शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

ग्रेगोरियन कैलेण्डर का आखिरी दिन --1






31 दिसम्बर साल का सबसे हलचल और उत्तेजना भरा दिन होता है , साथ ही एक हल्का सा मलाल भी कि कितना कुछ मुट्ठी से फिसल गया .सूखे रेत की तरह . समय के पाँव पीछे की ओर नहीं होते . वह निसंस्गता के साथ निकल जाता है . उसे रोका नहीं जा सकता पर हाथ पकड़कर कुछ पल उसके साथ बिता सकते हैं पर वह भी नहीं कर पाते और उसके गुजर जाने पर आहें भरते हैं 

इस दिन को मैं बहुत सारी बातों के लिये याद करती हूँ पर उनमें जो सबसे अनमोल और अविस्मरणीय उपलब्धि का दिन है . 31 दिसम्बर 1985 का दिन .मयंक का जन्मदिन .


1985 रात्रि के 10 बजे . कमलाराजा हॉस्पिटल ग्वालियर . कोशिशें न होती तो ये महाशय एक वर्ष बाद यानी 1986 में जन्मे होते . हुआ यह कि निर्धारित तिथि के बाद सुबह शाम , और शाम सुबह गिनते पन्द्रह दिन से भी ज्यादा होगए तो मैं डाक्टर अरोरा ,जिनकी देखरेख में शिशु का जन्म होना था, से मिली . डाक्टर बोली –आप डेट भूल गयी हैं .मैंने सोचा महिला अपनी चाबी ,चश्मा ,पर्स ,रुपए...या और कुछ भी भूल सकती है पर अपनी डेट कभी नहीं भूलती . डाक्टर को भी मैंने यही विश्वास दिलाया तो वे तुरन्त बोली –"तब फिर देर करना ठीक नहीं .आप एडमिट हो जाइये ." 

31 दिसम्बर की सुबह मैंने हॉस्पिटल की शरण ली . दो तीन ड्रिप चढ़ाने के बाद  असर हुआ . कुछ पीड़ा भरे घंटों के बाद कल-निनाद के साथ ही शिशु का अवतरण हुआ. पास खड़ी नर्स ने तालियाँ बजाकर कहा –--"सिर बड़ा सरदार का ..". गर्भ में ही अतिरिक्त समय बिताने के कारण महाशय इतने परिपक्व होकर आए थे कि एकदम नवजात लगे ही नहीं . नहा धोकर आराम से अंगूठा चूसकर सबको विस्मित कर रहे थे .अगूठा चूसने की आवाज सुनकर मैंने सिर घुमाकर पालने की ओर होकर देखा .हदय पुलक से भर गया . स्वस्थ सुन्दर जैसे कोई देवशिशु . इतने प्यारे और सुखद परिणाम के आगे सृजन की पीड़ा कुछ नहीं होती . ज़रूरत है एक माँ की उस पीड़ा को समझने और महत्त्व देने की . उस समय नहीं दिया जाता था पर आज दिया जा रहा है ,यह सचमुच सुखद है .

मयंक का जन्म मेरे लिये एक अनमोल उपहार से कम नहीं . मुझे याद नहीं कि उसके कारण मुझे कभी कोई व्यवधान , असुविधा या तनाव हुआ हो .मार्च 86 में जब मैं एम ए पूर्वार्द्ध की परीक्षा दे रही थी वह तीन माह का था .उसे लेकर गाँव से पैंतालीस कि मी दूर बस से मुरैना परीक्षा देने आती थी . उसे गाँव की ही एक बहिन के घर छोड़ती थीं . तीन घंटे की परीक्षावधि सहित लगभग साढ़े चार घंटे बाद आकर उसे लेती और उन जीजी के प्रति कृतज्ञता जताती पर वे उल्टे कहतीं –-अरे इससे हमारा समय बहुत खुशी में बीतता है  खेलता रहता है . ज़रा भी  परेशान नहीं करता .

एम ए उत्तरार्द्ध का आवेदन भरने के समय तक महाशय हाथ पाँव चलाना सीख गए थे .वहीं हाथ में पेन पड़ गया और गोल गोल घुमा दिया मेरी प्रीवियस की अंकसूची पर . इस तरह लिखाई का अभ्यास शुरु हुआ . उसे कभी कुछ सिखाना नहीं पड़ा . चार्ट में देख देखकर भाइयों से सुन सुनकर कब पढ़ना सीख गया पता ही न चला . तीन साल की उम्र में ही वह चॉक से फर्श पर हैण्डपम्प से पानी भरता आदमी इतनी जल्दी बनाता था कि लोग हैरत में पड़ जाते थे . प्रशान्त व विवेक की तरह ही शिक्षा के उचित अवसर और सुविधा न मिलने के बाबजूद वह भी आज जिस स्थित में हैं ,आश्वस्ति के लिये बहुत है . उसकी सोच मुझे एक ठोस ज़मीन देती है . एक माँ के लिये यह छोटी बात नहीं है .

 

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

मैं बेटा नहीं ,बेटी हूँ .

 दुर्गा नवमी पर विशेष

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आज जब कन्या-पूजन का अवसर था मैंने एक बच्ची से ऐसे ही पूछा –"कैसी हो बेटा ?"

