शनिवार, 7 मई 2022

मैं उन जैसी हूँ , पर नहीं हूँ .

 जब कभी मैं अपने जीवन के स्वरूप की तुलना करती हूँ तो माँ के जीवन से बहुत साम्य पाती हूँ .

वैचारिक स्तर पर जब बात दूसरों की खुशी में खुश होने की हो , दूसरों की संवेदना को महसूस करने की हो ,हमेशा सकारात्मक सोचने की हो , किसी को ना न कह पाने की हो , छल , घात ,झूठ , बेईमानी , दिखावा जैसी बातों से दूर रहने की हो ,इधर उधर कहीं ध्यान बाँटकर अपनी उलझनों को अनदेखा करने की हो , कड़वाहट और चुभन से परे आत्मीयता की जरा सी झलक पाकर अपने विरोधी के साथ भी सहज और स्नेहमय होने की बात हो , तो यकीनन मैं माँ जैसी ही हूँ .

माँ की प्रवृत्ति में कछुआ-धर्म था ,जो उनमें नानी से आया था . कछुआ--धर्म यानी जब आपको कोई चोट पहुँचाना चाहे . अहित की दृष्टि से पास आए तब आप पीछे हट जाएं . इस प्रवृत्ति को लोग भले ही पलायनवादी कहें लेकिन वह खुद को बचाए रखने का एक कारगर तरीका है . इस अर्थ में माँ पलायनवादी थीं . उन्हें झगड़ा करना नहीं आता था . जीवन के प्रति उनमें गहरी आस्था थी .हर कलाप्रिय व्यक्ति की तरह खुश व सन्तुष्ट रहने के तरीके उन्हें बखूबी आते थे . उन्हें गाना बजाना प्रिय था . वे भजन खुद लिखा करती थीं . ढोलक बजाने में उनका कोई मुकाबला आज तक नहीं है . वे कटु यथार्थ पर विचार करने की बजाय उसे समय के हवाले कर भविष्य की कल्पनाओं से खुद को सम्बल दिया करती थीं . खुद से ज्यादा वे दूसरों की परवाह किया करती थीं .यही नहीं खुद का आकलन दूसरों की नजर से करके वे खुद में ही गलतियाँ देखतीं और स्वीकार कर लेती थीं . लेकिन गलत को कभी स्वीकार नहीं कर पाती थीं . अगर करना पड़ ही जाता तो एक लड़ाई उनके अन्दर भी चलती रहती थी . जब व्यक्ति खुद से लड़ता है तब बाहर की लड़ाई में अक्सर हार जाता है . माँ बाहर की लड़ाइयाँ प्रायः हारती रहीं . ये सारी बातें सदा मेरे साथ भी रही हैं .

माँ घोर आस्थावादी थीं . गीताप्रेस की किताबों का उन पर गहरा प्रभाव रहा . सामाजिक सम्बन्धों को महत्त्वपूर्ण मानती थीं . समाज के छोटे व निम्न माने जाते रहे लोगों के प्रति भी स्नेह आदर और सम्मान भाव रखती थीं . उन्हें पिता ( मेरे नाना) या पति (मेरे पिता) का कभी कोई सम्बल नहीं मिला . पिता तो जब वे दो तीन साल की थीं तभी चले गए और पति  घर परिवार के सदस्यों के ही नही माँ के साथ भी एक कठोर शिक्षक ही रहे . कठोर गुरु जो शिष्यों की सिर्फ परीक्षाएं लेता है ,पर उत्तीर्ण होने पर कभी पीठ नहीं थपथपाता . उनका धर्म कर्म पूजा आराधना केवल स्कूल था . घर में सब्जी राशन ईँधन से लेकर किवाड़ ,पलंग , छत आँगन आदि की मरम्म्त तक माँ के ही जिम्मे थी . परिवार में स्नेह बनाए रखना भी उनके लिये बहुत ज़रूरी था . अपनी बड़ी बहिन ( बड़ी जिया) और जीजाजी का ,जो काकाजी के बड़े भाई भी थे , बहुत सम्मान करती थीं ,उनके सभी बच्चों को हमसे ज्यादा प्यार करती थीं . हालाँकि काकाजी स्वयं अपने भाई ( ताऊजी) और बच्चों से स्नेह रखते थे पर उन्हें माँ का उनके प्रति गहरा लगाव पसन्द नहीं था . ये सारी बातें माँ के लिये हमेशा अशान्तिकारक रहीं क्योंकि काकाजी का बर्ताव ही हर जगह रिश्तों का निर्धारक रहा इसलिये माँ का स्नेह और त्याग ऐसे ही चलते फिरते मिल जाने वाली मूल्यहीन वस्तु जैसा रहा . ये सभी बातें किसी न किसी रूप में मेरे साथ भी रहीं है . माँ की तरह ही एक विस्थापन सा मेरे विचारों में भी रहा है .

