड़ होता मधुऋतु
में कलियाँ खिलती हैं .
उनके कहने भर
से ही चलते हैं सारे .
उनको पाकर
भूलोगे अध्याय व्यथा का .”
“परमेश्वर है कौन ? पिता कैसे हो सकते ?
नेह पितृ सम परमेश्वर
कैसे दे सकते ?
द्वेषमयी के
नयनों से बस मेह चाहिये .”
“तो तुम मेरी पूरी बात नहीं समझे हो .
राजा, रानी , द्वेष
,दण्ड में ही उलझे हो .
जो कोई भी सोच न पाया हो वह सोचो .”
“ऐसा है तो , पूरी बात बताओगी अब
जगत्पिता के घर मुझको पहुँचाओगी कब ?”
“हाँ !...तो मैंने कहा पिता ईश्वर से बढ़कर .
कोई नहीं जगत में आश्रय उनसे बढ़कर .
परम सत्य है ,परम पिता वे परमेश्वर हैं .
अपनी सारी बातें उन्हें बता सकते हो .
पुस्कार या दण्ड वही देने वाले हैं .
उनसे ही पत्ते पत्ते में है हरियाली .“
“अच्छा माँ फिर मुझको उनका पता बताओ .
उन्हें सुनाने अच्छा सा एक गीत सिखाओ .
और कौन जो सबसे खास रहा है उनका .”
“एक जगह हो तो कहदूँ यह उनका घर है .
उनका घर तो सारा ही धरती अम्बर है .
भोले निश्छल मन वाले ही उनको भाते .”
“कहदो माँ ,क्या निर्मल निश्छल मन है मेरा ?”
हँसकर माँ ने हाथ यों ही बालों में फेरा .
“फिर तो माँ मैं ईश्वर से मिलने जाऊँगा .
तभी मिटेगी व्यथा , तभी सो भी पाऊँगा .”
“अब तो खुश हो बेटा ,चलकर खा लो खाना .
और सुनो ,मित्रों
को यह सब नहीं बताना .”
पहले परमपिता
को सारी बात बताना . “
“अभी चला जाता हूँ माँ यह ठीक रहेगा .
सुबह मिलेगा जो
अपनी ही बात कहेगा .”
“उफ् !..ध्रुव तुम तो पीछे पड़ जाते हो .
नहीं जानते कुछ
भी केवल अड़ जाते हो .
और बहुत कुछ है
जो तुमको समझाना है .
तभी जगतपति की
सूरत पहचान सकोगे .
कहाँ कहाँ
ढूँढ़ोगे , बेटा थक जाओगे .
अपनी हठ पूरी
करवाते मचल मचलकर .
ज़रा कहीं ओझल होजाती ,चिल्लाते हो .
उनके साथ
रहेंगे सारी बात कहेंगे .”
टीस भुलाने माँ
ने ध्रुव को खेल खिलाए .
स्वप्न सजाने
पलकों पर , एक लोरी गाई .
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मन्द हुआ स्वर माँ का , लोरी गाते गाते
शान्त श्रान्त
सो गई पुत्र को स्वयं सुलाते .
तारों पर ठहरी
थीं कब से अखियाँ अविचल .
उसे गोद से
उतारने की बात चुभी थी .
तज अधिकार राजमाता
का यों चुप रहना ..
धन वैभव सुख
सुविधाओं से मोह नहीं हैं
फिर भी छोटी रानी के मन में भय कैसा ?
क्यों इतना
आक्रोश और उद्वेलन ऐसा ?
ज्ञात नहीं
क्या है सम्बन्ध पिता से मेरा .
माँ ने क्यों ढोया
है इतना भार व्यथा का .
मुझ पर क्या
गुज़री यह उनको ध्यान न आया .
क्यों पा लेता ठाठ कोई एकाधिकार का .
क्यों बनता
अधिकार वही मन के विकार का
लक्ष्य एक
मिलना है मुझको जगत्पिता से .
फिर भी अभी नही
जाने देती क्योंकर है .
बड़ा तो न जाने कब तक मैं हो पाऊँगा .
सोच सोचकर ही
तिल तिल मिटता जाऊँगा .
ईश्वर का आश्रय
, मुझको पाना ही होगा .
मिलें जनक जीवन
के , नेह पिपासा भी है .
बड़ा नहीं तो
क्या संकल्प बड़ा है मेरा .
पा ही लूँगा मोहन
को विश्वास घनेरा
माँ कहती है समदर्शी ममतामय ईश्वर .
उन्हें बुलाता
जो मन से मिल जाते सत्वर .
समदर्शी के लिये बड़ा क्या ,क्या है छोटा .
मिलता सबको
स्नेह खरा हो या हो खोटा .
सहकर यों
अन्याय न चुप रहने वाला हूँ .
दबे पाँव बाहर निकला
, माँ सोने ही दी .
कुछ न दे सका अपनी
इतनी प्यारी माँ को .
और चला चुपचाप
अकेला घोर तिमिर में .
अद्भुत! सरल शब्दों में गूढ़ ज्ञान और काव्य की कल-कल बहती धारा, नमन है आपकी लेखनी को!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक अभिनन्दन अनीता जी
हटाएंकितना सुंदर बन पड़ा है यह सृजन आपकी कलम को पाकर हमेशा की तरह बहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंबहुत स्वागत अभिनन्दन पल्लवी जी . काव्यांश को पढ़ने व प्रतिक्रिया देने का धन्यवाद . बिना सुधी पाठकों के पढ़े सृजन अधूरा ही रहता है .
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