यह सामान्य औपचारिक वाक्य है जिसका उपयोग हम लोग परिचय संवाद के लिये करते हैं .अधिकांश लोग अब लड़कियों के लिये बेटा शब्द ही काम में लाते हैं . मैं स्वयं अपनी बहुओं को बेटा कहकर पुकारती हूँ . उसी आदत के चलते मैंने उस बच्ची से कहा  पर वह बच्ची मानो मेरी गलती को सुधारते हुए बोली-- "मैं बेटा नहीं बेटी हूँ ." यह उत्तर मेरे लिये अप्रत्याशित था .दिल दिमाग के बन्द खिड़की दरवाजों को खोलने वाला . यह वाक्य शायद मानसिकता पर प्रहार भी था जिसके चलते हम अनजाने ही बेटा कहकर बेटी को बेटे से पीछे या नीचे कर देते हैं .अक्सर माता पिता को कहते हुए सुना जाता है –हमने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है . क्यों ? बेटी को बेटी की तरह क्यों नहीं ? बेटी का सृष्टि में जो स्थान है वह बेटे का कभी नहीं होसकता ,इसे हम क्यों भूल जाते हैं और उसे बेटे की तरह या बेटे की जगह स्थापित कर उसे न्यून बना देते हैं . इस प्रवृत्ति के बहुत सारे दैहिक और मानसिक विघटन आने वाले हैं , आ भी रहे हैं. गहराई और विस्तार से देखें तो बेटी को बेटा कहने की प्रवृत्ति एक तरह से स्त्रीत्त्व को चुनौती ही है  .

बेटी तुम आँगन की फुलवारी हो . धरती की हरियाली हो . जीवन का उत्सव हो . वैभव हो . तन मन की ऊर्जा हो , सृष्टि की निर्मात्री हो ,तुम्हारी हँसी का स्वर कभी मन्द न हो . तुम्हारी आँखों की चमक कभी फीकी न हो . तुम गौरव हो , सम्मान हो . प्रकृति का वरदान हो .   


गुरुवार, 16 सितंबर 2021

एक 'चकरी ' की कीमत

(कुछ संशोधन के बाद पुनः प्रकाशित)

इतने सारे पटाखे –फुझड़ियाँ !”

सोनी पुलकित हुई बेटे सार्थक को देख रही थी . उसे बचपन से ही कपड़ों मिठाइयों से ज्यादा पटाखों का शौक रहा है . कई महीनों पहले से पैसे जोड़ जोड़कर अपने मनपसन्द पटाखे फुलझडियाँ लाता था और बड़े उत्साह से गली भर के बच्चों को दिखाकर चलाता था . अब अच्छी नौकरी है .पैसा है .. इस दीपावली पर वह तीन साल बाद घर आया है . बहुत उल्लास में है . कई तरह की मिठाइयाँ ,नए कपड़े ढेर सारे पटाखे और नई तरह की तमाम रोशनियों के डिब्बे लाया था .लक्ष्मी-पूजन के समय सार्थक थैलों में से सारा सामान निकाल रहा था . 

अरे , चकरियों वाला एक डिब्बा कहाँ गया ? इस बार तो मैं काफी बडी ,देर तक घूमने वाली चकरियों का बड़ा डिब्बा लाया था !

हे राम ,कहीँ दुकान पर ही तो नही छूट गया ? ” माँ को चिन्ता हुई . चकरी चलाना बचपन से ही उसका सबसे प्रिय खेल है .जब चकरी सुनहरी रुपहली और रंगबिरंगी किरणें बिखराती हुई घूमती थी तो उसका उल्लास देखते ही बनता था . कहता था--

माँ देखो ,बेशुमार किरणों के साथ चकरी पूरे आँगन में चक्कर लगाती हुई घूमती है तो लगता है जैसे यह विष्णु भगवान का चक्र है जो अँधेरे को काट रहा है । या अँधेरे की नदी में बेहद चमकीला भँवर है जो धारा को अवरुद्ध कर फैलता जा रहा है या फिर आसमान से बिछडा कोई सितारा है जो जमीन पर गिर कर आकुल हुआ घूम रहा है .

“एक बार दुकान पर जाकर देखले बेटा ! जाने कितने का होगा.”   

सार्थक ने दो पल इधर-उधर देखा और झटके से बोला--   

“ अरे जाने दो माँ....परेशान न हो..और आजाएंगी ..”

पूजा के दिये सजाते हुए माँ का सारा ध्यान बेटे के वाक्य पर था –जाने दो माँ ..और आ जाएंगी .”  बचपन में एक चकरी भी सार्थक के लिये खुशियों का खजाना थी . आज पूरा डिब्बा भी उसके लिये कोई मायने नही रखता . चकरी उसके पैसों की तुलना में छोटी होगई है , शायद वे बड़ी खुशियाँ भी जो छोटी छोटी चीजों से मिला करती हैं .

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

मन्नू मेरा मान

( संशोधित व पुनः प्रकाशित )

9 सितम्बर 1982 , कमलाराजा चिकित्सालय (ग्वालियर) । रात्रि साढे दस बजे पीडा और प्रतीक्षा का कठिन दौर गुजर गया और दे गया एक अनौखा और प्यारा प्रतिफल ---मन्नू(विवेक) ।