लेकिन जब बात सेवा साहस और परमार्थ की आती है तो माँ की तुलना में मैं खुद को तिनका बराबर भी नहीं मानती हूँ . जिस तरह नानी को उन्होंने छह महीने बिस्तर पर ही सम्हाले रखा था कि मक्खी तक नहीं बैठने दी . शैया-व्रण तो दूर ,शरीर पर एक दाग तक नहीं लगा . बिना किसी खीज या घृणा के बिस्तर पर ही मल मूत्र समेटती रहीं जबकि गाँव में बिजली तक की सुविधा नहीं थी . हर समय हाथ से पंखा झलती रहती थीं .वह एक प्रेरक और अनुकरणीय उदाहरण है . सेवा करना अच्छी ,लेकिन एक सामान्य बात है . समय आने पर अधिकाँश लोग करते ही हैं पर बिना खीज या घृणा के पूरे दायित्त्व व आत्मीय भाव से इस तरह सेवा करना बड़ा दुर्लभ है . माँ जब जीवन के अन्तिम दौर में थीं , ( कारण जो भी रहे हों ) उनकी सेवा मैं उतने स्नेह और दायित्वभाव से कहाँ कर पाई ! 

यह तो हुई अपने घर की बात . वे दूसरों की सेवा सहायता से भी कभी पीछे नहीं हटती थीं . मुझे याद है जब यक्ष्मा से पीड़ित कलुआ खवास का इकलौता बेटा जीवन की आस छोड़ चुका था . घर में वृद्ध माता पिता के अलावा कोई न था . माँ असहाय रोती रहती . एक वैद ने आखिरी कोशिश के लिये कुछ जड़ी बूटियों का चूर्ण और केले के पत्तों का रस बताया . ऐसे में माँ ने खुद जड़ी-बूटियों को कूट छानकर चूर्ण बनाया और एक हफ्ते तक केले के पत्तों का रस मरीज को पिलाया था . उस इलाज का सचमुच असर हुआ भले ही कुछ समय के लिये हुआ ,पर यहाँ महत्त्वपूर्ण थी माँ की पर-सेवा भावना .घर के काम छोड़कर केले के पत्ते लाना ,कूट पीस कर रस निकालना और मरीज तक बिना संक्रमण का डर किये पहुँचाना कितनी बड़ी बात थी . किसी भाई भाभी या बच्चे (मायका होने के कारण गाँवभर के स्त्री पुरुष उनके भाई भाभी थे) की परेशानियों में वे सदा साथ रहती थीं . ऐसे कई उदाहरणों से माँ का जीवन भरा रहा . 

माँ के अन्य गुणों में धैर्य और साहस सबसे विलक्षण गुण थे . एक बार नदी में नहाते समय माँ के पैरों से साँप लिपट गया . जिया ने कुछ देर हट्.. हुश् श करते हुए साँप को झटक दिया पर इतनी देर में उसने माँ की पिंडलियों में कई जगह काट लिया था .खून निकल रहा था . हम लोग रोए जा रहे थे पर वे बिना किसी डर या तनाव के कह रही थीं –--"अरे कुछ नहीं पनिहा था ." 

अरे पनिहा हो या करैत साँप का स्पर्श क्या कम भयावह होता है फिर उसने तो दाँत गढ़ा दिये थे . साँप के जहर की आशंका भी जहर जैसी ही होती है पर माँ जरा भी आशंकित नहीं थीं . मैं उस दिन सचमुच चकित रह गई माँ का धैर्य व साहस देखकर . ठीक है कि वह जहरीला नहीं था लेकिन साँप का तो नाम ही डरावना होता है फिर वह जिया के तो पैरों से लिपट गया था . उनकी जगह कोई महिला होती तो बेहोश होकर गिर पड़ती . इसी तरह घर में दो बार निकले दो बहुत जहरीले साँपों को जिया ने गंगाघाट उतार ही दिया था .

खाना बनाने और खिलाने का मुझे चाव है लेकिन परोसने में माँ के स्तर पर मैं शायद नहीं पहुँची हूँ अभी तक . फैली जाटव ,जिन्हें माँ फैली भैया कहा करती थीं और हम फैली मामा , ने हमारा मकान बनाया था . उस दौरान माँ उन्हें खाना भी खिलाती थीं और रोटियों में उसी तरह दबा दबा कर घी लगाती थीं जिस तरह वे हमारी व काकाजी की रोटियों में लगातीं थीं . फैली कारीगर सिर झुकाए माँ के स्नेह से कृतकृत्य होते रहते . माँ ने सम्मान देने में कभी किसी के साथ जातिगत भेदभाव नहीं किया .झाड़ू लगाने वाली वसन्ती को वे बड़े अपनेपन से बसन्ती भौजी कहती थीं .

माँ जैसा उदार भाव , और सशरीर सेवा भाव मुझमें नहीं है . मेरी सहायता प्रायः आर्थिक स्तर पर रही है . माँ की बराबरी मैं कभी नहीं कर सकती , काश कर पाती . 

वे अतुलनीया थीं ,हैं और सदा रहेंगी . 

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