मन्नू में कई सारी खूबियाँ हैं । अपने दोनों भाइयों ( बडा प्रशान्त , छोटा मयंक ) की तरह सच्चा , ईमानदार, संवेदनशील और स्नेहमय है । कार्य के प्रति गहन उत्तरदाय़ी । और माँ के लिये विशेषरूप सेसजग, चिन्तित । ये गुण तीनों को मुख्यधारा से प्रायः अलग कर देते हैं । इसलिये कभी-कभी अकेलापन भी सालता है । मन्नू में कुछ और भी बातें हैं । कुछ ऐसी कि सोचने पर मजबूर करदें और कुछ हँसने पर -भी । जब वह चलना सीख गया था तब वह अक्सर गाँव में निकल जाता था । हमारा बहुत सारा समय सिर्फ उसे तलाशते बीतता था । गाँव की महिलाएं इस प्रतीक्षा में रहतीं कि कब मन्नू उनके घर जाए और वे उसे छुपाकर मुझे खूब छकाएँ । एक दिन जब वह ढाई - तीन साल का ही होगा ,और हम गाँव में ही थे ,छत पर खडे , सूर्यास्त को देख रहे थे । पंछियों की कतारें कल्लोल करती लौट रहीं थी । मन्नू एकदम गुमसुम खडा किसी सोच में डूबा था अचानक बोला ----मम्मी , पता है , सूरज अब कहां जारहा है । मैं तो नही जानती , तू ही बता ...। मम्मी , यह धरती मोती की तरह है ,बीच में सुरंग है । मोती में जैसे धागा डालते है न वैसे ही सूरज बीच सुरंग से निकल कर सुबह दूसरी तरफ पूरब दिशा की ओर पहुँच जाता है । भई वाह -----मैं उसकी इस नई कल्पना पर कहे बिना न रह सकी । वर्षा-ऋतु में जब बिजली चमकती थी , वह कहता था----देखो बिजली उछल रही है । एकदिन मन्नू को मैंने सब्जी खरीदने भेजा । जब लौटा तो मैंने देखा कि कुछ टमाटर गले थे । और कई भिन्डी एकदम कडक । बेटा देख कर लाना चाहिये ।---मैंने समझाया तो कुछ खिन्न होकर बोला ---मम्मी, जरा सोचो कि सब लोग छाँटकर ले जाएंगे तो बेकार बचे--खुचे को कौन लेगा । इस तरह क्या उस बेचारे का नुक्सान नही होगा । जब मन्नू सातवीं कक्षा में था , उसे एक शिक्षक ने सिर्फ इस बात पर पीट दिया कि उसने अपने साथियों को चाँटा मारने से इन्कार कर दिया था । चाँटा इसलिये कि किसी को सवाल का सही उत्तर नही आया था जो अकेले मन्नू ने दिया था । उसे हफ्तों तक यह मलाल होता रहा कि सही उत्तर का इनाम उसे इतना कडवा और अन्याय पूर्ण मिला । उसका यह मलाल,-- यह कैसा इनाम , फालसे वाला , भडभूजा जैसी छोटी पर सार्थक अभिव्यक्तियों में प्रकट भी हुआ । कोई आश्चर्य नही कि संवेदनशील लोगों को पग-पग पर ऐसे अनुभव होते रहते हैं , पर वे अपने गुणों से विसंगतियों को परे धकेलकर , जिन्दगी को सरस बनाते रहते हैं । मन्नू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है । वस्तुतः उसका ह्रदय एक कलाकार का ह्रदय है । और कलाकार भले ही सही राह दिशा न मिलने से कला को विकसित न कर पाए पर कचरे में से भी स्रजन का सामान जुटा लेता है । आज अपने दोनों भाइयों के साथ वह बैंगलुरु में इंजीनियर है । मुझसे उसकी दूरी केवल भौगोलिक ही है । सुबह-शाम उसकी आवाज घर के कोने-कोने को जगाती रहती है , हर पल उसकी याद , मन को महकाती रहती है । सचमुच मन्नू जैसा बेटा पाकर कोई भी ईश्वर और भाग्य को मानने विवश होजाएगा । -- गिरिजा कुलश्रेष्ठ मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास, ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

काश.....

 एक संस्मरण

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दीदी ने आज सुबह चार बजे अन्तिम साँस ले ली .”

फोन पर आया शरद् का यह सन्देश हालाँकि जरा भी चौंकाने या हैरान करने वाला नहीं था , फिर भी बहुत हृदय-द्रावक था . आँसू बरबस निकल पड़े . दो दिन पहले ही लगभग दो घंटे जर्जर स्थिति में भी उन्होंने मेरे साथ जैसे पूरी जिन्दगी को जीती रही थीं . मुझे तभी अहसास हुआ कि शायद यह हमारी आखिरी मुलाकात है . ऐसी मुलाकात जो एक अनकही सी टीस छोड़ जाती है सदा के लिये ..

रेखा दीदी लोगों के लिये मात्र एक परिचारिका थीं , एक साधारण , अपरूप और कुछ हद तक बेवकूफ़ सी महिला थीं जो कबिरा आप ठगाइये...” ,की राह पर आजीवन जीती रही ,और पूरी तरह ठगी जाकर मुक्त हो दुनिया से चली गईं . लेकिन मेरे लिये वे सरल ,सहज स्नेहमयी आत्मीया, एक दुर्लभ और सच्ची इन्सान थीं . मेरी स्मृति में लगभग बयालीस वर्ष का इतिहास सजीव हो उठा .

मुझे अच्छी तरह याद है . सन् 1975 के अगस्त या सितम्बर की वह एक चमकीली दोपहर थी आसमान साफ होने के कारण धूप ज्यादा उजली होने के साथ-साथ तेज चुभने वाली भी थी . बरसात के दिनों में लगातार वर्षा के बाद ऐसी खुली धूप जैसे बहुत दिनों बाद कोई फेरी वाला सस्ते दामों में कपड़े बेचने आया हो , सब दौड़ पड़ते हैं उससे कुछ न कुछ लेने . गृहणियाँ मुड़ेरों पर सन्दूकों में बन्द गद्दे रजाइयाँ और कपड़े फैला देतीं हैं, दालें और मसाले सुखातीं हैं ,कुछ लोग कोठियों में भरे कीड़े लगे गेहूँ चना आदि को निकाल तेज धूप और हवा में कीड़ों से मुक्त कर लेते हैं ,किसान सूख चले खाली खेतों की जुताई में लग जाते हैं . और कोई काम नहीं तो नीम की छाँव या छप्पर तले ताश चौपड़ या आल्हा का आनन्द लेते हैं .

उस समय हम लोग भी गैलरी में बैठे अन्त्याक्षरी खेल रहे थे और कोई भी हारने तैयार न था . तभी दरवाजे पर रोशनलाल हल्की सी मुस्कान के साथ उपस्थित हुआ .

गेहुँआ रंग ,चेहरे पर बड़ी माता की बड़ी और गहरी निशानियाँ , परिचय को उत्सुक छोटी-छोटी निर्दोष आखें ,आखों के बीच लगभग गायब हो कुछ आगे प्रकट हुई नाक, लम्बे कद और इकहरे शरीर वाला रोशनलाल तीन साल से गाँव में वैक्सीनेटर के रूप में कार्यरत था . गाँव के लोग उसकी पीठ पीछे झर्रू कहकर पुकारते थे . जब किसी के लिये अवमानना का या मनोविनोद के लिये परिहास का भाव हो ,लोग अजीब अजीब उपमाएं व नाम ईज़ाद कर लेते हैं . झर्रू नाम उसी मानसिकता की देन था . वैसे वह सचमुच एक सरल और भला इन्सान था .

रोशनलाल के पीछे एक साँवली ,मझोले कद की युवती भी थी जो स्थूल शरीर के बाबजूद उन्नीस बीस से ऊपर नहीं लगती थी . उसने स्लेटी रंग की प्रिंटेड साड़ी और सफेद ब्लाउज पहन रखा था . कन्धों से उतर कर आगे की ओर दो चोटियाँ पड़ी थीं . होठों में बन्द होने से इन्कार करते हुए दाँत परस्पर संगठन से भी असहमत लगते थे . लेकिन सुन्दर न होने के बाबजूद बड़ी और लम्बी आँखें उसे आकर्षक बनाए थीं . तब मैंने ग्यारहवां पास किया था और स्वाध्याय से बी ए पार्ट वन की तैयारी में थी .

लो बहिन जी आपके घर एक और सदस्य बढ़ गया .”--–कहते हुए रोशनलाल अन्दर आगया .

ये रेखा खेर है .यहाँ की ए. एन. एम. (नर्स) .पहलीबार घर से इतनी दूर गाँव में आई हैं . डर रही थी बेचारी ..मैंने कहा कि तुम्हें ऐसे घर ले चलता हूँ जहाँ तुम्हें अपने घर जैसा ही स्नेह मिलेगा .—रोशनलाल ने बताया .

हमारे घर के बारे में यह धारणा रोशनलाल की ही नहीं ,पूरे गाँव और जिया को जानने वाले हर व्यक्ति की थी . अचानक आए किसी अतिथि के लिये चाय की व्यवस्था हो या बाहर से आई किसी महिला (खासतौर पर कर्मचारी) को चाय ,पानी ,खाना या घड़ी दो घड़ी विश्राम की जरूरत हो ,एकमात्र ठिकाना हमारा घर ही था . गाँव में किसी महिला कर्मचारी का आना काफी कौतूहल भरा होता .किसी खेल तमाशे की तरह . एक नई नर्स के आने का खबर पाकर बाहर गली में जिज्ञासावश आ खड़े हुए कुछ बच्चे और बड़े इसी बात का प्रमाण थे .

वह युवती अभी संकोच में वहीं खड़ी थी . माँ के संकेत पर वह हमारे बीच आकर बैठ गई . रोशनलाल उसे छोड़कर चला गया .

रेखा खेर जल्दी ही हमारी रेखा दीदी बन गईँ . वे एक साधारण लेकिन शुद्ध सात्विक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार से थीं . तीन भाइयों की इकलौती बहिन . उस समय अविवाहित थी वह उनकी पहली पोस्टिंग थी .पहली बार शहर से इस छोटे से गाँव में आईं थीं .

दो-तीन दिन बाद वे पड़ोस की हवेली में किराए पर लिये कमरे में रहने लगीं .  

रेखा दीदी इतनी सरल सहज उदार और मिलनसार थी कि सबके साथ घुलमिल गईँ . गाँव की महिलाएं उनकी भाभी , अम्मा या जिया थीं और पुरुष भैया ,चाचा ,बाबा . इसलिये सबकी समस्याओं में शामिल भी . यही नहीं वे सबके बीच गाँव की ही बोली बोलने की कोशिश करतीं .. वैसे उनकी ड्यूटी महिलाओं की खासतौर पर गर्भवती महिलाओं की समस्याओं के निदान ,टिटेनस, बच्चों को बीसीजी, डीपीटी आदि की खुराक और टीका देना आदि कार्यों के लिये थी लेकिन उन्हें चाहे जो घरेलू कामों में लगा लेता था . कोई अपने बच्चे को नदी में उनके साथ नहाने भेज देतीं . जाहिर है कि इसमें नहलाना धुलाना तेल कंघा सब शामिल था . कभी कोई महिला उन्हें गेहूँ बीनने बिठा लेती तो कोई अपने साथ उन्हें चने या सरसों की भाजी तोड़ने खेतों पर ले जाती.. कस्बा के बाज़ार से श्रंगार का सामान व चूड़ियाँ लाने , ब्लाउज सिलवाने जैसे काम भी रेखाबाई के जिम्मे थे ( बाई सम्बोधन हमारे गाँव में सम्मानसूचक माना जाता है ). आधीरात को भी कोई बुलाता , चाहे वे गहरी नींद में होतीं ,तुरन्त उठकर चल देतीं थीं . मुझे याद है ,ना शब्द उनके शब्दकोश में था ही नहीं . मान-अपमान का भी कोई विचार नहीं था . इतना तो ठीक है पर हैरानी की बात यह थी कि वे अपनी सीमाओं के अतिक्रमण का भी विरोध नहीं करती थीं . कोई मुँहफट औरत आत्मीयता में या अशिष्टतावश रेखा की बजाय उन्हें रेखटी कहकर पुकारती तो वे कुछ नहीं कहती थीं . मोहल्ला की कोई भी लड़की या महिला उनके कमरे में बैठकर चाय पोहा की फरमाइश कर सकती थी ,तो कोई उनकी क्रीम निकाल कर लगा लेती थी ,उनकी आँखों में भी विरोध की झलक नही दिखती थी .जिया ने स्नेहवश उन्हें एक दो बार समझाया भी कि रेखा बाई तुम बहुत अच्छी हो पर इतनी भी अच्छी मत बनो कि तुम्हें कोई कुछ समझे ही नहीं . पर वे जल के शान्त प्रवाह जैसी थीं . कोई रोड़ा आ भी जाता तो बगल से राह बनाकर निकल जाती .कभी न किसी से कोई शिकायत न नाराजी . न ही अपनी भावनाओं और इच्छाओं के लिये कोई संघर्ष . इसके लिये एक ही प्रसंग बताना पर्याप्त है . यह उनके आने के तीन-चार साल बाद की बात है .

उन दिनों दीदी में एक खुशनुमा परिवर्तन दिख रहा था . उनकी साड़ी बहुत सँवरी हुई और बाल  खिले खिले होते . उस परिर्तन का स्रोत था उनके ही विभाग का एक युवक ,जिसने दीदी के साथ प्रेम और फिर विवाह का प्रस्ताव रखा था . ज़ाहिर है कि दीदी भी उसे पसन्द करती थीं और विवाह करना चाहती थीं  युवक विजातीय था इसलिये उनके परिजन सहमत न होंगे इसे दीदी शायद जानती थीं .वैसे वहाँ वे अकेली ही थीं इसलिये जिन्दगी का वह महत्त्वपूर्ण निर्णय वे जिया की सहमति से करना चाहती थीं .मुझे याद है उस दिन दीदी बहुत सुन्दर साड़ी पहने थीं .चेहरा भी खिला हुआ था .

जिया के लिये यह कुछ हैरानी की बात थी . विवाह सम्बन्ध के मामले में वे भी गाँव वालों की तरह परम्परावादी थीं .अपनी खुशी से बड़ी माता-पिता की खुशी और समाज की सहमति को मानती थी. उन दिनों पिता द्वारा किये रिश्ते को ही शिरोधार्य करना लड़की की शीलता व कुलीनता मानी जाती थी . तब अपने रिश्ते की बात भी जुबान पर लाना निर्लज्जता माना जाता था . प्रेम और प्रेमविवाह दोनों ही घोर वर्ज्य विषय माने जाते थे . फिर विजातीय विवाह तो पूर्ण निन्दनीय और बहिष्कृत .

बेटा तुम एक अच्छे संस्कारी परिवार की लड़की हो , उनकी मर्जी बिना विवाह करोगी तो परिवार और समाज क्या कहेगा ?,..माता-पिता पर क्या गुजरेगी ? क्या तुम्हारी अक्का –बाबा इस प्रस्ताव को स्वीकार करेंगे ?”

रेखा दीदी ने जिया के सवाल सिर झुकाए निरुत्तर होकर सुने . बिना किसी प्रतिक्रिया के . बाद में पता चला कि उन्होंने युवक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया . मैं चकित थी . इसके बाद भी उनके व्यवहार में कोई नकारात्मक भाव नहीं था .आखिर किस मिट्टी की बनी हैं ये रेखा दीदी .

कुछ साल बाद उनका विवाह पोस्ट ऑफिस में कार्यरत एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार के इकलौते पुत्र से होगया . 1984 में दीदी ने अशोकनगर के लिये ,जहाँ उनकी ससुराल थी ,ट्रांसफर करा लिया तो मेरा आत्मीय सम्बल छूट गया .अब तक स्नेह पीयूष दिया ,अब जाती हो , मन रोता है ,.....-लिखते हुए मेरी आँखें भर आईँ .

दीदी और मेरा साथ कुल आठ साल का रहा .

उनके आने के चार माह बाद ही जनवरी में मेरा होगया था . एक साल के बुनियादी प्रशिक्षण के बाद जुलाई 1977 में हमारे ही गाँव मेरी पोस्टिंग भी . उन आठ सालों में मेरे जीवन के हर उतार चढ़ाव में ,बच्चों के लालन-पालन में वे मेरे साथ रहीं . दुनियादारी की समझ में वे मेरी ही बड़ी बहिन थीं . निन्दा , अफवाह , अपवाद ,झूठ , आडम्बर और असंगत बातों से निपटने की सूझबूझ मेरी तरह उनमें भी नहीं थी . इसलिये हमारे बीच एक ऐसी राह थी जिस पर बिना किसी शंका के हम जुड़ी रह सकती थीं . हमारा रिश्ता भावनाओं का था ,दर्द का था .उनका जाना महीनों तक अखरा .

बाद में उनके समाचार मिलते रहे .किसी की शादी में या अन्य कार्यवश बीच बीच में वे मिलती भी रहीं . तभी मालूम हुआ कि वे एक बच्चे की माँ बन गईँ हैं यह बेहद खुशी की बात थी . दीदी दुनियाभर के बच्चों पर ममता व स्नेह लुटाती रहीं .प्रतिफल कैसे न मिलता . फिर अपने ग्वालियर ट्रांसफर , बच्चों की शिक्षा व दूसरी कई उलझनों के बीच उनसे सम्पर्क नहीं हो पाया . हाँ कभी कभार हवा के साथ उड़ आए सूखे पत्तों की तरह समाचार मिलते रहे ,कि चार पाँच साल के रवि को दीदी साथ छोड़कर उनके पति चल बसे ...कि दीदी शिवपुरी आगयी हैं ...कि रवि को बारहवीं कक्षा पास कराने के लिये वे ग्रामीण क्षेत्र के हायर सेकेण्डरी स्कूलों के चक्कर काट रही हैं ताकि वह परीक्षा पास करले .

बच्चों की शादी के बहाने दीदी से फिर सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे रवि के कारण काफी परेशान हैं . यही नहीं बीमार भी रहने लगी हैं . ग्वालियर में ही उनका इलाज चल रहा है . बीमारी की बात चिन्ताजनक थी पर रवि से परेशान हैं ,यह जानकर और भी चिन्ता हुई क्योंकि परेशान होना वे नहीं जानती थीं . 

"रवि को सबकुछ मालूम होगया है ." --दीदी ने चिन्ता का कारण बताया तो मुझे भी हैरानी हुई .असल में रवि दीदी का अपना बेटा नहीं था .उसकी कहानी शिवपुरी के अस्पताल में उस दिन शुरु हुई जिस दिन कोई झाड़ियों में से एक नवजात को उठाकर लाया था . उसकी साँसें चल रही थीं पर बहुत बुरी हालत थी .शरीर में तमाम काँटे चुभे थे ,चींटियाँ भी काट गईं थीं . दीदी ने उस मासूम को देखा तो रो पड़ीं और उस अभागे शिशु को अपनी ममता के अंचल में छुपा लिया और वैसे भी उनकी अपनी सन्तान तो थी नहीं इसलिये उसे ही अपनी खुशियों का आधार बना लिया . पति के रहने तक सब कुछ अच्छा था . रवि को अपनी सच्चाई की भनक तक नहीं थीं .

रवि को पता चल गया है कि मैंने उसे जन्म नहीं दिया . पता नहीं किसने बताया ..”---दीदी ने बताया . वे सचमुच परेशान थीं .  

यह जानने के बाद वह एकदम बदल गया है . बहुत अजीब बातें करता है . कड़वे जबाबा देता है पर सबसे बड़ा दुख यह कि इस बात का इस्तेमाल वह अपनी इच्छाओं को पूरी करवाने में करता है . ज़रा कमी रह जाए तो ताना देता है कि हाँ मेरी बात क्यों मानोगी ,मैं कोई सगा बेटा थोड़ी हूँ ...तुम्हारा अपना बेटा होता तो क्या तुम मेरे साथ भेदभाव रखतीं , अलमारी को ताला लगाकर रखतीं .?”-- बताते हुए दीदी की आँखें पनीली सी होगईँ . मुझे हैरानी हुई . दीदी का स्नेह पाकर तो गैर बच्चे भी खिल उठते हैं फिर रवि ने तो आँखें ही दीदी की गोद में खोलीं थीं .,भरपूर स्नेह पाया ..फिर कैसे उसे दीदी से मोह नहीं है .

मोह तो बहुत है .-दीदी ने कहा -- मेरे बिना वह रह भी नही सकता पर अपनी माँग पूरी करवाने जमीन आसमान एक कर देता है .मुश्किल यह है कि अब मुझे उसकी ज्यादा परवाह करनी पड़ती है . हर समय यह ध्यान रहता है कि किसी तरह वह आहत ना हो  वह जो पहनना चाहता है ,खरीद कर देती हूँ जैसा खाना चाहता है ,बनाती हूँ . फिर भी चाहे जब नाराज हो जाता है .क्यों नही समझता कि जो कुछ मेरा है वह उसी का तो है .

दीदी ,जबकि वह आपकी भावनाओं को समझ नहीं रहा है ,आप थोड़ी सख्त बनें .उसकी हर माँग पूरी करेंगी तो उसका हौसला बढ़ता रहेगा .---–मैंने कहा था तो बोलीं---सख्ती दिखाती हूँ ,तो रोने लगता है . और वही बात दोहराता है कि मैं आपका सगा बेटा नहीं हूँ .क्या करूँ मुझसे उसके आँसू नहीं देखे जाते . पता नहीं कैसे जिन्दगी बसर करेगा ?”- उनका स्वर पीड़ा की आँच से पिघल रहा था . स्नेह पर अटूट भरोसा करने वाली दीदी यही समझती रहीं कि अभी बच्चा है ,भ्रमित है ,बड़ा होकर सब समझ जाएगा . लेकिन रवि ने दीदी के कोमल विश्वास को निर्ममता से तोड़ दिया . आम बोने पर बबूल उगने की यह पहली कहावत बन रही थी जो प्रचलित कहावत के एकदम विपरीत थी .

 दीदी आपने अपनी अन्तिम सारी धनराशि भी रवि के नाम करदी . कम से कम उसे जाते जाते उसको मनमानी करने का सामान तो न देतीं .उसने तो आपनी भावनाओं को ज़रा भी नहीं समझा ..!” –मैंने कहा था तो बोलीं ----पीछे समझेगा .. याद तो करेगा कि माँ ने उसे कभी पराया नहीं माना... अपने ममत्त्व से मिली चोट से दीदी बुरी तरह टूट गईं थी . पहलीबार उनके मुँह से निकला –मुझे नहीं मालूम था कि अच्छे का परिणाम इतना बुरा मिलता है . पहलीबार ही मुझे भी जिया के निर्णय पर अफसोस हुआ . क्या पता दीदी अपनी पसन्द के युवक से ही विवाह कर लेतीं तो शायद ऐसी दुर्दशा न होती .पानी का वह सहज प्रवाह , जो कभी किसी रुकावट से नहीं ठहरा था , एक दुर्भेद्य दीवार ने बाँध लिया . एक अथाह जल में वे छटपाटाती रहीं . वह विकलता उनके प्राणों के साथ ही खत्म हुई .

उनके भाई का सन्देश पढ़कर आँसुओं के साथ एक गहरी आह निकली कि रेखा दीदी का क्या दोष था ? क्या लोगों को परख न पाने का ? क्या मूक रहकर सब सह जाने का ? को तैसा उत्तर न दे पाने का ? एकमात्र प्रेम को ही हर समस्या समाधान समझने का ?..या बहुत उचित और आवश्यक होने पर भी किसी को ना न कह पाने का दोष ? काश दीदी ज़रूरी होने पर तो 'ना' कहना सीखी होतीं ..काश वे स्वयं को भी महत्त्व दे पातीं .



गुरुवार, 29 जुलाई 2021

फुनगियों पर उतरती धूप



मम्मी ...!”

ईशान बिस्तर में से ही चिल्लाया . उसकी आँखें बन्द थीं और सिर तक चादर ओढ़े हुए था मतलब सीधा था कि वह अभी सोना चाहता था . ईशान को बचपन से ही सुबह देर तक
जागने की आदत है .फिर चाहे उससे गरमागरम जलेबियों का नाश्ता क्यों न छूट जाए ..या रौनक पापा के साथ नहर तक सैर कर आए और उसे चिढ़ाते हुई बताए कि सैर में उसे बहुत मज़ा आया . उसने बेहद खूबसूरत सारस का जोड़ा देखा . जो जागत है सो पावत है जो सोवत है सो खोवत है ..


जा जा अपनी कहावतों का ज्ञान कहीं और जाकर बाँट मेरी नानी ...

दस-बारह साल से ईशान बाहर ही रहा है . . पहले बी. टेक. और एम टेक के लिये और नौकरी के कारण.. अभी हफ्ताभर पहले ही वह बैंगलोर से आया है . वहाँ एक मल्टीनेशनल कमपनी में शानदार नौकरी है...बढ़िया फ्लैट ..सारी सुविधाएं ..लेकिन करोना संक्रमण के कारण हुए ल़ॉकडाउन में कम्पनी ने घर से ही काम करने की अनुमति दे दी है . माँ ने आग्रह किया कि अपने घर आकर ही काम करले . इसी बहाने कुछ साथ रह लेगा ..कितने सालों से साथ रहने का मौका ही नहीं मिला .  

मैट्रो सिटी की जिन्दगी और कम्पनी में काम करने के समय ने ईशान की सुबह देर तक सोते रहने की आदत को और मजबूत कर दिया है . बैंगलोर में फ्लैट बन्द करने  के बाद बाहर की कोई आवाज नहीं आती . वैसे भी वहां इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके कारण किसी को परेशानी न हो . लेकिन यहाँ तो पूरी गली जैसे हमारे घर से निकलती है . साइकिल भी निकले तो उसकी खट् भी सुनाई देती है . फिर कभी रद्दी वाला तो कभी दूध वाला ....तो कभी कोई बच्ची मीठे नीम के पत्ते माँगने आजाती है ..और पड़ोस के माधौ का बेटा तो चाहे जब शिवरात्रि के मेला से खरीद लाई पुंगी को जब तब बजाता रहता है—पीं ...पीँ ...पीँ

मम्मी ,लाली आंटी से कहो कि थोड़ी देर से आया करें ..—ईशान ने आने के दूसरे ही दिन कह दिया ---हद है यार, पाँच बजे ही दरवाजा खटखटा देती हैं ..और इस डब्बू को तो मैं देखता हूँ ..खिड़की के पास खड़ा मेरे कान पर ही बजाता रहता है –पीं ..पीं..पीं .......

 ईशान  ,ये सब जल्दी सो जाते हैं .—माँ ने हंसकर कहा --- तू भी रात में जल्दी सो जाया करो जल्दी सोना जल्दी जागना अच्छी सेहत के लिये बहुत जरूरी है .सुबह हवा ज्यादा साफ और ठण्डी होती है ...”

ओहो मम्मी , मुझे पता है लेकिन अच्छी सेहत के लिये नीद पूरी भी होनी चाहिये ....ईशान चादर ओढ़कर सो जाता है . माँ की बात उसके लिये वैसी ही है जैसे कोई धूप से कहे कि यहाँ मत आना ..उधर कोने में फैल जाना या कोई से कहे –-बादल भैया  आ जाओ पेड़-पौधे तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं ....

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मम्मी ..!”

ईशान ने दोबारा पुकारा तो गौरी उसके पास पहुँची . देखा ईशान आँखें खोलने की कोशिश करता हुआ नाराजी  बैठा था . बाहर गली में कालू एक अपरिचित बछड़े को देख जोर से भौंक रहा था मानो पूछ रहा हो –क्यों भई कौन हो ? कहाँ के हो ?...इधर कैसे आए ?”

अब क्या हुआ ईशान ?”

कुछ नहीं ,मैं किसी दोस्त के घर चला जाता हूँ .---ईशान टीशर्ट पहनते हुए कमरे से बाहर निकला . पर बाहर निकलते ही उसकी नजर नीम की शाखा पर बैठी गिलहरी पर पड़ी जो लगातार बोले जा रही थी---चुक्क..चुक्क ...जैसे कोई पत्थर तराश रहा हो .....कितनी ही चिड़ियों की चहचहाहट से पूरा पेड़ गूँज रहा था .

ईशान ने देखा पेड़-पौधों ,गली—चौबारों की आँखें खुल गईं .ओस में भीगी चादर को धूप ने फुनगियों पर फैला दिया वह उड़कर छत और आँगन में आ गिरी थी . मुँड़ेर पर सुनहरी धूप फैल गई थी . आसमान में तमाम पक्षी में कल्लोल करते जा रहे थे . नीम की शाखों पर दो-तीन गिलहरियाँ सरपट दौड़ती हुई छू छुआवल खेल रही थीं . ...उधर टहनियों में गौरैया फुदक रही थी ,पंडुकी शायद अपने साथी या बच्चे को पुकार रही थी और बुलबुल अपने बच्चों को चुग्गा लाई थी तो खूब छीना-झपटी और मीठी मान मनौवल चल रही थी ....

हद है यार . इतनी सुबह हड़कम्प मचा रखा है ..इन्हें कौनसे ऑफिस जाना है जो .....इस बार ईशान के शब्दों में शिकायत थी पर भावों में कुछ और ही था . माँ ने उसके कोमल भाव को ताड़ लिया . हँसकर बोली ---

अब इन्हें रोक सकते हो तो रोको ...

नहीं माँ इन्हें रोकने का मतलब तो सुबह को रोकना होगा ,धूप को उतरने से रोकना होगा ..और यह हमारे वश में कहाँ ...

यह कहते हुए ईशान गिलहरी की तरफ देख मुस्करा उठा .

.


गुरुवार, 20 मई 2021

ग्यारह वर्ष का समय

19 मई  2021

शीर्षक पढ़कर आपको  शायद आचार्य शुक्ल की कहानी याद आ रही होगी लेकिन यह कहानी नहीं वह अवधि है जिसमें मैं काकाजी को याद करते-करते जिया ( माँ ) को भी खो चुकी हूँ . आज उन्हें गए पूरे ग्यारह वर्ष होगए हैं  . उनको याद करते हुए मैंने कई संस्मरण लिखे हैं . आज उनके लिये लिखी सबसे पहली रचना को पुनः प्रस्तुत कर रही हूँ .  


पिता से आखिरी संवाद
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(1)
आज ..अन्ततः,
तुमने अलविदा कह ही दिया ।
मेरे जनक ।
सब कहते हैं.....और ..मैं भी जानती हूँ कि,
अब कभी नहीं मिलोगे दोबारा..
लेकिन आज भी,
जबकि तुम्हारी धुँधली सी बेवस नजरें,
पुरानी सूखी लकड़ी सी दुर्बल बाँहें,
और पपड़ाए होंठ,
बुदबुदाते हुए से अन्तिम विदा लेरहे थे,
मैं थामना चाह रही थी तुम्हें,
कहना चाहती थी कि,
रुको,..काकाजी ,
अभी कुछ और रुको
शेष रह गया है अभी ,
बाहों में भर कर प्यार करना ,
अपनी उस बेटी को ,
जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
दौड़-दौड़ कर पीछा किया करती थी,
तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
रास्ता छोटा हो जाता था
तुमसे गिनती सीखते या
सफेद कमलों के बीच तैरती बतखों को देखते
आज भी.....दुलार को तरसती तुम्हारी वही बेटी
अकेली खड़ी है उन्ही सूनी पथरीली राहों पर ,
अभी तक पहली कक्षा में ही,
आ ,ई , सीखती हुई ,
तलाश रही है राह से गुजरने वाले
हर चेहरे में ।
तुम्हारा ही चेहरा ।
भला ऐसे कोई जाता है
अपनी बेटी को,
सुनसान रास्ते में अकेली छोड़ कर ।

(2)
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यूं तो अब भौतिक रूप से,
तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीडा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।
लेकिन अजीब लगता है
फूट पडना नर्मदा का
यों थार के मरुस्थल में
पूरे वेग से ।
स्वीकार्य नही है
तुम्हारा जाना
जैसे चले जाना अचानक धूप का
आँगन से, ठिठुरती सर्दी में ।
बहुत अखरता है,
यूँ किसी से कापी छुड़ा लेना
पूरा उत्तर लिखने से पहले ही ।
और बहुत नागवार गुजरता है
छीन लेना गुड़िया , कंगन ,रिबन
किसी बच्ची से
जो खरीदे थे उसने
गाँव की मंगलवारी हाट से ।

(3 

स जीवन के नैसर्गिक अन्त के पहले ही

शायद होने लगता है,

अगले जीवन का आरम्भ ।

विस्मृत होजाती हैं दैहिक (वैचारिक भी) अनुभूतियाँ ।

फर्क नहीं पडता कि,

मल-मूत्र साफ करने वाला स्त्री है या पुरुष

बेटा है या बेटी....

तभी तो ,

तुम होगये थे शिशु जैसे अबोध ।

और तुम्हारी बेटी

माँ जैसी विशाल ..उदार ।

एक ,पिता के पुत्रवत् होजाने..

और एक पुत्री के मातृवत् होने की यात्रा,

एक अद्भुत गाथा है,

स्रष्टि के अलौकिक स्नेह की..


रविवार, 9 मई 2021

माँ एक नदी


माँ , एक नदी
अनन्त जलराशि
ह्रदय में समेटे 
अविराम बहती है .

 धरती को अमृत से
अनवरत सींचती है
माँ जैसा भाव लिये ,
चुपचाप बहती है ।
चट्टानों, रोडों को
अनजाने मोडों को
निर्विकार सहती है ।
माँ एक नदी ,

साँस लेते हैं 
कितने ही जीवन 
उसकी गोद में 
आराम से  .
धरती का  सौन्दर्य
हराभरा रहता है  .
धारा में  पानी के साथ साथ  
विश्वास बहता है . 
हालाँकि
नदी के शान्त विस्तार में 
उभर आते हैं  जब कई टापू
 यहाँ--वहाँ
तोअविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है , जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
सूखने लगता है
किनारों का विश्वास

लेकिन  तब भी  नहीं होती है
क्षीण , मन्थर..
उसकी सींचने की प्रवृत्ति
नहीं भूलती  नदी भी 
धरती को नम और हरी भरी 
बनाए रखने का संकल्प 
पानी की आखिरी  बूँद तक   .
माँ की ही तरह..।
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शनिवार, 3 अप्रैल 2021

तुम अतुलनीया

जिया की याद में --

 

नफरत को अनदेखा करके
मन में बचाए रखना
केवल स्नेह  ,
प्रतिशोध व ईर्ष्या की जगह 
हदय में निरन्तर  निस्रत
वात्सल्य ..प्रेम , ममत्व .
और ,
कटुता को भुलाकर हर जगह 
खोजना  केवल माधुर्य ---
यह तुम्हारी  ही दृष्टि थी माँ !

जब हम तुम्हारी तरह से सोचते थे
तब कितना आसान था सब कुछ ।
सब कुछ यानी --
कुछ भी मुश्किल नही था , 
कुछ भी...
जब से हम अपनी तरह सोचने लगे हैं
सन्देह व अविश्वास लग गया है हमारे साथ ।
हमें दिखते हैं केवल दोष ,अभाव
महसूस होते हैं ,
अपनों में  छल और दुराव
मन होगया है ,
गर्मियों वाले नाले की तरह ।
कद-काठी से छोटे दुशाले की तरह ।
अब समझ में आता है कि
हमारे आसपास क्यों है इतनी अशान्ति
श्रान्ति और क्लान्ति
और यह  भी कि ,
क्यों तुम्हें
अतुलनीया कहा जाता है माँ !